Friday 28 December 2012

उतावली नहीं तैयारी करें



हम सब अपने-अपने क्षेत्र में श्रेष्ठ एवम सफल होना चाहते हैं और क्यों न हो यही तो जीवन-पुरुषार्थ है। जीने का यही वो ज़ज्बा है जो आत्म-संतुष्टि भी देता है तो जीने को आसान भी बनाता है। यों कहने को हम सब अपने-अपने कामों में इतने व्यस्त है की हमें साँस तक लेने की फुर्सत नहीं, बावजूद इसके न तो हमारा काम हमारी सफलता की कहानी कहता है और न उसमें श्रेष्ठ होने की ललक दिखाई पड़ती है। येन-केन-प्रकारेण भौतिक सुविधाओं का संग्रह सफलता होती तो फिर सहज सरल जीवन और आत्म-संतुष्टि हमारी जिन्दगी से ऐसे गायब न होते जैसे गधे के सिर से सींग। 

जीवन की इस क्लिष्टता और मन के इस खालीपन की वजह जो मुझे नज़र आती है वह यह कि हमें अपने सफल होने की उतावली तो बहुत है पर उसकी तैयारी को हम तैयार नहीं। इसके लिए जिम्मेदार एक तरफ तो अहंकार का आवरण लिए हमारी अकर्मण्यता है तो दूसरी ओर अवचेतन में गहरी पैठी हुई मान्यताएँ और आखिर में काम को करने के तरीकों के प्रति हमारा नजरिया।

कोई भी बदलाव तकलीफदेह प्रक्रिया से गुजरे बिना सम्भव नहीं चाहे वह व्यक्ति का हो या स्थिति का। हम अपने सुरक्षा घेरे से बाहर निकल रास्ते की अडचनों से दो-दो हाथ करने से कतराते है और हमारा अहम् इसके लिए इन जुल्मों का सहारा लेता है जैसे, 'मुझे सब मालूम है', 'तक़दीर ही साथ नहीं देती' आदि-आदि। हमें इस छलावे से छुटकारा पाकर यह समझना होगा कि यदि काम हमारे मन का है तो छोटी-छोटी असफलताएँ ये नहीं बताती कि वो काम हम कर सकते है या नहीं या हमारे तक़दीर में है या नहीं बल्कि सिर्फ हमें चेताती है कि अभी हमें और तैयारी की जरुरत है। वास्तव में ये असफलताएँ नहीं रास्ते की अडचनें है जो हमें जीवन के वे पाठ पढ़ने आती है जिसके बिना सफल हो पाना मुमकिन नहीं।

सफल होने की राह का इससे भी बड़ा रोड़ा हमारी वो मान्यता है जो कहती है कि समय से पहले कुछ नहीं मिलता चाहे हम कुछ भी कर लें। इसकी तह तक जाने के लिए मैं आपके साथ एक छोटी सी घटना साझा करना चाहता हूँ। एक राहगीर एक गाँव गुजर रहा था। उसने गाँव ही के एक आदमी से पूछा कि उसे पास के गाँव तक पहुँचने में कितना समय लगेगा। वह कुछ न बोला। उसने वापस पूछा, तब भी वही बात। ऐसा दो-तीन बार हुआ। आखिर झुंझला  वह अपनी राह हो लिया। मुश्किल से दस कदम चला होगा कि पीछे से आवाज़ आई, 'दो घंटे लगेंगे'। राहगीर  उस ग्रामीण के पास वापस आकर पूछा,'मैं तुम्हें इतनी देर से यही बात पूछ रहा था, तब तो तुमने कोई जवाब नहीं दिया, अब क्यों बता रहे हो?' ग्रामीण बोला, 'जब तक मैं तुम्हारी चाल नहीं देख लेता, कैसे बताता कि कितना  लगेगा।' यदि उस राहगीर को जल्दी पहुँचना है तो अपनी बढानी होगी। यदि समय की गणना हम दिन-महिनों-वर्षों से नहीं बल्कि तैयारी से करें तो यह बात सोलह आने सच है कि समय से पहले कुछ नहीं मिलता। अपनी तैयारियों को दुरुस्त कीजिए, समय आपकी मुट्ठी में होगा।

हमारी उतावली तब भी झलकती है जब हम कह  होते है कि 'किसी भी तरह मुझे वह करना है'। कोई भी काम कभी किसी तरह नहीं होता सिर्फ और सिर्फ एक तरह से ही हो सकता है। किसी भी काम को गलत करने के हज़ार तरीके हो सकते है, सही करने का सिर्फ एक तरीका होता है। सही तरीका हमेशा लम्बा,  मेहनत भरा और थकाऊ होता है पर इस कीमत को चुकाए बिना श्रेष्ठ एवम सफल हो पाना संभव नहीं।

अपने-अपने क्षेत्रों में श्रेष्ठ होने की ललक ही आपको सच्चे अर्थों में सफल बनाएगी क्योंकि ये सफलता, सहज-सरल जीवन और आत्म-संतुष्टि के साथ आएगी। यदि सफलता को जिन्दगी का स्थायी रस बनाना है तो उतावली नहीं तैयारी करें।


(रविवार, 23 दिसम्बर को दैनिक नवज्योति में प्रकाशित)
आपका
राहुल ..........        

Saturday 22 December 2012

छोटी चाबी बड़ा खजाना




" जो रुकना जानता है वही खतरों से बचता हुआ लम्बा चल पाता है। "                                 -- लाओत्से 
                                                                                                           ( ताओ ते चिंग - सूत्र 44 से )


चढना,उठाना, बढ़ना इंसान की प्रकृति है, यही सिखाया भी जाता है और ठीक भी माना जाता है लेकिन उतरना चूँकि उसकी प्रकृति के विरुद्ध है और लोक-जीवन में इसे असफलता का पर्याय समझा जाता है इसलिए न तो व्यक्ति सीखना चाहता है और न ही इसे ठीक माना जाता है, लेकिन क्या ये सचमुच इतना गैर-जरुरी है? हम अपने चारों ओर नज़र घूमाकर देखें तो ऐसे कई महान खिलाडी, अभिनेता, राजनीतिज्ञ वगैरह मिल जायेंगे जिन्हें रुकना नहीं आया और उनकी विदाई उतने सम्मानजनक ढंग से नहीं हो पाई जिसके वे सचमुच हकदार थे। यहाँ तक कि उनका अपने आपको थोपना उनकी उपलब्धियों को कम कर गया।

एक पर्वतारोही की सफलता पर्वत के शिखर तक पहुँचने में होती है लेकिन क्या तब वो सिर्फ पहाड़ पर चढ़ना ही सीखें। कल्पना कीजिए उसने ऐसा ही किया तो क्या होगा? वह चोटी पर पहुँच तो पाएगा लेकिन वहीँ रह जाएगा, जिन्दगी से बहुत दूर। हकीकत तो यह है कि एक पर्वतारोही को चढ़ने की बजाए उतरने की ज्यादा तैयारी करनी होती है क्यांकि उतरना ज्यादा जोखिम भरा होता है। एक तो चढने की थकान दूसरी लक्ष्य-हीनता और ऊपर से फिसलने का डर।

मेरी ही एक कमजोरी ने इस सच से मेरा वास्ता करवाया; सभी कहते थे कि मैं अच्छा बोलता हूँ लेकिन मुझे दुःख होता था कि फिर मेरी बात उतनी प्रभावी क्यों नहीं होती? धीरे-धीरे समझ आया कि मुझे सही समय पर अपनी बात ख़त्म करना नहीं आता था। आज भी श्रम जारी है। अब लगता है यह बात तो जीवन के हर पहलू पर जस की तस लागू होती है चाहे वह हमारी सफलता-समृद्धि जैसी महत्वपूर्ण बातें हो या फिर रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातें जैसे 'पसंद का खाना हो तो भी कितना खाएँ' या 'कितने घंटे काम करें' या फिर 'घूमने ही कितने दिनों के लिए जाएँ' वगैरह-वगैरह। किसी भी चीज का आनन्द भी तभी आता है जब हमें सही समय पर रुकना आता हो।

अब सफलता को ही ले लीजिए। कौन नहीं चाहता कि उसकी सफलता का ग्राफ ऊपर उठता ही चला जाए लेकिन क्या कभी ऐसा हुआ है? हर व्यक्ति का एक दौर और हर विचार का एक समय होता है उसके बाद उसकी जगह नए व्यक्ति और नए विचार लेते है। इसका मतलब यह कतई नहीं कि वह व्यक्ति चूक गया है। यह तो प्रकृति का आधारभूत नियम है इसलिए वह किसी भी तरह अपने आपको दोषी ठहराए या मन में हताशा का कोई भाव लाए इसका तो कोई कारण ही नहीं बनता। उल्टा वे व्यक्ति जो अपनी असफलता के दौर में ही इस बात को समझ लेते है और अपने थमने की तैयारी रखते है वे ही लम्बे समय तक याद रखे जाते है। अच्छा रहता है, हम जाएँ तो कोई हमें रोके, हमारे जाने के बाद हमारी कमी महसूस करे बनिस्पत इसके कि कोई ये सोचे कि हम जाते क्यूँ नहीं?

इससे दीगर सबसे अहम् बात यह है कि आप सफल ही होते चले गए तो सफलता का आनन्द कब लेंगे। यह तो ठीक वैसी बात है कि स्वादिष्ट खाने को इतने जतन से बनाया कि जब खाने की बारी आई तब थक कर नींद आ गई।

अपनी प्रकृति और अहं के विरुद्ध इस गुण को अपनाने की शुरुआत हम रोजमर्रा की छोटी-छोटी कोशिशों जैसे कितना खाएँ, बोलें या काम करें, से कर सकते है। इस तरह सही समय और सही जगह पर रुक पाना हमारे स्वाभाव में शामिल हो जाएगा और हम सफलता और समृद्धि जैसे जीवन के महत्वपूर्ण एवम नाजुक विषयों को भी कुशलता से संभल पाएँगे। ये उस बड़े खजाने की छोटी सी चाबी है जिसमें प्रभावशाली और आनन्दमय जीवन का राज छुपा है।


( रविवार, 16 दिसम्बर को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका
राहुल .......... 

