Friday 31 May 2013

ये सिस्टम ही ऐसा है


       ........ और आख़िरकार संजय दत्त को जेल जाना पड़ा। जब ये फैसला आया था कि उन्हें अपनी बाकि बची सज़ा भी काटनी पड़ेगी; सारे अखबारों, न्यूज़ चैनल्स पर ये खबर सुर्ख़ियों में छाई थी। कहीं उनके इंटरव्यू तो कहीं उस घटना से लेकर आज तक का सिलसिलेवार विवरण तो कहीं आमजन की प्रतिक्रियाएँ, फिर उनकी दया याचिका और फिर उसका खारिज होना। मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता कि उन्हें 'दया' मिलनी चाहिए थी या नहीं। हाँ, एक बात जो उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कही, का जिक्र जरुर करना चाहूँगा।

जब उनसे पूछा कि आप ऐसी कोई बात श्रोताओं के साथ बाँटना चाहेंगे जो आपने अपनी पिछली डेढ़ साल की सजा के दौरान शिद्दत से महसूस की हो तो वे बोले, 'फ्रीडम'।  जिन्दगी में सबसे महत्वपूर्ण कोई चीज है तो वह है - आज़ादी। आज़ादी, अपने तरीके से हक़ के साथ जीने की। उस डेढ़ साल में अहसास हुआ कि आज़ादी से बढ़कर कुछ नहीं।

वास्तव में, सच ही तो है हम अपनी जिन्दगी के, इस आज़ादी के इतने अभ्यस्त हो जाते है कि इसकी सही क़द्र नहीं कर पाते। पता तब चलता है जब ये हमारे पास नहीं होती। कहीं भी आ-जा सकना, किसी से भी मिलना, अपने विचारों को जस के तस प्रकट कर पाना, यहाँ तक कि अपनी पसंद के कपडे पहनना या अपनी पसंद और सुविधा से खा पाना और न जाने क्या-क्या, अनगनित। ये सब भूल जाते है और फिर करने लगते है इस आज़ादी का दुरूपयोग। वैसे इस आज़ादी के बदले हमें देना ही क्या होता है, सिर्फ एक अच्छा नागरिक आचरण किन्तु न जाने क्यूँ हम वो सीमा भी लाँघ जाते है। शायद छोटे-मोटे लालच या ये सिद्ध करने का अहं कि मैं इस व्यवस्था से ऊपर हूँ।

ये सारी बात हमारी इसी मनोवृति को उजागर करती है कि जो कुछ हमें प्राप्त है हम उसकी इज्ज़त नहीं करते। मन में कृतज्ञता का भाव हो तो निश्चित ही वो हमें गलत रास्तों पर जाने से रोके। अपने तरीके से जीने की आज़ादी ही की तरह जिन्दगी की न जाने कितनी नियामतें है जिनकी हम वाज़िब क़द्र नहीं करते।क़द्र नहीं करते वहाँ तक तो ठीक है, कभी-कभी बेइज्जती भी कर बैठते है तब वे रूठ कर चली जाती है। अब भला प्रकृति क्यूँ अपमान सहन करेगी और तब हमें अहसास होता है कि हमारे पास क्या था और हमने क्या खोया है? शायद संजय दत्त भी कुछ ऐसे ही अहसास साझा कर रहे थे।

आज देश और समाज की जो हालत है उसके पीछे, आपको नहीं लगता, आज़ादी की बेकद्री ही अहम् वजह है। जो कुछ आज हमें सहज-सुलभ है पहले उसकी कल्पना कर पाना ही मुश्किल था। हम सबने इस आज़ादी का दुरूपयोग अपने-अपने छोटे फायदों के लिए किया, ये सोचकर की मेरे अकेले के कुछ करने या न करने से क्या फर्क पड़ता है। ऐसा सभी ने सोचा और आज फर्क हमारे सामने है। आज जो कुछ हम झेल रहे हैं, उसके जिम्मेवार हम सब हैं।

