Friday 28 September 2012

अपनी गलतियों को जगह दें




किसी भी काम को अच्छे से अच्छा करने कि कोशिश करने से सुंदर कोई बात नहीं हो सकती. एक सच्चा जीवन-साधक वही है जो हर बार पहले से बेहतर करने की कोशिश करें. यही जीवन की प्रेरणा-शक्ति भी है और ऊर्जा-स्रोत भी. अपने काम में परफेक्ट यानि बिल्कुल सही होने की प्यास ही हमें सर्वश्रेष्ठ बनाती है. यही हमारे सफल और अंततः खुशहाल जीवन का मूल-मंत्र है.

आप सोच रहे होंगे कि हर बार जिस तरह मैं अपनी बात ख़त्म करता हूँ, आज शुरू कैसे कर रहा हूँ. आप ठीक सोच रहे हैं. मैं आज 'काम को और बेहतर' करने की बात नहीं कर रहा वरन यह विचार साझा करना चाहता हूँ कि किस तरह शक्कर कि अधिकता चाशनी को कड़वा बना देती है. किस तरह इतना सुंदर गुण जूनून कि हद तक बढ़ हमारे जीवन की सुख-शांति छीन लेता है.

कुछ जीवन-साधक अपने काम को इस तरह मांजते चले जाते है कि उनका काम उनका परिचय बन जाता है. किसी काम से उनका जुड़ा होना ही काम के स्तर कि घोषणा होती है. ठीक वैसे ही जैसे आजकल हम आमिर खान के किसी कार्यक्रम या फिल्म के बारे में सोचते है. किसी व्यक्ति के लिए इससे बड़ा पुरस्कार और क्या हो सकता है?

आपका काम आपका परिचय बने, लोग उसमें आपकी सुगंध पायें लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब हम उसे अपना पर्याय समझने लगते है. आपका पर्याय हो सकता है तो सिर्फ काम के प्रति आपकी ईमानदारी एवम निष्ठा और कोई नहीं. गुड अपनी मिठास से पहचाना जाता है न कि हलवे के स्वाद से. हलवे का बहुत या  कम  अच्छा बनना सिर्फ एक अनुभव है लेकिन व्यक्ति जब अपने काम या अनुभव को अपना पर्याय बना लेता है तो फिर उसमें छोटी-सी चूक भी बर्दाश्त नहीं कर पाता. उसे लगता है जैसे उसका अस्तित्व ही खतरे में पड गया हो और इस तरह अपने काम में   परफेक्ट होने जैसा सुंदर गुण भी अति के कारण जीवन में कुंठा और नैराश्य का कारण बन जाता है.

हो गई ना चाशनी कडवी ?  सच तो यह है कि आपका काम आपका बच्चा है. जिस तरह आप अपने बच्चे को सारी अच्छाईयों और कमियों के बावजूद प्यार करते है लेकिन साथ ही जिन्दगी भर उसकी कमियों को दूर करने कि कोशिश करते है उसी तरह आप अपने काम को सम्पूर्णता से स्वीकारें, उसमें भी गलतियों के लिए जगह छोड़ें. गलतियों की स्वाभाविकता को सह्रदयता और सहजता से लें. ये ही वे क्षेत्र है जिन पर आप काम कर अपने जीवन को अधिक बेहतर बना सकते है. किसी भी व्यक्ति या वस्तु का मूल्यांकन उसकी समग्रता के आधार पर करें.

असम्पूर्णता सम्पूर्णता की सुन्दरता तो है ही उसका अटूट हिस्सा भी. प्रकृति की ओर नज़र घुमाकर देखें, यह बात सहज ही समझ आ जाएगी. प्रकृति का कोई घटक ऐसा नहीं जिसमें बाँकपन न हो. सूर्य ठीक पूर्व मैं नहीं उगता, पृथ्वी पूरी गोल नहीं और चन्द्रमा बेदाग़ नहीं लेकिन क्या प्रकृति से पूर्ण और सुंदर कुछ हो सकता है?

सोचिए पेड़-पौधे और फल-फुल यदि रूप-रंग, स्वाद-सुगंध में एक से होते, यहाँ तक कि हमारी शक्लो-सूरत भी एक सी होती; ठीक वैसी जिसे हम  परफेक्ट कहते है तो हमारा जीवन कितना बेजान और नीरस होता. परफेक्शन किसी वस्तु में नहीं व्यक्ति कि नज़र में होता है और परफेक्ट वह व्यक्ति होता है जिसे जीवन के हर पहलू में पूर्णता नज़र आए. अपने काम में त्रुटियाँ नहीं आनंद ढूढीए. हर बार इस आनंद को बढ़ाने कि सोचिए फिर देखिए जीवन में कैसे मिठास घुल जाती है.