Friday 14 December 2012

आम आदमी और ईमानदारी



आज इस समय जब देश में सबसे अहम् मुददा भ्रष्टाचार बना हुआ है तब सबसे ज्यादा दुविधा में है तो वह है आम-आदमी। उसकी स्थिति बिल्कुल 'एक तरफ कुआँ और एक तरफ खाई' जैसी है। यहाँ तक कि वो ईमानदारी की परिभाषा को लेकर भी भ्रमित है। यह भी सच है कि भ्रष्ट कोई होना और कहलाना नहीं चाहता क्योंकि भ्रष्ट कोई पैदा नहीं होता। हमारी ही व्यवस्था के कुछ नियम-कानून इतने अव्यावहारिक और कुछ इतने अप्रासंगिक हो चले है कि उन्हें निभाते हुए एक आम-आदमी के लिए अपनी जिन्दगी की गाड़ी ढंग से चला पाना लोहे के चने चबाने से कम नहीं, खासतौर से वे नियम-कानून जो उसके जीविकोपार्जन से जुड़े है।

यही उसकी दुविधा है कि यदि वह नियमों की व्यावहारिक अवहेलना करता है तो भी वह बेईमानों की उस श्रेणी में शामिल हो जाता है जो अपने पद और अधिकारों का नाजायज फायदा उठा देश और समाज को खोखला कर रहे है तो उसके लिए अपने पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों को सम्मानपूर्वक निभा पाना संभव नहीं। अब हर किसी व्यक्ति का जिन्दगी के प्रति नजरिया एक समाज-सुधारक का हो यह न तो संभव है और न ही उचित, और फिर यह व्यक्ति का मौलिक अधिकार है कि वह स्वयं चुने कि वह अपनी जिन्दगी कैसे जिएगा?

सबसे पहले तो यह विचार करना होगा कि नियम-कानून बनाए ही क्यूँ जाते है? नियम-कानून देश और समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना और रक्षा के लिए बनाए जाते है ठीक उसी तरह जिस तरह माता-पिता अपने बच्चों में अच्छे संस्कारों के लिए घर में अनुशासन का वातावरण बनाते है। साफ़ जाहिर है कि नियम परक होने से ज्यादा अहम् है नीति-संगत होना। नीति-संगत वही है जिसके कर्म उसके प्राकृतिक गुणों यानी दया, प्रेम, करुणा और समानता के रंगों में रंगे हो या सीधे-सच्चे शब्दों में जो किसी का बुरा न चाहे। व्यक्ति कुछ भी करे तो उसे अपने हित के साथ यह भी ध्यान रहे कि इसमें किसी और का अहित तो नहीं। इस तरह नियमों को नैतिक मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में समझते हुए हमें ईमानदारी की नई परिभाषा गढ़नी होगी। अपने जीवन में मूल्यों को नियमों के ऊपर रखना होगा। ईमानदार व्यक्ति वह है जिसका आचरण नीति-संगत है चाहे पूरी तरह नियम-परक न हो।

मैं अपने इस दृष्टिकोण के पक्ष में आपसे इतना पूछना चाहता हूँ की क्या नमक कानून तोड़ने वाले गाँधी से, गुलामी प्रथा का विरोध करने वाले अब्राहम लिंकन से और म्यांमार की सरकार को सरकार ही न मानने वाली आन सानं सू की से सद्चरित्र और ईमानदार भला कोई हो सकता है? लेकिन यह भी सच है कि हर व्यक्ति के लिए व्यवस्था के विरोध में खड़े हो पाना सम्भव नहीं इसलिए आपको एक बात विशेष रूप ध्यान रखनी होगी कि आप अपनी मान्यताओं का अनावश्यक प्रचार न करें। ऐसी मान्यताएँ जो नीति-संगत तो है लेकिन पूरी तरह नियम-परक नहीं वरना आप अपने और अपने परिवार के लिए मुसीबतें खड़ी कर लेंगे और आपका जीना दूभर हो जाएगा।

आपका जीवन मूल्यों पर आधारित हों और कर्म प्राकृतिक गुणों से रंगे। यदि आपका आचरण नीति-संगत है चाहे पूरी तरह नियम-परक नहीं तो भी आप शत-प्रतिशत ईमानदार है। कोई कारण नहीं बनता कि आप अपने मन में किसी तरह का ग्लानि-भाव रखें। ऐसा जीवन जी कर आप महापुरुषों के बताए रास्ते पर ही चल रहे होंगे।


( जैसा कि रविवार, 9 दिसम्बर को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका 
राहुल ........   



Friday 7 December 2012

आत्म-सम्मान ~ पहला धर्म




        .......... और कसाब को फाँसी हो गई। पहली बार किसी के मरने पर अच्छा  रहा था। हर चेहरे पर एक मुस्कान तैर रही थी कुछ लोगों ने तो पटाखे छोड़े और एक-दूसरे को मिठाइयाँ खिलाई। मुझे भी पक्का विश्वास था कि मेरा खुश होना जायज है लेकिन इस घटना ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर कसाब की फाँसी ने एक आम आदमी को ऐसा क्या लौटा दिया कि पूरा देश एकजुट होकर उसके फाँसी चढ़ जाने का जश्न मना रहा था?

हम आज तक स्वयं के ईश्वर की अभिव्यक्ति, क्षमा के सबसे सुन्दरतम भाव, चेतना के भिन्न स्तरों की बात करते आये है फिर उसका गुनाह अक्षम्य क्यूँ था? क्या उसका गुनाह केवल बेगुनाहों की मौत था या उससे बढ़कर और कुछ था? सवाल है तो जवाब भी होगा और आखिरकार अन्तस में बैठा मिल ही गया और वह है ; आत्म - सम्मान। वह हमला किसी व्यक्ति पर नहीं देश के प्रत्येक व्यक्ति के आत्म-सम्मान पर था। उसने देश के हर नागरिक को लज्जित किया था कि कोई भी ऐरा - गैरा नत्थू - खैरा आएगा और जो चाहेगा करके चला जाएगा। कसाब की फाँसी ने हमारे आत्म - सम्मान को लौटाया।

आइए, थोडा पीछे लौटते है; कृष्ण जब धृतराष्ट्र के पास पाण्डवों के लिए 'पांच गाँव' का संधि-प्रस्ताव लेकर गए और कौरवों ने उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था तब क्या उन राजाओं की कमी होगी जो पांच गाँवों के बदले पाण्डवों की मित्रता और कृष्ण का सामीप्य पा लेते? क्या महाभारत पांच गाँवों को हासिल करने के लिए हुआ था? नहीं, कृष्ण के प्रस्ताव को ठुकराना पाण्डवों के आत्म-सम्मान को नकारना था और यही महाभारत की वजह थी। श्री कृष्ण ने हमें बताया कि आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए युद्ध ही अंतिम विकल्प हो तो उसे अपनाने में भी गुरेज नहीं होना चाहिए।

व्यक्ति के आत्म-सम्मान से बढ़कर कुछ नहीं। इतना अहम् की इसके लिए क्षमा, समानता और जीने के अधिकार जैसे आध्यात्मिक गुणों की अवहेलना भी जायज है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस परम सत्य के बावजूद कि हम सब परमात्मा की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है यानि हम सब में उस एक ही परमात्मा का अंश है, हम अभिव्यक्ति और अनुभूति के स्तर पर स्वतंत्र एवं भिन्न है और इसलिए हमारा पहला धर्म है अपने स्वयं के सम्मान की रक्षा कर उस परमात्मा का सम्मान करना जिसका हमारे भीतर मौजूद अंश हमारे जीवित होने की वजह है।

यदि हम भी अपने जीवन में किसी के आदर में स्वयं की अवहेलना करते है तो समझ लीजिये हमने आदर को सही अर्थों में समझा ही नहीं। आप ही सोचिये, जिनका हम आदर करते है क्या वे खुश होंगे जब उन्हें पता चलेगा कि हम वह सब कुछ अपना मन मारकर कर रहे है? ऐसा कर हम उलटा उनका दिल ही दुखाएँगे। ऐसे लोग जो चाहते है कि आप अपनी अवहेलना करके भी उनका आदर करें, सच मानिए वे आपसे प्रेम ही नहीं करते। वे या तो आपको अपनी अहं तुष्टि का या अपना काम निकालने का जरिया भर समझते है। ऐसे लोगों को अपनी  से खदेड़ निकालना अपने आत्म-सम्मान की रक्षा करना ही होगा। विश्वास मानिए, जो व्यक्ति आत्म-सम्मान से जीते है वे ही किसी का सच्चा सम्मान कर सकते है और एवज में सच्चा सम्मान पा सकते है।


(रविवार, 2 दिसंबर को नवज्योति में प्रकाशित)
आपका
राहुल........

Friday 30 November 2012

हर साज की अपनी तान




जिन्दगी है, परिवार है तो आवश्यकताएँ भी है और आवश्यकताएँ है तो उन्हें पूरा करने के लिए धन की जरुरत है और उसके लिए किसी ऐसे काम में होना जरुरी है जो हमें जरुरत का धन दिला सके इसलिए हम अपने जीवन में कौन सा काम करें इसका पैमाना उससे मिलने वाला धन होता है। ठीक लगता है लेकिन ये तर्क क्या सचमुच उतना ठीक है जितना लगता है? ठीक लगता है लेकिन ये तर्क क्या सचमुच उतना ठीक है जितना लगता है?  दिल की सुनें, अपने सपनों  को जिएँ .............ये सब क्या कहने-सुनने की बातें है?

इस कड़ी को थोडा आगे बढ़ाते है। कौन-सा काम हमें कितना धन दिलाएगा ये हम कैसे तय करते है? निश्चित रूप से, औरों को देखकर। फलाँ व्यक्ति ने फलाँ काम कर कितना पैसा कमाया। मुझे लगता है बाकी बातें तो अपनी जगह ठीक है पर बस इस आखिरी पायदान पर आकर हमसे गलती हो जाती है। आपकी समृद्धि सिर्फ और सिर्फ उसी काम से संभव है जो आपके लिए बना है। हो सकता है जिस व्यक्ति की सफलता और समृद्धि को देखकर आप काम चुन रहे हों वो उसके लिए बना हो, आपके लिए नहीं। निस्संदेह आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन की अनिवार्यता को नकारा नहीं जा सकता लेकिन इससे अधिक की तृष्णा वह भी यह सोचकर कि यह जीवन मैं खुशियाँ लाएगा, बिल्कुल बेतुकी है। खुश रहना व्यक्ति का आत्मिक भाव है इसका धन या किसी और बाहरी परिस्थिति से कोई लेना-देना नहीं। तो धूम-फिरकर प्रश्न फिर वहीँ आकर ठहर गया कि हम कौन सा काम चुनें? 

