Friday 25 October 2013

इसका साथ कभी ना छोड़ें



राम को वन जाता देख दशरथ ने किसी क्षण यह जरुर सोचा होगा कि काश! मैं कैकयी को वचन नहीं देता और कुरुक्षेत्र से पहले भीष्म ने भी एक क्षण के लिए ही सही यह जरुर सोचा होगा कि काश! मैं प्रतिज्ञा नहीं करता। इस काश पर तो न जाने कितने ग्रन्थ लिखे जा सकते है। ऐसा नहीं होता तो क्या होता या वैसा हो जाता तो क्या होता लेकिन आज हमारी बातचीत का विषय 'काश' नहीं प्रतिज्ञा और वचनों का है। चूँकि ये घटनाएँ रामायण और महाभारत की केंद्र-बिंदु है इसलिए हमें ज्यादा आंदोलित करती है लेकिन गौर करें तो हमारा सारा इतिहास ही मानो प्रतिज्ञाओं-वचनों को निभाने की दास्तान लगता है और वो चाहे कोई भी हो ये हमेशा ही किसी न किसी तरह की हिंसा में जरुर तब्दील हुई है। 

और हमारी श्रद्धा देखो, और बातों को माने न माने, उनके मर्म को समझें न समझें किसी न किसी वचन या प्रतिज्ञा से बंधने को जैसे बाहें चढाये तैयार लगते है। क्या ये श्रद्धा है या इससे हमारा अहंकार पुष्ट होता है? पता नहीं, लेकिन इनके परिणामों को देखकर भी वैसा ही करने की कोशिश करना कोरी श्रद्धा तो नहीं हो सकती। कारण चाहे जो हो लेकिन मैं तो यह सोचने पर मजबूर जरुर हुआ कि क्या व्यक्ति को अपने जीवन में प्रतिज्ञाओं और वचनों से बंधना भी चाहिए? मैंने तो जितने लोगों को भी इससे बंधे हुए देखा है उन्हें जीवन में कभी न कभी दशरथ जैसी उथल-पुथल और भीष्म जैसी दुविधा से घिरा हुआ ही पाया है। 

एक मित्र से विमर्श में यह तो सतह पर आया कि प्रतिज्ञाएँ अंततः हिंसा को जन्म देती है इसके बावजूद भी मन यह मानने को तैयार नहीं हुआ कि व्यक्ति को प्रतिबद्ध और वचनबद्ध होना ही नहीं चाहिए। सत्य, अहिंसा, ईमानदारी या राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्ध होना कैसे गलत हो सकता है या फिर रिश्तों में एक-दूसरे की खुशियों के प्रति वचनबद्ध होना बुरा। फिर गड़बड़ कहाँ है? कई दिनों तक इस गुत्थी को अपने जेहन में सम्भाले रहा क्योंकि मुझे लगता है समस्या यदि इंतज़ार करती रहे तो समाधान दस्तक दे ही देता है। 

और उसने आकर यही बताया कि हमें साध्य से प्रतिबद्ध होना चाहिए साधनों से नहीं। कितना अच्छा होता यदि दशरथ अपनी कृतज्ञता की भेंट भविष्य में देने का कैकयी को वचन जरुर देते पर 'कुछ भी मांग लेना' से बचते। व्यक्तिगत भावनाओं की भेंट व्यक्तिगत होती। एक राजा नहीं एक पति अपनी पत्नी से वचनबद्ध होता। ठीक इसी तरह कितना अच्छा होता कि भीष्म अपने पिता के जीवन की खुशियों को सहेजने के लिए प्रतिज्ञ होते चाहे राजपाट छोड़ने एवम अविवाहित रहने को साधन के रूप में अपनाते। उनकी प्रतिबद्धता हस्तिनापुर और कुरुवंश से तो थी ही चाहे इसकी उन्होंने घोषणा की हो या नहीं। 

प्रतिज्ञाएँ और वचन निजता का विषय है लेकिन इतना तय है कि इरादा चाहे कितना ही नेक हो और आपकी इच्छा-शक्ति कितनी ही दृढ़ अपने विवेक के इस्तेमाल का अधिकार हमेशा अपने पास रखें। जब-जब व्यक्ति ने विवेक का साथ छोड़ा है उससे जिन्दगी सम्भाले नहीं सम्भली है। जैसे ही आप मूल विषय को छोड़ उसे पाने के तरीकों से प्रतिबद्ध हुए समझिये आपने अपने विवेक का अधिकार किसी और के हाथों में दे दिया। यही वो साथी है जो ईश्वर ने इस जीवन-यात्रा में हमारा ध्यान रखने हमारे साथ भेजा है। आप ही बताइए, इसी का साथ छोड़ देना उसे कैसे प्रसन्न कर सकता है?