आपका
राहुल.... 
( रविवार, २३ सितम्बर को नवज्योति में प्रकाशित )

Friday 21 September 2012

क्षमा - क्यों, कैसे और किसे ?





क्षमा कर पाना इंसान का श्रेष्ठतम चारित्रिक गुण और पावन कर्म है. शायद इतना श्रेष्ठ और पावन की हम इसे मानवीय ही नहीं मानते. हम सोचते है कि ये तो किसी महापुरुष के बूते की ही बात है, भला मुझसे कैसे संभव है?

इस प्रश्न से उलझने से पहले हमें एक-दूसरे हठी प्रश्न से दो-दो हाथ करने होंगे वो यह कि ' मैं क्षमा करूँ ही क्यूँ? जब तक हमारी बुद्धि ये नहीं समझ लेती हमारा अहंकार क्षमा न करने के नित-नए बहाने ढूंढता रहेगा. इस बीच यदि हम अपने मन को टटोले तो एक बड़ा हिस्सा अपराध-बोध, क्रोध और घृणा से भरा मिलेगा. मन में इन भावों के होने का अहसास ही जाहिर कर देगा कि किस तरह हम अपने आपको रोके है वह सब करने, होने और बनने से जो हम अपनी जिन्दगी से चाहते है. हमें ठीक वैसा ही लगेगा जैसे हम घर से करने कुछ निकले थे और कर कुछ और रहे है. क्षमा हमें अपराध-बोध, क्रोध और घृणा से मुक्त कर हमारी रचनात्मकता लौटाती है.

आप कहेंगे, सारी बात ठीक है लेकिन ऐसा कोई व्यवहार जिससे हमारा मन आहत हुआ हो, दिल दुख हो; भला! कोई कैसे भूला सकता है? आपकी बात सही लगती है लेकिन इसे सही मानने से पहले हमें लोगों कि छंटनी करनी होगी. पहले तो हम स्वयं, दूसरे वे लोग जिनसे अनजाने ऐसा हुआ और तीसरे वे जो जान-बूझकर लगातार ऐसा कर रहे है.

यदि विगत में ऐसी किसी भूल जिसका पछतावा आज भी आपके दिल में है जिसके बारे में आपको ऐसा लगता है कि काश! में ये नहीं करता या इसकी जगह वो कर लेता तो आज मेरा जीवन, रिश्ते और सफलताएँ कुछ और होती तो एक बात हमेशा ध्यान रखिए, आप आज जो भी है वो अपने अच्छे और बुरे सारे अनुभवों का सम्मिलित परिणाम है. इन गलतियों ने ही आपको इतना परिपक्व और समझदार बनाया है. यदि आपने अपनी गलती से सीख लिया तो उस गलती का उद्देश्य व आपका काम पूरा हो गया, अब उसे और ढोने की कोई जरुरत नहीं. आप अपने को क्षमा कर ही किसी और को क्षमा कर पाने के काबिल बन सकते है.

आपकी अपने प्रति यही सहजता उन लोगों को समझने में मदद करेगी जिन्होंने अनजाने ही आपको आहत किया है. मुझे याद आता है 'पा' फिल्म का संवाद. एक छोटी दोस्त आई. सी.यू में लेटे ऑरो से कहती है कि अपनी गलती पर शर्मिंदा और दिल से माफ़ी माँगने वाला कहीं ज्यादा आहत होता है जिससे वो माफ़ी कि उम्मीद रखता है. व्यक्ति को उसके आचरण से नहीं नीयत से पहचानना चाहिए.  

अब आते है वे लोग जो जान-बूझकर ऐसा व्यवहार करते है जो आपको तकलीफ पहुँचाए. ऐसे लोगों से पहली बार में कठोर एवम स्पष्ट शब्दों में अपनी असहमति व्यक्त कर दें. हो सकता है इन्हें ग़लतफ़हमी हो कि आपको अपनी तकलीफों कि वजह का अंदाजा ही नहीं. ऐसा है तो आइन्दा ये अपना व्यवहार सुधार लेंगे और आपके लिए उनके उस व्यवहार को भूला देना कहीं आसान होगा.

