Friday 19 December 2014

तीन बन्दरों का विज्ञान




जापान के डॉ सुमोटो ने एक अचम्भित करने वाला प्रयोग किया। उन्होंने तीन बीकर लिए, हर बीकर में आधा मुट्ठी चावल को पानी में भिगो दिया। डॉ सुमोटो रोजाना एक बार पहले बीकर के चावलों को 'थैंक यू', दूसरे बीकर के चावलों को 'इडियट' कहते और तीसरे बीकर के चावलों पर ध्यान ही न देते। एक महीने बाद  क्या देखते हैं? पहले बीकर के चावल खमीर उठने के कारण महक उठे थे जबकि दूसरे बीकर के चावल काले पड़ चुके थे और जिनकी कोई परवाह ही न की थी वे तो बुरी तरह सड़ चुके थे।

उन निर्जीव चावलों का ये हाल हुआ तो हमारे मन-मस्तिष्क का क्या हाल होता होगा? फिर सोच-समझ पाना तो प्रकृति की इन्सान को सबसे कीमती भेंट है। कीमती है तो उतनी ही सावधानी की जरुरत भी। उन चावलों के तो हाथ में तो नहीं था कि उनका क्या होगा लेकिन हमारे हाथ में तो है। हम 'थैंक यू' सुनेगें या 'इडियट' ये हमारा चुनाव है इसलिए जीवन में महक उठेंगे या काले पड़ जाएंगे यह पूरी तरह हमारे हाथ में है। यही तो है गाँधी जी के उन तीन बंदरों का विज्ञानं जिसकी प्रमेय है; बुरा मत देखो, बुरा म,मत सुनो, बुरा मत कहो। 

होता यूँ है कि जैसा हम देखते-सुनते हैं वैसे ही विचार हमारे मन में बनने लगते हैं। एक जैसा देखते-सुनते हम उन विचारों के सही होने पर विश्वास करने लगते हैं। विसंगति ये कि जिन विचारों पर हम विश्वास करने लगते है ठीक वैसा ही हमारे जीवन में घटने लगता है चाहे हम चाहें या न चाहें। आपने शायद गौर नहीं किया होगा, रोजाना की ख़बरें कि आज फिर किसी ने झूठ और बेईमानी से फलाँ चीज या मुकाम हासिल कर लिया, हमारे मन में उन तरीकों के प्रति विश्वास जगाने लगता है। हम मानने लगते है कि जीवन में कुछ हो सकता है तो ऐसे ही और तब अनजाने ही हम भी उस राह पर निकल पड़ते हैं। इस तरह हम तथाकथित रूप से सफल भी हो जाते है लेकिन अन्दर से खुश नहीं होते क्योंकि झूठ और बेईमानी का ये जहर हमारे व्यक्तित्व से लेकर परिवार और बच्चों तक फ़ैल रहा होता है। यही कारण है कि यह सफलता 'तथाकथित' हो जाती है। भला कोई उपलब्धि हमारे जीवन में खुशियाँ ही न लाए तो वह सफलता कैसे हो सकती है ?

तो तीनों बंदरों की इस प्रमेय को दोहराता हूँ; बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत कहो। मैंने कई बार बातों-बातों में सुना है कि 'कहना' तो हमारे हाथ में है लेकिन 'देखने-सुनने' का हम क्या कर सकते हैं? जैसा देश-समाज में घटेगा वैसा ही तो देखेंगे-सुनेगें।  मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि ऐसा कतई नहीं है। इस दुनिया में बुरा घट रहा है तो उतना ही अच्छा भी, बस फर्क इतना है कि नालायक जरा ऊधम ज्यादा करते हैं, शोर अधिक मचाते हैं इसलिए वही देखने-सुनने में आते हैं। हम चाहें तो हमेशा ही ऐसा देख-सुन सकते हैं जो मन को सुकून देता हो, जो हमें नई ऊर्जा से भर दे। 

एक बात विशेष ध्यान रखने की है कि हम सभी के जीवन में ऐसे लोग होते ही हैं जो हमारी भलाई के नाम पर बात-बात पर हमारी आलोचना, हमें हतोत्साहित करते रहते हैं। इनसे दूरी बनाना सबसे जरुरी है। इनकी बातों को मान लेना ठीक वैसा ही है जैसे पैर में रस्सी बाँध दौड़ने की कोशिश करना। अपने जीवन में अच्छा देखने और सुनने की भला इससे बढ़िया शुरुआत क्या हो सकती है? तो आइए, नए वर्ष पर इस संकल्प के साथ अपने जीवन की गाडी को खुशियों की राह पर मोड़ लेते है कि अच्छा देखेंगे, अच्छा सुनेगें और अच्छा कहेंगे। 

(रविवार, 14 दिसम्बर को दैनिक नवज्योति में प्रकाशित)
राहुल हेमराज ...........

Saturday 29 November 2014

विश्वास के बीज, खुशियों की फसल



एक व्यक्ति अपने जीवन में जहाँ कहीं है वह अपने विचारों की बदौलत है और ये विचार, ये बनते हैं हमारे देखने-सुनने से। जैसा हम देखते-सुनते है वैसे ही विचार हमारे मन में बनने लगते है और फिर धीरे-धीरे उन पर यकीं होने लगता है। जिन विचारों पर हम यकीं करने लगते वे ज्यों के त्यों हमारे जीवन में घटने लगते है चाहे हम चाहें या न चाहें। 

कितना महत्वपूर्ण होता है हमारा देखना और सुनना, इस बात का और भी शिद्दत से अहसास हुआ जब मैंने डॉ. सुमोटो का चावल पर किए प्रयोग का वीडियो देखा। तब मैंने अपने चारों ओर नजर घुमाई तो पाया कि हम शायद ही ऐसा कुछ देख-सुन रहे हैं जो मन को सुकून पहुँचाने वाला हो। अब भला रोज ही झूठ-बेईमानी की कहानियों से घिरे रहेंगे तो अछाई पर यकीं भला क्यों कर होने लगा? हम इन लोगों को सफल मानने लगते है पर ऐसा है नहीं। हासिल इन्होंने चाहे जो कर लिया हो ये खुश नहीं हो सकते वैसे ही जैसे नमक डालने से हलवा कभी मीठा नहीं हो सकता। 

हमारे मन की बदहाली की वजह हमारे अपने विचार है जो हमने अविश्वास के बीजों को बोकर पाए हैं। मैंने सोचा क्यों न मैं रोजाना किसी ऐसी सच्ची घटना को आपके साथ साझा करूँ जी मन में विश्वास जगाती हो, कम शब्दों में उस लिंक के साथ जहाँ से मैंने उसे उठाया हो पर विश्वास बड़ा जगाती हो। विश्वास इस बात का कि अन्ततः अच्छा सिर्फ उनके साथ है अच्छाई को चुनते है। तब हमारे होने या न होने से फर्क पड़ने लगता है। 

तो आइए, facebook.com/dilsebyrahul पर, वहीं खुशियों की फसल के लिए विश्वास के बीज बोते हैं। 
(डॉ सुमोटो का वीडियो भी आप आज की पोस्ट में देख सकते हैं)

इंतजार में,
राहुल हेमराज ........  

Saturday 15 November 2014

रौशनी की सौग़ात






जज्बातों का कोई धर्म नहीं होता, इसी को जी कर दिखाया मुधा पांडे गाँव के असलम बेग ने। मुधा पांडे गाँव रामपुर, उत्तर प्रदेश से कोई 10 कि.मी. पर है। आज से तक़रीबन 15 वर्ष पुरानी बात होगी, गाँव ही की यशोदा देवी के पति अचानक चल बसे। अर्थ जीवन की गाड़ी का ईंधन है। यशोदा देवी का जीवन भी ठहरने लगा। वे अपनी बूढी माँ और छोटे बेटे के साथ बड़ी ही दयनीय स्थिति में एक झोपड़ी में रहने लगी। गाँवों की यही तो ख़ास बात होती है कि यहाँ सब एक-दूसरे को जानते हैं। असलम बेग से ये सब देखा न गया। उन्होंने यशोदा देवी को अपनी राखी-बहन बना लिया।  

रिश्ता बनाना आसान है पर निभाना कोई असलम बेग से सीखे। सबसे पहले तो उन्होंने जरुरत के रुपयों-पैसों के साथ उनके लिए एक घर का इंतज़ाम किया। तब से ईद-दिवाली दोनों परिवार साथ मनाते, मुश्किल घडी में एक-दूसरे के साथ खड़े होते। यह भाई-बहन का परिवार था जिसके बीच दान या मदद नाम की कोई खाई न थी; एक बराबरी का रिश्ता। हर बार की तरह इस भाई दूज, 26 अक्टूबर'14 को भी असलम बेग अपनी बहन यशोदा देवी के यहाँ जाने को तैयार हो रहे थे कि खबर आयीं, वे नहीं रहीं। बात यहीं ख़त्म नहीं होती। वे भारी मन से अपनी बहन के यहाँ पहुंचे तो परिजन अन्तिम संस्कार की चर्चा कर रहे थे। सामान्य था वे गाँव ही के शमशान के बारे में सोच रहे थे लेकिन असलम भाई का विचार था कि वे अपनी बहन का संस्कार गंगा किनारे करें। वे अपने खर्चे पर सारे नाती-रिश्तेदारों के साथ अपनी बहन के पार्थिव शरीर को गंगा किनारे गढ़-मुक्तेश्वर लेकर पहुँचे जहां पूरी श्रद्धा के साथ अपनी बहन का अन्तिम संस्कार किया। 

