Saturday 19 December 2015

कम सामान सफ़र आसान



हमारे बच्चों के भारी स्कूल बैगों की हमारी चिंता बिल्कुल जायज और प्रशंसनीय है। नन्ही जानें और इतना बोझ, ठीक से चल पाना मुश्किल। रोज-रोज की तरह-तरह की परीक्षाएँ और अनुशासन के नाम पर इतने कायदे-कानून। ख़ुशी की बात है कि इस दौर में अधिकांश स्कूलें और अभिभावक दोनों ही इस समस्या के प्रति जागरूक हो रहे हैं। मन किया इस विचार को थोडा और विस्तार दें, तो पाया हम सभी कितना अनावश्यक बोझ अपने पर लादे है और फ़ालतू ही हांफ रहे है। कोई अनावश्यक वस्तुओं का, कोई विचारों का तो कोई दायित्वों का।

जगह कितनी ही सुंदर क्यों न हो, यदि आप थके हुए है तो घूमने का मज़ा नहीं आ सकता, ठीक उसी तरह इस खुबसूरत जिन्दगी का आनन्द भी दिमाग़ में इन फ़ालतू बोझों के साथ नहीं आ सकता। आप ही बताइए, क्या एक यात्री नदी पार कर लेने के बाद चप्पू-पतवार साथ लिए चल पड़ता है? कभी नहीं, चाहे उसे अहसास हो कि इसके बिना यात्रा संभव ही नहीं थी। हमने भी कितनी ही ऐसी वस्तुएँ इकट्ठी कर रखी है जिसका अब कोई उपयोग नहीं। कुछ चीजें हमें बहुत पसंद है इसलिए, तो कुछ चीजें हमें नापसंद है लेकिन हमें सिखाया है कि बिना काम लिए किसी चीज को हटाना बरबादी है इसलिए। एक रास्ता है, इन चीजों को उन लोगों तक पहुँचाइए जिन्हें इनकी ज्यादा जरुरत है और शुरुआत कम पसंद की वस्तुओं से कीजिए।

मानता हूँ, ये कोई इतनी बड़ी बात नहीं है, लेकिन आपका यह दृष्टिकोण आपकी मनोदशा बदल अनावश्यक विचारों और दायित्वों से पीछा छुड़ाने में मदद करेगा। आपका घर स्वतः ही सुंदर और दैनिक जीवन अधिक व्यवस्थित होने लगेगा।

ऐसे विचारों का बोझ जिनका सम्बन्ध भूतकाल से है। किसी के आहत करने की पीड़ा घर कर गई है या आपको किसी बात का अफ़सोस है। दोनों ही स्थितियों में, आपको यह बात समझनी और स्वीकारनी पड़ेगी कि जो बीत गया उसे बदला नहीं जा सकता। हाँ, यदि हम इस क्षण को पूरे विवेक के साथ जिएँ तो, स्थितियाँ कैसी भी हों, हम उनका उपयोग अपने हित में जरुर कर सकते हैं। टेक्नॉलोजी के इस युग में उन जानकारियों का बोझ भी कम नहीं जो अनजाने ही हमने अपने दिमाग में ठूंस ली है। आवश्यक जानकारियों का विवेकपूर्ण इस्तेमाल तो निश्चित ही व्यक्ति की मदद करता है लेकिन इंटरनेट और मीडिया द्वारा जानकारियों की बमबारी ने तो व्यक्ति के मस्तिष्क की उर्वरा का ही नाश कर दिया है।

इसी तरह वे औपचारिकताएँ, तारीखें और दायित्व जो हमने बिना सोचे-समझे या सभी ऐसा करते है इसलिए या किसी और ने हमारे लिए तय कर ली है। इन सब के चलते हमने अपने दैनिक जीवन को अत्यधिक व्यस्त, तनाव भरा और उबाऊ बना लिया है। यहाँ तक कि हम अपनी प्राथमिकताओं को लेकर भी पूरी तरह भ्रमित हो चुके है।

एक मिनट ठिठक कर सोचिये, क्या आपके लिए है और क्या नहीं फिर चाहे वे वस्तुएँ हों, विचार हों या दायित्व। अपने जीवन से फ़ालतू चीजों की सफाई कीजिए, आपके पास अपनी प्राथमिकताओं को ढंग से निभा पाने के लिए पर्याप्त समय और पर्याप्त ऊर्जा होगी । जिन्दगी को देखने और आनंद लेने का धीरज होगा। मैं तो यही कहूँगा, 'कम सामान, सफ़र आसान'।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 24 मार्च 2013 को प्रकाशित)