जो लोग इसके बाद भी अपने व्यवहार को दोहराते है उनसे दूरी बनाना ही अच्छा, यह समझकर कि जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण भिन्न है. ये सिखाते है कि हमें जीवन में कैसा व्यवहार कभी नहीं करना चाहिए. इन लोगों से दूरी ही आपके जीवन में शांति लौटाएगी जो हमें बुरे सपने की तरह उनके व्यवहार को भुलाने में मदद करेगी. अंग्रेजी में एक कहावत है, ' सूअर के लिए तो कीचड़ आनंद है पर आप उससे उलझकर अपने कपडे ही खराब करेंगे.'

कुछ लोग इससे भी आगे बढ़ जाते है. आपकी भलमानसता को कमजोरी समझाने लगते है. अपने निजी स्वार्थों के लिए आपका ही अहित करने से भी जरा नहीं हिचकते. ऐसे लोगों के प्रति क्रोध जायज है और आपको अपने बचाव का अधिकार भी. हर आदर्श की एक सीमा होती है नहीं तो कृष्ण शिशुपाल का वध नहीं करते ओर राम रावण से युद्ध नहीं करते. वो क्षमा नहीं कायरता है जो हमारे आत्म-सम्मान को गिराएँ, हमारी निजता पर अतिक्रमण करें लेकिन ध्यान रहें, आपका क्रोध अँधा न हो. आपकी प्रतिक्रिया व्यवहार के प्रति हो व्यक्ति के प्रति नहीं.

क्षमा का यही बहुआयामीपन व्यक्ति को साधारण से असाधारण बनता है. यह महापुरुषों का गुण नहीं बल्कि वो रसायन है जो व्यक्ति को महापुरुष बनता है.

( इतवार १६ सितम्बर को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका
राहुल....

Friday 14 September 2012

कामयाबी से गलबहियाँ




एक व्यक्ति ने अपने पिता के कातिल को ढूंढ़कर बदला लेना अपना जीवन लक्ष्य बना रखा था. कई सालों तक उसका पीछा कर आख़िरकार उसने अपना बदला पूरा कर ही लिया. वापस लौटते हुए वह हतप्रभ सा चारों दिशाओं में देख रहा था. उसका दिमाग जैसे कुंद हो गया था. उसे बिल्कुल समझ नहीं आ रहा था कि वो किधर लौटे? अब जब उसका लक्ष्य पूरा हो गया तो वह जीवन में किधर बढे? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम सभी अपनी जीवन यात्रा में इतने खो जाते है, ढूंढने में इतने तल्लीन हो जाते है कि जब हमें वह मिल जाती है तब न तो ये मालूम होता है कि इसका क्या करें और न ही ये मालूम होता है कि इसके बाद क्या करें?

एक पथिक को चलते रहने की ऐसी आदत सी पड जाती है, उसी में इतना आनंद आता है कि वो अनजाने ही सही, पहुंचना ही नहीं चाहता. यात्रा की तो पूरी जानकारी होती है लेकिन मंजिल अनजानी होती है. हम भी उस पथिक की ही तरह पा लेने की दौड़ के इतने अभ्यस्त हो चुके है कि स्वयं ही स्वयं को उससे दूर रखे है जो हम पा लेना चाहते है. अनावश्यक प्रयास करते रहना हमारी जीवन-शैली बन गई है जो हमें गलतियाँ करते रहने और अपने काम के प्रति लापरवाह रहने की छूट देती है. निश्चित रूप से ऐसा जीवन हमें सुरक्षा का आभास देता है और इसीलिए हम अपने सुरक्षा घेरे (कम्फर्ट जोन) से बाहर निकलना ही नहीं चाहते. यहाँ तक कि हम अपना परिचय, रिश्ते, मूल्य और जीवन-संबल भी सुरक्षा घेरे के इस दायरे में ही बुन लेते है. 

सच तो यह है कि हमें खुद नहीं मालूम होता कि इस सुरक्षा की हम क्या कीमत चुका रहे होते है. यह होती है मन का खालीपन, कमतरी की भावना, परिस्थितियों की मज़बूरी और प्रेम-विहीन जीवन जबकि इससे बाहर निकल 'पा लेने' का अहसास हमें अपनी तरह जीने का आत्म-विश्वास तो देगा ही साथ ही हमारा जीवन सुख-शांति-स्वास्थ्य और प्रेम से खिल उठेगा.