उनके आपसी रिश्तों में धर्म कभी बीच में न आया। आना भी नहीं चाहिए क्योंकि धर्म आस्था का विषय है और आस्था निजता का। यह उतना ही निजी है जितना कि आज आप कौन से रंग का कपड़ा पहनना चुनते हैं या खाने में क्या लेना पसंद करते हैं। क्या हम किसी से बात करते हुए, व्यापार-व्यवहार या फिर दोस्ती करते हुए ये सब देखते हैं कि कोई क्या पहनता है या क्या खाता है तो उसका धर्म क्यों देखें? धर्म उस ऊर्जा तक पहुँचने का एक जरिया है जो हम सब के होने की वजह है, महत्वपूर्ण वह ऊर्जा है। क्या फर्क पड़ता है आपके कमरे में रोशनी बिजली के तारों से आती है, सौर-ऊर्जा के पैनल से या फिर गोबर-गैस के प्लान्ट से ही; महत्वपूर्ण है आपके कमरे का रौशन होना। ठीक इसी तरह महत्वपूर्ण है आपके अन्तस का रौशन होना चाहे वो जिस धर्म से होता हो। 

व्यक्तियों में भेद होना ही हो तो रौशन और बेरौशन का हो। रौशन वे जिन्हें हर क्षण याद रहे कि हम सब के होने की वजह एक है और बेरौशन वे जो अहं की गिरफ्त में एक-दूसरे से बेहतर सिद्ध करने जुगत में लगे हैं और तब ये जिम्मेदारी रौशन लोगों की हो जाती है कि वे किसी को अन्धकार में न जीने दें। रौशनी की ये सौग़ात जो इस दिवाली हमें असलम भाई और यशोदा देवी ने दी है, हमें सम्भाल कर रखनी है।


(दैनिक नवज्योति में 'सेकंड सण्डे' 9,नवम्बर को प्रकाशित)
राहुल हेमराज ..........

Saturday 18 October 2014

ये हमें क्या होता जा रहा है?





अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली चिड़ियाघर में फोटो के फेर में एक युवक बाघ के पिंजरे में जा गिरा। आगे क्या हुआ ये न जाने आप कहाँ-कहाँ पढ़ चूके .......... लेकिन मेरा मन विचलित हो उठा यह देखकर कि वहाँ खड़े सब लोग अपने-अपने मोबाईल से फोटो और वीडियो क्लिप बनाने में लगे थे। शाम तक तो वो क्लिप सोशियल मीडिया पर वायरल हो चूकी थी। वहाँ खड़े इतने लोगों में से किसी ने इस ओर सोचा नहीं कि क्या किसी तरह इस युवक को बचाया भी जा सकता है? शायद सब अपनी शर्ट उतार कर एक रस्सी बना लेते या कुछ और। हम इतने संवेदनहीन कैसे हो सकते हैं? ये हमें क्या होता जा रहा है?

बारिश के दिनों में भी नदी के किनारे पिकनिक मनाते कुछ लोगों के दुर्भाग्यवश तेज बहाव में बह जाने के फोटो-वीडिओज़ इतने जल्दी आ जाते है जैसे खींचने वाले को पहले से मालूम था और वो इसीलिए वहाँ आया था। हमें बस फर्स्ट आना है, चर्चित रहना है और जीवन के हर क्षण में उन्माद की तलाश है। आइंस्टाइन ने ठीक ही कहा था, " मुझे डर है एक दिन तकनीक मानवीय सम्बन्धों पर हावी न हो जाए और ऐसा हुआ तो दुनिया में वह भोंदूओं की पीढ़ी होगी।" लगता है हर बार की तरह आइंस्टाइन इस बार भी सही सिद्ध हुए हैं। सामाजिक सरोकार तो छोड़िये, परिवार में भी जब कभी सब साथ बैठे होते हैं तब भी वे वहाँ नहीं होते। मोबाईल, जिसे में लानत कहता हूँ, के जरिए अपनी-अपनी दुनिया में रम रहे होते हैं। हर माता-पिता इस बीमारी से पीड़ित होते हुए भी चिंतित है कि कहीं यह बीमारी उनके बच्चों का भविष्य न लील जाए। 

कुछ समय पहले मैं 'क्रोध' के बारे में पढ़ रहा था, तब कई मनोवैज्ञानिक तरीकों के बारे में जाना जो अलग-अलग विशेषज्ञों ने सुझाए थे लेकिन मेरे गले एलन कोहेन का सुझाया मार्ग ही उतरा। वे कहते हैं, क्रोध को निकालने या दबाने की बजाए सबसे पहले उसे स्वीकार कीजिए और फिर कुछ ऐसा सोचने-करने की कोशिश कीजिए जो आपके मन को अच्छा लगता हो। हो सकता है, ऐसा कर पाने के लिए आपको अपने साथ थोड़ी जबरदस्ती करनी पड़े। इस तरह आप अपने मस्तिष्क पर पुनः काबू पा लेंगे और उस कारण को सही रूप में देख-समझ पाएंगे जो क्रोध की वजह बना और तब उसका इलाज कर पाना आपके लिए संभव होगा। 

ठीक ऐसे ही बच्चों को सारे दिन मोबाईल-टी.वी. के लिए टोकने और उनकी चौकीदारी करने की बजाए उन्हें ऐसे कामों के लिए प्रेरित और व्यस्त करने की कोशिश करनी चाहिए जहाँ उनकी संवेदनाएँ पुनः हरकत में आए। वे अपने दिन-सप्ताह में कुछ वक़्त उन जगहों पर गुजारें जहां वे दूसरों की भावनाओं को समझ सकें। जहां वे दुनिया की विविधता को देख सकें। हमारे बच्चे सोचने-समझने में तो हमसे आगे हैं ही, अगर हम इनकी संवेदनाओं के तारों को झंकृत कर पाए तो तकनीक कभी मानवीय संबंधों पर हावी न होने पाएगी और तब बाघ के पिंजरे में भी कोई अपने आपको अकेला नहीं पाएगा।  


(दैनिक नवज्योति में 'सेकंड सन्डे', 12 अक्टूबर को प्रकाशित)
राहुल हेमराज ............

Sunday 21 September 2014

क्या न कि कैसे




उनके बारे में पता चला तो उस नेवले की कहानी याद हो आयी जिसका आधा शरीर स्वर्णिम था। महाभारत के बाद युधिष्ठिर ने प्रजा में सुख-शांति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने राजसूय यज्ञ किया। आयोजन इतना भव्य और दान-दक्षिणा इतनी दी जा रही थी कि इसकी चर्चा पूरे आर्यावर्त में थी। इसी दौरान यह नेवला आया और यज्ञ की शांत राख में लोटने लगा। सभी आश्चर्य से देखने लगे। युधिष्ठिर ने थोड़ा क्रोधित होते हुए नेवले से पूछा तो वह बोला, मैं अपना बचा आधा शरीर भी स्वर्णिम करना चाहता था पर क्षमा करें, आपका दान शायद उतना महान नहीं।

युधिष्ठिर थोड़ा आहत हुए पर मन में जिज्ञासा भी उठी कि आखिर वो क्या था जिसकी महिमा इस राजसूय यज्ञ के दान से भी अधिक थी; तब नेवले ने बताया,- एक नेक ब्राह्मण दम्पति अपने बेटे-बहू के साथ रहते थे। बुरा समय किसकी जिंदगी में नहीं आता, एक दिन ऐसा भी आया जब उनके घर में केवल मुटठी भर चावल बचा था। उन्होंने उसे पकाया और सोचा, चलो एक समय का काम तो चल ही जाएगा, इतने में दरवाजे पर दस्तक हुई। देखा तो कोई वृद्ध राहगीर था। हालत इतनी दयनीय कि साफ़ जाहिर था कि वे कई दिनों से भूखे हैं। ब्राह्मण परिवार ने अपना सारा भोजन उन वृद्ध को करवाया और तब ईश्वर ने अपने वास्तविक स्वरुप में आकर उन्हें मोक्ष का वरदान दिया। मोक्ष है भी क्या मोह का क्षय ही तो है। 

नेवले ने कहा, संयोग से मैं भी उधर से गुजर रहा था कि उन चावल के दानों पर फिसल गया जो परोसते समय फर्श पर गिर गए थे। शरीर का आधा हिस्सा जो फर्श पर लगा स्वर्णिम हो गया, तब से भटक रहा हूँ कि कहीं उसके समकक्ष कोई दान हो रहा हो तो मैं अपने शरीर का आधा हिस्सा भी स्वर्णिम कर लूँ। लगता है राजन आपने भी दान नहीं अहंकार को ही पुष्ट किया है।

वे हैं 73-वर्षीय पालम कल्याणसुन्दरम्, तामिनलाडू की एक कॉलेज के लाइब्रेरियन। वे अब तक 30 करोड़ से अधिक की धनराशि गरीब और अनाथ बच्चों की मदद में लगा चूके हैं। लाइब्रेरी साइन्स में गोल्ड मेडल और साहित्य व इतिहास में स्नातकोत्तर के बाद लाइब्रेरियन के पद पर नियुक्ति के पहले दिन ही उन्होंने तय कर लिया था कि वे जिंदगी भर अपना पूरा वेतन गरीब-अनाथ बच्चों की मदद में लगा देंगे। वे अपनी गुजर-बसर के लिय पार्ट-टाइम करने लगे। यह सिलसिला उनके रिटायरमेंट के बाद भी जारी रहा। वे अपनी पूरी पेन्शन दान करते रहे और अपने लिए एक वेटर की नौकरी ढूँढ ली। यहाँ तक कि आजीवन अविवाहित रहे कि कहीं इनकी कमाई में कोई हिस्सेदारी न हो। 