इन सब के बीच एक बात जो मन में उम्मीद की लौ जलाए है वो ये कि यदि एक अकेला व्यक्ति व्यवस्था बिगाड़ सकता है तो सुधार भी सकता है। अपने निजी-स्वार्थों के लिए आज़ादी का दुरूपयोग करते समय क्या हमने चिंता की थी कि कोई और हमारा साथ देगा या नहीं। अब उसका तो परिणाम अच्छा निकला नहीं। आज जब अपनी जिन्दगी की बेहतरी के लिए एक अच्छे नागरिक धर्म को निभाने की दरकार है तो हमें किसी और का साथ क्यूँ चाहिए? 
अरे! लोग तो जैसे पहले जुड़े थे अब भी जुड़ जाएँगे।

आज जरुरत है अपनी क्षमताओं को आँकने की। इस बात को सोचने औए समझने की, कि मेरे अकेले के कुछ करने या न करने से ही सारा फर्क पड़ता है। मैं अपने जीवन की बेहतरी चाहता हूँ तो बेहतर आचरण की शुरुआत मुझे ही करनी होगी, मुझे किस की प्रतीक्षा है और क्यों? फिर शायद कोई किसी से नहीं कहेगा 'ये सिस्टम ही ऐसा है'।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 26 मई को प्रकाशित )
आपका 
राहुल ..............

Friday 24 May 2013

ईश्वर की कृपा है, अल्लाह का करम है.


कई सालों पहले 'श्रद्धांजलि' के नाम से लता जी का दो भागों में संगीत-संकलन आया था। इसमें उन्होंने अतीत के महान गायकों का परिचय देते हुए अपनी पसंद का उनका एक-एक गाना अपनी आवाज़ में गाया था। बहुत सुंदर और अदभुत संकलन था वो। उसी में लता जी जोहरा बाई का परिचय देते हुए एक वाकया सुनाती है, "मैं एक गाने की रिहर्सल कर रही थी। जोहरा बाई वहाँ बैठी थी। उन्होंने कहा, लता बेटी माशा अल्लाह बहुत अच्छा गा रही हो।" मैंने कहा, "नहीं-नहीं, मैं क्या ........ आप ऐसे ही कह रही है. तब वो बोलीं, नहीं बेटी, जब कोई तुम्हारे गाने की तारीफ़ करे तो कहना चाहिए, अल्लाह की मेहरबानी है। उसका करम है।"

इतनी जहीन और महीन बात जोहरा बाई जैसी महान गायिका ही कह सकती थी और अरसा बीत जाने के बाद 'ऐसे लोग अब कहाँ' कहते हुए लता जी जैसे लोग ही ऐसी मर्मस्पर्शी बात को याद रख सकते है। मर्मस्पर्शी इसलिए क्योंकि मुझे लगता है ये सीख मात्र किसी भी व्यक्ति की पात्रता या काबिलियत बढ़ा सकती है।

अपनी तारीफ़ के जवाब में यह कहना कि ईश्वर की कृपा है या अल्लाह का करम है, में दो महत्वपूर्ण बातों का समावेश है। पहली, अपनी प्रशंसा को स्वीकार करना यानि पूरे विश्वास के साथ अपने आपको उस लायक समझना और दूसरी, इस बात का ध्यान रखना कि ये स्वीकारोक्ति मन में कृतज्ञता का भाव लाए न कि अहंकार का। आज मुझे फिर मौका मिला है अपनी पसंदीदा पंक्ति को दोहराने का और मैं इसे बिल्कुल नहीं छोडूँगा। ' हम ईश्वर की स्वतन्त्र भौतिक अभिव्यक्ति हैं '- और जब हम इस बात को आत्मसात कर लेते है तो बड़ी आसानी से एक हाथ से अपनी प्रशंसा को ले दूसरे हाथ से उसे परमात्मा के चरणों में समर्पित कर पाते है।

