Friday 26 July 2013

जाँकि रही भावना जैसी



अख़बार में एक अभिनेत्री का साक्षात्कार पढ़ रहा था। प्रश्नकर्ता ने पूछा, आपका 'गिल्ट प्लेजर' क्या है? एकदम झटका लगा, अरे! ये क्या होता है। दो विपरीत शब्द। जवाब पढ़ा तो समझ आया कि इसका कुछ कुछ मतलब तलब से है। ऐसा काम जिसे करने से पहले आप जानते है कि यह आपको नहीं करना चाहिए लेकिन उससे मिलने वाले क्षणिक आनन्द के कारण आप अपने आपको रोक नहीं पाते, ऐसा काम 'गिल्ट प्लेजर' हुआ। ऐसा आनन्द जो हलक से उतरते ही अपराध-बोध में तब्दील हो जाए। 

ऐसा नहीं है कि ऐसी कमजोरियाँ हम सब में नहीं होती लेकिन जिस बात ने परेशान किया वह यह कि हम कितनी सहजता से इसे स्वीकार करने लगे है, अपनी जिन्दगी में जगह देने लगे है। आज ये आदतें हमें बेचैन नहीं करती बल्कि हमारे व्यक्तित्व की एक विशेषता बन गयी है। अब आपकी फटी शर्ट आप ही को चलती है तो अपने आप से तो बदलने से रही। 

गिल्ट प्लेजर में प्लेजर आनन्द नहीं लत है, मजा है। आनन्द की उम्र कभी इतनी छोटी नहीं होती। उसका जायका तो खाने के बाद भी पहले तो मुहँ में और फिर सदा के लिए यादों में बना रहता है। आनंद कभी ख़त्म नहीं होता और जो ख़त्म हो वो आनन्द ही नहीं होता। आपकी स्कूल, स्कूल के दोस्त, कॉलेज के दिन, आपकी शादी, पहली कमाई ............ क्या इनसे मिला आनन्द कभी ख़त्म हो सकता है?

दूसरा शब्द गिल्ट, गिल्ट यानि अपराध-बोध। जब आप ही का मन आपको अपने किए के लिए अपराधी घोषित कर दे और फिर हर क्षण कुछ भी करते या न करते इसका बोध बना रहे। जीने का भाव जब ये हो जाता है तब हम अनजाने ही प्रकृति और ईश्वर से मिली नियामतों से दूर रखकर अपने आपको सज़ा देने लगते है। यहाँ तक कि वे हमारे सामने होतीं है पर नज़र नहीं आती। कहीं न कहीं हम यह समझने लगते है कि मैं इस लायक ही नहीं। मेरा इन सब पर कोई हक़ नहीं। कमतरी की इसी भावना ही को तो हम डिप्रेशन कहते है, और डिप्रेशन अकेला ही काफी है किसी भी अच्छे भले व्यक्ति की जिन्दगी को बरबाद करने को। 

बहुत जरुरी है हमारा यह ध्यान रखना कि हम अपनी जिन्दगी में किन चीजों को जगह देते है, स्वीकारतें है। जब आप कुछ कहते है और वैसा मानते भी है तो आप उन्हें बदल पाना तो छोडिए, उन आदतों को फलने-फूलने की जगह और दे देते है। यदि आपने कुछ वैसे ही कहा है जिसमें आपका यकीन नहीं, तो घबराने की कोई बात नहीं लेकिन यदि उससे आपकी भावनाएँ जुडी हैं तो समझ लीजिए आपने गलत तार जोड़ दिए। भाव हमारी ऊर्जा है, व्यक्तिक ऊर्जा अतः जैसे हमारे भाव होंगे वैसी ही ऊर्जा को हम अपने जीवन में आमंत्रित करेंगे, आकर्षित करेंगे। जैसा भाव वैसा जीवन। तुलसीदास जी ने शायद इसीलिए कहा है,
जाँकि  रही  भावना  जैसी,
प्रभु मूरत तिन देखि तैसी।

फिर शब्द क्या है? हमारी भावनाओं को प्रकट करने का साधन ही तो। इस प्रकार जिन शब्दों को हमारी भावनाओं का बल मिल जाता है वैसी ही परिस्थितियों को हम अपने जीवन में पाते है। जिन चीजों के बारे में आपको पता है कि वे ठीक नहीं है फिर भी आप अपने को रोक नहीं पाते, वास्तव में ये वे क्षेत्र है जिन पर इस जीवन में आपको काम करना है। यही पाठशाला जिसका नाम जिन्दगी है, का पाठ्यक्रम है। यही भाग्य, यही पुरुषार्थ।

अपने जीवन के उद्यान में उन पेड़-पौधों को जगह मत दीजिए जो दुर्गन्ध-बीमारी फैलाते हों। उद्यान में ऐसी वनस्पति का स्वतः उग आना भी स्वाभाविक है लेकिन बागबान होने के नाते ये आपका दायित्व है कि आप समय-समय पर सफाई करते रहें। उनका उगते रहना आपके साफ़-सफाई न करने की वजह नहीं हो सकती। ईश्वर करे हमारे जीवन का उद्यान हमेशा हँसता-मुस्कराता रहे।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 21 जुलाई को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .......   