आप कहेंगे, तो भी एक लाइब्रेरियन का वेतन और 30 करोड़ रुपये? आप ठीक कहते है, पर धीरे-धीरे इनके मिशन को पहचान मिलने लगी। भारत सरकार ने इन्हें 'सर्वश्रेष्ठ लाइब्रेरियन', इंटरनेशनल बायोग्राफ़िक सेंटर कैम्ब्रिज ने 'नोबलेस्ट ऑफ़ द वर्ल्ड', रोटरी क्लब ने 'मेन ऑफ़ मिलेनियम' और 'लाइफ टाइम सर्विस अवार्ड' से नवाजा तो यूनाइटेड नेशन्स ने इन्हें 20 वीं सदी का उत्कृष्ट व्यक्तित्व घोषित किया। इन पुरस्कारों की राशि 30 करोड़ हो गई और कहने की बात नहीं उन्होंने इसे भी बच्चों के लिए दान कर दिया।

हम अपने जीवन में किसी काम को शुरू ही तब करते है जब तक तार्किक रूप से यह न ठहरा लें कि वो हो सकता है या नहीं और यदि हो सकता है तो कैसे? क्या कल्याणसुन्दरम् को अपने पहले वेतन को देते समय यह मालूम था कि किसी दिन वे 30 करोड़ दान कर पाएँगे? उन्होंने ये भी नहीं सोचा होगा कि एक व्यक्ति के वेतन से बच्चों के जीवन पर कोई फर्क भी पड़ेगा, लेकिन आज वे हज़ारों बच्चों के जीवन को बेहतर बना पा रहे हैं। जरुरी सिर्फ यह है कि हमें अपने काम पर विश्वास हो और हम पूरी निष्ठा से उसे करते चले जाएं। 'कैसे' का भार प्रकृति पर छोड़ 'क्या' को अपने जीवन का केंद्र बनायें तो निश्चित ही ये दुनिया कहीं सुन्दर होगी। 



(दैनिक नवज्योति में रविवार, 14 सितम्बर को कॉलम 'सेकंड सन्डे' में प्रकाशित)
राहुल हेमराज ............ 



Sunday 17 August 2014

सफलता का प्लेसमेन्ट






कुछ दिनों पहले मैं आर.डी.बर्मन पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री देख रहा था। एक ऐसा व्यक्ति जिसने फिल्म संगीत को बदल कर रख दिया। '70 और '80 के दशक की फ़िल्में यदि अपने मधुर संगीत के लिए याद रखी जाती है तो उसका एक कारण प्रमुख पंचम दा ही है। लोग प्यार और सम्मान में इसी नाम से उन्हें पुकारते थे। उनके सहायक मनोहारी सिंह और सपन चक्रवर्ती जैसे लोग रहे तो वाद्धकारों में हरी प्रसाद चौरसिया, शिवकुमार शर्मा, लुईस बैंक, भूपिन्दर और क्रेसी लॉर्ड जैसे लोग। 

331 फिल्मों में संगीत देने वाले इस विलक्षण व्यक्ति के जीवन में '80 के दशक के उत्तरार्ध से ऐसा बुरा समय आया जिसका अन्त पंचम दा से हमारे विछोह के साथ ही ख़त्म हुआ। लता मंगेशकर के शब्दों में, "ही डाइड़  टू यंग एण्ड टू अनहैप्पी।" ये एक ऐसा समय था तब एक के बाद एक उनकी 27 फ़िल्में फ्लॉप होती चलीं गई। वे जितना समेटने की कोशिश करते जीवन उतना ही बिखरता जा रहा था। किसी जीनियस के साथ ऐसा होता ही चला जाए, आखिर कोई तो वजह रही होगी? क्या उनसे कोई चूक हो रही थी या ये सिर्फ किस्मत ही थी? दुःख और आश्चर्य भरे मन से यही सब सोच रहा था की डॉक्यूमेंट्री के अन्त में विधु विनोद चोपड़ा आए। वे कहने लगे, '1942 - ए लव स्टोरी' के लिए पंचम ही मेरी पहली पसंद थे। मैं जानता था कि उनमें कितना अद्भुत संगीत था। गानों की पहली रिहर्सल में उन्होंने जो धुनें सुझाई वे वैसी ही पाश्चात्य ले पर थी जो '80 के दशक में उनका पर्याय बन चुकी थी। शायद वे सोचते थे सफलता का साथ जहां छूटा है वहीँ से वापस हो सकता है, शायद लोग मुझसे वही सब चाहते हैं। 

विनोद आगे कहते हैं, मैंने इस पर आपत्ति की और उन्हें अपने स्वाभाविक संगीत लिए प्रेरित किया। सफल और असफल होने से परे मैंने कहानी से गूँथ जाए ऐसे संगीत के लिए उन्हें छूट दी। मैं चाहता था कि कहानी सुन उनके अंदर से जो संगीत वही फिल्म के लिए माफिक होगा। फिल्म रिलीज के  नतीजा सबके सामने था, 1942 का संगीत 'सदी का मधुरतम' करार दिया गया। पंचम दा को अपना अंतिम और तीसरा फिल्मफेयर मिला लेकिन इसका दुःख हम सबको रहेगा कि इस खोयी सफलता को भोगने वे मौजूद नहीं थे। 

मेरे मन की गुत्थी सुलझ गई थी। वे अब तक सफलता को आगे रख कर उसे पुनः पाना चाहते थे। उनके काम को सफलता डिक्टेट कर रही थी। व्यक्ति अपना श्रेष्ठ तब ही दे सकता है जब वह काम स्वाभाविकता से करे। सफलता आपकी प्रेरणा रहे इसमें कोई ऐतराज नहीं लेकिन आपके काम और उसके तरीकों को वह तय करे तो यह केवल आपके असफल होने की गारंटी है। आप जब भी ऐसा करते है तब या तो किसी और की सफलता मापदण्ड होती है या बीते दिनों की सुनहरी यादें। आप भूल जाते हैं कि कोई और आप हैं नहीं और बीता समय हमेशा ही देश, काल और परिस्थितियों के सापेक्ष होता है। इस तरह आपका काम जिसे मैं आपकी अभिव्यक्ति कहना ज्यादा उपयुक्त समझता हूँ, सफलता को आकर्षित नहीं कर पाता, खिल नहीं पाता। 

सफलता काम के पीछे रहे तो ही अच्छा, जब-जब आगे रहती है हमें असफल बना देती है। आप वो करें, वैसे करें जिसमें सहज हैं, जो आपके लिए स्वाभाविक है। यही वो मंत्र है जो सफल तो बनता ही है सफलता को बरक़रार भी रखता है। 


(दैनिक नवज्योति में 'सेकंड संडे' 10 अगस्त को प्रकाशित)
राहुल हेमराज .............

    

Saturday 19 July 2014

संस्कारों का बदलता दायरा






करीब दो महीने पहले की यह घटना होगी जब स्कूली बच्चों को ले जा रहे एक कोरियाई ज़हाज के डूबने की खबर आयी थी। ये बच्चे स्कूल की और से पास ही के एक टापू के लिए विनोद-यात्रा पर निकले थे। अचानक, न जाने क्या गड़बड़ी हुई कि ज़हाज में पानी भरने लगा। कुछ ही समय में यह जहाज डूब गया और इसमें क़रीब 300 बच्चों की जानें गई। तीन सौ बच्चे ......................... इसे बयाँ नहीं किया जा सकता। 

कुछ ही दिनों बाद बच्चों के मोबाइल में लिए उन दुख़द क्षणों के विडियोज़ सोशल मीडिया पर वायरल होने लगे। इनमें जो कुछ भी था वो संस्कारों को पुनर्भाषित करने की माँग करता लग रहा था। मैं आपको बता दूँ, कोरियाई समाज पर कन्फ़यूशियस की शिक्षाओं का गहरा प्रभाव है। समाज का ताना-बाना उनके सिखाए मूल्यों से बुना है। जब जहाज में गड़बड़ी होना शुरू हुई तब उद्घोषणा हूई कि सभी यात्री लाइफ जैकेट पहन लें और अपने-अपने स्थानों पर बने रहें। अफरा-तफरी मचने से मुश्किलें बढ सकती है और हमारी अगली उद्घोषणा का इंतज़ार करे। विडियोज में साफ़ दिख रहा था कि बच्चे पहले अपने मित्रों को लाइफ जैकेट पकड़ा रहे थे, उसे पहनने में उनकी मदद कर रहे थे और फिर मुस्तैद हो, अगली घोषणा का इंतज़ार करने लगे। 

और 'बड़े', चाहे वे चालक दल के सदस्य हों, स्कुल के वरिष्ठ अध्यापक या अन्य सहयात्री; उन्होंने क्या किया? जहाज में पानी भरना शुरू होने के कुछ ही मिनटों बाद सब भूल-भालकर अपनी-अपनी जान बचाने की जुगाड़ में जुट गए। वे दूसरी उद्घोषणा करना ही भूल गए और बच्चे इंतज़ार ही करते रह गए। बच्चे तब भी बने रहे अपने-अपने केबिन में, लाइफ जैकेट पहने हुए। उनकी मूल्यों में आस्था इतनी अटूट थी कि वे सोच ही नहीं पाए कि ऐसा भी हो सकता है। जीवन के प्रश्न के समय भी व मूल्यों को, संस्कारों को निभाते रहे और नतीज़ा हुआ -- बहुत बुरा, लोमहर्षक। 

