Sunday 21 September 2014

क्या न कि कैसे




उनके बारे में पता चला तो उस नेवले की कहानी याद हो आयी जिसका आधा शरीर स्वर्णिम था। महाभारत के बाद युधिष्ठिर ने प्रजा में सुख-शांति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने राजसूय यज्ञ किया। आयोजन इतना भव्य और दान-दक्षिणा इतनी दी जा रही थी कि इसकी चर्चा पूरे आर्यावर्त में थी। इसी दौरान यह नेवला आया और यज्ञ की शांत राख में लोटने लगा। सभी आश्चर्य से देखने लगे। युधिष्ठिर ने थोड़ा क्रोधित होते हुए नेवले से पूछा तो वह बोला, मैं अपना बचा आधा शरीर भी स्वर्णिम करना चाहता था पर क्षमा करें, आपका दान शायद उतना महान नहीं।

युधिष्ठिर थोड़ा आहत हुए पर मन में जिज्ञासा भी उठी कि आखिर वो क्या था जिसकी महिमा इस राजसूय यज्ञ के दान से भी अधिक थी; तब नेवले ने बताया,- एक नेक ब्राह्मण दम्पति अपने बेटे-बहू के साथ रहते थे। बुरा समय किसकी जिंदगी में नहीं आता, एक दिन ऐसा भी आया जब उनके घर में केवल मुटठी भर चावल बचा था। उन्होंने उसे पकाया और सोचा, चलो एक समय का काम तो चल ही जाएगा, इतने में दरवाजे पर दस्तक हुई। देखा तो कोई वृद्ध राहगीर था। हालत इतनी दयनीय कि साफ़ जाहिर था कि वे कई दिनों से भूखे हैं। ब्राह्मण परिवार ने अपना सारा भोजन उन वृद्ध को करवाया और तब ईश्वर ने अपने वास्तविक स्वरुप में आकर उन्हें मोक्ष का वरदान दिया। मोक्ष है भी क्या मोह का क्षय ही तो है। 

नेवले ने कहा, संयोग से मैं भी उधर से गुजर रहा था कि उन चावल के दानों पर फिसल गया जो परोसते समय फर्श पर गिर गए थे। शरीर का आधा हिस्सा जो फर्श पर लगा स्वर्णिम हो गया, तब से भटक रहा हूँ कि कहीं उसके समकक्ष कोई दान हो रहा हो तो मैं अपने शरीर का आधा हिस्सा भी स्वर्णिम कर लूँ। लगता है राजन आपने भी दान नहीं अहंकार को ही पुष्ट किया है।

वे हैं 73-वर्षीय पालम कल्याणसुन्दरम्, तामिनलाडू की एक कॉलेज के लाइब्रेरियन। वे अब तक 30 करोड़ से अधिक की धनराशि गरीब और अनाथ बच्चों की मदद में लगा चूके हैं। लाइब्रेरी साइन्स में गोल्ड मेडल और साहित्य व इतिहास में स्नातकोत्तर के बाद लाइब्रेरियन के पद पर नियुक्ति के पहले दिन ही उन्होंने तय कर लिया था कि वे जिंदगी भर अपना पूरा वेतन गरीब-अनाथ बच्चों की मदद में लगा देंगे। वे अपनी गुजर-बसर के लिय पार्ट-टाइम करने लगे। यह सिलसिला उनके रिटायरमेंट के बाद भी जारी रहा। वे अपनी पूरी पेन्शन दान करते रहे और अपने लिए एक वेटर की नौकरी ढूँढ ली। यहाँ तक कि आजीवन अविवाहित रहे कि कहीं इनकी कमाई में कोई हिस्सेदारी न हो। 

आप कहेंगे, तो भी एक लाइब्रेरियन का वेतन और 30 करोड़ रुपये? आप ठीक कहते है, पर धीरे-धीरे इनके मिशन को पहचान मिलने लगी। भारत सरकार ने इन्हें 'सर्वश्रेष्ठ लाइब्रेरियन', इंटरनेशनल बायोग्राफ़िक सेंटर कैम्ब्रिज ने 'नोबलेस्ट ऑफ़ द वर्ल्ड', रोटरी क्लब ने 'मेन ऑफ़ मिलेनियम' और 'लाइफ टाइम सर्विस अवार्ड' से नवाजा तो यूनाइटेड नेशन्स ने इन्हें 20 वीं सदी का उत्कृष्ट व्यक्तित्व घोषित किया। इन पुरस्कारों की राशि 30 करोड़ हो गई और कहने की बात नहीं उन्होंने इसे भी बच्चों के लिए दान कर दिया।

हम अपने जीवन में किसी काम को शुरू ही तब करते है जब तक तार्किक रूप से यह न ठहरा लें कि वो हो सकता है या नहीं और यदि हो सकता है तो कैसे? क्या कल्याणसुन्दरम् को अपने पहले वेतन को देते समय यह मालूम था कि किसी दिन वे 30 करोड़ दान कर पाएँगे? उन्होंने ये भी नहीं सोचा होगा कि एक व्यक्ति के वेतन से बच्चों के जीवन पर कोई फर्क भी पड़ेगा, लेकिन आज वे हज़ारों बच्चों के जीवन को बेहतर बना पा रहे हैं। जरुरी सिर्फ यह है कि हमें अपने काम पर विश्वास हो और हम पूरी निष्ठा से उसे करते चले जाएं। 'कैसे' का भार प्रकृति पर छोड़ 'क्या' को अपने जीवन का केंद्र बनायें तो निश्चित ही ये दुनिया कहीं सुन्दर होगी। 



(दैनिक नवज्योति में रविवार, 14 सितम्बर को कॉलम 'सेकंड सन्डे' में प्रकाशित)
राहुल हेमराज ............