वास्तव में ये हमारे मन का डर ही है जो हमें अपनी कामयाबी को गले लगाने से रोकता है. कामयाबी जो खुशियों के साथ जिम्मेवारी भी लाती है. यदि आप किसी चीज के प्रति जिम्मेवार है इसका मतलब है उससे सम्बंधित निर्णय आप ही को लेने है. निर्णय चाहे कितने ही विवेक से क्यूँ न लिए जाएँ उनके सही या गलत होने की सम्भावना बराबर बनी रहती है. अहम् भला हमें उस दिशा में क्यूँ जाने देना चाहेगा जहाँ हमारे गलत हो जाने का जरा सा भी अंदेशा हो.  हकीकत तो यह है कि हम अपनी जिम्मेवारियों से भाग रहे होते है. अहम् कि ये ही कारस्तानियाँ हमें कामयाबी को स्वीकारने से रोकती है.

इसे यों देखें जैसे कोई भी अच्छा विद्यार्थी यही चाहेगा कि शिक्षा ग्रहण के बाद उसकी गिनती अपने विषय के श्रेष्ठ ज्ञाताओं में हो. यही उचित है और यही प्रेरणा भी लेकिन यह भी उतना ही सही है कि दीक्षित (ग्रेज्यूएट) होना शिक्षा का एक आवश्यक एवम महत्वपूर्ण पड़ाव है. पाठ्यक्रम की सम्पूर्ण जानकारी दीक्षित होने की शर्त कभी नहीं हो सकती. ठीक उसी तरह जैसे एक शिक्षक को अपने विषय की सम्पूर्ण जानकारी नहीं हो सकती लेकिन एक मुकाम पर आकर उसे स्वीकार करना पड़ता है कि उसका अर्जित ज्ञान दूसरों में बाँटने के लिए पर्याप्त है. यह हमारी ग़लतफ़हमी है कि  संतुष्टि का यह भाव एक दीक्षित या शिक्षक को आगे ज्ञानार्जन से रोक देगा. संतुष्टि ठहराव नहीं आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास की आधारशिला है. यह हमें मजबूती से आगे बढ़ने की ऊर्जा देती है. 

निस्संदेह यात्रा का भी उतना ही महत्व है जितना मंजिल का. जिसने यात्रा का आनंद नहीं लिया वह मंजिल पर पहुँच कर भी खाली ही रहेगा लेकिन इसके साथ यह भी उतना ही सत्य है कि कोई भी यात्रा मंजिल के लिए होती है और होनी चाहिए. यदि रास्ते का आनन्द आपको जीवन भर पथिक बनाए रखता है तो आपने यात्रा के मूल भाव को ही कहीं बिसरा दिया है. एक बात हमेशा याद रखनी होगी कि ठहराव कभी ख़ुश्बू नहीं दे सकता. 


( दैनिक नवज्योति - रविवारीय में 9 सितम्बर को प्रकाशित)  
आपका 
राहुल...... 



Friday 7 September 2012

जिन्दगी है, कोई नाटक नहीं




हम में से कोई अपने बारे में पूछे तो हम अपनी बीती जिन्दगी को सिलसिलेवार घटनाओं के रूप में बता सकते है. ध्यान से देखें तो ये सारी घटनाएँ अपने मूल में एक-सी होती है. प्रतिकूल परिस्थितियाँ, साधन-क्षमताओं की कमी और हमारा साहस जिससे हमने उन पर विजय पायी. कहीं-कहीं ऐसी घटनाओं का जिक्र भी जहाँ हम भाग्य को दोष देकर अपनी आज की स्थिति को सही ठहरा रहे होते है.

अरे! आप तो बुरा मान गए. नहीं, ऐसा मत कीजिए. इन सारी घटनाओं को अपना परिचय बनाने के पीछे हमारी नीयत बिल्कुल पाक-साफ होती है. सभी का प्रेम पाना और स्वीकार किया जाना. एक कहावत है, 'आदमी भूख बर्दाश्त कर सकता है दुत्कार नहीं, लेकिन क्या यह पावन उद्देश्य इस तरह पूरा हो पाता है? और नहीं तो हम ऐसा करते ही क्यूँ है? फिर हम क्या करें कि सभी हमें प्रेम और सम्मान की नज़रों से देखें?