इस घटना ने दिल को दुःख से तो भर ही दिया पर साथ ही यह प्रश्न भी खडा कर दिया कि क्या आज के बदलते सामाजिक परिदृश्य में संस्कारो को भी पुर्नसंतुलित और पुर्नपरिभाषित करने की जरुरत नहीं है? जब मानवीय रिश्तों और सम्बन्धों का स्वरुप इतना बदल गया हो तब संस्कार भी वैसी ही अनुरूपता क्यों न लें? 'बड़ों का कहना मानना चाहिए' - ये बात हमेशा ही खरी रहेगी लेकिन समय के साथ कौन 'बड़े' इस दायरे में शेष रह गए है और कौन बाहर निकल गए हैं,- यह विवेक तो हमें अपने बच्चों को देना ही होगा। बच्चों को शिष्ट और अनुशासित बनाना एक बात हैं ओर उन्हें समय से पीछे रखना दूसरी बात। जीवन के अधिकांश भाग का व्यवसायीकरण एक वीभत्स सच्चाई है और इस वीभत्सतता से अपने बच्चों को दूर रखना हमारा प्रेम लेकिन क्या हम ऐसा कर बहुत बड़ी जोखिम नहीं उठा रहे हैं? इस घटना से तो ऐसा ही लगता है। 

अपने चारों ओर भी नज़र घूमाकर देखें तो भी कुछ-कुछ ऐसा ही नज़र आता है। इन बच्चों को अधिकांशतः वे ही नुकसान पहुँचा रहे हैं जिन्हें ये बहुत आदर और सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। निश्चित ही, संस्कार हमेशा ही अनुकरणीय रहेंगे लेकिन इन्हें बदलते दायरों के सन्दर्भों में समझना और तब उन्हें भावी पीढ़ी को सौंपना होगा। आप कह सकते हैं कि इस तरह बच्चों की मासूमियत छीनने की बजाए हमें समाज में अंधाधुंध बढते व्यवसायीकरण को रोकने की कोशिश करनी चाहिए। शायद आप ठीक कहते हैं। हमें ऐसा ही करना चाहिए था लेकिन आज जो समाज का चित्र है वो इतना बिगड़ चूका हैं कि उसे रातों-रात ठीक कर पाना भी तो सम्भव नहीं। निश्चित ही हमें इस ओर भी काम शुरु कर देना चाहिए। इस व्यवसायीकरण ने हमारे जीवन का रस-सुगन्ध छीन लिया है जिसे लौटाना एक लम्बी प्रक्रिया है लेकिन तब तक हम अपने बच्चों को बीहड़ में अकेला तो नहीं छोङ सकते? आप ही बताइए, क्या कोई संस्कार, शिक्षा, मूल्य या धर्म अपने मूल स्वरुप में रह पाएगा यदि वह जीवन को अधिक सुन्दर न बनाता हो? यदि उसमें सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् की आत्मा न हो? 


(दैनिक नवज्योति में 13 जुलाई को 'सेकंड सन्डे' कॉलम में प्रकाशित)
राहुल हेमराज ........

Friday 13 June 2014

पार्टी विद द भूतनाथ






एक फिल्म देखी थी, 'भूतनाथ' ; पुरानी वाली। इसका एक दृश्य रह-रहकर मेरे जेहन में कौंधता रहा है। फिल्म में केंद्रीय पात्र कैलाशनाथ एक भूत हैं जिनके घर में एक नौ-दस वर्षीय नटखट बंकू और उसका परिवार किराए पर रहने आते हैं। बंकू के पिता नेवी में काम करते हैं इसलिए विदेश यात्रा पर हैं। घर में बचे; बंकू, उसकी मम्मी और कैलाशनाथ। कैलाशनाथ नहीं चाहते कि उनके घर में कोई और रहे इसलिए पहले ही दिन से वे उन्हें डराने की कोशिश करते है लेकिन हो इसका उलटा जाता है। बंकू उनके दिल में बस जाता है, वे उसे अपने पोते की तरह प्यार करने लगते है; इतना कि वे तय कर लेते हैं कि अब बंकू यहीं रहेगा, कहीं नहीं जाएगा और कहानी आगे बढने लगती है ........... ।

जिस दृश्य की मैं बात कर रहा हूँ, वो कुछ इस तरह है कि बंकू का पैर सीढ़ियों पर से फिसल जाता है। उस समय कैलाशनाथ उसके साथ होते है। वे उसे थामने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाते है, उनका हाथ वहाँ तक पहुँच भी जाता है लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाते। वे भूत जो ठहरे, उनका होना-उनकी आकृति महज आभासी होती है। सामने होते हुए कुछ न कर पाने की विवशता। यह विवशता-यह असहायपन इतना बखूबी कैलाशनाथ के चेहरे पर आता है कि दृश्य से जुड़ जाओ तो आपको अंदर तक झकझोर देता है। मुझे लगा, हर किसी के जीवन में ऐसे क्षण जरूर आते है जिनका अफ़सोस ता-जिंदगी बना रहता है कि काश! मैं कुछ कर पाता।

यह अहसास जब गहरे उतरा तो लगा कि साधारण सी दिखने वाली बात कितनी असाधारण थी। हम अपने मूल स्वरुप में भूतनाथ की तरह ही होंगे। हमारी कोई इच्छा ही रही होगी जो इतनी घनीभूत हो गई कि उसने भौतिक आकार ले लिया वैसे ही जैसे मीठा पानी धागे से लिपट मिसरी बन जाता है। यही वजह रही होगी हमारे होने की, मानव के जन्म की जिसे हर धर्म और अध्यात्म ने अलग-अलग तरीकों से यह कह कर पुष्ट किया है कि प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है और वह कुछ विशेष करने आता जिसे उसके सिवाय कोई नहीं कर सकता।

प्रश्न उठता है, क्या हम उस इच्छा-उस भावना के प्रति सजग है? क्या हमने कभी जानने की कोशिश की है कि वो कौन-सी बात है जिसे करने मैं आया हूँ? कौन-सी ऐसी बात है जिसे  अपनी आँखों के सामने होते या नहीं होते नहीं देख सकता? क्या है जो मैं कहना चाहता हूँ? ऐसे ही प्रश्नों से मुठभेड़ ने फिल्म के उस दृश्य को इतने वर्षों तक मेरे जेहन में जिन्दा रखा। मुझे लगता है हम में से अधिकांश लोगों की हालत उस भुलक्कड़ व्यक्ति जैसी है जो अपने घर से कुछ सामान लेने निकलता है और कहीं भूल न जाए इसलिए रास्ते भर दोहराता है। रास्ते में दो-तीन परिचित उसे टोक देते है और जब वो दुकान पहुँचता है वो सामान क्या से क्या हो चुका होता है। दूसरों को देख, उनकी राय सुन या सुख-सुविधाओं के लालच की टोका-टोकी के चलते यह बिसरा बैठे है कि हम यहां आए किसलिए थे? 

मुझे मालूम है, आप क्या कह रहे है? यही ना, कि कहने-सुनने में ये बात ठीक लगती है लेकिन मालूम कैसे चले कि व्यक्ति यहाँ आया क्यों है? ये मुश्किल वास्तव में जितनी बड़ी दिखती है उतनी है नहीं। आप बस इस टोका-टोकी से अपने आपको अलग कर लीजिए। सुनिए सबकी करिये अपने मन की; अपने अंतर्मन की। आप जैसे-जैसे अपनी सुनने की कोशिश करने लगेंगे, आपके सामने साफ़ होता चला जाएगा, उस भूतनाथ की ही तरह कि कौन-सा ऐसा काम है जिसे आप अपने सामने होते या नहीं होते नहीं देख सकते और तब आपको जीवन का मक़सद मिल जाएगा, जीने का सच्चा आनन्द आने लगेगा। 
सो, लेट्स पार्टी विद द भूतनाथ एण्ड एन्जॉय योरसेल्फ।

 

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 8 जून को कॉलम 'सेकंड सन्डे' में प्रकाशित) 
राहुल हेमराज 

Friday 16 May 2014

लोकतन्त्र, आस और विश्वास का ताना-बाना




चुनाव ही तो है जो व्यक्ति के हाथ में है। इस क्षण में उपलब्ध विकल्पों में से आप क्या चुनते हैं, यही तो तय करता है कि आपका अगला क्षण कैसा होगा और जब आप इस 'अगले-क्षण' को जी रहे होते है तब यह एक बार फ़िर आपके सामने ढेरों विकल्पो के साथ प्रस्तुत होता है। एक बार फिर इन में से किसी एक का चुनाव आने वाले क्षण को तय करता है। क्षण दर क्षण मनुष्य का जीवन इसी तरह बहता है जिसकी दिशा वह स्वयं हर क्षण उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक का चुनाव कर करता है। 

राष्ट्र-निर्माण भी जीवन-निर्माण भी से कहाँ अलग है? इन दिनों हमारा लोकतन्त्र अपने होने का उत्सव मना रहा है। एक बार फिर हम तय करेंगे कि आने वाले पाँच वर्षों के लिए हमारे देश की दिशा क्या होगी? यहाँ मेरा मंतव्य किसी दल का पक्ष या विपक्ष नहीं बल्कि हमारे निर्णय लेने के मानदण्डों पर बात करने का है। कुछ जुमले जो मुझे इन चुनावों के दौरान अलग-अलग लोगों के मुँह से सुनने को मिले, उसी ने मुझे इसके लिए प्रेरित किया, जैसे-
- मैंने अपना मत जीतने वाले प्रत्याक्षी को दिया अन्यथा मेरा मत व्यर्थ हो जाता। 
- वो तो कुछ ज्यादा ही ईमानदार है, ईमानदारी से राजनीति थोड़े ही चलती है। 
-क्या फर्क पड़ता है वह थोड़ा-बहुत गलत काम करता है,कम से कम उसमें काम करने का माद्दा तो है 
और ऐसे ही न जाने क्या-क्या?

