Saturday 18 January 2014

आस्था का निवेश

- राहुल हेमराज 




ये कहानी न जाने कितनी बार कही-सुनी गयी पर मुझे ये आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती है। एक बार की बात है, एक गाँव भयंकर अकाल की चपेट में था। गाँव के लोग दाने-दाने को मोहताज होने लगे। आपको तो मालूम ही है, व्यक्ति को जब कुछ नहीं सूझता तब भगवान् याद आता है। उन्होंने भी तय किया कि गाँव के सारे लोग इकट्ठा होकर सामूहिक प्रार्थना-अर्चना करेंगे। अब शायद प्रार्थनाओं का घनीभूत बल ही घनों को बरसने पर मजबूर करे। नियत समय पर सब लोग पहुँचे लेकिन सिर्फ एक छोटा बच्चा था जो छतरी लेकर आया था। उसके मन में पक्का विश्वास था कि बारिश जरुर होगी। मुझे लगता है आज हम सब को, इस समाज को इसी विश्वास, इसी आस्था को लौटने की जरुरत है। हम सब लगे तो हैं बारिश होने की प्रार्थनाओं में लेकिन यकीं हमारा ये कि ऐसा करने से कोई बारिश तो होने से रही।

आपको नहीं लगता, इस नये साल की शुरुआत अपनी आस्थाओं को टटोलने से बेहतर कुछ हो सकती है? इस समाज में ईमानदारी, सच्चाई और समान-अधिकार चाहते है तो इनमें हमारा विश्वास भी हो। खराब कम्पनी के शेयर में इन्वेस्ट करके अच्छे रिटर्न की आशा करना मूर्खता है तो झूठ में विश्वास कर समाज में सच्चाई की इच्छा रखने को आप क्या कहेंगे? अपने काम को बनाने के लिए बेईमानी, झूठ और पक्षपात का सहारा लेकर एक साफ़-सुथरे सुरक्षित समाज की हम कल्पना भी कैसे कर सकते है? बात सिर्फ इतनी-सी है कि कोई रास्ता हम चाहे कितना भी सुख और आराम से क्यों न काट लें, पहुँचेंगे वहीं जहाँ का टिकट लिया होगा। 

यहाँ सर्वथा उचित है इस प्रश्न का उठ खड़ा होना कि हम तो ठीक थे और ठीक ही हैं लेकिन हमारी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं ने हमारी आस्थाओं को दूषित किया। आदमी को जीना तो पड़ेगा, अब यदि व्यवस्था भ्रष्ट है तो आम-आदमी के पास चारा ही क्या बचता है? कोई कहेगा ये व्यवस्था व्यक्तिगत आस्थाओं से ही तो निकली है, पहले व्यक्ति सुधरे। व्यक्ति बदलेगा तो सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाएँ स्वतः ठीक होंगी। ये वैसा ही झगड़ा है जैसा मुर्गी पहले हुई या अण्डा। पहले व्यक्ति की आस्था डिगी या व्यवस्था ने व्यक्ति की आस्थाओं को दूषित होने पर मजबूर किया। ग़ौरतलब सिर्फ यह है कि आज हमें अपने जीवन के परिदृश्य को बदलना है तो उन बातों में विश्वास करना और जीना होगा जैसा हम अपने जीवन में चाहते है। 

आदर्शों की बातों के साथ उनका व्यावहारिक पक्ष देखना भी उतना ही जरुरी है। सारी बातों के बावजूद एक व्यक्ति का पहला दायित्व जीवन की सहजता है और तब लगता है व्यवहार में संतुलन यहाँ भी उतना ही जरुरी है। हम अपना काम-अपना आचरण ठीक रखें लेकिन यदि रोजमर्रा की किसी छोटी-मोटी बात में व्यावहारिक होना भी पड़े तो कोई बात नहीं। उनमें उलझकर अपनी ऊर्जा-अपने उद्देश्यों से भटकने से क्या फायदा? यदि एक बड़ी तादाद में लोगों ने सही मूल्यों में अपनी आस्थाओं को निवेश करने की ठान ली, तो ये खरपतवार तो वैसे ही पैरों के नीचे आकर खतम हो जाएगी। क्यों न हम अपनी आस्था के घन को नैतिक मूल्यों के शेयर्स में इन्वेस्ट करें क्योंकि यही वो कम्पनी है जो सुकून-भरी जिंदगी का गारन्टेड रिटर्न देती है। 


(सैकिंड सन्डे 12, जनवरी को नवज्योति में प्रकाशित)

2 comments:

  1. एक सुनिर्णय जिसमें कभी किन्तु परन्तु नहीं हो!

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  2. मेरा ऐसा पूरा विश्वास है, मैं हमेशा सफल तो नहीं हो पाता पर हर सम्भव कोशिश अवश्य करता हूँ।

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