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 20 अक्टूबर को प्रकाशित)
आपका,  
राहुल .............. 

Friday 18 October 2013

रावण की दुविधा




मेरे शहर में यह एक अनूठी पहल थी, कवि सम्मलेन और मुशायरे का साथ होना। मंच पर हिन्दी और उर्दू के श्रेष्ठ हस्ताक्षर मौजूद थे। मैं उन्हीं में से एक श्री उदय प्रताप सिंह जी की एक कविता के बारे में आज आपसे बात करना चाहता हूँ। कविता की पृष्ठभूमि कुछ यूँ है कि रावण प्रतिदिन नये-नये प्रलोभनों के साथ सीता जी से प्रणय-निवेदन करता है लेकिन माँ उसकी और आँख उठाकर भी नहीं देखती। आखिर थक हार कर एक दिन रावण उनसे कहता है कि तुम एक बार मेरी तरफ आँख उठाकर देख लो, इसके बाद भी तुम इन्कार करोगी तो मैं उसे तुम्हारा अंतिम निर्णय समझूँगा। 

इस पर भी माँ सीता तिनके की ओट लेकर रावण की ओर देखती है। कविता यहीं से शुरू होती है। मंदोदरी रावण से कह रही है, करवा आए अपना अपमान। मैं आपकी जगह होती और प्रेम में इतनी ही व्याकुल होती तो एक ही उपाय करती। राम का रूप धर सीता के सम्मुख प्रस्तुत हो जाती। क्या इतनी सी बात नहीं सूझी आपको। मार्मिक रावण का जवाब है। वह कहता है तू क्या समझती है, मैं दशानन, क्या इतना भी नहीं सोच पाया हूँगा? यह भी करके देख चुका पर क्या बताऊँ, जब-जब यह चाल चलता हूँ, राम का रूप धरता हूँ तब-तब मुझे हर पराई स्त्री माँ का रूप नज़र आती है।

हर व्यक्ति हर बात को अपनी तरह समझता है। मेरे साथ भी ऐसा ही था। कविता सुनकर मुझे तो लगा कि कवि ने स्वयं के परिवर्तन का एक वैज्ञानिक तरीका कितनी सुन्दर कल्पना के साथ कितने कम शब्दों में कितनी सहजता से कह दिया। ऐसा कि हर किसी के ह्रदय में गहरे उतर जाए और जिससे बुद्धि भी सहमत हो। 

जब किसी व्यक्ति को लगे कि उसकी अपनी आदतों ने ही उसे वश में कर लिया है और विचार उसके विमानों की तरह उड़ते है। अब उसका अपने पर कोई नियंत्रण शेष नहीं। अब उसके लिए भीतर से बाहर की यात्रा दुष्कर है तो यही तरीका है बाहर से भीतर की यात्रा का। हम जैसा बनना चाहते है, जैसा होना चाहते है उसका अभिनय शुरू कर दें। ऐसा करते-करते आपको मालूम ही नहीं चलेगा कि कब आप वैसे ही हो गए। और फिर आदतें क्या है, किसी बात का अभ्यस्त होना ही तो है। अभिनय करते-करते कब ये आपकी आदतें बन जाती है और फिर आपका स्वभाव बनकर आपके व्यक्तित्व को ही बदल देती है, आपको अहसास ही नहीं होगा। आपको इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देखना हो तो इस बार जब भी आपका मन अशान्त हो - मूड खराब हो, आप शीशे के सामने जाकर खड़े हो जाएँ और दो-चार मिनट तक जबरदस्ती मुस्कुराएँ। पाँचवे मिनट से ही आपका मन ठीक होने लगेगा, क्योंकि यह तो तय है कि राम और रावण कभी साथ नहीं रह सकते।

आप जीवन के जिस भी क्षेत्र में परिवर्तन चाहते है उसमें अपना आदर्श तलाशिए और फिर उसी तरह व्यवहार करना शुरू कीजिए। हो सकता है बीच-बीच में आपकी पुरानी आदतें उभरें। जब भी आपको ऐसा लगने लगे बिना अपने को दोष दिए पुनः अपने रास्ते पर लौट आइए। धीरे-धीरे आप स्वयं भी उसी तरह सोचने-समझने और जीने लगेंगे। आप बाहर से बदलते-बदलते कब अन्दर से भी बदल गए और जैसा बनना और होना आपका सपना था वो कब हकीकत में बदल गया आपको मालूम ही नहीं चलेगा।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 13 अक्टूबर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .......... 