Friday 19 July 2013

काम, तनाव और सफलता


जिन्दगी का पहिया अर्थ के ईधन के बिना नहीं घूमता। अर्थ यानि पैसा, और पैसा मिलता है काम से इसलिए जरुरी है हमारा काम ऐसा हो जो हमारी स्वाभाविक इच्छाओं और घर-परिवार की जरूरतों को पूरा कर सके। हमारी ये सोच जाकर ठहरती है हमारी ही पहचान के उन व्यक्तियों पर जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में सफलता पाई है। इस तरह हमारे सफलता के तैयार फॉर्मूले होते है, उनमें से कोई एक हम पसंद कर लेते है। इससे एक तरफ तो हम जोखिम को कम कर लेते है तो दूसरी तरफ हमारे पास उस काम को करने की तैयार रेसीपी होती है।

प्रतिस्पर्धा और बाज़ार-युग के इस दौर में सफल होने के लिए काम करना क्या, स्वयं को काम में झोंकना पड़ता है। जैसे-जैसे हम सफल होते जाते है हमारी जिन्दगी तनावों से भरती चली जाती है। इसका निष्कर्ष हम यह निकालते है कि तनाव, काम और सफलता का हिस्सा है और यदि तनावमुक्त जिन्दगी चाहिए तो काम कम करो और थोड़े में संतोष करो। शायद इसीलिए यह समझा जाता है कि संतुष्ट वह है जिसे और की चाह नहीं।

जिन्दगी की इन व्यावहारिकताओं के चलते हम जानते हुए भी उन कामों से किनारा कर लेते है जिन्हें सोचने मात्र से मन को सुकून मिलता है। शायद ठीक ही करते है हम, जिन्दगी निभायें या मन की इन फालतू बातों को हवा दें।

कई दिनों से मन में यही सब कुछ चल रहा था लेकिन जो गाँठ नहीं खुल पा रही थी वह यह कि जब सफलता हमारे हाथ में है तो तनाव क्यूँ होता है? सफलता की संगिनी तो खुशियाँ होनी चाहिए। आखिर हम सफल ही क्यूँ होना चाहते थे, खुशियों के लिए ही तो? और अव्वल तो ये कि क्या ये सफलता भी है जो अपने साथ तनाव लायी है? यहाँ मेरा तनाव से आशय अपने काम को अच्छे से अच्छा कर पाने की स्वाभाविक चिंता या फिक्र से नहीं बल्कि उससे है जो दबाव हमें उस काम को करने के लिए अपने उपर डालना पड़ता है और जो हमारे मन, स्वास्थय और रिश्तों को कसैला कर रहा है। जवाब मुझे डॉ. वेन डब्लू.डायर से मिला। वे लिखते है कि जो बात आपके मन को सुकून देती है, उससे सम्बन्धित ऐसा क्या है जो आपको धन भी दिला सकता है, जैसे आपको संगीत सुनना अच्छा लगता है तो आप संगीतज्ञ के अलावा समीक्षक-लेखक भी हो सकते है। यदि आपको ड्राईंग करना अच्छा लगता है तो जरुरी नहीं आप पेन्टर ही बनें, आप आर्किटेक्ट या डिजाइनर बनना भी चुन सकते है और यदि आपको सिर्फ क्रिकेट देखना अच्छा लगता है तो आप कमेन्टेटर भी बन सकते है। यदि आपको अपने काम में पूरा विश्वास है तो सफलता की गारंटी है।

हो सकता है आप जीवन के इस मोड़ से आगे  निकल आये हों तो आज आप जिस काम में है और जो कुछ आप करना चाहते है उसे जोड़कर देखिए। जैसे, आप एक डॉक्टर है लेकिन संगीत आपको सारे दिन दूसरी ओर खींचता है तो अपने वर्तमान काम के साथ दिन का कुछ समय 'म्यूजिक-थेरेपी' को सीखने और उससे इलाज करने में लगाइए। ये भी हो सकता है कि आप जिस काम में है यह कभी आपका सबसे पसंदीदा था लेकिन समय के साथ आपको कुछ और भाने लगा है। अपने आपको दोष मत दीजिए। अपने काम के साथ कुछ समय अपने नये झुकाव को भी दीजिए। उसे महज शौक नहीं, इस दृष्टी से देखिए कि इससे भी मैं क्या कर सकता हूँ जो मानसिक संतुष्टि के साथ मेरी जिन्दगी की जरूरतों को भी पूरा कर सके। यदि सच ही बदलाव का समय आ गया है तो वह हो कर रहेगा।