प्रशंसा की विनम्र स्वीकारोक्ति हमारी ग्रहण करने की शक्ति को बढाती है और हम वह सब और बेहतर करने में समर्थ एवम सहज पाते है जिस कारण हमारी प्रशंसा हुई है।  तरह हम अपने क्षेत्र में निपुण होते चले जाते है और एक दिन अपने-अपने क्षेत्र में लता मंगेशकर बनने की राह पर होते है। समस्या तो तब पैदा होती है जब हमारी प्रशंसा हमारा अहंकार तुष्ट करने लगती है। हमें ये ग़लतफ़हमी हो जाती है कि मेरे बिना तो ये सम्भव नहीं । मैं नहीं होता तो ये कौन कर पाता? इस तरह हम स्वयं ही अपनी बेहतरी के रास्ते में खड़े हो जाते है और फिर तो ईश्वर भी चाहे तो हमारी मदद नहीं कर सकता।

आपकी प्रशंसा आपकी पहचान है, आप में ईश्वर होने का प्रमाण-पत्र। इसे स्वीकार कीजिए और धन्यवाद दीजिए उस ईश्वर को जिसने आपको इस लायक समझा। आप साज़ है, साजिन्दे नहीं। साजिन्दे को साज़ बजाने की खुली छूट दीजिए, फिर देखिए ये मधुर-संगीत किस तरह आपके जीवन में रस घोल देता है।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 19 मई को प्रकाशित )
आपका,
राहुल ..............                            

Friday 17 May 2013

कहिए जब कोई सुनना चाहे



'ज्ञानी से कहिए कहा, कहत कबीर लजाए 
अन्धे  आगे  नाचते  कला  अकारथ जाए।'              - कबीर 


आप कहना चाहे पर जरुरी है कि अगला सुनना भी चाहे। आप की नज़र में आप जो कह रहे है वह कितना ही महत्वपूर्ण या अच्छा क्यूँ न हो, वह तब तक निरर्थक है जब तक सुनने वाला भी ऐसा ही नहीं सोचता हो। कबीर यही तो कह रहे है कि, अन्यथा सारा ज्ञान व्यर्थ जाएगा।

कौन नहीं चाहता कि उसकी बात को गम्भीरता से लिया जाए? लेकिन ऐसा होता बहुत कम बार, बहुत कम लोगों के साथ है। आइए, सबसे पहले पड़ताल करते है कि व्यक्ति बोलता ही क्यूँ है? क्योंकि इसे जाने बिना ये नहीं समझा जा सकता कि व्यक्ति को कब, किसे और कितना कहना है? व्यक्ति के बोलने की मोटा-मोटी तीन वजहें होती है। पहली, जब भावनाओं का अतिरेक अभिव्यक्ति चाहे; दूसरी, किसी को राह दिखाना आपका दायित्व हो और तीसरी, जरुरी सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए।

भावनाओं का अतिरेक, चाहे वे ख़ुशी की हों या दुःख की, उनके साथ साझा कीजिए जिन्हें आपके सुख-दुःख से सरोकार हो। हो सकता है ऐसे लोग आपसे सहमत न हो, लेकिन इनका इरादा नेक होता है। इनकी असहमति में भी आपके भले की सोच ही छिपी है परन्तु हम चुनते है ऐसे लोगों को जो हमारी हाँ में हाँ मिलाते है क्योंकि इनसे हमें अपनी भावनाओं की तयशुदा स्वीकृति मिलती है। ऐसे लोग हमें क्षणिक ख़ुशी जरुर दे सकते है लेकिन हमारे जीवन को कभी उन्नत नहीं बना सकते। ऐसे लोगों, जिन्हें आपके सुख-दुःख से सरोकार है, से भी तब बात कीजिए जब वे स्वयं भावनात्मक स्तर पर आप से जुड़ पाने की स्थिति में हों, सम-स्थिति में हों और तब तक कीजिए जब तक उन्हें भी रस आए। यदि आप ध्यान रखेंगे तो उनका चेहरा आपको इशारा कर देगा।