Friday 11 October 2013

युग बदला या हम बदले



विविध-भारती पर सुबह-सुबह आने वाले शास्त्रीय संगीत के प्रोग्राम संगीत-सरिता में उस दिन पंडित हरी प्रसाद चौरसिया बोल रहे थे। संगीत की बातों के साथ उन्होंने हमारे आज के जीवन को लेकर एक गम्भीर सवाल खड़ा किया जिसने मुझे दो दिन पहले अपनी बिटिया से हो रही बातचीत से जोड़ दिया। बिटिया कह रही थी कि आज युवा के सामने जीवन इतना असुरक्षित है कि वो आज ही कल के लिए सारे साधन जुटा लेना चाहता है। उसका कहना था कि आज युवा के मन में असुरक्षा का भाव इतना गहराया है कि उसने अपने कल को सुरक्षित करने के लिए अच्छे-बुरे की तराजू को ताक पर रख दिया है। मैं उसे हर किसी को अपना जीवन मूल्यों पर जीकर ही परिदृश्य बदल सकता है की सलाह तो दे रहा था लेकिन न जाने क्यूँ कहीं न कहीं मैं स्वयं भी उसके सरोकारों से जुड़ता जा रहा था। 

पंडित जी चूँकि फिल्म-संगीत भी देते है तो बात फिल्मों की भी चली। उनसे जब तेज संगीत और कई बार तो संगीत के नाम पर शोर के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बड़े ही अफ़सोस के साथ बताया कि फिल्म की कहानी में कई जगहों पर शान्त संगीत और धीरे स्वरों की गुंजाईश होती है विशेषकर जहां कहानी करुण-रस की अभिव्यक्ति माँगती हो लेकिन वहाँ निर्देशक बैक ग्राउंड म्यूजिक से ही काम चलाना पसंद करते है।उनका तर्क होता है कि इस तरह के गाने आज की पीढ़ी को पसंद नहीं आयेंगे। पंडित जी ने यही वजह बताई जिस कारण आज फिल्म-संगीत से धीरे-धीरे करुण-रस गायब होता चला जा रहा है। वे कह रहे थे कि मैं लाख कोशिशों के बाद भी उन निर्देशकों को ये नहीं समझा पाता हूँ कि जीवन से करुणा कभी आउट ऑफ़ फैशन या आउट डेटेड नहीं हो सकती और न ही ऐसा हो सकता है कि करुण-रस की कोई सुन्दर रचना सुनने वालों के दिल को न छुए। वे कह रहे थे कि ऐसा सब देख मैं कई बार सोचने को मजबूर हो जाता हूँ कि आखिर युग बदला या हम बदले?

मुझे लगता है यही वो प्रश्न है जिस पर हम सब को सोचना चाहिए। यही वो सलाह है जो मुझे अपनी बिटिया को देनी चाहिए। क्या सचमुच ही आज के इस जटिल जीवन के लिए बदला हुआ समय दोषी है या हम ही बदल गए है? क्या हममें से अधिकांश लोग जो कुछ भी कर रहे हैं वो सुरक्षित भविष्य के लिए है या वे विलासिता ही हर सम्भव वस्तु को हासिल कर पाने की क्षमता हासिल करना चाहते है?

यदि बात अपने और अपने परिवार के सम्मानजनक अस्तित्व की हो तो बात अलग है लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? जिन लोगों के साथ यह दुर्भाग्य है भी तो मेरे हिसाब से वे तो समाज का सबसे ईमानदार और मेहनती तबका है। भ्रष्ट आचरण तो वो ही निभा सकता है जिसके पास पद, प्रतिष्ठा या पैसा हो, तो उसे किससे सुरक्षित होना है? मूल्यों को निभाने की असहजता से बचने का ये सुन्दर बहाना ईज़ाद किया है हमने लेकिन हमें ये मालूम नहीं कि जीवन को जटिल बनाकर हम इसकी कीमत चुका रहे है। अपने बच्चों को अच्छे संस्कार न दे पाने के रूप में इसकी कीमत चुका रहे है, और तो और अपनी ही नज़रों में गिर कर इसकी कीमत चुका रहे है। पंडित जी के प्रश्न का जवाब हर व्यक्ति को अपने-अपने स्तर पर ढूँढना होगा और तब हम एक बार फिर युग बदल रहे होंगे।


(जैसा की नवज्योति में 6 अक्टूबर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .......... 