हर बार ऐसी ही कोई प्रतिक्रिया मुझे अन्दर तक विचलित कर देती। यदि हम चाहते कुछ और है और हमारा विश्वास कहीं और है तो यकीन मानिए, इस व्यवस्था के लिए हम और सिर्फ़ हम जिम्मेदार हैं। हम चाहते तो हैं कि हमारा काम बिना रिश्वत के हो, बेहतर सामाजिक-सुरक्षा का वातावरण हो, हम किसी गलत बात का विरोध बिना ड़र के कर सकें, हमारे बच्चे,वृद्ध और महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित हों लेकिन इन्हीं बेढ़ब पैमानों के चलते हम उन लोगों को चुन लेते हैं जिनका आचरण ठीक इसके विपरीत होता है। कितनी बातें करते है हम राजनीति के अपराधीकरण को लेकर। यदि हम महज़ इतना भर तय कर लें कि चाहे उम्मीदवार किसी भी दल का क्यों न हो, हम उसे अपना मत नहीं देंगे जिस पर न्यायालय बलात्कार, हत्या और अपहरण जैसे संगीन मामले तय कर चूका हो तो बात बन जाएगी। यदि सभी सांसद साफ़-सुथरी पृष्ठभूमि के होंगे तो चाहे सरकार किसी भी दल की क्यूँ न बने व्यवस्था स्वयं बेहतर होने पर मजबूर होगी। 

हमारे निजी-जीवन में भी तो हम यही करते हैं। हम किसी और को सुन-देख या अहं-तुष्टि के आधार पर निर्णय लेते हैं और अपनी अस्त-व्यस्त जिन्दगी के लिए दोष देते है भाग्य को। बात समझने की सिर्फ इतनी भर है कि चाहे जीवन-निर्माण हो या राष्ट्र-निर्माण, हमारा विश्वास भी उनमें हो जो हम चाहते हैं। यदि हम संतुष्ट जीवन चाहते हैं तो निर्णयों में लोभ से बचना होगा और यदि हम भ्रष्टाचार मुक्त राष्ट्र चाहते है तो ईमानदारी में आस्था रखनी होगी। व्यक्ति को वही और उतना ही मिलता है जिसमें और जितनी उसकी आस्था होती है। हम उन मूल्यों में विश्वास करें जिन्हें हम अपने जीवन और राष्ट्र में फलित होते देखना चाहते हैं।

आपने कभी 'मतदान' शब्द पर ध्यान दिया है। किसी भी लोकतन्त्र में नागरिक के मत को इतना कीमती समझा गया है कि वह दान के योग्य होता है और आप तो जानते ही है कि दान यदि सुपात्र को न दिए जाए तो वह अपना पुण्य खो देता है। आपका मत, आपकी राय लोकतन्त्र की प्राण-वायु है और संसद आत्मा। हम इसकी प्राण-वायु को प्रदूषित और आत्मा को कलुषित कैसे होने दे सकते हैं? हमें अपने निर्णयों के पैमानों के प्रति सजग होना होगा। जैसे जीवन और राष्ट्र की हमें आस है, विश्वास का निवेश भी वैसे ही मूल्यों में करना होगा।

 
(दैनिक नवज्योति के कॉलम 'सेकंड संडे' में रविवार, 9 मई को प्रकाशित) 
राहुल हेमराज 

Friday 18 April 2014

ये हमने क्या कर दिया ?



आजकल मैं अपने मित्र के साथ वर्कशॉपस की एक श्रृंखला कर रहा हूँ, इममें ज्यादातर इंजीनियरिंग के छात्र हैं। दो-चार कार्यशालाओं जैसे 'यही सही वक़्त है', 'सफलता आप ही में निहित',' क्षण की स्वीकार्यता' के होते-होते एक चौकाने वाला तथ्य उभरकर सामने आने लगा। वो यह था कि हम तो सपनों और उन्हें कैसे पूरा करें, के बारे में बात कर रहे थे वहीं उन्हें तो सन्देह था कि उनके कोई सपने हैं भी। ऐसे में अपने सपनों को पूरा करने की बात तो उनके लिए न जाने कौन-सी दुनिया की थी। हम तो बात कर रहे थे अन्तर्मन की पुकार और उसकी और कैसे कदम बढ़ाने की और उन्हें तो कोई आवाज़ ही नहीं आ रही थी। 

किसी ने बताया कि मैकेनिकल की बजाय उसने कम्प्यूटर साइन्स को इसलिए पसन्द किया कि सारे दिन हाथ गन्दे करने की बजाय वातानुकूलित कमरों में पढ़ाई करना बेहतर है तो किसी ने फलाँ ब्राँच इसलिए ली थी क्योंकि उसके दोस्त ऐसा कर रहे थे और ऐसे न जाने कितने कारण। तब मुझे लगा कि इन सब बातों को करने से पहले जरुरी है यह बात करना कि सपने होते ही क्या हैं? क्या ये कुछ सफल-होशियारों का ही अधिकार है या ये सभी के होते है? अगली वर्कशॉप का शीर्षक रखा, 'सपने-हमारी अभिव्यक्ति का संसार' और पाया कि सपनों का अर्थ है व्यक्ति का वह हो पाना जहाँ व्यक्ति अपने आपको पूरी तरह से अभिव्यक्त कर सके। आखिर में बात यहाँ तक पहुँची कि सपने ही हमारे जीवन की दिशा तय करते है और अन्ततः हमारे जीवन का उद्देश्य बनते हैं। 

ये सारी बातें करते हुए मन में आश्चर्यमिश्रित पछतावा हो रहा था कि आखिर ऐसा क्यों और कैसे हुआ? ध्यान चारों ओर घूमकर जहाँ रुका वह थी हमारी शिक्षा-पद्धति। मैंने इसका जिक्र वर्कशॉप में नहीं किया। मैं नहीं चाहता था कि मैं किसी को दोष देने का सन्देश दूँ लेकिन हकीकत यही थी। शिक्षा-पद्धति पर बात करने से पहले जरुरी है 'शिक्षा' के शाब्दिक अर्थ को समझना। इंग्लिश मीडियम के दौर में इसे उसी ओर से समझते हैं। 'एज्युकेशन' शब्द आया है लेटिन भाषा के 'एड्यूकेयर' से जिसका अर्थ है, सामने लाना। इस तरह 'एज्युकेशन-सिस्टम' का अर्थ हुआ ऐसा सिस्टम जो बच्चों के अन्दर जो कुछ भी है उसे सामने लाने, बाहर निकालने में मदद करे। ऐसी पद्धति जो व्यक्ति का स्वयं से परिचय कराने में सहायक बने। जिससे गुजर कर बच्चों को सहज ही पता चल जाए कि वो जीवन में क्या करें जहाँ वे अपने आपको पूर्ण रूप से अभिव्यक्त कर पाएँगे। 

लेकिन हुआ क्या? बाहर तो कुछ निकला नहीं, सामने तो कुछ आया नहीं उल्टा बच्चों के अन्दर हमने जाने क्या-क्या ठूँस दिया। ठूँस दिया वो सब कुछ जो हम ठीक समझते थे, जो हमारे लिए सुविधाजनक था या वो सब कुछ जिससे ये बच्चे आगे चलकर हमारे काम आ सकें, हमारे बनाये सिस्टम को चला सकें। हम जब भी शिक्षा-पद्धति की बात करते हैं तो पाठ्यक्रम, परीक्षा देने के तौर-तरीकों, विद्ध्यार्थियों के परीक्षा-तनाव व दिशा-निर्देशों की बात करते हैं। मैं मानता हूँ, इनकी अपनी अहमियत है लेकिन क्या कभी किसी ने शिक्षा के उद्देश्यों को लेकर कोई बात, कोई चर्चा की है? क्या किसी ने शिक्षित करने के उद्देश्यों को स्पष्ट और परिभाषित करने कि जेहमत उठायी है? ये कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे आप अपने वाहन से कहीं जा रहे हैं, आपका ध्यान वाहन की सुन्दरता,ईंधन,रफ़्तार और यातायात-नियमों पर तो हैं बस रास्ते के बारे में मालूमात करना ही कहीं भूल गए हैं। 

आज देश में कोई राजनैतिक,सांस्कृतिक या सामाजिक बात हो, हम 'युवा'शब्द उससे जोड़ देते हैं। उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर अपने अभियान को सफल बनाने के लिए लेकिन भूल जाते है कि कोई शक्ति कितनी भी बड़ी क्यूँ न हो यदि वह भ्रमित है तो किसी काम की नहीं। न अपने न किसी और के। भटका तीर कहीं नहीं लगता। आज हमारी युवा-शक्ति भ्रमित है, एक ओर उनका अन्तर्मन खींचता है तो दूसरी ओर हमारी ठूँसी हुई जानकारियाँ। जानकारियाँ जिन्हें हम अपनी अहं-तुष्टि के लिए 'ज्ञान' कह देते है। 
ये हमने अपने ही बच्चों के साथ क्या कर दिया?