सबसे नाजुक है ऐसे लोगों तक अपनी बात सही अर्थों में पहुँचा पाना जिन्हें राह दिखाना हमारा कर्त्तव्य हो। नाजुक इसलिए क्योंकि यहाँ हमारे कहे शब्द आपसी रिश्तों को खट्ठा या मीठा बना सकते है, खास तौर से हमारे बच्चों से हमारे रिश्तों को। मैंने अनुभव किया कि एक तरफ तो कुछ कहना नितांत जरुरी होता है तो दूसरी तरफ उन्हें ऐसी बातें सुनना कतई गवारा नहीं होता। इस तरह बात हमेशा नाराजगी पर ख़त्म हो जाया करती थी। मैंने जो पाया वह यह कि यदि ऐसी स्थिति है तो सबसे पहले हमें हमारे कहे कि जरुरत पैदा करनी होगी, फिर चाहे वो हमारे बात करने के तरीके से हो या हमारे आचरण से। उनके स्तर पर जाकर उनके मन के दरवाजों को खोलना होगा, शब्दों की बजाए उनके छिपे अर्थों को पकड़ने की कोशिश करनी होगी और यह सब तब ही होगा जब उन्हें पक्का विश्वास हो की उनकी बात आपकी नज़र में गलत हो या सही, बात नकारी जा सकती है वे नहीं। आपका प्रेम अखंडित रहेगा। मैंने कोशिश शुरू कर दी है और मजा आने लगा है।

बोलने की आखिरी वजह, सूचनाओं का आदान-प्रदान। वैसे तो यह जीने की जरुरत है लेकिन 'फर्स्ट-इनफॉर्मर' नाम की बीमारी से तो, तो भी बचना होगा। इस बीमारी में हम लोगों को कोई बात सिर्फ इसलिए बताते फिरते है जिससे हम सिद्ध कर सकें कि सबसे पहले ये हमें मालूम चली है। ऐसी हालत हमें सिर्फ हँसी का पात्र ही बनाती है। 

मेरे सबसे प्रिय लेखक श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' अपनी पुस्तक 'बाजे पायलिया के घुंघरू' के प्राक्कथन में लिखते है कि जो कहें, ह्रदय से कहें न कि बुद्धि से। ह्रदय विश्वासी और बुद्धि अविश्वासी। ह्रदय से कही बात ह्रदय में उतरती है जबकि बुद्धि से कही बात बुद्धि से टकराकर लौट आती है। वे आगे लिखते है कि आपके शब्द किसी को निरुत्तर करने के लिए नहीं बल्कि एक-दूसरे के मन को शांत करने के लिए हों। मुझे नहीं लगता की अपनी बात को प्रभावी बनाने का इससे सहज-सुन्दर कोई और गुरु-मंत्र हो सकता है।


(जैसा कि नवज्योति में रविवार, 12 मई को प्रकाशित)
आपका 
राहुल.......

Friday 10 May 2013

छोटी-सी बात



यदि मैं आपसे कहूँ कि आज मैं आपको एक ऐसा नुस्खा बताने वाला हूँ जिससे सारी अच्छी बातें आप बिना किसी अभ्यास के ही सीख जाएँगे तो आप जरुर इसे मेरी वाक्-पटुता समझेंगे, लेकिन विश्वास मानिए, ऐसा नुस्खा मेरे पास है। अरे भाई! बताता हूँ, थोडा धीरज रखिए। नुस्खा सीधा-सा है, 'अंदर से बच्चे बने रहिये'। अरे! पहले मेरी बात सुनिए, फिर आपको ठीक न लगे तो नकार देना।