Friday 4 October 2013

ये भी जरुरी है



ये घटना कोई पांच साल पुरानी होगी। मैं अपने कॉलोनी पार्क में सुबह-सुबह टहल रहा था। क्या देखता हूँ, हमारी कॉलोनी के सेक्रेटरी ही खड़े होकर एक हरे-भरे पेड़ को कटवा रहे हैं। पहली बार तो चुप रहा लेकिन दूसरी बार जब उनके पास से गुजरा तो मुझसे रहा न गया। मैंने उनसे पूछा वे ऐसा क्यों कर रहे हैं तो उनका जवाब था, इस पेड़ के पत्तों और छाल को छूने से खुजली हो जाती है और सर्दियों के मौसम में तो इसमें से ऐसी गंध आने लगती है कि पक्षी भी इस पर नहीं बैठते। उनका जवाब सुन, संतुष्टि का भाव लिए मैं आगे बढ़ गया लेकिन मन था कि इसे मथे जा रहा था। 

कई दिनों तक ये बिलौना चलता रहा और जो अंततः बाहर निकला वो यह था कि श्रेष्ठ तो यह है, आपके पत्ते और छाल किसी के लिए औषधि बनें और आप अपनी सुगंध से उधान को महकाएँ। यदि ऐसा न भी हो पाए तो कम से कम ऐसा तो न हो कि कोई आपके पास फटकना भी न चाहे और गलती से छू भी ले तो उस बेचारे को खुजली हो जाए। तो सारांश यह था कि पेड़ हो या व्यक्ति, जिसका होना वातावरण और समाज को दूषित करे और जिसका स्वभाव बदल पाना किसी तरह सम्भव न हो तो उसका नष्ट किया जाना ही शुभ है। ये घटना तब पुनः याद हो आई जब पिछले दिनों कोर्ट ने उन चार दरिंदों को फाँसी की सजा सुनाई। यही शुभ था। 

हमने अहिंसा को हमेशा ही गलत समझा है और यही वजह है की आज अहिंसा कायरता का पर्याय बन गई है। अहिंसा तो वीरता है और वो इसलिए कि करने वाला अन्त तक इसे नहीं करने की कोशिश करता है और वो सारे उपाय करता है जिससे हिंसा से बचा जा सके। हिंसा उसके लिए अन्तिम उपाय होती है। एक वीर के लिए हिंसा अन्तिम उपाय होती है और एक कायर के लिए प्रथम। जब हिंसा अन्तिम उपाय होती है तब वो शुभ हो जाती है, कर्तव्य बन जाती है और कर्ता को महान बना देती है। 

संहार ही सृजन का आधार बनता है और यही इस घटना में भी था। पेड़ दुर्गन्ध और खुजली फैलता हो तो न तो कोई पक्षी उसकी डाल पर बैठता है और न ही कोई व्यक्ति उसकी छाहं में आश्रय लेता है और तब उसे काट देने के अलावा कोई चारा नहीं बचता और इसी तथ्य में जीवन-रस का सृजन छिपा था। यही बात सीखने-समझने की है। समझने की यह कि हम किसी के जीवन में तकलीफों का कारण नहीं बनें नहीं तो उनके पास हमें अपनी जिन्दगी से निकाल देने के अलावा कोई रास्ता न बचेगा। जब इतना कर लें तो यह बात सीखने की है कि हम अपने में ऐसी बात पैदा करें कि सब हमारे समीप रहना चाहें। हम में से वो सुगन्ध आए। 

हम सब एक दूसरे से सबद्ध है। यह बात सही है कि हमारी सुन्दरता और खुशियाँ हम ही में छिपी है लेकिन इसका मोल तब ही होगा जब ये आस-पास के पूरे वातावरण में भी छाई हो, अन्यथा ये वैसी ही बात होगी कि हमारी जेब में तो ढेर सारे पैसे हों लेकिन खरीदने के लिए बाज़ार में कुछ नहीं। यदि आपको अपने जीवन में सुन्दरता और खुशियों की रचना करनी है तो आपको दूसरों के जीवन को उतनी ही सुन्दरता और खुशियों से भरना होगा। यदि आप उधान का सुन्दर वृक्ष है; खिले फूल, अद्भुत सुगन्ध और छायादार। यदि आने वाले आपकी छाया में बैठकर सुकून पाते है, यदि आपके होने से उधान की सुन्दरता है तो निश्चिन्त रहिए आपका आपसे बेहतर ध्यान माली स्वयं रखेगा। 

आपका,
राहुल …………