Saturday 12 December 2015

संतुष्ट हूँ कि और चाहिए




कुछ दिनों पहले एक टी.वी. प्रोग्राम में पण्डित शिवकुमार शर्मा का इंटरव्यू देखने का अवसर मिला। जब बोमन ईरानी, जो उनका इंटरव्यू ले रहे थे, ने उनकी उपलब्धियाँ बतानी शुरू की तो अंत में पण्डित जी ने यही कहा, 'मैं आज भी संगीत का विद्यार्थी हूँ।' मैं रियाज करता हूँ तब तो सीखता ही हूँ, जब कॉन्सर्ट दे रहा होता हूँ तब भी सीख रहा होता हूँ और जब अपने शिष्यों को सीखा रहा होता हूँ तब भी।

ये बातें वो व्यक्ति कर रहा था जिसे भारत सरकार ने पदम् श्री और पदम् विभूषण से नवाजा, जिसे सयुंक्त राज्य की मानद नागरिकता प्राप्त है, जिसने लोक-संगीत में काम आने वाले वाद्य को शास्त्रीय संगीत बजा सकने के लिए परिष्कृत कर दिया, जो स्वयं आज संतूर का पर्याय है। इसके बाद भी वे अपनी कला में और निपुण होना चाहते है, तो क्या पण्डित जी संतुष्ट नहीं है? कितना बेतुका सवाल है, लेकिन हाँ, यहाँ यह प्रश्न हमें संतुष्टि को समझने में मदद जरुर कर सकता है।

'और की चाह' हमें प्रकृति से मिली है। एक बीज, वृक्ष होने तक हर क्षण उन्नत होना चाहता है और यही हम सब के साथ भी है, आखिर हम भी तो उस विराट प्रकृति का ही तो हिस्सा है। यदि अपने आपको रोक लेना संतुष्टि है तब तो यह हमारे नैसर्गिक गुणों के विपरीत है। अर्जुन से ज्यादा कृष्ण का सामीप्य किसे मिला होगा पर उसे भी कृष्ण के विराट स्वरुप और फिर चतुर्भुज स्वरुप की चाह है।

संतुष्टि का मतलब 'और की चाह' न होना कतई नहीं है वरन जो कुछ है उसके लिए प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का एवम स्वयं के प्रति सराहना का भाव होना। अपनी कमियों को, जिसे मैं विशिष्टताएँ कहूँगा, स्वीकारना। इन भावों के साथ हर क्षण अपने आपको और बेहतर अभिव्यक्त करने की चाह, यही संतुष्टि है। संतुष्टि अकर्मण्यता नहीं, जीवन को बेहतर बनाने का मंत्र है।

वास्तव में, 'और की चाह' हमारी बेचैनी और तनाव का कारण नहीं होती वरन हमारी यह सोच कि उन सब के बिना हमारा काम नहीं चल सकता, एक अच्छी जिन्दगी वो सब हासिल किए बिना सम्भव नहीं। हम अपनी उपलब्धियों को अपने जीवन की सार्थकता और अपना परिचय समझने लगते है। हमारी इसी सोच के चलते हम अपनी जिन्दगी को बेचैनी और तनाव से भर लेते है जो हमें अधीर तो बनाती ही है हमारी दृष्टी को भी धुंधला कर देती है। कई बार लगता है कि सीधे तरीकों से यह सब कर पाना सम्भव नहीं तो कई बार सामने पड़े अवसर भी दिखाई नहीं देते।

ऐसा नहीं है, एक खुशहाल जिन्दगी न तो आपकी उपलब्धियों की मोहताज है न ये आपका परिचय न ही आपके होने का प्रमाण। ये महज आपकी अभिव्यक्ति है, वृक्ष पर आये फल और फूलों की तरह । उपलब्धियाँ जिन्दगी का श्रृंगार हो सकती है प्राण नहीं। जिन्दगी की यही उलटबाँसी है कि यदि हमारा रवैया यह रहे कि 'मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक' तो ज्यादा मिलता है क्योंकि तब दृष्टी साफ़ और मन शांत होता है।

मेरी मानिए, संतुष्टि को सफलता की सीढी बनाइए और जिन्दगी का लुत्फ़ उठाइए।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 17 मार्च 2013 को प्रकाशित)