स्ट्रेस को 'मैनेज' मत कीजिए, इसे जिन्दगी से 'वाइप-आउट' कीजिए। 'स्ट्रेस मैनेजमेंट' का अर्थ ही 'स्ट्रेस'को अपनी जिन्दगी में जगह देना है। बात ही गलत है। मैनेज करने लायक कुछ है तो वह है 'हैप्पीनेस'; आप इसे 'हैप्पीनेस-मैनेजमेंट' भी कह सकते है।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 14 जुलाई को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ........... 

Friday 12 July 2013

तलाश एक गुरु की


कबीर ने गुरु की महिमा को कुछ इस तरह गाया है,-
गुरु  गोविन्द दोउ खडे, काके  लागूँ    पाय 
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।
सारे विश्व में चाहे वह कोई सभ्यता-संस्कृति हो, एक शिक्षक का स्थान सबसे ऊँचा है और हमारे यहाँ तो गुरु का स्थान गोविन्द यानि ईश्वर से भी पहले आता है और यही हमारे संस्कारों में है। गुरु शब्द भी तो दो शब्दों से मिलकर बना है, गु और रु। गु का अर्थ अन्धकार और रु का अर्थ प्रकाश, यानि वह जो अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाए।

हमारे इन्हीं संस्कारों का फायदा आजकल के तथाकथित गुरु उठा रहे हैं। आज तो जैसे गुरुओं की बाढ़ आई हुई है, जो जहाँ-तहाँ हमारी श्रद्धा को भुनाते हुए दिख जाएँगे। आप कहेंगे, मैं सही कह रहा हूँ, ज्यादातर ऐसा ही है लेकिन मेरे गुरु तो सच्चे है। देखिए आप बुरा मत मानिए, निश्चित ही ऐसा ही होगा, मैं तो बस आपके साथ यह चर्चा करना चाहता हूँ की जिन्हें हम अपने जीवन में ईश्वर से भी प्रथम स्थान देना चाहते है उन्हें पहचाने-परखें कैसे?

चलिए इस बात की तह तक एक उदाहरण के जरिए पहुँचने की कोशिश करते है। हम सभी को जब-तब डॉक्टर के यहाँ तो जाना ही पड़ता है। हमें वही डॉक्टर ठीक लगता है जो हमें ठीक तरह से देखें, उचित दवाई दे और जल्दी से पूरा ठीक कर दे। यों कह लें, डॉक्टर वह अच्छा जो पहले दिन से चाहे कि हमें उसकी जरुरत न रहे। आप बिल्कुल ठीक समझ रहे है, मैं क्या कहना चाहता हूँ। गुरु भी वही अच्छा जो अपने शिष्य के जीवन से अपनी जरुरत मिटाता चला जाए। हमें सक्षम बनाए, हमें रास्ता दिखाए, - प्रकाश की ओर। ऐसे गुरु कैसे सच्चे हो सकते है जो ये चाहे कि हम जीवन का एक पग भी उनके सहारे के बिना न धर सकें। आशीर्वाद होना अलग बात है और आश्रित होना अलग। 

मेरे जेहन में जो उभर कर आ रहे हैं, वे हैं स्वामी रामकृष्ण परमहंस। उन्होंने कभी नरेन यानि स्वामी विवेकानन्द को अपनी बात मानने से मजबूर नहीं किया। नरेन् पूछते चले गए, वे बताते चले गए और एक दिन बोले; "नरेन! मैं तो रीता हो गया रे।" यानि अब मेरे पास और बताने को कुछ नहीं, अब आगे का रास्ता तुझे स्वयं करना है। उन्होंने वही किया। सच है, रामकृष्ण परमहंस  गुरु हों तब ही नरेन के लिए स्वामी विवेकानन्द बनना सम्भव होता है। गुरु वो जो हमें मुक्त करें न कि वो जकड़े रखे।

आप इसलिए तो परेशान नहीं कि आपका तो कोई गुरु ही नहीं। ये परेशानी इसलिए क्योंकि हम गुरु को सिर्फ एक व्यक्ति के रूप में देखते है। गुरु कोई भी हो सकता है; एक किताब, एक रिश्ता या एक संयोग ही क्यूँ नहीं। बेहतर है हम गुरु ढूंढने की बजाय शिष्य बनने की तैयारी में लग जाएँ। यदि हम सीखने को तैयार है तो सिखाने वाला मिल जाएगा और यदि हम जानने को तैयार है तो बताने वाला भी मिल जाएगा। जरुरत है अन्धकार के प्रति मन में कोफ़्त पैदा करने की, प्रकाश का रास्ता कोई दिखा ही देगा। एक पुरानी कहावत है, 'यदि शिष्य तैयार है तो गुरु स्वतः मिलेगें।


( दैनिक नवज्योति में रविवार, जुलाई को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .........                             