आपको नहीं लगता, बच्चों में वे सारे गुण होते है जिन्हें पहले तो हम दुनियादारी के नाम पर भुला देते है फिर उन्हें ही आध्यात्मिकता के नाम पर बाकि की जिन्दगी सीखने की कोशिश करते है। चलिए, मैं आपको कुछ एक गिनवाता हूँ,- वे 'लोग क्या कहेंगे' की परवाह नहीं करते, खुश रहना उनकी पहली प्राथमिकता होती है, वर्तमान में जीते है, दूसरों को माफ़ कर देने की उनमें अदभूत शक्ति होती है, वे आपकी किसी एक बात से नाराज़ है तो उसका आपकी किसी दूसरी बात पर कोई प्रभाव नहीं होता; मुझे नहीं लगता ये सूची आसानी से ख़त्म हो सकती है। मजे की बात तो यह है कि ये सारी बातें हम में थी, इन सारे गुणों के साथ हम पैदा हुए थे लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते गए व्यक्तित्व के इस खुलेपन से हमें डर लगने लगा। हमें हमारी सफलता, समृद्धि, वर्चस्व के खो जाने का डर सताने लगा। इस डर से बचने के लिए हमने अपने चारों ओर दीवार खींच ली। पर हुआ क्या, जितनी ऊँची हम दीवार खींचते, उतना डर बढ़ता गया और इस दीवार ने किया क्या, डर तो भगाया नहीं अलबत्ता खुशियों को जीवन में आने से जरुर रोक दिया।

अब हुआ सो हुआ, बस इस दीवार को गिरा दीजिए, अपने अंदर के बच्चे को जगाइए। बच्चों की नज़र से देखिये, कभी बचकानी हरकतें भी कीजिए। आपकी सफलता, आपकी समृद्धि, आपका वर्चस्व आपसे कोई नहीं छीन सकता चाहे इसके चारों ओर दीवार हो या न हो। हाँ, दीवार नहीं होगी तो आपकी सफलता, समृद्धि और वर्चस्व; खुशियों को अपनी ओर आकर्षित जरुर कर पाएँगी।

हम सब के जीवन में ऐसी परिस्थितियाँ जरुर आती है जब हमें लगता है 'ये नहीं हुआ तो क्या होगा'। हम इतने घबरा जाते है कि जैसे ये काम नहीं हुआ तो दुनिया ही लुट जाएगी। यहाँ तक कि कई बार अंध-विश्वासों में फँस जाते है या ईश्वर के सामने गिडगिडाने लगते है। हम इतने घबराये होते है कि हमें दूसरी संभावनाएँ नज़र ही नहीं आती। हो सकता है प्रकृति चाहती हो कि हम दूसरी संभावनाओं को भी तलाशें। हम अपने होने न होने को उन परिस्थितियों से जोड़कर देखने लगते है। ऐसे मुश्किल दौर में एक मिनट के लिए ठिठक कर सोचिए कि आपकी जगह कोई और बच्चा होता तो क्या करता? मेरा विश्वास है कि आपको अपने अधिकाँश सवालों के जवाब मिल जाएँगे और आप कहीं अधिक जोश के साथ जिन्दगी जीने को प्रस्तुत होंगे।

बस इतना कीजिए, रोज़ाना थोडा समय बच्चों के साथ गुजारिए, ऐसा समय जब आप उनके बराबर हो जाएँ। कुछ उनके जैसा कीजिए, जिन्दगी जीना आ जाएगा। 
आपको आपके लौट आए बचपन की दिल से मुबारकबाद।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 5 मई को प्रकाशित)
आपका 
राहुल...........                            

Friday 3 May 2013

अपने कहे को निभाइए



एक दिन शाम को मैं अपने दोस्त के साथ बैठा था। बात चली कि शहर में एक बहुत अच्छा कवि-सम्मेलन होने वाला है लेकिन चूँकि प्रवेश निःशुल्क है इसलिए सुबह जल्दी आठ बजे ही 'पासेज' ले लेने होंगे वरना बाद में तो लम्बी लाईन लग जाएगी। तय हुआ कि वो साढ़े सात बजे मेरे यहाँ आएगा और आठ बजे से पहले ही हम वहाँ पहुँच जाएँगे। हमेशा की तरह मुझे उसके कहे पर विश्वास तो नहीं था लेकिन चूँकि कवि-सम्मेलन का उसे जबरदस्त शौक था इसलिए इस बार मुझे भरोसा था। मैं नियत समय पर तैयार था और भाई साहब हिलते-हिलते सवा-आठ बजे के करीब मेरे पास पहुँचे। न जाने क्यूँ इस बार मुझे झुंझलाहट नहीं हुई बल्कि सोचने लगा ये हमेशा ऐसा क्यूँ करता है?

एक बारगी तो लगा कि उसमें समय की पाबंदगी और अनुशासन की कमी है लेकिन जैसे-जैसे सोच गहरी उतरने लगी, कुछ और ही नज़र आने लगा। जो नज़र आने लगा वो यह था कि उसे अपने कहे शब्दों पर ही विश्वास नहीं था। जब आपको अपने पर ही विश्वास नहीं तो भला दूसरा कोई आप पर कैसे विश्वास करेगा?

जब उसने मुझे साढ़े सात बजे आने को कहा तब निश्चित रूप से उसकी जल्दी पहुँचने की मंशा थी और उसने कोशिश भी की होगी लेकिन वो समय पर नहीं पहुँच पाया क्योंकि उसकी अपने शब्दों के प्रति प्रतिबद्धता नहीं थी। चाहे वो कोई हो, जब व्यक्ति अपने शब्दों के प्रति प्रतिबद्ध नहीं होता है तब वह अपने कर्मों के प्रति भी प्रतिबद्ध नहीं हो पाता और फिर न तो उसे संतुष्टि मिलती है और न ही सफलता; यही मलाल जिन्दगी भर बना रहता ही कि वो जिसका हकदार था वह उसे कभी नहीं मिल पाया। हमारी प्रतिबद्धता हमारी क्षमताओं को बढ़ा देती है। हम वो कर गुजरते है जिसका शायद हमें भी विश्वास न था, जैसे ढेरों शक्तियाँ हमारे अन्तःकरण में सोई पड़ी थी और हमारी प्रतिबद्धता ने उन्हें जगा दिया हो।

यदि गायक बनना है तो रियाज़ से प्रतिबद्ध होना होगा, यदि लेखक बनना है तो लेखन से प्रतिबद्ध होना होगा, यदि विशेषज्ञ बनना है तो अध्ययन से प्रतिबद्ध होना होगा। रास्तों से प्रतिबद्ध हुए बिना मंजिल को पाना सम्भव नहीं लेकिन ख्याल रहे, रास्तों की भी अपनी माँग होती है। यदि आप जो करना चाहते है उसके बीच आने वाली मानवीय संवेदनाओं के प्रति असंवेदनशील है तो समझ लीजिए आपकी प्रतिबद्धता को आपके अहं ने हर लिया है। आपने जो कहा वैसा ही करना आपने अहं का विषय बना लिया है। याद है आपको 'थ्री इडियट्स' के डीन वीरू सहस्त्रबुद्धि। वे जब कहते है कि उन्होंने अपने बेटे की मौत के दूसरे दिन भी क्लास ली थी तो ये उनका अहं था जो प्रतिबद्धता का लिबास पहने था। कोई भी चारित्रिक गुण कितना ही अच्छा क्यूँ न हो जब उसमें अहं का कीड़ा लग जाता है तो वह सड़ांध ही फैलाता है।

अपने कहे को निभाइए और जो निभा पाएँ वही कहिए। विश्वास रखिए, अंतर्मन में उपजा विचार जो शब्दों का रूप लेना चाहता है, उसे निभा पाने की क्षमता आप में है तभी तो वह आपके मन में उपजा है। एक शेर के मन में उड़ने का विचार कभी नहीं आता लेकिन एक कबूतर को अपनी पहली उड़ान से भी पहले पता होता है कि वो उड़ सकता है।

अपने कहे को निभाइए, सफलता के इस रास्ते पर संतुष्टि आपकी संगिनी होगी जो आपके और आपके अपनों के जीवन में सुन्दरता की रचना करेगी।


(नवज्योति में रविवार, 28 अप्रैल को प्रकाशित)
आपका 
राहुल..........