Saturday 15 February 2014

तू छुपी है कहाँ


- राहुल हेमराज 



आज हम एक-दूसरे से मिलते वक़्त ऐसे मुस्कराते हैं जैसे होटल की किसी रिसेप्शनिस्ट से बात के रहे हों। मिले, मुस्कराहट आयी; मुलाकात ख़त्म, मुस्कराहट बन्द। एक रस्म अदायगी या अपने मन के संताप और बेचैनी को छुपाने का एक जुगाड़। हमें मुस्कराहट से नवाज़ने के पीछे प्रकृति की तो मंशा थी कि हमारे चेहरे कि मुस्कराहट हमारे दिल का हाल बताए। हमारा चेहरा फ्यूल-मीटर कि तरह काम करे। अंतर में आत्मिक संतोष  का ईंधन, चेहरे पर मुस्कराहट के रूप में दिखे। जब कभी हम अपने चेहरे पर से इस मुस्कराहट को नदारद पाएँ, जिंदगी को देखने के अपने नजरिए को टटोलें और उसे पुनः आत्मिक संतोष के ईंधन से भर लें। 

व्यक्ति के अंतर से निकली मुस्कराहट तो एक ब्लोटिंग पेपर की तरह होती है, चाहे ये सामने वाले के संतापों को न हर पाए किन्तु उनकी ऊष्मा अवश्य कम कर देती है। आपने हर शाम घर लौटते समय इसे जरुर अनुभव किया होगा कि किस तरह बच्चों की एक मुस्कराहट देखकर आपकी दिन भर की थकान न जाने कहाँ काफूर हो जाती है। वही बच्चे जब आप और मैं हो जाते है तो वो मुस्कराहट कहाँ खो देते हैं? क्या प्रकृति ने आदमी को बुद्धि इसलिए दी थी कि वो अपनी मुस्कराहट का भी जुगाड़ ईजाद कर ले?, लेकिन प्रश्न यह भी है कि आखिर व्यक्ति को ऐसा क्यों करना पड़ा ?

इन सवालों से टकराने पर अहसास हुआ कि शायद व्यक्ति ने कहीं न कहीं तनाव और सफल जीवन को मिलाकर देखना शुरू कर दिया। उसने मान लिया की जिन्दगी की गाड़ी को ढंग से चलानी है तो, तनाव तो आएंगे ही। इसी समस्या का जुगाड़ है यह 'रिसेप्शनिस्ट मुस्कान'। तनाव की इस स्वीकारोक्ति के चलते अब उसके मन में खुश रहने, मुस्कराने की बेचैनी भी नहीं उठती और आप तो जानते ही हैं, बिना बेचैनी सुन्दरता का सृजन सम्भव नहीं। आज व्यक्ति है कि बस जिए चला जाता है तनाव की इन लकीरों को बनावटी मुस्कराहट से लुकाते-छिपाते।पर एक बात आपको याद दिला दूँ, तनाव हमारा नैसर्गिक स्वभाव नहीं है, होता तो बच्चे इतना नहीं मुस्कराते। उनका तो हाल यह है कि वे सोते-सोते भी न जाने कितनी बार मुस्कराते है। इस मुस्कराहट को लौटाना है तो बच्चों की तरह अपने आपको घटनाओं, परिस्थितियों और व्यक्तियों से अलग करना होगा। तब ये स्व-स्फूर्त था अब इसे होशपूर्ण हासिल करना होगा। ये हो सकता है, यदि हम अपने जीवन को ऐसे देख पाएँ जैसे पर्दे पर एक फ़िल्म चल रही हो। फ़िल्म, जिसमें हमारा भी एक किरदार है। आप अपने आप को अपनी भूमिका निभाते हुए देख सकें। 

जीवन को हर क्षण इस तरह जी पाना एक आदर्श स्थिति है जिसे आप और मेरे लिए निभा पाना सम्भव नहीं।  हर क्षण इस भाव में बने रहना तो व्यक्ति को कृष्ण बना देता है लेकिन हमारा भी लक्ष्य कौन-सा कृष्ण की वो सदा रहने वाली स्मित मुस्कान है। हमारी कोशिश तो पूरे दिन के 14,400 मिनटों में से दस-पन्द्रह मिनटों के लिए ही सही, जिंदगी को निरपेक्ष भाव से देख पाना है। कह तो रहा हूँ पर जानता हूँ ये भी कोई कम कठिन नहीं। एक दूसरा, थोडा बेतरतीब तरीका है जो मेरे खुद का आजमाया है। पहले चेहरे पर एक मुस्कान लाइए, किसी के लिए नहीं सिर्फ अपने लिए, जब आपके सामने कोई न हो; या हो तो भी ये मुस्कान किसी को कुछ कहने-बताने के लिए नहीं, बस अपने ही किसी भाव की तरह हो। इसे कुछ देर के लिए अपने चेहरे पर रोकिए और अपनी जिन्दगी के बारे में सोचिए। सोचते हुए ध्यान रहे इस मुस्कराहट के बने रहने का। सोचना और मुस्कराना साथ होते ही आपको अपनी जिन्दगी पर्दे पर चल रही एक फ़िल्म की तरह दिखने लगेगी। आप अलग होंगे और आपकी जिन्दगी अलग। ऐसे लगेगा जैसे आपको अपनी निजता वापस मिल गई हो। दौड़ती-भागती दुनिया के बीच आपको अपने वजूद का, अपने होने का अहसास होने लगेगा और तब आपका अंतर फिर आत्मिक संतोष से भर उठेगा और मन की सतह पर तैरता यह संतुष्टि का भाव चेहरे पर मुस्कराहट बन खिल उठेगा। 

मैं मानता हूँ कि इस मुस्कराहट के आ जाने से न तो जिन्दगी के दुःख कम होंगे न ही मुश्किलें; पर हाँ, उनसे निपटना, पार पाना कहीं आसान होगा। वे खालिस स्थितियाँ बनी रहेंगी और हमारा अंतर बच्चों-सा अछूता। 
ग़ालिब इसे अपने अंदाज़ में कुछ यूँ बयाँ करते हैं,-
बाजीचाये अतफाल है दुनिया मेरे आगे 
होता है शबओ रोज़ तमाशा  मेरे आगे 

('सेकंड सन्डे' कॉलम में 9 फरवरी के नवज्योति में प्रकाशित) ​