हमारे लिए यह गर्व की बात है कि हमारा देश दुनिया की सबसे बड़ी युवा-शक्ति बनता जा रहा है पर साथ ही याद रखना होगा कि शक्ति जितनी बड़ी हो उसकी सम्भाल उतनी ही करनी पड़ती है। अब समय आ गया जब हमें अपनी युवा-शक्ति को भ्रमित होने से बचाना होगा। उनके साथ मिलकर उन्हें अपनी दिशा पकड़ने में मदद करनी होगी। यदि हम ऐसा कर पाए तो हमें अपने राष्ट्र-उत्थान के लिए किसी और की दरक़ार नहीं। 



(जैसा कि नवज्योति में सेकिंड संडे 13 अप्रैल को प्रकाशित) 
राहुल हेमराज 

Friday 14 March 2014

स्टार्ट फ्रॉम दी एण्ड




बहुत दिनों पहले देखे एक पौराणिक टी.वी. सीरीयल का एक दृश्य - राजकुमार राम अपने गुरुकुल में तीरंदाजी का अभ्यास कर रहें हैं। हर बार निशाना थोडा-सा चूक जाता है। कैलाश पर्वत पर बैठे शिव इस लीला को निहार रहे हैं। वे सोचने लगते है कि चाहे ईश्वर ही क्यूँ न हो, मानव रूप में पूर्णता प्राप्त करने के लिए उसे भी तप से गुजरना ही पड़ता है। तब वे एक आदिवासी भील का रूप धर वहाँ उपस्थित होते है और विधार्थी राम से कहते है, 'सबसे पहले यह देखो कि बाण लक्ष्य पर लग चूका है, फिर उसे सम्भव होने दो। कर्ता मत बनो, कर्म करो।'

इस अकेले वाक्य के कारण यह दृश्य न जाने कितने दिनों से मेरे जेहन में घर बनाये बैठा था। वाक्य क्या था, सफलता का सूत्र था। कितनी सरलता और सहजता से निर्देशक ने मैंनेजमेंट का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त जिंदगी से जोड़ कर समझा दिया, जिसे वहाँ 'स्टार्ट फ्रॉम दी एण्ड' कहा जाता है। ऐसा सिद्धान्त जिस पर न जाने कितनी किताबें लिखी जा चूकी, न जाने कितने व्याख्यान दिए जा चूके। आइए, इस सूत्र को दो हिस्सों में समझते है। पहला हिस्सा, 'सबसे पहले यह देखो कि बाण लक्ष्य पर लग चूका है ...................।'यह बात ठीक वैसे ही है जैसे आप घर में बैठे है और आपको प्यास लगी है। मटकी में पानी भी है। बस आपको मटकी तक जाना है। मटकी जहाँ पड़ी है उस दिशा में कदम जरुर बढ़ाने है लेकिन इस बात में आपको कोई सन्देह नहीं कि पानी मिलेगा या नहीं। यही आशय हुआ बाण छोड़ने से पहले उसे लक्ष्य पर लगा हुआ देख लेने का, कि हम अपने जीवन में जो कुछ पाना या होना चाहते है उसके लिए जरुरी है सबसे पहले यह मान लें कि वो आपको मिल चूका है, बस हमें एक प्रक्रिया भर से गुजरना है।

सूत्र का दूसरा हिस्सा पहले हिस्से को सहयोग करता है पर है उससे कहीं नाजुक, ' ...........................  फिर उसे सम्भव होने दो। कर्ता मत बनो, कर्म करो।' हम अपनी जिंदगी से जो पाना चाहते है उसे हम ही नहीं होने देते। बुरा मानने की नहीं बल्कि सोचने की बात है कि अधिकतर समय हमारी राह का रोड़ा हम ही होते है। यदि हम चाहते है कि कोई हमारे घर आए तो सबसे पहले अपने घर के दरवाजे खुले रखने होंगे। आप अपनी जिंदगी से जो कुछ भी चाहते है उसे ग्रहण करने के लिए हर क्षण तैयार रहना होगा। तैयारी अपने आपको उस सबके लायक समझने की और अपने विश्वास को दृढ करने की वो सब कुछ मुझे मिलेगा ही। एक बार एक व्यक्ति किसी तरह एक निर्जन टापू पर फंस गया। जब भी उधर से कोई विमान गुजरता वो अपने हाथ हिला-हिलाकर मदद के लिए सन्देश देने की कोशिश करता। आखिर सेना के एक छोटे विमान ने उसे देख लिया। वह नीचे उतरने लगा लेकिन वह व्यक्ति इतना व्यग्र था कि और तेजी से हाथ हिला-हिलाकर तट पर दौड़ने लगा। वह इतनी तेजी से इधर-उधर दौड़ रहा था कि चालक समझ नहीं पा रहा था कि वो विमान को कहाँ उतारे। उपर विमान चक्कर लगा रहा था और नीचे वो व्यक्ति। कुछ समय बाद विमान का ईंधन ख़त्म होने लगा और नहीं चाहते हुए भी चालक को उसे वहीँ छोड़ वापस जाना पड़ा। कहीं हम भी अपने जीवन में ऐसा कुछ तो नहीं कर रहे हैं? मदद चाहिए तो विमान को उतरने देना पड़ेगा। 

यदि हम बाण छोड़ने से पहले उसे लक्ष्य भेदता देख पाएं और उसे सम्भव भी होने दिया तो हम स्वतः ही कर्ता भाव से मुक्त हो, कर्म मार्ग की ओर उद्दृत होंगे। जब हमें यह अहसास होगा कि हम जो चाहते है उसका हो पाना तय है तो यह भाव भला कैसे रह पाएगा कि 'ये सब कुछ मैंने किया है'। सब कुछ हासिल करते हुए हासिल करने के अहंकार से मुक्त हमारा जीवन ठीक उस पथिक कि यात्रा जैसा होगा जिसके सर कोई गठरी नहीं या जैसे एक सुंदर उधान में कोई भ्रमर गीत गा रहा हो।


राहुल हेमराज 
(सैकिंड सन्डे _ रविवार, 9 मार्च को नवज्योति में प्रकाशित)

Saturday 15 February 2014

तू छुपी है कहाँ


- राहुल हेमराज 



आज हम एक-दूसरे से मिलते वक़्त ऐसे मुस्कराते हैं जैसे होटल की किसी रिसेप्शनिस्ट से बात के रहे हों। मिले, मुस्कराहट आयी; मुलाकात ख़त्म, मुस्कराहट बन्द। एक रस्म अदायगी या अपने मन के संताप और बेचैनी को छुपाने का एक जुगाड़। हमें मुस्कराहट से नवाज़ने के पीछे प्रकृति की तो मंशा थी कि हमारे चेहरे कि मुस्कराहट हमारे दिल का हाल बताए। हमारा चेहरा फ्यूल-मीटर कि तरह काम करे। अंतर में आत्मिक संतोष  का ईंधन, चेहरे पर मुस्कराहट के रूप में दिखे। जब कभी हम अपने चेहरे पर से इस मुस्कराहट को नदारद पाएँ, जिंदगी को देखने के अपने नजरिए को टटोलें और उसे पुनः आत्मिक संतोष के ईंधन से भर लें। 

व्यक्ति के अंतर से निकली मुस्कराहट तो एक ब्लोटिंग पेपर की तरह होती है, चाहे ये सामने वाले के संतापों को न हर पाए किन्तु उनकी ऊष्मा अवश्य कम कर देती है। आपने हर शाम घर लौटते समय इसे जरुर अनुभव किया होगा कि किस तरह बच्चों की एक मुस्कराहट देखकर आपकी दिन भर की थकान न जाने कहाँ काफूर हो जाती है। वही बच्चे जब आप और मैं हो जाते है तो वो मुस्कराहट कहाँ खो देते हैं? क्या प्रकृति ने आदमी को बुद्धि इसलिए दी थी कि वो अपनी मुस्कराहट का भी जुगाड़ ईजाद कर ले?, लेकिन प्रश्न यह भी है कि आखिर व्यक्ति को ऐसा क्यों करना पड़ा ?

इन सवालों से टकराने पर अहसास हुआ कि शायद व्यक्ति ने कहीं न कहीं तनाव और सफल जीवन को मिलाकर देखना शुरू कर दिया। उसने मान लिया की जिन्दगी की गाड़ी को ढंग से चलानी है तो, तनाव तो आएंगे ही। इसी समस्या का जुगाड़ है यह 'रिसेप्शनिस्ट मुस्कान'। तनाव की इस स्वीकारोक्ति के चलते अब उसके मन में खुश रहने, मुस्कराने की बेचैनी भी नहीं उठती और आप तो जानते ही हैं, बिना बेचैनी सुन्दरता का सृजन सम्भव नहीं। आज व्यक्ति है कि बस जिए चला जाता है तनाव की इन लकीरों को बनावटी मुस्कराहट से लुकाते-छिपाते।पर एक बात आपको याद दिला दूँ, तनाव हमारा नैसर्गिक स्वभाव नहीं है, होता तो बच्चे इतना नहीं मुस्कराते। उनका तो हाल यह है कि वे सोते-सोते भी न जाने कितनी बार मुस्कराते है। इस मुस्कराहट को लौटाना है तो बच्चों की तरह अपने आपको घटनाओं, परिस्थितियों और व्यक्तियों से अलग करना होगा। तब ये स्व-स्फूर्त था अब इसे होशपूर्ण हासिल करना होगा। ये हो सकता है, यदि हम अपने जीवन को ऐसे देख पाएँ जैसे पर्दे पर एक फ़िल्म चल रही हो। फ़िल्म, जिसमें हमारा भी एक किरदार है। आप अपने आप को अपनी भूमिका निभाते हुए देख सकें। 

जीवन को हर क्षण इस तरह जी पाना एक आदर्श स्थिति है जिसे आप और मेरे लिए निभा पाना सम्भव नहीं।  हर क्षण इस भाव में बने रहना तो व्यक्ति को कृष्ण बना देता है लेकिन हमारा भी लक्ष्य कौन-सा कृष्ण की वो सदा रहने वाली स्मित मुस्कान है। हमारी कोशिश तो पूरे दिन के 14,400 मिनटों में से दस-पन्द्रह मिनटों के लिए ही सही, जिंदगी को निरपेक्ष भाव से देख पाना है। कह तो रहा हूँ पर जानता हूँ ये भी कोई कम कठिन नहीं। एक दूसरा, थोडा बेतरतीब तरीका है जो मेरे खुद का आजमाया है। पहले चेहरे पर एक मुस्कान लाइए, किसी के लिए नहीं सिर्फ अपने लिए, जब आपके सामने कोई न हो; या हो तो भी ये मुस्कान किसी को कुछ कहने-बताने के लिए नहीं, बस अपने ही किसी भाव की तरह हो। इसे कुछ देर के लिए अपने चेहरे पर रोकिए और अपनी जिन्दगी के बारे में सोचिए। सोचते हुए ध्यान रहे इस मुस्कराहट के बने रहने का। सोचना और मुस्कराना साथ होते ही आपको अपनी जिन्दगी पर्दे पर चल रही एक फ़िल्म की तरह दिखने लगेगी। आप अलग होंगे और आपकी जिन्दगी अलग। ऐसे लगेगा जैसे आपको अपनी निजता वापस मिल गई हो। दौड़ती-भागती दुनिया के बीच आपको अपने वजूद का, अपने होने का अहसास होने लगेगा और तब आपका अंतर फिर आत्मिक संतोष से भर उठेगा और मन की सतह पर तैरता यह संतुष्टि का भाव चेहरे पर मुस्कराहट बन खिल उठेगा। 