खलील जिब्रान कहते है, " बाँसुरी बन कर काम करें जिसके हृदय से घंटों फूँकने का जतन संगीत बनकर निकलता है। जिन्दगी का गूढ़ रहस्य है उसे मेहनत के जरिए प्यार करना। आपका काम आपके आत्मिक प्रेम का इजहार हो, यही संतुष्टि देगा।"

आप अपने जीवन में वो काम करें जिसकी आप बाँसुरी है और फिर एक दिन आपका काम स्वयं संगीत की तरह बोलने लगेगा। हर व्यक्ति हर काम की बाँसुरी नहीं होता। आप उस काम को चुनें जो आपको बजाकर उसमें से संगीत निकाल दें। जिसे आप रियाज की तरह कर सकें, जहाँ न समय का भान हो न भूख का और न ही परिणामों की कोई चिंता, बस इच्छा हो तो सिर्फ मीठी तान की। यही जीवन में खुशियाँ लाएगा, यही संतुष्टि देगा। दूसरी ओर, यदि भीतर झाँकें यानी आत्म का अध्ययन करें यानी अध्यात्म की नज़र से देखें तो पाएँगे कि व्यक्ति का सार-तत्त्व, उसकी मूल-प्रकृति है -- विशुद्ध प्रेम। कोई भी व्यक्ति या तो प्रेममय है और यदि किसी और स्थिति में है तो चाह प्रेम की ही है और यही सबूत है 'विशुद्ध प्रेम' के  प्रकृति होने का अतः स्वाभाविक और आवश्यक है कि हमारा काम हमारे प्रेम का इजहार हो। जब ऐसा होगा तब हम अपने काम में सिर्फ सर्वश्रेष्ठ होंगे।

व्यक्ति के साथ उसके काम का जन्म होता है इसलिए आपकी जिन्दगी की आवश्यकताएँ उतनी ही होती है जो उस काम से पूरी हो सकें या यों कह लें कि आपके काम में हमेशा ही उतनी क्षमता होती है कि वो उन्हें पूरा कर सकें। हाँ इतना जरुर है, व्यक्ति को ये स्वयं ही ढूँढना होता है कि वो किस तरह अपने पसंद के काम को अपने जीविकोपार्जन का साधन बना सकता है और यही व्यक्ति का सच्चा पुरुषार्थ है। आपकी बाँसुरी को सुनने वाले आप ही को  ढूँढने होंगे।


(जैसा कि रविवार, 25 नवम्बर को नवज्योति में प्रकाशित)
आपका,
राहुल........ 

Friday 23 November 2012

जीना इसी का नाम है





' जब मृत्यु आये तो आप चिरनिंद्रा के लिए जमीन की बजाय लोगों के दिलों में जगह की चाह रखें।'
                                                                                                                       -- रूमी 

दिवाली अभी तक ज़ेहन से गयी नहीं और जो बात रह-रहकर मन में उठ रही है वह है रावण की अमर होने की इच्छा। बात उठी तो उसने सोचने पर मजबूर किया कि क्या अमर होने की इच्छा गलत थी? गलत तो नहीं हो सकती क्योंकि हम सब भी तो कहीं न कहीं चाहते है कि अपने जाने के बाद याद रखे जाएँ और फिर हम सबके जीवन में ऐसे लोग रहे है जिनकी याद आज भी मुश्किल घड़ियों में हमें सम्बल देती है और उनका जीवन प्रेरणा। हमारी ऐसी चाह बिल्कुल निर्दोष है लेकिन रावण ने अमरता को जिन मायनों में समझा और फिर उसके लिए जो रास्ता अपनाया शायद वही गलत था जो अन्ततः उसके सर्वनाश का कारण बना।

रावण अपने शारीर के जरिए अमर होना चाहता था जो संभव ही नहीं। आप अमर हो सकते है किसी की यादों में और किसी को याद आएँगे उसके दिल में जगह बनाकर। आप ऐसा कुछ करें कि आपके जाने के बाद कोई आपके बारे में सोचे और एक विचार बनकर आप उसके जेहन में उपस्थित रहें। किसी के दिल में उतरना है तो सबसे पहले रावण की तरह बनाई अपनी झूठी छवि से मुक्ति पा अपनी मूल प्रकृति को जीना होगा। हम सब अलग-अलग तरह से अपनी एक छवि गढ़ लेते है। कोई अपनी सफलताओं को, कोई अपनी शारीरिक सुन्दरता को तो कोई अपने अर्जित ज्ञान को अपना परिचय बना लेता है। इस परिचय के अनुरूप ही हम व्यवहार करने लगते है; यह भूलकर कि हमारी प्रकृति है विशुद्ध प्रेम और हमारे व्यवहार सिर्फ प्रेम की उपज होने चाहिए। हम जब भी किसी से मिलें परिचय के इस बोझ को उतारकर पूरी आत्मीयता से मिलें। कोई आप से कुछ कह रहा है तो उसे अपना सम्पूर्ण अखंडित ध्यान दें। आप कुछ कहें तो वह खानापूर्ति के लिए नहीं हो बल्कि आप उसमें पूरा विश्वास रखते हों। दुनिया में किसी को भी दी जा सकने वाली इससे कीमती भेंट और कोई हो नहीं सकती। 

इस तरह आप लोगों के दिलों में उतर तो गए लेकिन वहाँ अपना पक्का ठौर बनाना है तो कुछ ऐसा कर गुजरना होगा कि उनके जीवन की कुछ खुशियों के कारण आप हों। निस्संदेह व्यावहारिक जीवन की अपनी मजबूरियाँ होती है अतः आपके काम सबसे पहले आपकी जरूरतें और जिम्मेदारियाँ पूरी करें लेकिन उसके एक छोटे से हिस्से का मेहनताना  सिर्फ दूसरों की खुशियाँ हो। गीता में इसे लोक-संग्रह के कार्य कहा गया है। ऐसे काम जो दुनिया के पहिए को घुमाने के लिए जरुरी हों। आप भी अपना अंशदान दीजिए। आप जिस भी क्षेत्र में है उसी में रहकर ऐसा कर सकते है, अलग से कुछ भी करने की जरुरत नहीं।

दूसरों की खुशियों के लिए किया छोटा-सा काम भी आपको इतनी आत्म-संतुष्टि देगा कि तब आप महसूस करेंगे कि इसे तो और किसी विधि से हासिल किया ही नहीं जा सकता। अपनी अभिव्यक्ति का आधार अपनी प्रकृति को बनाइए, प्रेम के केनवास पर जिन्दगी के चित्र उकेरिए। जब ऐसा होगा तो दूसरों के चेहरे की उदासी आपके मन को विचलित करने लगेगी और जिस दिन से ऐसा होने लगे समझ लीजिएगा आपने अमरता का रास्ता ढूंढ़ लिया। आपसे बात करते हुए मेरा मन फिल्म 'अनाडी' का वो सुंदर गीत गुनगुनाने लगा है ......

किसी की मुस्कराहटों  पे  हो निसार 
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार 
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार 
जीना इसी का नाम है ................  


(रविवार, 18 नवम्बर को नवज्योति में प्रकाशित)
आपका 
राहुल....... 

Friday 16 November 2012

उत्सव, एक जरुरत




इन दिनों हम भारत-वर्ष के सबसे बड़े धार्मिक-उत्सव मनाने में डूबे है। दिवाली पर ढेरों शुभकामनाएँ देते हुए मन कर रहा है कि आज हम तलाशे कि आखिर हम उत्सव मनाते ही क्यूँ है? क्या महज श्रद्धा ही इन परम्पराओं का कारण है या कुछ और भी? और यदि है तो वे किस तरह हमारे जीवन को प्रभावित करती है?

उत्सव चाहे कोई हो उन दिनों एक खास माहौल बनने लगता है जैसे इन दिनों रामायण पर आधारित कई धारावाहिक आ रहे है तो ख़बरों में जगह-जगह होने वाली विशेष रामलीलाओं की चर्चा है, शहर में जगह-जगह रावण के पुतले बनते नज़र आ रहे थे तो घरों में सफ़ाईयाँ  चल रही थी। इस खास माहौल की बदौलत हमारे अवचेतन में कहीं न कहीं श्री राम और उनका जीवन रहने लगता है। पिता की आज्ञा-पालन कर राम का राज-पाट छोड़ना, सीता-लक्ष्मण का साथ वनवास जाना, भरत का खडाऊ रख शासन चलाना................. राम की रावण पर विजय। ये सारी घटनाएँ  उन मूल्यों की याद दिलाती है जिन्हें अपने जीवन का आधार बना एक राजा ईश्वर बन गया। ये हमें भरोसा दिलाती है कि आखिर विजय उसी की होती है जो सत्य की राह पर चलता है और इस तरह आम जन-जीवन में मूल्यों की पुर्नस्थापना करना किसी भी उत्सव को मनाने की सबसे अहम् वजह होती है।

एक और खास वजह, उत्सव हमें अवकाश देते है अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी से। लियानार्डो डी विन्ची लिखते है, 'अवकाश आपके निर्णयों को पक्का और पैना बनाते है।' सच ही तो है, रोजमर्रा की जिन्दगी ने हमें घड़ी से बाँध दिया है। अपने काम को सही समय पर करने के लिए हम समय-प्रबंधन करते है लेकिन धीरे-धीरे काम और उसकी गुणवत्ता कहीं पीछे छूट जाती है वैसे ही जैसे निश्चित समय पर भोजन करने की प्रतिबद्धता के चलते भूख का अहसास द्वितीय हो जाता है। उत्सव इस दुष्चक्र को तो तोड़ते है ही साथ ही हमें अवसर देते है जहाँ से खड़े होकर हम अपने काम को समग्रता से देख सकें। जिस प्रकार पहाड़ की चोटी पर खड़े होकर अपने ही शहर को देखने पर उसकी खूबसूरती और कमियाँ साफ़ नज़र आने लगती है उसी तरह अवकाश के दिनों से अपने काम को समग्रता से देखने पर हमें साफ़ नज़र आएगा कि हमारे काम में कहाँ अनुपात बिगड़ रहा है और कहाँ लय टूट रही है।

एक सबसे छोटा दिखने वाला लेकिन सबसे महत्वपूर्ण लाभ -- उत्सव हमें अपने रिश्तों की मरम्मत करने का अवसर देते है। शायद इसीलिए हर धार्मिक उत्सव के बाद चाहे वह दिवाली हो, होली हो, ईद हो या क्रिसमस ; अपने प्रियजनों से मिल उनका अभिवादन करने की प्रथा है। एक-दूसरे से मिलने और अभिवादन की यह रस्म अदायगी धीरे-धीरे रिश्तों के बीच आई दीवार ढहाने लगती है।

इस तरह उत्सव हमारे जीवन मूल्यों की पुर्नस्थापना करते है, काम की गुणवत्ता लौटते है, हमारे निर्णयों को पहले से ज्यादा पैना बनाते है और सबसे अव्वल हमारे रिश्तों की मिठास को बनाए रखते है। उत्सव श्रद्दा से कहीं अधिक हमारी जिन्दगी की जरुरत है। ईश्वर करें यह दिवाली हमारे जीवन को और बेहतर बनाएँ।


( रविवार 11, नवम्बर को नवज्योति में  प्रकाशित )
आपका 
राहुल................   