Saturday 5 December 2015

एक दहन यह भी




वे चित्रकार बेहतरीन होते हैं जो सेल्फ पोट्रेट बना पाते हैं पर वे तो लाखों में एक ही होते होंगे जो अपने मन के भावों को भी अपने चित्र पर ला पाते हैं। इसमें बात चित्रकारी की नहीं है, भावों को उकेरना ही तो चित्रकला है और सारे ही बेहतरीन चित्रकार ऐसा कर पाते हैं लेकिन अपने भावों का सामना करना, ये मानना कि ये मेरे ही भाव हैं, कला नहीं साहस की बात है।

खैर! ये तो बहुत बड़ी बात है, हम तो अपने आप तक को देख-सुन नहीं पाते। सब दिखाई देता है हमें, सब सुनाई देता है हमें, सिवाय इसके कि हम क्या करते हैं, हम क्या बोलते हैं। आपको विश्वास नहीं होता तो आप एक ही वाक्य को अपनी और अपने कुछ दोस्तों की आवाज में टेप कर लीजिए फिर उन्हें सुनिए और बताइए कि उनमें से आपकी आवाज कौन सी है। आप हर्गिज, हर्गिज नहीं बता पायेंगे क्योंकि हमने आज के पहले कभी खुद को सुना ही नहीं। यह पहला मौका होगा जब हम अपने आपको सुन रहे होंगे। यहाँ तक कि जब आपको पता चलेगा तो आप कह उठेंगे, अरे! मैं ऐसे बोलता हूँ? 

हम ऐसे हैं इसमें हमारी गलती भी नहीं क्योंकि न तो हमें किसी ने सिखाया, न ही बताया कि ऐसा हम क्यों करें? हमें कैसे मालूम होगा कि इतनी सी बात हमारे जीवन को कितना सुन्दर बना सकती है पर दिवाली के मौसम में एक मिनट के लिए सोचिए, 
एक बार भी रावण अपने आपको देख-सुन पाता तो उस जैसा वीर शक्तिशाली महापण्डित वो गति पाता जो उसने पायी। 
निश्चित ही नहीं, तो फिर उस जैसा विद्वान भी ऐसा क्यों नहीं कर पाया? 
सिर्फ इसलिए ना कि उसका अहं ये कैसे मंजूर करता कि उससे गलती हो गई, क्योंकि राम तो तब भी उसे माफ करने को तैयार थे। 
क्या ऐसा करने से उसकी प्रतिष्ठा कम होती? 
कतई नहीं, शायद महापुरुषों में गिनती होती। 
लेकिन सारी बातों के बावजूद वो नहीं कर पाया ..........

तब से लगाकर आज तक व्यक्ति की ये समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है, हम जो करते हैं, जो कहते हैं उसे देखने-सुनने को तैयार नहीं। हाँ, दूसरों का किया-सुना बड़ा साफ-साफ दिखाई-सुनाई पड़ता है, शायद कुछ ज्यादा ही। मेरा ध्यान भी इस बात पर तब गया जब मैंने पहली बार लुईस एल. हे की पुस्तक में इस बात को पढ़ा था। उसके बाद जब भी खुद को सुन पाता, हैरत रह जाता, बात नये ही परिपेक्ष्य में समझ आती, लगता गलत सिर्फ अगला ही नहीं है। स्थितियाँ सम्भलती और परिणाम बेहतर मिलते।  

मैं चाहता हूँ ज्यादा नहीं, दिन में एक बार ही सही आप जब भी किसी से बात करें खासकर उस समय जब आप उससे सहमत न हों और तब आप जो कह रहे हैं उसे स्वयं भी सुनें। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आप भी वैसा ही पायेंगे। आप उसकी बात को ज्यादा ध्यान से सुनने लगेंगे और फिर बेहतर समझने। ज्यादा गुंजाईश रहेगी कि अन्त में आप किसी नतीजे तक पहुँच पाएँ। आप अपनी बात को भी ढंग से कह पाएँगे और यदि आप सही हैं तो ख़ुशी-ख़ुशी अपनी बात मनवा भी पाएँगें। जिस दिन ऐसा करना हमारी आदत पड़ गयी, जिसकी कोशिश में मैं आज भी लगा हूँ, उस दिन निश्चित है कि हमारे न तो किसी से रिश्ते खराब होंगे न रहेंगे। 

किसी ने ठीक ही कहा है, "जब आप अकेले हों तब अपने विचारों पर ध्यान दीजिए और जब लोगों बीच में हों अपने शब्दों पर।" हमारे लिए ये रावण जितना मुश्किल भी नहीं होगा क्योंकि हमने वैसा अपराध भी तो नहीं किया पर इतना जरूर है कि ऐसा कर हम धीरे-धीरे ही सही अपने अन्दर के रावण को मारने में जरूर कामयाब हो जायेंगे।