मैं मानता हूँ कि इस मुस्कराहट के आ जाने से न तो जिन्दगी के दुःख कम होंगे न ही मुश्किलें; पर हाँ, उनसे निपटना, पार पाना कहीं आसान होगा। वे खालिस स्थितियाँ बनी रहेंगी और हमारा अंतर बच्चों-सा अछूता। 
ग़ालिब इसे अपने अंदाज़ में कुछ यूँ बयाँ करते हैं,-
बाजीचाये अतफाल है दुनिया मेरे आगे 
होता है शबओ रोज़ तमाशा  मेरे आगे 

('सेकंड सन्डे' कॉलम में 9 फरवरी के नवज्योति में प्रकाशित) ​
    


Saturday 18 January 2014

आस्था का निवेश

- राहुल हेमराज 




ये कहानी न जाने कितनी बार कही-सुनी गयी पर मुझे ये आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती है। एक बार की बात है, एक गाँव भयंकर अकाल की चपेट में था। गाँव के लोग दाने-दाने को मोहताज होने लगे। आपको तो मालूम ही है, व्यक्ति को जब कुछ नहीं सूझता तब भगवान् याद आता है। उन्होंने भी तय किया कि गाँव के सारे लोग इकट्ठा होकर सामूहिक प्रार्थना-अर्चना करेंगे। अब शायद प्रार्थनाओं का घनीभूत बल ही घनों को बरसने पर मजबूर करे। नियत समय पर सब लोग पहुँचे लेकिन सिर्फ एक छोटा बच्चा था जो छतरी लेकर आया था। उसके मन में पक्का विश्वास था कि बारिश जरुर होगी। मुझे लगता है आज हम सब को, इस समाज को इसी विश्वास, इसी आस्था को लौटने की जरुरत है। हम सब लगे तो हैं बारिश होने की प्रार्थनाओं में लेकिन यकीं हमारा ये कि ऐसा करने से कोई बारिश तो होने से रही।

आपको नहीं लगता, इस नये साल की शुरुआत अपनी आस्थाओं को टटोलने से बेहतर कुछ हो सकती है? इस समाज में ईमानदारी, सच्चाई और समान-अधिकार चाहते है तो इनमें हमारा विश्वास भी हो। खराब कम्पनी के शेयर में इन्वेस्ट करके अच्छे रिटर्न की आशा करना मूर्खता है तो झूठ में विश्वास कर समाज में सच्चाई की इच्छा रखने को आप क्या कहेंगे? अपने काम को बनाने के लिए बेईमानी, झूठ और पक्षपात का सहारा लेकर एक साफ़-सुथरे सुरक्षित समाज की हम कल्पना भी कैसे कर सकते है? बात सिर्फ इतनी-सी है कि कोई रास्ता हम चाहे कितना भी सुख और आराम से क्यों न काट लें, पहुँचेंगे वहीं जहाँ का टिकट लिया होगा। 

यहाँ सर्वथा उचित है इस प्रश्न का उठ खड़ा होना कि हम तो ठीक थे और ठीक ही हैं लेकिन हमारी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं ने हमारी आस्थाओं को दूषित किया। आदमी को जीना तो पड़ेगा, अब यदि व्यवस्था भ्रष्ट है तो आम-आदमी के पास चारा ही क्या बचता है? कोई कहेगा ये व्यवस्था व्यक्तिगत आस्थाओं से ही तो निकली है, पहले व्यक्ति सुधरे। व्यक्ति बदलेगा तो सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाएँ स्वतः ठीक होंगी। ये वैसा ही झगड़ा है जैसा मुर्गी पहले हुई या अण्डा। पहले व्यक्ति की आस्था डिगी या व्यवस्था ने व्यक्ति की आस्थाओं को दूषित होने पर मजबूर किया। ग़ौरतलब सिर्फ यह है कि आज हमें अपने जीवन के परिदृश्य को बदलना है तो उन बातों में विश्वास करना और जीना होगा जैसा हम अपने जीवन में चाहते है। 

आदर्शों की बातों के साथ उनका व्यावहारिक पक्ष देखना भी उतना ही जरुरी है। सारी बातों के बावजूद एक व्यक्ति का पहला दायित्व जीवन की सहजता है और तब लगता है व्यवहार में संतुलन यहाँ भी उतना ही जरुरी है। हम अपना काम-अपना आचरण ठीक रखें लेकिन यदि रोजमर्रा की किसी छोटी-मोटी बात में व्यावहारिक होना भी पड़े तो कोई बात नहीं। उनमें उलझकर अपनी ऊर्जा-अपने उद्देश्यों से भटकने से क्या फायदा? यदि एक बड़ी तादाद में लोगों ने सही मूल्यों में अपनी आस्थाओं को निवेश करने की ठान ली, तो ये खरपतवार तो वैसे ही पैरों के नीचे आकर खतम हो जाएगी। क्यों न हम अपनी आस्था के घन को नैतिक मूल्यों के शेयर्स में इन्वेस्ट करें क्योंकि यही वो कम्पनी है जो सुकून-भरी जिंदगी का गारन्टेड रिटर्न देती है। 


(सैकिंड सन्डे 12, जनवरी को नवज्योति में प्रकाशित)

एक नयी शुरुआत



प्रिय मित्रों,

       नमस्ते,

आप मुझे पढ़ते और सराहते रहे है जिसके लिए में आपका तहे-दिल से आभारी हूँ।

आज तक मैं दैनिक नवज्योति में साप्ताहिक स्तम्भ लिखता था, इसके चलते मुझे लगने लगा था कि मेरा पढ़ना बहुत कम हो गया। ये न तो मेरे लिए अच्छा है न ही मेरे लेखन के लिए। इस वर्ष से मैंने सोचा है कि में इसे मासिक कर दूँ। मैं सोचता हूँ की अब शायद समय आ गया है जब दूसरी पायदान पर पैर रक्खा जाए। पहले मेरा स्तम्भ 'अपनी ज्योति आप' शीर्षक से छपता था जो अब 'सैकिंड सन्डे' के शीर्षक से छपा करेगा, यानि 'थर्ड-वीकेण्ड' को वही मैं आपको पोस्ट करूँगा। 
मेरी कोशिश है कि मैं और जगह भी लिख पाऊँ, ऐसा कर पाया तो पोस्ट कर जैसे भी हो सका सूचित करने कि कोशिश करूँगा।

आपकी शुभकामनाएँ ऐसे ही बनी रहे। 


राहुल ......... 

Friday 10 January 2014

सूत्या के तो पाड़ा ही जणै


 -राहुल हेमराज


आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने अणुव्रत अधिवेशन, दिल्ली में 13 नवम्बर 2005 को सम्बोधित करते हुए यही कहावत और उसकी दंतकथा सुनाई थी। दो किसान थे। वे अपनी भैसों को बेचने के लिए पशु मेले में ले जा रहे थे। दोनों ही भैसों का प्रसव काल नजदीक था। रास्ते में रात्रि विश्राम के लिए वे एक जगह रुके। एक किसान तो चिंता में रात भर जागता रहा लेकिन दूसरा कुछ ही देर बाद सो गया।  मध्य रात्रि पश्चात् दोनों ही भैसों को प्रसव हुआ। जो सो रहा था उसकी भैंस ने पाड़ी को जन्म दिया और जो जाग रहा था उसकी भैंस ने पाड़े को। ऐसा मौका भला कोई जागने वाला कैसे चूकता, उसने पाडा-पाड़ी बदल दिए। रात भर बेफिक्री की नींद सोने वाले किसान ने जब अल-सुबह जागने वाले से पूछा कि उसकी भैंस ने किसे जन्म दिया है तो यही जवाब मिला, 'सूत्या के तो पाड़ा ही जणै।'

अणुव्रत हमें जगाता है। हमें जिम्मेदार बनाता है। नहीं तो, हमारी तो जैसे आदत ही पड गई है जीवन की छोटी से छोटी बात के लिए व्यवस्था को दोषी ठहराने की। क्या कभी हमने एक मिनट के लिए भी यह जानने-समझने की कोशिश की है कि इस व्यवस्था में मेरा स्थान क्या है? क्या मेरा व्यवहार अपेक्षित है? क्या मैं अपने दायित्वों का उचित निर्वाह कर रहा हूँ? इन प्रश्नों का मर्म समझते हुए भी हम यह कहकर अपने आपको फ़ारिग कर लेते है कि कोई भी तो वैसा नहीं कर रहा। 

हमारा ये स्वभाव ही इस आन्दोलन की पृष्ठभूमि है। अणुओं जैसी ये छोटी-छोटी प्रतिज्ञाएँ अपने दायित्वों को निभाने की प्रतिबद्धता के अलावा क्या है? सच मानिए, अपने लिए बिना दायित्वों का निर्वाह किए सुन्दर जीवन की इच्छा रखना ठीक वैसा ही है जैसे बिना खाद-पानी दिए सुन्दर और सुगन्धित फूलों की चाह रखना। एक-एक सुन्दर जीवन ही तो एक खुशहाल परिवार,एक स्वस्थ समाज और अन्ततः सुदृढ़ राष्ट्र में तब्दील होता है। अणुव्रत इसी की नींव बनता है। 