Friday 9 November 2012

जिन्दगी के मौसम




प्रकृति से श्रेष्ठ कोई शिक्षक नहीं और इसके आश्चर्यों का आनन्द लेते हुए जीने से बड़ा कोई सुख नहीं। प्रकृति यानि बदलते मौसम। मौसम यानि जो कल था वो आज नहीं और जो आज है वो कल नहीं। निरंतरता की यही प्रवृति है प्रकृति की अद्वितीय सुन्दरता का राज। यही है हर सुबह की नई ताजगी और हर शाम की शीतलता की वजह। हमारे लिए ही गर्मियों के दिनों में सर्दी की कल्पना कर पाना कितना मुश्किल हो जाता है, इसी शिद्दत से जीती है प्रकृति अपने मौसमों को पर फिर धीरे-धीरे सर्दियाँ आने लगती है, कितनी सहजता से स्वीकार कर लेती है इस बदलाव को और उसी रंग-ढंग में ढल जाती है।

हम प्रकृति के इन रंगों के इतने अभ्यस्त हो चुके है कि इनसे सीखना तो दूर यह विविधता हमें आनंद-आश्चर्य भी नहीं देती। प्रकृति तो हर क्षण अपने आचरण से हमें याद दिलाती है कि जो कुछ जिओ उसे उस समय पूरी तरह डूबकर, कोई गिला बाकी न रहे लेकिन साथ ही यह भी याद रहे कि दुनिया में जिस किसी का भी अस्तित्व है तो उसके होने की वजह भी, तो जाने का समय भी। छोटी हो या बड़ी सबकी एक उम्र होती है लेकिन जिन क्षणों को भरपूर जिया हो उनकी विदाई आसान होती है। एक मौसम की सहज विदाई ही तो दुसरे मौसम के स्वागत का द्वार खोलती है और यही वो तरीका है जिससे हमारी जिन्दगी भी प्रकृति की तरह अद्वितीय सुंदर बन सकती है।

जिन्दगी के सबसे अहम् पहलू है हमारा काम और हमारे रिश्ते। दोनों के प्रति हमारा नज़रिया वही होना चाहिए जो प्रकृति का अपने मौसम के प्रति होता है। यह ठीक है कि हम वो करें जिसकी हमें दिल गवाही दे और तब काम, काम नहीं खेल बनकर रह जाएगा लेकिन कई बार हम व्यावहारिक कारणों के चलते अपने मनचाहे काम के अलावा किसी और काम में होते है या समय के साथ हमें अपना काम ही कम भाने लगता है। दोनों ही स्थितियों का जवाब प्रकृति में  छुपा है। पहले तो आप जिस भी काम में है उसे पूरे मन से कीजिए। पूरे मन से किया काम ही आपको सफलता देगा और यह सफलता ही आपको एक बार वापस अपने काम के चुनाव का अवसर देगी। मान लीजिए आप इंजिनियर है लेकिन चाहते है पेंटर बनना। सबसे पहले तो अपने मन में पेंटर बनने की इच्छा को जिन्दा रखते हुए इंजीनियरिंग के काम को अपना शत-प्रतिशत दीजिए। इंजीनियरिंग के क्षेत्र में आपकी सफलता आपको वो सब उपलब्ध करवाएगी जिससे आप अपने पेंटर बनने के सपनों को पूरा कर सकें, ठीक उसी तरह जिस तरह प्रकृति पूरी शिद्दत से हर मौसम को जीती है और यही अगले मौसम के आगमन का कारण बनाता है।

जिन्दगी का दूसरा अहम् पहलू है हमारे रिश्ते। किसी भी रिश्ते को तब भरपूर जियें जब आप उसमें हों, यही खुशियों भरे जीवन का राज है लेकिन हम या तो रिश्ते बनाने से पहले उत्साहित होते है या बाद में उन्हें याद करते है। रिश्तों को वर्तमान में जीते हुए भी जीवन में कई बार ऐसी स्थितियाँ बन जाती है कि उन्हें एक मोड़ दे देना ही एकमात्र विकल्प बचता है, तो इसमें कुछ गलत नहीं। आप ऐसा कर दोनों का भला ही कर रहे है लेकिन याद रहे न तो यह क्षणिक भावावेश हो और न ही बेहतर बेहतर रिश्ते की उम्मीद में उठाया कदम; यह स्थिर मन से अन्तरात्मा की आवाज़ पर किया निर्णय हो। किसी भी रिश्ते को महज इसलिए न निभाए कि यह आपका नैतिक दायित्व है वरना लोग क्या कहेंगे? रिश्ते जब कोरी जिम्मेदारी बन जाते है तो अपनी सुगंध खो देते है लेकिन अपनी जिम्मेदारी को नकारा भी नहीं जा सकता अतः रिश्तों को तब तक सहेजने की कोशिश करें जब तक उसमें आत्मिक ख़ुशी का एक भी रेशा बचा हो। एक बात ध्यान रखें रिश्ते परमात्मा का हमारा जीवन खुशियों से भर देने का साधन है लेकिन उसके पास साधनों की कोई कमी नहीं।

प्रकृति से मिली इसी सीख को श्री हरिवंश राय बच्चन ने बहुत ही सुन्दर और सार्थक शब्दों में पिरोया है, " पाप हो या पुण्य कुछ भी नहीं किया मैंने आधे-अधूरे मन से।"


(रविवार, 4 नवम्बर को दैनिक नवज्योति में  प्रकाशित)

आपका 
राहुल ........     

Friday 2 November 2012

संतुष्टि की संजीवनी




' काम को जल्दी में नहीं उसकी सम्पूर्णता के साथ कीजिए, छोटे-छोटे प्रलोभन आपको बड़ी उपलब्धियों से वंचित रख देंगे। '

                                                                                                                         -  कन्फ्यूसियस   


आचार्य चाणक्य को कहाँ जरुरत थी कि वे धनानंद से बदला लेने के लिए इतना प्रपंच करते। वे किसी तरह धनानंद को मरवा देते और उनका बदला पूरा हो जाता लेकिन क्या तब हम उन्हें इसी श्रद्धा और सम्मान से याद करते? निश्चित रूप से, नहीं। उन्होंने अपने अपमान को उस समय के समाज में गिरते हुए मूल्यों और देश की बदहाल कानून-व्यवस्था के प्रतीक के रूप में देखा और जुट गए नव-भारत निर्माण में। यही है काम को उसकी सम्पूर्णता के साथ करना।

आपकी बात बिलकुल सही है कि सभी महापुरुष तो नहीं हो सकते लेकिन विश्वास मानिए ये बात हमारे जीवन के नव-निर्माण पर भी उतनी ही शिद्दत से लागू होती है। आज हमें किसी भी काम को करने के बाद ठीक वैसा ही लगता है जैसा अपने विद्यार्थी जीवन में परीक्षा परिणाम के दिन लगता था कि काश मैं थोडा वो भी कर लेता कितना छोटा सा हिस्सा था और मेरे लिए मुश्किल भी नहीं। वास्तव में ' शॉर्ट-कट ' हमारी जीवन शैली बन गई है और अफ़सोस मानना हमारी आदत। 

हमें लगता है कि ये सब इसलिए हुआ क्योंकि आज की तेज-रफ़्तार जिन्दगी में हमें कितना कुछ करना होता है और समय है कम। 'एक जान, हज़ार अरमान' वाली उक्ति शायद हम जैसों के लिए ही बनी है पर मैं आपको बता दूँ कि शॉर्ट-कट अपनाने का हमारा यह तर्क बिलकुल सतही है। यदि हम सब अपना-अपना काम ढंग से करें तो आत्म-संतुष्टि के प्रतिफल के साथ हमारी वाजिब इच्छाएँ स्वतः पूरी होंगी। सारी समस्या यह है कि हम कर्म की बजाय परिणामों को अपना ध्येय बना लेते है। आपस की बातचीत में आपने कई बार सुना होगा; अभी तो एक ढंग की कार खरीदनी है, बच्चों को पढ़ाना है, घर बनाना है और फिर बच्चों की शादियाँ भी तो करनी है और फिर लग जाते है इन सब के ' जुगाड़ ' में। हम अपने काम को पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ करने और उस पर एतबार करने की बजाय इधर-उधर हाथ मरने लगते है और अपनी सुंदर जिन्दगी को 'तनाव', 'भाग-दौड़', 'तेज-रफ़्तार', जैसे विशेषणों से सजा देते है। अपने काम पर विश्वास और उसके प्रति हमारी ईमानदारी और निष्ठा आत्म-संतुष्टि के साथ हमारी अभिलाषाएँ तो पूरी करेंगी ही, समाज में प्रतिष्ठा का अतिरिक्त लाभ भी देगी।

टेक्नोलोजी के इस युग की इन्सान को सबसे कीमती भेंट है तो वह है ' समय की  बचत '। आज हर चीज को बनाते समय सबसे अहम् यही बात ध्यान रखी जाती है कि ये उपयोग करने वाले का कितना समय बचाएगी। लेकिन क्या आपने कभी गौर किया कि इस बचे हुए समय का हम करते क्या है? यह समय बचाया था इसलिए कि हम अपना काम ढंग से कर लें लेकिन इन चीजों के बीच रहते-रहते हम अपने काम को भी इन उपकरणों की शैली में करने लग गए। 

जिन्दगी में धीरे होना और अपने काम को सम्पूर्णता से करना एक कला है। धीरे-धीरे स्वाद लेकर थोडा भी खाया हुआ संतुष्टि देता है। मैं शर्तिया कह सकता हूँ कि आपकी जिन्दगी के दस यादगार अनुभव वे ही होंगे जिनमें आपने अपना शत-प्रतिशत दिया होगा। धीरे होने में स्मृति है तो तेज होने में विस्मृति। काम की सम्पूर्णता ही जीवन में संतुष्टि की संजीवनी है।


( रविवार, 28 अक्टुबर को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका 
राहुल...... 
 

Saturday 27 October 2012

क्या कह रहे है, आप ?




विचारों के बीज से ही तो शब्दों का जन्म होता है और फिर शब्द हमारी दुनिया बनाते है। शब्द अपने जन्म से पहले मस्तिष्क में उठा विचार ही तो है। जिन शब्दों को हमारी इच्छा-शक्ति का बल मिल जाता है वे हमारे कर्म और धीरे-धीरे आदतें बन जाती है। हमारी आदतें हमारा चरित्र बनाती है और आदमी का चरित्र ही उसकी जीवन-परिस्थितियों यानि भाग्य के लिए जिम्मेदार होता है और इस तरह हमारी जिन्दगी का पहिया घूमता है। विचारों की पहली सीढ़ी शब्द तो अंतिम परिणिति भाग्य है। जीवन को सुंदर बनाना है तो अपने विचारों को दुरुस्त करना होगा।

लेकिन क्या विचारों को बदल पाना इतना आसान है? एक रोचक तथ्य के अनुसार एक औसत व्यक्ति के मस्तिष्क में रोजाना लगभग 60,000 विचार आते है। विचारों के इस हडकम्प में इन्हें बदलना तो बहुत दूर इन्हें पकड़ना ही बहुत मुश्किल हो जाता है। ध्यान लगाना विचारों को दुरुस्त करने का सबसे सुन्दर और प्रामाणिक तरीका है लेकिन सबके लिए सुगम भी तो नहीं। विचारों की गति इतनी तेज होती है कि ध्यान के शुरूआती दिनों में तो ऐसा है जैसे हम  अपने जीवन की समस्याओं पर बनी फिल्म देख रहे है।