हम इसलिए ऐसा करते है क्योंकि हमने अपनी जिन्दगी की डोर अहम् के हाथों सौंप दी है. अहम् जो उत्तेजना का भूखा है. जो हमें दूसरों से अलग कर देखता है. अपने को सही साबित करने के लिए दूसरों को गलत सिद्ध करना जिसकी कार्य-पद्धति है. अब आप ही बताइए, हमारी जिन्दगी जब इन आधारशिलाओं पर टिकी हो तो उसे सोप ओपेरा जैसा नाटकीय होने से कौन बचा सकता है. 

अहम् प्रेम और सम्मान पाने के लिए मुख्यतः तीन तरीके अपनाता है. पहला, सबके सामने अपने आपको हीरो सिद्ध करना. हम सब पौराणिक कथाओं, बचपन की कहानियों से लेकर अपनों से बड़ों के ऐसे अनुभव ही तो सुनते आए है कि कैसी-कैसी मुश्किलों का साहसपूर्ण सामना कर एक व्यक्ति ने अपनी मंजिल पा ली. हमने इन सब से मुश्किलों का सामना करने का जज्बा सीखने की बजाय यह मान लिया की जीतने के लिए मुश्किलें जरुरी है, हीरो बनने के लिए जीतना और प्रेम पाने के लिए हीरो होना. हमारा अहम् लगातार जिन्दगी में ऐसी नाटकीय स्थितियां ढूंढता और पैदा करता है.

दूसरा, प्रमाणित करना कि मैं ही सही हूँ. अहम् मानता है कि मैं सही तब ही हूँ जब तक सामने वाले को गलत सिद्ध न कर दूँ. इस तरह हम अपनी सोच, अपने विचार एक-दूसरे पर थोपने लगते है लेकिन भूल जाते है कि अगला भी तो यही सोच रहा है. इस संघर्ष में जीत तो कोई नहीं पाता; हाँ!इतना जरुर है कि हम एक-दूसरे कि जिन्दगी को तमाशा बनाकर रख देते है. तीसरा, सहानुभूति बटोरना. जिन्दगी की नाकामियों और व्यक्तित्व की कमजोरियों को अहम् इस बेचारगी से बयान करता है कि वह सारा ठीकरा भाग्य और परिस्थितियों के सर फोड़ सकें. वह सोचता है कि इस तरह लोगों कि सहानुभूति बटोर उनके दिलों में जगह बना लेगा.  

यहाँ तक की हम मैं से अधिकतर को तो इस नाटकीयता की लत-सी पड गई है. अहम् के वशीभूत इस तरह जीने में उत्तेजना तो है और उत्तेजना में क्षणिक आनंद भी. इस कारण जब भी जिन्दगी अपनी लय में शान्ति से गुजर रही होती है हम अनजाने ही ऐसे अवसर ढूंढने लगते है जहाँ बात का बतंगड़ और राई का पहाड़ बना सकें. अपनी बात कहने की आड़ में हम फिर से वही सब करने लग जाते है. 

प्रेम और सम्मान पाना है तो सबसे पहले अहम् के चंगुल से बाहर निकल अपनी जिन्दगी की डोर अपने हाथ में लेनी होगी. हर व्यक्ति अपनी जिन्दगी का हीरो है, हमें किसी को कुछ सिद्ध नहीं करना. हम सब जो है वो हो जाएँ. अपने आपको और दूसरों को अपनी-अपनी निजता के साथ स्वीकार करें. एक-दूसरे को जगह दें. यही एक दूसरे के प्रति हमारे प्रेम और सम्मान की पहली सीढ़ी होगी. सच तो यह है कि हम जिन विशिष्टताओं के साथ आयें है उनकी सच्ची अभिव्यक्ति ही हमें प्रेम और सम्मान दिला सकती है और कोई नहीं.

इसका मतलब यह नहीं है कि सारी मुश्किलों और परेशानियों के लिए हम ही जिम्मेदार है. हर व्यक्ति की जिन्दगी में कुछ न कुछ मुश्किलें-परेशानियाँ और दुःख भी जरुर होते है लेकिन उन्हें महिमामंडित करने की बजाय यदि धैर्यपूर्वक उन्हें स्वीकार करते हुए उनका सामना करें तो जिन्दगी कहीं अधिक शांत-सुखमय होगी. अरे भाई ! ये जिन्दगी है , कोई नाटक नहीं.


( दैनिक नवज्योति में रविवार, २ सितम्बर को प्रकाशित )
आपका, 
राहुल.....