सत्य शाश्वत होता है और किसी भी जगह पहुँचने का सही मार्ग भी हमेशा एक ही होता है। शायद यही कारण रहा होगा इस अनूठे संयोग का कि हमारे संविधान में भी एक नागरिक के लिए ग्यारह कर्तव्यों की प्रेरणा है तो अणुव्रत भी ग्यारह आचारों से प्रतिबद्ध होने की बात करता है। किसी भी राष्ट्र का संविधान वहाँ की शासकीय व्यवस्था का आधार होता है। एक सुदृढ़ लोकतन्त्र के लिए नागरिक कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए हमारा संविधान धर्म,भाषा,प्रदेश या वर्ग से परे भ्रातृत्व भावना की बात करता है, प्राणी-मात्र के प्रति दया भाव,वन्य-जीवों एवं नदियों की रक्षा की जरुरत और शिक्षित समाज की हमसे उम्मीद करता है, हमें सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखने और हिंसा से दूर रहने को कहता है, वैज्ञानिक दृष्टिकोण,मानववाद और व्यक्ति के सुधार की बात करता है; यही बातें तो अणुव्रत भी करता है। अणुव्रत ही धारण करने योग्य है जो धर्म से परे है। शायद ही विश्व में ऐसा कोई दूसरा आन्दोलन हो जिसका प्रणेता एक धार्मिक गुरु हो लेकिन जिससे जुड़ने के लिए आपको अपने गुरु, अपने धर्म को छोड़ने की जरुरत नहीं। यही विशेष बात अणुव्रत आन्दोलन को और किसी भी धार्मिक आन्दोलन से अलग करती है और व्यक्ति को राष्ट्र निर्माण से जोडती है। आप चाहे जिस भी धर्म से हों, चाहे जिसे अपना गुरु मानते हों, आप अणुव्रती हो सकते है। आपको जैन होना तो छोड़िए आचार्य श्री को भी अपना गुरु स्वीकार करने की दरकार नहीं। कर्त्तव्य-पालना और धर्म-निरपेक्षता यही दो बातें तो है जो एक सफल लोकतन्त्र की प्राण-वायु है। इन्हीं दोनों की बात हमारा संविधान नागरिक कर्तव्यों में करता है तो अणुव्रत अपने आचारों में। 

आज जिन बातों के लिए हम व्यवस्था को दोषी ठहराते है उनका जन्म हमारी अपने नागरिक कर्तव्यों की अनदेखी से ही तो हुआ है। हमारे संविधान निर्मातों ने इसे हमारे विवेक पर छोड़ दिया था और हमने इसका भरपूर नाजायज फायदा उठाया। वर्तमान का ये परिदृश्य अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होकर ही बदल सकता है, एक-दूसरे को दोषी ठहराकर हम कब तक अपना और राष्ट्र का समय बर्बाद करते रहेंगे। स्वामी विवेकानन्द ने ठीक ही कहा है, " सभी सामाजिक राजनीतिक व्यवस्थाएँ व्यक्ति की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। कोई राष्ट्र अपनी संसद द्वारा बनाए कानूनों के कारण नहीं वरन अपने नागरिकों की गुणवत्ता के आधार पर महान और श्रेष्ठ होता है। "

यही कारण है कि अणुव्रत की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। हमें अपने कर्तव्यों के प्रति प्रतिबद्ध तो होना ही होगा, समय कब तक हमारा इंतजार करेगा। यदि अब भी हम नहीं जागे तो एक बात ध्यान रखना, कहीं समय से ये न सुनना पड़े कि 'सूत्या के तो पाड़ो ही जणै।'


(अणुव्रत मासिक के दिसम्बर अंक में प्रकाशित)
 (शीर्षक-जागने की वेला है, सोते न रहें) 

Friday 3 January 2014

दस्वेदानिया




सबसे पहले ये शब्द सुना था 'मेरा नाम जोकर' देखते हुए। रुसी नायिका विदा होते समय नायक से कहती है- दस्वेदानिया। 'दस्वेदानिया' यानि अलविदा। समय आ गया है इस वर्ष को विदा करने का, दस्वेदानिया कहने का। इसी के साथ हम सब लगे है यह तय करने में कि इस नए साल में हम क्या-क्या करेंगे? क्या कुछ नया करेंगे? 'रिजोल्यूशन पास' करने में लगे हैं। इन सब बातों में ही गोते लगा रहा था कि यही  बात करती हुई, इसी नाम 'दस्वेदानिया' से बनी फ़िल्म याद आ गई। फ़िल्म ऐसी कि आपकी सोच को ठिठकने पर मजबूर कर दे। 

फ़िल्म का हीरो रोजाना ऑफिस जाने से पहले 'टू-डू लिस्ट' के पैड पर दिन भर के काम लिखता है। इसके कामों में होते है; बिजली-पानी का बिल, गैस-बुकिंग, किराने का सामान, घर की किसी चीज कि मरम्मत वगैरह-वगैरह। आप समझ ही गए होंगे, हम सब इस जंजाल से भली-भांति परिचित है। ये काम क्या हैं, द्रौपदी का चीर है; न कभी ख़त्म हुए हैं न कभी ख़त्म होंगे। उसकी जिंदगी यूँ ही रटे-रटाए ढर्रे पर चल रही होती है कि उसके पेट में तकलीफ रहने लगती है। अपनी माँ के बहुत कहने पर वह डॉक्टर के पास जाता है। कुछ जाँचे होती है जिसकी रिपोर्टें शाम को आने वाली होती है। आपको अंदाजा लग ही गया है, शाम को निश्चिन्त रिसेप्शन पर बैठा वह अपनी बारी आने पर जैसे ही डॉक्टर के पास पहुँचता है, उस पर गाज गिरती है। उसे मालूम चलता है कि वो अब सिर्फ चंद महीनों का मेहमान है। बड़ी मुश्किल से अपने आप को सम्भालता ही, घर आता है, माँ के सामने सामान्य रह, उसे बताता है कि उसे कुछ ख़ास नहीं हुआ है। दवाईयाँ लिखी है, थोड़े ही दिनों में सब ठीक हो जाएगा। 

दूसरे दिन सुबह उठता है, और आदतन पैड अपने हाथ में लेता है। हमेशा की तरह वैसे ही एक या दो काम लिखता है कि अचानक उसका हाथ और दिमाग़ रुकता है? सोचने लगता है, ये मैं क्या कर रहा हूँ? मेरा अपना भी कोई वजूद है या बस यूँ ही ..........? उसे ध्यान आने लगती है अन्तर्मन कि वे सारी अकुलाहटें जो उसने न जाने कितने वर्षों से इन दुनियादारियों के चलते स्थगित कर रखी है। इतनी लम्बी स्थगित कि वो उन्हें भूलने तक लगा था। उसे लगता है जैसे उसने अपनी जिंदगी को एक होटल समझ लिया है जिसका वह मैनेजर बना बैठा है। उसे एहसास होता है कि वे काम जो उसकी 'टू-डू लिस्ट'में हुआ करते थे, वे जरुरी है जिंदगी की गाडी को आराम से चला पाने के लिए लेकिन वे जिन्दगी नहीं है। वो वापस से अपनी लिस्ट बनाता है, ऐसी कि जिन्हें करने का सोचने भर से उसका मन रोमांच से भर उठता है। उसका नजरिया कि जिंदगी में उसके लिए क्या अहम् है, बदल चूका होता है। 

यही बात है जो आज मैं आपसे करना चाहता हूँ। इस बारे में कोई दो राय नहीं कि हमारी प्राथमिकताएँ तय होनी चाहिए, ये ही हमें सफल बनाती है पर इतना ही जरुरी है यह सोचना-समझना कि इन प्राथमिकताओं का आधार क्या हो? हमारी 'प्रायरटीज़' के 'पैरामीटर' क्या हो? 

हम सब यहाँ अपनी नियति जीने आए हैं। अनुभूति और अभिव्यक्ति हमारे भौतिक स्वरुप की वजह है। हम सब अपने-अपने अंदाज़ में इस संसार को महसूस करने और अपने होने से इसे अधिक सुन्दर बनाने आए हैं। यही तो आनन्द है। किसी को पढ़ना तो किसी को घूमना, किसी को संगीत तो किसी को दूसरों कि मदद करना, किसी को खेलना तो किसी को और कुछ पुकारता है। पग-पग इस ओर बढ़ना ही हमारे काम की सूची होनी चाहिए न कि इस ओर जाने के लिए जरुरी सुविधाओं और सामान की। तो इस बार, जब आप नए साल का 'रिजोल्यूशन' बनाए तो टटोलिए कि कौन से वो काम है जिन्हें करके आप ज्यादा जीवंत महसूस करेंगे?

अपनी अकुलाहटों को शान्त करने की सोचिए, ऐसा करने में दिक्कतें आयीं भी तो निश्चिन्त रहिए, प्रकृति ने ये अकुलाहटें दी हैं तो उसने निपटने की क्षमता भी आपको दी होंगी। शरीर को साँस लेने की जरुरत है तो फेफड़े होंगे ही। जरुरत है तो इस बात की, कि हम अपने अंतर्मन कि सुनें और उसकी पुकार को अपने जीवन में जगह दें। आइए, यह नया वर्ष कुछ यूँ मनाएँ, अपनी फेहरिस्त में उन बातों को शामिल करें जो हमारी उपस्थिति दर्ज़ कराते हों।


(दैनिक नवज्योति में रविवार,29 दिसम्बर को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ...........