ऐसे समय हम अपने शब्दों के जरिए अपने विचारों को जान-समझ सकते है। सामान्यतया हम जिस सूक्ष्मता से दूसरों की कही बात सुनते है अपनी नहीं सुनते। आप जब भी बोलें सजग रहकर स्वयं भी सुनें। मेरा विश्वास है कि कई बार आपको स्वयं आश्चर्य होगा कि 'मैं ऐसे कैसे बोल सकता हूँ।'  यही सजगता यही आश्चर्य आपको अपने कहने के पीछे की सोच और नजरिए को समझने में मदद करेगी। आपके शब्द आपको उस विचार तक पहुँचाएगे जो आपकी आज की परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी है और तब उसे ठीक करना कहीं आसान होगा।

यदि हमारे लिए विचारों तक पहुँचना फिर भी मुश्किल है तो एक आसान तरीका है जिसे अपना आप अपने विचारों को बिना उन तक पहुँचे-जाने उन्हें सकारात्मक बना सकते है और वह है ' स्व-वार्ता '। स्व-वार्ता यानि बातें जो हम अपने आप से करते है। हमारे विचारों और शब्दों के बीच की एक सूक्ष्म कड़ी। आप गौर करेंगे तो पायेगें कि हम हर समय अपने आप से कुछ न कुछ बात कर रहे होते है। जैसी हमारी सोच होगी वैसी ही बातें हम अपने आप से करेगें, उदाहरण के तौर पर यदि हर छोटी-बड़ी घटना के लिए हम अपने आपको जिम्मेदार मानते है तो हम अपने आपको हमेशा ही डाँटता-धिक्कारता पाएँगे। जिस तरह हम अपने आप से बात करते है उससे हमारा मानसिक वातावरण बनता है और जैसा हमारा मानसिक वातावरण होता है वैसे ही हम औरों से बात करते है, शब्दों का प्रयोग करते है। इस पहलू का महत्व एवम उपयोगिता इसलिए भी ज्यादा हो जाती है क्योंकि अपने प्रति अपनी भाषा को सुधारना कहीं आसान है औरों के प्रति अपनी भाषा सुधारने से। 

आपका मन चाहे कुछ भी कहे, ध्यान रखिये कि आप हमेशा अपने आप से प्यार से ही बात करेंगे। आपके लगातार ऐसा करने से आप औरों पर स्नेह तो बरसाएँगे ही, एक स्वस्थ मानसिक वातावरण के चलते एक तरफ तो आपके विचार स्वतः ही दुरुस्त हो जायेंगे तो दूसरी तरफ आप अच्छे कर्मों की ओर उद्दृत होंगे।

अपनी कही को हवा में मत उड़ाइए, आपके शब्द आपकी सोच और नजरिया भी बदल देंगे तो आपका जीवन और भाग्य भी। आपको नहीं लगता कितना आसान है वह काम जो हमारी बोली मात्र से सुधर जाएँ ? 


( रविवार 21, अक्टूबर को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका 
राहुल........ 

Saturday 20 October 2012

अपने को जाया न करें




एक अखबार के स्तम्भ में खुशवंत सिंह जी लिखते है कि उम्र के इस पड़ाव पर जब मैं पीछे मुड़कर  हूँ तो अहसास होता है कि मैंने किस तरह अपना कीमती समय जाया किया वह भी जवानी के उन ऊर्जावान दिनों  में जब मेरे पास करने के कई बेहतर विकल्प थे। वे आगे लिखते है कि उन दिनों मुझे अख़बार में छपने वाली ' क्रासवर्ड पजल्स ' को हल करने की लत पड़ गई थी. सुबह के खाने से पहले का समय जो सामान्यतया मेरी पढाई - लिखाई का होता था, उसे कई बार मैं इन पहेलियों को हल करने में ही व्यर्थ कर देता था।

वे सिर्फ अपने बारे में नहीं बता रहे थे बल्कि याद दिला रहे थे कि किस तरह हम सब अपनी जिन्दगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा बेहोशी में गवां देते है। क्षणिक आनन्द जो बाद में अफ़सोस में बदल जाता है। सबसे कीमती है ये क्षण क्योंकि इसे कभी लौटाया नहीं जा सकता। यही सब सोचते - सोचते मुझे जॉर्ज बनार्ड शॉ की वे पंक्तियाँ याद आने लगी जिनमें उन्होंने होशपूर्ण जीवन को बहुत ही खूबसूरती से बयाँ किया है। वे लिखते है, " मैं मरने से पहले पूरी तरह काम में आ जाना  हूँ - क्योंकि जितना काम आऊँगा उतना ही जिऊँगा। जिन्दगी अपने आप में ही मुझे आनन्दित करती है।"

प्रत्येक व्यक्ति की अपने जीवन से कोई न कोई महत्वाकाँक्षा होती है। किसी को डॉक्टर बनना है, किसी को खेल-जगत में नाम कमाना है, किसी को समाज-सेवा करनी है तो किसी को अच्छा व्यापारी। जीवन का हर क्षण हमें मौका देता है इनकी तरफ कदम बढ़ने का लेकिन हम रोजमर्रा की  बातों और परिवार के गैर-जरुरी बातों पर मतभेद मैं उलझ अपने वृहत्तर उद्देश्यों से भटक जाते है। सबसे मजे की बात यह कि कुछ दिनों बाद ये बातें हमें ही याद नहीं रहती।  जीवन की इन अडचनों की तुलना हम गाडी में आने वाली उन गड़बड़ियों से कर सकते है जो उसके रख-रखाव की श्रेणी में आती है। गाडी हम अपनी सुविधा से आने-जाने के लिए रखते है न कि रख-रखाव के लिए। रख-रखाव जरुरी है जिससे गाडी वक्त पर हमारे काम आ सके लेकिन इसी में उलझे रहे तो गाडी होने का आनंद ही क्या? दैनिक जीवन की छोटी-मोटी परेशानियों के प्रति हमारा यही दृष्टिकोण होना चाहिए। जिन्दगी जीने के लिए इन्हें सुलझाना है, इन्हें सुलझाना जिन्दगी नहीं है। इस तरह हर गुजरते क्षण को अपने जीवन उद्देश्यों को पूरा करने का साधन बना लेना ही ' मरने से पहले पूरी तरह काम आ जाना '  हो सकता है।

फिर हमारा होना ही किसी आश्चर्य से कम है? जीवन का मतलब ही महसूस करना और व्यक्त करना है और ऐसा कर पाना ही जीवन का सच्चा आनन्द है। इस आनन्द को अपना स्थायी भाव बना लेना, स्वतः ही मन में कृतज्ञता के भाव लाएगा। अब जहाँ कृतज्ञता होंगी वहाँ शिकायतें कैसे रहेंगी। ' जिन्दगी अपने आप में मुझे आनन्दित करती है ' से बनार्ड शॉ का शायद यही आशय है। जब किसी से कोई शिकायत नहीं तब स्वतः ही आप अपनी जिन्दगी के मालिक होंगे और फिर आपको अपने लक्ष्यों से कोई नहीं भटका सकता। आपके लिए अपनी तरह से जी पाना और हो पाना कहीं आसान होगा।

बचपन में सुनी कछुए और खरगोश की कहानी तो आपको जरुर याद होगी। कछुए को हर क्षण अपना लक्ष्य ध्यान था और खरगोश को कभी पेड़ की छावं रोक रही थी तो कभी अपने अपने तेज दौड़ पाने का दम्भ। बस इतनी सी बात ध्यान रखनी है फिर देखना कछुए की तरह जीत हमारी ही होगी।


आपका,
राहुल .......
( रविवार, 14 अक्टुबर को नवज्योति में प्रकाशित )

Friday 12 October 2012

आप बस आप हो जाएँ




जब हम अपने बच्चों को कह रहे होते है कि ' बेटा ! अच्छे बच्चे ऐसे नहीं करते' तब हमें कहाँ अंदाजा होता है कि एक अच्छी आदत सिखाने की कोशिश के साथ -साथ हम उनके कन्धों पर कितना बड़ा बोझ लाद रहे है। आप कहेंगे, अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देना ही तो माता-पिता का कर्त्तव्य है और फिर इसके लिए बच्चों को थोडी-बहुत तकलीफ भी हो तो, क्या गलत है? सोना तपकर ही तो निखरता है।

आप की बात सोलह आने सच है लेकिन क्या अनजाने ही आपने यह नहीं कह दिया कि वह अच्छा बच्चा नहीं है और अच्छा बनने के लिए कुछ अलग से करने की जरुरत है। हम अपने बच्चों को अच्छा बनाने के लिए अपने प्रेम को हथियार की तरह इस्तेमाल करने लगते है। बच्चे जो सिर्फ प्रेम की भाषा समझते है हर संभव कोशिश में जुट जाते है कि वे हमारे प्रेम के काबिल बन सकें। समय के साथ-साथ उन्हें अच्छे से अच्छा बनाने की जुगत में हमारे मानदण्ड ऊँचे उठते चले जाते है। धीरे-धीरे बच्चे उन मानदण्डों को छू पाने में असफल होने लगते है लेकिन एक बात अनजाने ही सही उनके अवचेतन में गहरे पैठ जाती है कि वे जैसे है वैसे ही तो प्रेम के काबिल नहीं। यदि वे सबके द्वारा स्वीकार किया जाना चाहते है तो उन्हें हमेशा ही कुछ अतिरिक्त कर अपने आपको सिद्ध करना होगा।

बच्चों के मन में पैठी यही बात लगता है आज पूरे समाज में व्याप्त हो गई है। जहां व्यवस्था का आधार यह होना चाहिए कि ' प्रत्येक व्यक्ति ईमानदार है जब तक कि वह बेईमान सिद्ध न हो जाएँ ' वहाँ हो इसका बिलकुल उलट रहा है। आज की समाज-व्यवस्था ऐसी हो गई है कि ' प्रत्येक व्यक्ति बेईमान है जब तक कि वो ईमानदार सिद्ध न हो जाएँ'। पग-पग पर हम पर अपने आपको सिद्ध करने का बोझ है। दैनिक जीवन का कोई काम यदि बिना किसी प्रक्रिया से गुजरे सम्मानपूर्वक हो जाएँ तो हमें ही शक होने लगता है कि जरुर कुछ गड़बड़ है। शायद मुझसे ही कहीं कोई कमी रह गई है मुझे लग रहा है पर काम ढंग से हुआ नहीं है।

बचपन से लगाकर आज तक व्यक्ति के साथ यह जो कुछ भी हुआ उसने व्यक्ति के मन को अपराध-बोध से भर दिया है। अपराध-बोध कमतर होने का, सबसे हीन होने का। इसी भावना के चलते हम हमेशा ही किसी और की तरह होने और दिखने की कोशिश मैं लगे रहते है, कभी खुलकर नहीं जी पाते। चेहरों की पारदर्शिता तो न कहाँ खो गई है?