Friday 5 July 2013

समय-समय की बात



आज आप से बात करते हुए मुझे अपना बचपन याद आ रहा है। याद आ रहा है वह दिन जब मेरे पिता मुझे साईकिल  चलाना सीखा रहे थे। वे बराबर मेरे साथ चल रहे थे। सामने देखना, हैण्डल सीधा पकड़ना और साथ में पैंडल मारना, तीनों में से कोई एक मुझसे छूट जाता और उन्हें संभालना पड़ता। कोई आधे घन्टे तक ये सब चलता रहा। अब मैं साईकिल को सम्भाल पा रहा था और वे मुझसे दूरी बनाने लगे। कुछ मिनटों बाद जब मैंने पीछे मुड़कर देखा तो वे ख़ुशी से मुस्कराते हुए हाथ हिला रहे थे।

ऐसा ही हमारे साथ स्कूल में भी होता था, हम अगली कक्षा में पहुँचते और हमारे शिक्षक बदल जाते, कितना बुरा लगता था। थोड़े दिन बीतते और उन नये शिक्षकों से भी रिश्ते उतने ही प्रगाढ़ हो जाते। जैसे-जैसे हम बड़ी कक्षाओं में आते गए,ये बात समझ आने लगी कि वे ही शिक्षक हमें पढ़ा पाएँ, ये सम्भव ही नहीं था लेकिन उनके बिना यहाँ तक पहुँच पाना भी सम्भव नहीं था।

आगे बढ़ने के लिए पीछे छोड़ना पड़ता है। हम सब इस कटु सत्य को जानते है, फिर क्यों हम अपनी पुरानी मान्यताओं से इतना जकड़े हुए हैं? उन्हें जकड़े है और अन्ततः वे हमें जकड़े है। क्यों नहीं हम उन्हें समय, काल, देश और परिस्थिति की कसौटी पर कसना चाहते? क्यों हमें अपनी अप्रासंगिक हो चुकी मान्यताओं, रीती-रिवाजों और परम्पराओं को अलविदा कहने से इतना परहेज है?

अपने ही अवचेतन में झाँक कर देखा तो पाया कि हमने अपने माता-पिता और बड़े-बूढों को इन्हें बड़ी श्रद्धा से निभाते देखा है। ये मान्यताएँ उनके जीवन का आधार थीं। जब इनको जाँचने की बात आती है या इन पर कोई सवाल उठता है तो हमें लगता है हम उनकी अवहेलना कर रहे है, उनका निरादर कर रहे है।

एक मिनट के लिए ठिठक कर हमें सोचना चाहिए कि उन्होंने जिन मान्यताओं को अपने जीवन का आधार बनाया, उसकी क्या वजह रही होगी? उन मान्यताओं से लगाव या जीवन का सुख और खुशियाँ। प्रश्न ही अपना जवाब स्वयं दे रहा है साथ ही इस ओर भी ध्यान दिला रहा है कि पुराने का विरोध महज विरोध करने के लिए न हो, उसकी वजह व्यक्ति की वृहत्तर सुख और खुशियाँ हो। ऐसा कोई भी काम जो हमारे जीवन को अधिक सुंदर बनाए, हमारे बड़ों की इच्छाओं को पूरा ही करेगा।

आपका ध्यान एक ताज़ा घटना की तरफ ले जाना चाहता हूँ। आपने टेलीग्राम सेवाओं के 15 जुलाई से बन्द होने का समाचार तो जरुर पढ़ा होगा। इस तरह का ख़बरें हमारे मन में एक टीस जरुर पैदा करती है, सच में ये अतीत के प्रति हमारी आदरांजलि है लेकिन इंटरनेट और मोबाईल वर्तमान की हकीकत। हमें आगे तो बढ़ना ही होगा। यही हमारे जीवन को अधिक सुन्दर बनाएगा।

मैं ऐसी किसी मान्यता, परम्परा या रीती-रिवाज़ का उल्लेख तो नहीं करना चाहता क्योंकि निजी श्रद्धा का विषय है लेकिन हाँ, इतना जरुर कहना चाहता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति को समय-समय पर निजी स्तर पर इसका आकलन अवश्य करना चाहिए। ये जीवन की साफ़-सफाई है। जीवन में किसी भी बात से ज्यादा खुशियों को तरजीह मिलनी चाहिए।
महात्मा गाँधी कहते है, " मेरी प्रतिबद्धता सत्य से है, निर्वाह करने से नहीं।"


(जैसा की नवज्योति में रविवार, 30 जून को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ........