Sunday 19 February 2012

Ease Works



जीवन  - संगीत




इस सप्ताहांत तक में तय नहीं कर पाया था की मैं आपसे किस विषय पर बात करूँगा. हर बार तो जो कुछ पढ़ा, समझा, जाना होता है उसमे से ही कोई विषय जो दिल को छूने वाला और मन को उद्वेलित करने वाला होता है के बारे मैं सोचकर, मननकर और कुछ इधर-उधर से जानकारियां इकट्ठी कर आपसे रूबरू हो जाता हूँ. इससे मुझे लगने लगा था की मेरा नया पढ़ना और जानना छुट रहा है और तब सोचा की कुछ नया पढना शुरू करूँगा और उसी में से कुछ निकालूँगा.
मैंने एक किताब शुरू की लेकिन मेरा सारा ध्यान विषय-चुनाव पर लगा था और मैं न तो पढ़ाने का रस ले पा रहा था और न ही लिखे को अपनी सोच का हिस्सा बना पा रहा था. मैं आदतन धीरे पढता हूँ पर इस बार दुगुना पढ़ गया. मुझे कोई बात अच्छी भी लगती तो सोचता आगे कुछ और ज्यादा अच्छा मिलेगा, और पूरा सप्ताह गुजर गया.
 
प्रकृति हमारे हर सवाल का जवाब देती है पर जरा अपने ढंग से. पढ़ते-पढ़ते मैं उस अध्याय पर पहुँच चुका था जिसका शीर्षक था ' Take it easy '. मैं ठिठका, होश आया, अपने आपको स्थिर किया तब दो बातें वापस समझ आई.

पहली, मंजिल पर पहुंचना उत्सव तब ही है जब यात्रा का आनंद आये. यात्रा मैं हर पग को महसूस किया हो, हर नज़ारे का लुफ्त उठाया हो तब ही मंजिल सुनहरी लगती है अन्यथा यदि यात्रा को हम सिर्फ काम मन लेंगे तो मंजिल बन जायेगी काम का निपटारा और खुशियाँ बनी रहेंगी मृग-मरीचिका.

दूसरी, संघर्ष हमारी नियति नहीं हमारा द्रष्टिकोण है. यदि हम मानते है की जो कुछ हम चाहते है वह बिना संघर्ष के मिल ही नहीं सकता तो विश्वास मानिए ऐसा ही होगा क्योंकि प्रकृति तो हर हाल में हमारा साथ निभाएगी. संघर्ष शब्द ही नकारात्मक है जिसे महसूस करें तो पाएंगे की उसमे कंही यह भावना छुपी है की ' हम जो कुछ पाना चाहते है उसके लायक नहीं है और इसलिए अतिरिक्त कठिन प्रयासों की जरुरत है.'
हमारे इस द्रष्टिकोण के लिए कुछ हद तक हमारे संस्कार (belief-system) जिम्मेदार है जहाँ हम बचपन से सुनते आये है, ' कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है ' , ' संघर्ष ही जीवन है' , ' तप कर ही सोना निखरता है', ' जीवन एक दौड़ है.'  आदि, आदि. हमारी यह सोच हमारी दृष्टी को धुंधला देती है, अंतस की आवाज़ हम तक नहीं पहुँच पाती, हम अच्छे - बुरे का भेद नहीं कर पाते और खुद ही अपने जीवन को संघर्षमय बना लेते है. 

वास्तव मैं ऐसा नहीं है, हो ही नहीं सकता. प्रकृति तो बाहें फैलाए है, हर वो चीज देने को आतुर है जो हम पाना चाहते है. जरुरत है हमें अपना द्रष्टिकोण बदलने की. हमारा निश्चिन्त भाव हमें अपनी रचनात्मक ऊर्जा से जोड़ देता है जिससे हमारे कदम प्रभावी हो उठते है. रास्ते की थकान नहीं आती. यात्रा के हर क्षण का आनंद ले पाते है. मंजिल आसान लगने लगती है.

सच तो यह है की हम चाहते भी वहीँ है जो वास्तव में हमें पहले से मिला हुआ है और हमारा जीवन - उद्देश्य , हमारे प्रयास उसे पाने के लिए नहीं महसूस करने के लिए है.
जीवन - स्पर्श से उपजी इन्ही मधुर तरंगो के साथ अपनी बात को यहीं विराम देना चाहूँगा.
दिल से, आपका;
राहुल.....

Saturday 11 February 2012

Appreciation is Blessing


Count your blessings,
Count them one by one.
Count your blessings,
See what god has done.


सराहना ही आशीर्वाद है. सराहना का मतलब है जीवन में जो कुछ भी उपलब्ध है उसे पहचानना और उसके प्रति कृतज्ञ होना. आशीर्वाद का मतलब है ईश्वर की कृपा को आगे पहुंचाना.
अब इन शाब्दिक अर्थों के परे जाकर गौर करें तो हम पायेंगे की हम किसी भी व्यक्ति या वस्तु को और अधिक धन्य नहीं कर सकते क्योंकि प्रकृति का  हर घटक परमात्मा की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है.यदि ईश्वर कण-कण में है तो हमारे शुभ-वचन उसकी उपस्थिति को बढ़ा कैसे सकते है? तो क्या आशीर्वाद के कोई माने नहीं?
नहीं, ऐसा नहीं है. आशीर्वाद हमारी प्रेरणा-शक्ति होते है. आशीर्वाद देने वाला अपने अंदर के ईश्वर तत्व को पहचान पाता है तब ही तो वह अपने आपको किसी और को धन्य कर पाने के लायक समझता है. ऐसा व्यक्ति उस व्यक्ति में भी मौजूद ईश्वरीय तत्वों को महसूस कर पाता है जिसे वह आशीर्वाद दे रहा होता है. वह अपने शुभवचनो से उसे यह भरोसा दिलाता है की वो जीवन की सारी संभव अच्छाइयों का हकदार है.

इसी तरह जब हम किसी व्यक्ति या वस्तु को सराहते है तब हम उनके गुणों को पहचान कर स्वीकार कर रहे होते है जो उनमें पहले से मौजूद थे और हम अपने शब्दों द्वारा हमारे जीवन में उनकी मौजूदगी के लिए धन्यवाद दे रहे होते है, कृतज्ञ हो रहे होते है. किसी भी व्यक्ति या वस्तु के वो गुण जो हमें कृतज्ञता की भावना से भर दे ईश्वरीय ही तो है. हम सराहना कर उनमें ईश्वरीय तत्वों को पहचानते है, स्वीकार करते है और ऐसा कर हम अपने अन्दर क ईश्वरीय तत्वों को महसूस कर पाते है. वास्तव में सराहना और आशीर्वाद एक दुसरे के ईश्वरीय गुणों को पहचानने , स्वीकार करने और उनके  प्रति कृतज्ञ होने की प्रक्रिया भर है.

हम में से ज्यादातर लोग किसी न किसी प्रार्थना के नियम को पालते है. कोई भी प्रार्थना हो उसमें हम उस सृष्टिकर्ता के गुणों का बखान ही तो करते है. यह सराहना नहीं तो क्या है? यह प्रार्थना हमें हमारे अंदर पहले ही से मौजूद सृष्टिकर्ता के उन गुणों से जोड़ देती है और हम अपने इच्छित को प़ा लेने के प्रति आशावान हो उठते है. सराहना न केवल आशीर्वाद है बल्कि प्रार्थना भी है. यदि प्रार्थना का पारम्परिक स्वरुप नहीं भाता है तो कोई बात नहीं बस अपने जीवन को जो कुछ मिला है उसे सराहते गुजारिये; यही सच्ची प्रार्थना है. करते हम इसका बिलकुल उलट है. ईश्वर में तो आस्था रखते है लेकिन उससे मिले जीवन और जीवन में मिली नेमतो को कभी नहीं सराहते. जिस तरह एक गृहिणी के अच्छे खाने की प्रशंसा कर ही उसे और अच्छा बनाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है उसी तरह जीवन में जो कुछ अच्छा प्राप्त है उसकी सराहना कर ही जीवन के उन द्वारो को खोला जा सकता है जहाँ से ईश्वर के आशीर्वाद बरस सकें.

जीवन के प्रति यह दृष्टिकोण अपना कर हम इसे और बेहतर बना पायें, दिल से इन्ही शुभकामनाओं के साथ,

आपका,
राहुल....