समय के साथ हम सब यह तो मानने लगे है कि हर बच्चे में कोई न कोई एक विशेष गुण होता है बस जरुरत होती है उसे ढूंढ़ने की, तराशने की। बावजूद इसके न जाने क्यों यही बात हम अपने बारे में समझने और मानने से झिझकते है। हम स्वयं दूसरे के जैसा और हमारे अपनों को हमारे जैसा बनाने के युद्ध में लगे है। स्वयं तो लहू-लूहान है ही उन्हें भी किए बठे है जिनसे हम प्रेम करते है।

जीवन में शांति और आनंद लौटाने है तो इस युद्ध को रोकना होगा। यह समझना और मानना होगा कि हम सब 'अच्छे' है, एक-दुसरे के प्रेम के काबिल। एक-दूसरे की पूर्णता को उनकी विशिष्टताओं के साथ स्वीकार करना होगा। हमारी यही समझ हमें खुलकर जीने का मैदान देगी। आज मैं फिर अपनी पसंदीदा पंक्ति की पुनरावृति को नहीं रोक पा रहा हूँ कि ' हम सब ईश्वर की स्वतंत्र भौतिक अभिव्यक्ति है'। अपनी और अपनों के अद्वितीय होने की स्वीकारोक्ति ही हमें अपराध-बोध की बेड़ियों से मुक्त कराएगी।


आपका
राहुल......
( रविवार 7 अक्टूबर को नवज्योति में प्रकाशित )

Friday 5 October 2012

अपने सपनों को जिएँ




हुत कम लोग ऐसे होंगे  जिन्हें अपनी जिन्दगी से यह शिकायत न हो कि फलाँ-फलाँ कारणों से इन्हें वो जिन्दगी नहीं मिल पायी जिसके ये हक़दार थे और हैं. इनके ढेर सारे कारणों में ये कहीं नहीं होते. कोई और, चाहे वो कोई भी हो इनके आज के लिए जिम्मेवार होता है. आप जब भी इनसे मिलेंगे या तो किसी न किसी को कोसता या किसी न किसी से उलझता पायेंगे.

एक मिनट के लिए रूककर इनके दैनिक जीवन पर नज़र डालें तो माजरा बिल्कुल साफ़ नज़र आ जायेगा. ये वे लोग है जो दिल्ली की ट्रेन पकड़कर मुंबई पहुँचना चाहते है. ये जिस तरह अपना दिन बिताते है और एवज में जैसी जिन्दगी चाहते है, इन दोनों का आपस में कोई मिलान नहीं होता. वैसे ही जैसे एक व्यक्ति अच्छा गायक तो बनना चाहें लेकिन रियाज़ से कतराए और दोष दे जिन्दगी को. कर्म-व्यवहार और सपनों का यही असंतुलन हमारी शिकायतों की असली वजह है.

ये कोई ऐसी बात नहीं जो आपको पहले से मालूम नहीं, तो फिर बात आकर ठहरती है कि सब कुछ मालूम होते हुए भी हम अपना दिन अपने सपनों को पूरा करने की कोशिश में क्यों नहीं गुजारते? क्यों हम उचित और अनुचित के नाम पर उन कामों में जुटे रहते है जिन्हें करने को हमारा दिल गवारा नहीं करता और उन्हें हमेशा ही आगे टालते रहते है जिनसे हमारा मन भरता है? जवाब तो सवाल में छुपा है -' विश्वास '.  हमें अपने सपनों पर विश्वास नहीं.

मैं आपको याद दिला दूँ , ये वे सपने नहीं जो हम रात को सोते हुए देख लेते है बल्कि हमारे अन्तर्मन की पुकार है जो सोते-जागते हर क्षण हमारे साथ रहती है, जैसे कोई किधर खींच रहा हो. जिस तरह एक बीज में पेड़ बन पाने की हमेशा ही क्षमता होती है बस जरुरत होती है उसे बोने की, खाद-पानी देने की, रखवाली करने की; उसी तरह हम में भी अपने सपनों को पूरा कर पाने की हमेशा ही क्षमता होती है जरुरत होती है उन पर विश्वास करने की, उन्हें जिन्दा रखने की, उन्हें जीने की. हमारे सपने हमारे होने की वजहें है और इन पर विश्वास करने की इससे पुख्ता क्या वजह हो सकती है?

आप कहेंगे, 'ये बातें कहने-सुनने में ही अच्छी लगती है'. ठीक भी है, व्यावहारिक जीवन में सपनों के आर्थिक पक्ष को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता विशेषकर जब वे हमारे काम-काज से जुड़ें हों. कुछ क्षेत्र ऐसे है जिनके बलबूते आप अपना जीवन और गृहस्थी सहजता से चला पायें, इस स्थिति तक पहुँचने में समय लग सकता है. ऐसी स्थिति में व्यक्ति को अपने सपनों को पूरा करने की कोशिशों के साथ-साथ किसी ऐसे अतिरिक्त काम से भी जुड़ जाना चाहिए जो उसके जीवन की सहजता को बरक़रार रखते हुए उसके सपनों को जिन्दा रख सकें. यह सपनो से समझौता नहीं उन्हें पूरा करने की प्रक्रिया का हिस्सा भर है. आपके सपने, चाहे जो भी हो, उनमें निस्संदेह इतना माद्दा होता है कि वे आपको वैसा जीवन दे सकें जो आपके लिए अनुकूल हों; बात सिर्फ समय के अन्तराल की है.

हमारा यही विश्वास दैनिक जीवन में कर्म-व्यवहार और सपनों के संतुलन को लौटाएगा.
प्रकृति तो चाहती है कि हम अपने सपनों को जिएँ, पूरा करें; जरुरत है तो बस हाथ थामने भर की.

आपका,
राहुल......
( रविवार, ३० सितम्बर को नवज्योति में प्रकाशित )


Friday 28 September 2012

अपनी गलतियों को जगह दें




किसी भी काम को अच्छे से अच्छा करने कि कोशिश करने से सुंदर कोई बात नहीं हो सकती. एक सच्चा जीवन-साधक वही है जो हर बार पहले से बेहतर करने की कोशिश करें. यही जीवन की प्रेरणा-शक्ति भी है और ऊर्जा-स्रोत भी. अपने काम में परफेक्ट यानि बिल्कुल सही होने की प्यास ही हमें सर्वश्रेष्ठ बनाती है. यही हमारे सफल और अंततः खुशहाल जीवन का मूल-मंत्र है.

आप सोच रहे होंगे कि हर बार जिस तरह मैं अपनी बात ख़त्म करता हूँ, आज शुरू कैसे कर रहा हूँ. आप ठीक सोच रहे हैं. मैं आज 'काम को और बेहतर' करने की बात नहीं कर रहा वरन यह विचार साझा करना चाहता हूँ कि किस तरह शक्कर कि अधिकता चाशनी को कड़वा बना देती है. किस तरह इतना सुंदर गुण जूनून कि हद तक बढ़ हमारे जीवन की सुख-शांति छीन लेता है.

कुछ जीवन-साधक अपने काम को इस तरह मांजते चले जाते है कि उनका काम उनका परिचय बन जाता है. किसी काम से उनका जुड़ा होना ही काम के स्तर कि घोषणा होती है. ठीक वैसे ही जैसे आजकल हम आमिर खान के किसी कार्यक्रम या फिल्म के बारे में सोचते है. किसी व्यक्ति के लिए इससे बड़ा पुरस्कार और क्या हो सकता है?

आपका काम आपका परिचय बने, लोग उसमें आपकी सुगंध पायें लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब हम उसे अपना पर्याय समझने लगते है. आपका पर्याय हो सकता है तो सिर्फ काम के प्रति आपकी ईमानदारी एवम निष्ठा और कोई नहीं. गुड अपनी मिठास से पहचाना जाता है न कि हलवे के स्वाद से. हलवे का बहुत या  कम  अच्छा बनना सिर्फ एक अनुभव है लेकिन व्यक्ति जब अपने काम या अनुभव को अपना पर्याय बना लेता है तो फिर उसमें छोटी-सी चूक भी बर्दाश्त नहीं कर पाता. उसे लगता है जैसे उसका अस्तित्व ही खतरे में पड गया हो और इस तरह अपने काम में   परफेक्ट होने जैसा सुंदर गुण भी अति के कारण जीवन में कुंठा और नैराश्य का कारण बन जाता है.

हो गई ना चाशनी कडवी ?  सच तो यह है कि आपका काम आपका बच्चा है. जिस तरह आप अपने बच्चे को सारी अच्छाईयों और कमियों के बावजूद प्यार करते है लेकिन साथ ही जिन्दगी भर उसकी कमियों को दूर करने कि कोशिश करते है उसी तरह आप अपने काम को सम्पूर्णता से स्वीकारें, उसमें भी गलतियों के लिए जगह छोड़ें. गलतियों की स्वाभाविकता को सह्रदयता और सहजता से लें. ये ही वे क्षेत्र है जिन पर आप काम कर अपने जीवन को अधिक बेहतर बना सकते है. किसी भी व्यक्ति या वस्तु का मूल्यांकन उसकी समग्रता के आधार पर करें.

असम्पूर्णता सम्पूर्णता की सुन्दरता तो है ही उसका अटूट हिस्सा भी. प्रकृति की ओर नज़र घुमाकर देखें, यह बात सहज ही समझ आ जाएगी. प्रकृति का कोई घटक ऐसा नहीं जिसमें बाँकपन न हो. सूर्य ठीक पूर्व मैं नहीं उगता, पृथ्वी पूरी गोल नहीं और चन्द्रमा बेदाग़ नहीं लेकिन क्या प्रकृति से पूर्ण और सुंदर कुछ हो सकता है?

सोचिए पेड़-पौधे और फल-फुल यदि रूप-रंग, स्वाद-सुगंध में एक से होते, यहाँ तक कि हमारी शक्लो-सूरत भी एक सी होती; ठीक वैसी जिसे हम  परफेक्ट कहते है तो हमारा जीवन कितना बेजान और नीरस होता. परफेक्शन किसी वस्तु में नहीं व्यक्ति कि नज़र में होता है और परफेक्ट वह व्यक्ति होता है जिसे जीवन के हर पहलू में पूर्णता नज़र आए. अपने काम में त्रुटियाँ नहीं आनंद ढूढीए. हर बार इस आनंद को बढ़ाने कि सोचिए फिर देखिए जीवन में कैसे मिठास घुल जाती है.


आपका
राहुल.... 
( रविवार, २३ सितम्बर को नवज्योति में प्रकाशित )

Friday 21 September 2012

क्षमा - क्यों, कैसे और किसे ?





क्षमा कर पाना इंसान का श्रेष्ठतम चारित्रिक गुण और पावन कर्म है. शायद इतना श्रेष्ठ और पावन की हम इसे मानवीय ही नहीं मानते. हम सोचते है कि ये तो किसी महापुरुष के बूते की ही बात है, भला मुझसे कैसे संभव है?

इस प्रश्न से उलझने से पहले हमें एक-दूसरे हठी प्रश्न से दो-दो हाथ करने होंगे वो यह कि ' मैं क्षमा करूँ ही क्यूँ? जब तक हमारी बुद्धि ये नहीं समझ लेती हमारा अहंकार क्षमा न करने के नित-नए बहाने ढूंढता रहेगा. इस बीच यदि हम अपने मन को टटोले तो एक बड़ा हिस्सा अपराध-बोध, क्रोध और घृणा से भरा मिलेगा. मन में इन भावों के होने का अहसास ही जाहिर कर देगा कि किस तरह हम अपने आपको रोके है वह सब करने, होने और बनने से जो हम अपनी जिन्दगी से चाहते है. हमें ठीक वैसा ही लगेगा जैसे हम घर से करने कुछ निकले थे और कर कुछ और रहे है. क्षमा हमें अपराध-बोध, क्रोध और घृणा से मुक्त कर हमारी रचनात्मकता लौटाती है.

आप कहेंगे, सारी बात ठीक है लेकिन ऐसा कोई व्यवहार जिससे हमारा मन आहत हुआ हो, दिल दुख हो; भला! कोई कैसे भूला सकता है? आपकी बात सही लगती है लेकिन इसे सही मानने से पहले हमें लोगों कि छंटनी करनी होगी. पहले तो हम स्वयं, दूसरे वे लोग जिनसे अनजाने ऐसा हुआ और तीसरे वे जो जान-बूझकर लगातार ऐसा कर रहे है.

यदि विगत में ऐसी किसी भूल जिसका पछतावा आज भी आपके दिल में है जिसके बारे में आपको ऐसा लगता है कि काश! में ये नहीं करता या इसकी जगह वो कर लेता तो आज मेरा जीवन, रिश्ते और सफलताएँ कुछ और होती तो एक बात हमेशा ध्यान रखिए, आप आज जो भी है वो अपने अच्छे और बुरे सारे अनुभवों का सम्मिलित परिणाम है. इन गलतियों ने ही आपको इतना परिपक्व और समझदार बनाया है. यदि आपने अपनी गलती से सीख लिया तो उस गलती का उद्देश्य व आपका काम पूरा हो गया, अब उसे और ढोने की कोई जरुरत नहीं. आप अपने को क्षमा कर ही किसी और को क्षमा कर पाने के काबिल बन सकते है.

आपकी अपने प्रति यही सहजता उन लोगों को समझने में मदद करेगी जिन्होंने अनजाने ही आपको आहत किया है. मुझे याद आता है 'पा' फिल्म का संवाद. एक छोटी दोस्त आई. सी.यू में लेटे ऑरो से कहती है कि अपनी गलती पर शर्मिंदा और दिल से माफ़ी माँगने वाला कहीं ज्यादा आहत होता है जिससे वो माफ़ी कि उम्मीद रखता है. व्यक्ति को उसके आचरण से नहीं नीयत से पहचानना चाहिए.  

अब आते है वे लोग जो जान-बूझकर ऐसा व्यवहार करते है जो आपको तकलीफ पहुँचाए. ऐसे लोगों से पहली बार में कठोर एवम स्पष्ट शब्दों में अपनी असहमति व्यक्त कर दें. हो सकता है इन्हें ग़लतफ़हमी हो कि आपको अपनी तकलीफों कि वजह का अंदाजा ही नहीं. ऐसा है तो आइन्दा ये अपना व्यवहार सुधार लेंगे और आपके लिए उनके उस व्यवहार को भूला देना कहीं आसान होगा.

जो लोग इसके बाद भी अपने व्यवहार को दोहराते है उनसे दूरी बनाना ही अच्छा, यह समझकर कि जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण भिन्न है. ये सिखाते है कि हमें जीवन में कैसा व्यवहार कभी नहीं करना चाहिए. इन लोगों से दूरी ही आपके जीवन में शांति लौटाएगी जो हमें बुरे सपने की तरह उनके व्यवहार को भुलाने में मदद करेगी. अंग्रेजी में एक कहावत है, ' सूअर के लिए तो कीचड़ आनंद है पर आप उससे उलझकर अपने कपडे ही खराब करेंगे.'

कुछ लोग इससे भी आगे बढ़ जाते है. आपकी भलमानसता को कमजोरी समझाने लगते है. अपने निजी स्वार्थों के लिए आपका ही अहित करने से भी जरा नहीं हिचकते. ऐसे लोगों के प्रति क्रोध जायज है और आपको अपने बचाव का अधिकार भी. हर आदर्श की एक सीमा होती है नहीं तो कृष्ण शिशुपाल का वध नहीं करते ओर राम रावण से युद्ध नहीं करते. वो क्षमा नहीं कायरता है जो हमारे आत्म-सम्मान को गिराएँ, हमारी निजता पर अतिक्रमण करें लेकिन ध्यान रहें, आपका क्रोध अँधा न हो. आपकी प्रतिक्रिया व्यवहार के प्रति हो व्यक्ति के प्रति नहीं.

क्षमा का यही बहुआयामीपन व्यक्ति को साधारण से असाधारण बनता है. यह महापुरुषों का गुण नहीं बल्कि वो रसायन है जो व्यक्ति को महापुरुष बनता है.

( इतवार १६ सितम्बर को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका
राहुल....

Friday 14 September 2012

कामयाबी से गलबहियाँ




एक व्यक्ति ने अपने पिता के कातिल को ढूंढ़कर बदला लेना अपना जीवन लक्ष्य बना रखा था. कई सालों तक उसका पीछा कर आख़िरकार उसने अपना बदला पूरा कर ही लिया. वापस लौटते हुए वह हतप्रभ सा चारों दिशाओं में देख रहा था. उसका दिमाग जैसे कुंद हो गया था. उसे बिल्कुल समझ नहीं आ रहा था कि वो किधर लौटे? अब जब उसका लक्ष्य पूरा हो गया तो वह जीवन में किधर बढे? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम सभी अपनी जीवन यात्रा में इतने खो जाते है, ढूंढने में इतने तल्लीन हो जाते है कि जब हमें वह मिल जाती है तब न तो ये मालूम होता है कि इसका क्या करें और न ही ये मालूम होता है कि इसके बाद क्या करें?

एक पथिक को चलते रहने की ऐसी आदत सी पड जाती है, उसी में इतना आनंद आता है कि वो अनजाने ही सही, पहुंचना ही नहीं चाहता. यात्रा की तो पूरी जानकारी होती है लेकिन मंजिल अनजानी होती है. हम भी उस पथिक की ही तरह पा लेने की दौड़ के इतने अभ्यस्त हो चुके है कि स्वयं ही स्वयं को उससे दूर रखे है जो हम पा लेना चाहते है. अनावश्यक प्रयास करते रहना हमारी जीवन-शैली बन गई है जो हमें गलतियाँ करते रहने और अपने काम के प्रति लापरवाह रहने की छूट देती है. निश्चित रूप से ऐसा जीवन हमें सुरक्षा का आभास देता है और इसीलिए हम अपने सुरक्षा घेरे (कम्फर्ट जोन) से बाहर निकलना ही नहीं चाहते. यहाँ तक कि हम अपना परिचय, रिश्ते, मूल्य और जीवन-संबल भी सुरक्षा घेरे के इस दायरे में ही बुन लेते है. 

सच तो यह है कि हमें खुद नहीं मालूम होता कि इस सुरक्षा की हम क्या कीमत चुका रहे होते है. यह होती है मन का खालीपन, कमतरी की भावना, परिस्थितियों की मज़बूरी और प्रेम-विहीन जीवन जबकि इससे बाहर निकल 'पा लेने' का अहसास हमें अपनी तरह जीने का आत्म-विश्वास तो देगा ही साथ ही हमारा जीवन सुख-शांति-स्वास्थ्य और प्रेम से खिल उठेगा.

वास्तव में ये हमारे मन का डर ही है जो हमें अपनी कामयाबी को गले लगाने से रोकता है. कामयाबी जो खुशियों के साथ जिम्मेवारी भी लाती है. यदि आप किसी चीज के प्रति जिम्मेवार है इसका मतलब है उससे सम्बंधित निर्णय आप ही को लेने है. निर्णय चाहे कितने ही विवेक से क्यूँ न लिए जाएँ उनके सही या गलत होने की सम्भावना बराबर बनी रहती है. अहम् भला हमें उस दिशा में क्यूँ जाने देना चाहेगा जहाँ हमारे गलत हो जाने का जरा सा भी अंदेशा हो.  हकीकत तो यह है कि हम अपनी जिम्मेवारियों से भाग रहे होते है. अहम् कि ये ही कारस्तानियाँ हमें कामयाबी को स्वीकारने से रोकती है.

इसे यों देखें जैसे कोई भी अच्छा विद्यार्थी यही चाहेगा कि शिक्षा ग्रहण के बाद उसकी गिनती अपने विषय के श्रेष्ठ ज्ञाताओं में हो. यही उचित है और यही प्रेरणा भी लेकिन यह भी उतना ही सही है कि दीक्षित (ग्रेज्यूएट) होना शिक्षा का एक आवश्यक एवम महत्वपूर्ण पड़ाव है. पाठ्यक्रम की सम्पूर्ण जानकारी दीक्षित होने की शर्त कभी नहीं हो सकती. ठीक उसी तरह जैसे एक शिक्षक को अपने विषय की सम्पूर्ण जानकारी नहीं हो सकती लेकिन एक मुकाम पर आकर उसे स्वीकार करना पड़ता है कि उसका अर्जित ज्ञान दूसरों में बाँटने के लिए पर्याप्त है. यह हमारी ग़लतफ़हमी है कि  संतुष्टि का यह भाव एक दीक्षित या शिक्षक को आगे ज्ञानार्जन से रोक देगा. संतुष्टि ठहराव नहीं आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास की आधारशिला है. यह हमें मजबूती से आगे बढ़ने की ऊर्जा देती है. 

निस्संदेह यात्रा का भी उतना ही महत्व है जितना मंजिल का. जिसने यात्रा का आनंद नहीं लिया वह मंजिल पर पहुँच कर भी खाली ही रहेगा लेकिन इसके साथ यह भी उतना ही सत्य है कि कोई भी यात्रा मंजिल के लिए होती है और होनी चाहिए. यदि रास्ते का आनन्द आपको जीवन भर पथिक बनाए रखता है तो आपने यात्रा के मूल भाव को ही कहीं बिसरा दिया है. एक बात हमेशा याद रखनी होगी कि ठहराव कभी ख़ुश्बू नहीं दे सकता. 


( दैनिक नवज्योति - रविवारीय में 9 सितम्बर को प्रकाशित)  
आपका 
राहुल...... 



Friday 7 September 2012

जिन्दगी है, कोई नाटक नहीं




हम में से कोई अपने बारे में पूछे तो हम अपनी बीती जिन्दगी को सिलसिलेवार घटनाओं के रूप में बता सकते है. ध्यान से देखें तो ये सारी घटनाएँ अपने मूल में एक-सी होती है. प्रतिकूल परिस्थितियाँ, साधन-क्षमताओं की कमी और हमारा साहस जिससे हमने उन पर विजय पायी. कहीं-कहीं ऐसी घटनाओं का जिक्र भी जहाँ हम भाग्य को दोष देकर अपनी आज की स्थिति को सही ठहरा रहे होते है.

अरे! आप तो बुरा मान गए. नहीं, ऐसा मत कीजिए. इन सारी घटनाओं को अपना परिचय बनाने के पीछे हमारी नीयत बिल्कुल पाक-साफ होती है. सभी का प्रेम पाना और स्वीकार किया जाना. एक कहावत है, 'आदमी भूख बर्दाश्त कर सकता है दुत्कार नहीं, लेकिन क्या यह पावन उद्देश्य इस तरह पूरा हो पाता है? और नहीं तो हम ऐसा करते ही क्यूँ है? फिर हम क्या करें कि सभी हमें प्रेम और सम्मान की नज़रों से देखें?

हम इसलिए ऐसा करते है क्योंकि हमने अपनी जिन्दगी की डोर अहम् के हाथों सौंप दी है. अहम् जो उत्तेजना का भूखा है. जो हमें दूसरों से अलग कर देखता है. अपने को सही साबित करने के लिए दूसरों को गलत सिद्ध करना जिसकी कार्य-पद्धति है. अब आप ही बताइए, हमारी जिन्दगी जब इन आधारशिलाओं पर टिकी हो तो उसे सोप ओपेरा जैसा नाटकीय होने से कौन बचा सकता है. 

अहम् प्रेम और सम्मान पाने के लिए मुख्यतः तीन तरीके अपनाता है. पहला, सबके सामने अपने आपको हीरो सिद्ध करना. हम सब पौराणिक कथाओं, बचपन की कहानियों से लेकर अपनों से बड़ों के ऐसे अनुभव ही तो सुनते आए है कि कैसी-कैसी मुश्किलों का साहसपूर्ण सामना कर एक व्यक्ति ने अपनी मंजिल पा ली. हमने इन सब से मुश्किलों का सामना करने का जज्बा सीखने की बजाय यह मान लिया की जीतने के लिए मुश्किलें जरुरी है, हीरो बनने के लिए जीतना और प्रेम पाने के लिए हीरो होना. हमारा अहम् लगातार जिन्दगी में ऐसी नाटकीय स्थितियां ढूंढता और पैदा करता है.

दूसरा, प्रमाणित करना कि मैं ही सही हूँ. अहम् मानता है कि मैं सही तब ही हूँ जब तक सामने वाले को गलत सिद्ध न कर दूँ. इस तरह हम अपनी सोच, अपने विचार एक-दूसरे पर थोपने लगते है लेकिन भूल जाते है कि अगला भी तो यही सोच रहा है. इस संघर्ष में जीत तो कोई नहीं पाता; हाँ!इतना जरुर है कि हम एक-दूसरे कि जिन्दगी को तमाशा बनाकर रख देते है. तीसरा, सहानुभूति बटोरना. जिन्दगी की नाकामियों और व्यक्तित्व की कमजोरियों को अहम् इस बेचारगी से बयान करता है कि वह सारा ठीकरा भाग्य और परिस्थितियों के सर फोड़ सकें. वह सोचता है कि इस तरह लोगों कि सहानुभूति बटोर उनके दिलों में जगह बना लेगा.  

यहाँ तक की हम मैं से अधिकतर को तो इस नाटकीयता की लत-सी पड गई है. अहम् के वशीभूत इस तरह जीने में उत्तेजना तो है और उत्तेजना में क्षणिक आनंद भी. इस कारण जब भी जिन्दगी अपनी लय में शान्ति से गुजर रही होती है हम अनजाने ही ऐसे अवसर ढूंढने लगते है जहाँ बात का बतंगड़ और राई का पहाड़ बना सकें. अपनी बात कहने की आड़ में हम फिर से वही सब करने लग जाते है. 

प्रेम और सम्मान पाना है तो सबसे पहले अहम् के चंगुल से बाहर निकल अपनी जिन्दगी की डोर अपने हाथ में लेनी होगी. हर व्यक्ति अपनी जिन्दगी का हीरो है, हमें किसी को कुछ सिद्ध नहीं करना. हम सब जो है वो हो जाएँ. अपने आपको और दूसरों को अपनी-अपनी निजता के साथ स्वीकार करें. एक-दूसरे को जगह दें. यही एक दूसरे के प्रति हमारे प्रेम और सम्मान की पहली सीढ़ी होगी. सच तो यह है कि हम जिन विशिष्टताओं के साथ आयें है उनकी सच्ची अभिव्यक्ति ही हमें प्रेम और सम्मान दिला सकती है और कोई नहीं.

इसका मतलब यह नहीं है कि सारी मुश्किलों और परेशानियों के लिए हम ही जिम्मेदार है. हर व्यक्ति की जिन्दगी में कुछ न कुछ मुश्किलें-परेशानियाँ और दुःख भी जरुर होते है लेकिन उन्हें महिमामंडित करने की बजाय यदि धैर्यपूर्वक उन्हें स्वीकार करते हुए उनका सामना करें तो जिन्दगी कहीं अधिक शांत-सुखमय होगी. अरे भाई ! ये जिन्दगी है , कोई नाटक नहीं.


( दैनिक नवज्योति में रविवार, २ सितम्बर को प्रकाशित )
आपका, 
राहुल..... 


Friday 31 August 2012

कुछ करते रहने के लिए कुछ न करें




" एक जगह बिना कुछ किए, निशचल न बैठ पाना ही हमारी बदहाली की वजह है. "
                                                                                            --- पास्कल 

पास्कल, जिनका हाइड्रोलिक्स और ज्योमेट्री के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान है, जिन्हें पहला डिजिटल केलकुलेटर बनाने का श्रेय प्राप्त है और जिनका 'दबाव का सिद्धांत' आज भी विज्ञानं की कक्षाओं में पढाया जाता है. ऐसे महान दार्शनिक, वैज्ञानिक, और गणितज्ञ ऐसी  बात कहते है तो बैचेनी-सी होती है, जहाँ हमारा परम्परागत आचरण तो कुछ करते रहने का है. यही हमें सदियों से सिखाया जाता रहा है कि कुछ न करना कायरता और समय कि बर्बादी है. समय जो लौटकर नहीं आता. ठीक भी लगता है कि कुछ करेंगे तब ही तो कुछ होगा. जीवन में सफल होना है तो लगातार कोशिशें करनी होगी. फिर पास्कल जैसे अभूतपूर्व विचारक ने ऐसा क्यूँ कहा?

एक मिनट ठिठक कर अपने आस-पास और फिर अपने ही जीवन पर नज़र डालें तो साफ़ दिखेगा कि हमारी जिन्दगी एक दौड़ बन कर रह गई है. कुछ करते रहने की हमारी ऐसी आदत पड गई है कि ज्यादातर समय हमें ये ही मालूम नहीं होता कि जो कुछ हम कर रहे है वो आखिर क्यूँ कर रहे है. विश्वास मानिए, जाना कहीं नहीं फिर भी जल्दी हमें कहीं नहीं पहुंचाएगी. कोई भी बात हो छोटी या बड़ी हम उसके होने देने का इंतज़ार कर ही नहीं पाते. अवचेतन में यह बात इतनी गहरी पैठी है कि यदि हम कुछ नहीं कर रहे है तो परिणाम की ओर नहीं बढ़ रहे है.

ऐसा नहीं है, वास्तव में हम अपने आप से भाग रहे होते है. सदियों से कुछ प्रभावशाली लोग समाज को अपने तरीके और फायदे के लिए अपनाना चाहते है. इन लोगों ने समाज-व्यवस्था के नाम पर ऐसे संस्कार डाल दिए है कि हम अपने प्रत्येक कर्म एवम कर्म फल को पाप-पुण्य,अच्छा-बुरा,    और सही-गलत के तराजू में रख देखने लगे है. अपने पर अविश्वास कर आशंकित रहते है, कुछ अप्रिय न घट जाए इसलिए डरे रहते है और बीते दिनों कि सारी अनचाही स्थितियों व दुखों के लिए अपराध-बोध से ग्रसित रहते है. इस तरह हमने जीवन का हर क्षण डर, आशंका और अपराध-बोध से भर लिया है जिनसे बचने के लिए हम भाग रहे है और बहाना है कुछ करते रहने का.

इसका मतलब है पास्कल कर्म के जन्म का प्रश्न उठा रहे है न कि कर्महीन होने की शिक्षा दे रहे है. जिस तरह एक कुत्ते का बच्चा कुत्ता और एक बिल्ली का बच्चा बिल्ली ही होगा उसी तरह डर, आशंका, और अपराध-बोध से उपजे कर्म ऐसे ही कर्म-फल लौटाएँगे. यदि हमें अपने जीवन से सुख, शांति और समृद्धि की अभिलाषा है तो हमारे कर्म आनंद और उद्देश्य से प्रेरित हों. ये ही प्रभावी और फलदायी होंगे. आनंद और उद्देश्य हमारे कर्म की प्रेरणा बनें इसके लिए किसी काम को 'करना' आना से जरुरी है स्वयं का 'होना' आना. 'होना' यानि स्वयं की मूल प्रकृति में स्थिर होना. हमारी मूल प्रकृति है विशुद्ध प्रेम जहाँ व्यक्ति का मन शांत और मस्तिष्क स्पष्ट होता है. निशचल भाव से वही व्यक्ति बैठ सकता है जिसके मन में शांति और मस्तिष्क में स्पष्टता हो. महान विचारक पास्कल ने शायद हमें अपने शब्दों में यही समझाने की कोशिश की है.

आनंदमय और उद्देश्यपूर्ण जीवन में भी मुश्किलें-परेशानियाँ आएँगी तो ऐसे क्षण भी जो हमसे निर्णय चाहते है. समस्या चाहे कोई हो, कारण होता है हमारी एक निश्चित सोच, एक तय नजरिया. जीवन की इन घड़ियों में मन बैचेन और सोच का भ्रमित होना स्वाभाविक है. ऐसे समय कुछ देर के लिए कुछ न करना ही उत्तम है. पहले अपने नजरिये को विस्तार दें. चीजों के दूसरे पहलुओं को देखने की कोशिश करें. जीवन के ऐसे विषय जो हमसे हल चाहते है के साथ जिएँ, उन्हें अपने जीवन का हिस्सा बनाएँ. इस तरह जब मन-मस्तिष्क समभाव में आ जाए तब कर्म की ओर उद्दृत हों. निश्चित ही हमारे निर्णय कहीं बेहतर और हल स्वाभाविक होंगे. मुझे याद आती है अल्बर्ट आइन्स्टाइन की सारगर्भित पंक्ति " समस्याएँ चेतना के उसी स्तर पर हल नहीं हो सकती जिसकी वजह उनका जन्म हुआ है ". मैं बस इतना जोड़ देना चाहता हूँ ' तब तक ठहरना अच्छा'.


( रविवार, २६ अगस्त को दैनिक नवज्योति में प्रकाशित )
आपका
राहुल......