Saturday 21 April 2018

मैं ही मेरा दोस्त





आज बात एक दुविधा की, लेकिन उससे पहले उसके बैकग्राउण्ड की। बैकग्राउण्ड ये कि जैसे शरीर की अपनी जरूरतें हैं वैसे ही मन की भी अपनी जरूरतें हैं। उसके बिना वो नहीं रह सकता। और ऐसे देखें तो स्वीकार किया जाना शायद व्यक्ति की पहली मानसिक जरुरत है। स्वीकार किया जाना, जैसे आप हैं वैसे के वैसे। जहाँ आपकी कमियाँ आपकी विशेषताएँ बन जाती है। इसलिए यही प्रेम की बुनियाद भी होती है। 
कहते हैं सबसे पवित्र प्रेम माँ और बच्चे के बीच होता है क्योंकि वे एक दूसरे के लिए पूर्ण होते हैं, जैसे है वैसे। एक माँ के लिए अपने बच्चे से सुन्दर दूसरा दुनिया में कोई नहीं होता और एक बच्चे के लिए माँ उसका अन्तिम पड़ाव होती है। 

अब दुविधा ये कि इस तरह हमारा स्वीकार किया जाना सामने से आता है। कोई और चाहिए होता है जो हमें स्वीकार करे। हमारी इस मानसिक जरुरत के लिए हम किसी और पर निर्भर होते हैं। हमें अपने घर में, अपने काम में, अपने दोस्तों में, समाज में, हर जगह ऐसे व्यक्तियों की जरुरत होती है जो हमारे होने को हामी भरें। या यों कह लें इन सारी जगहों पर स्वीकार किए जाने के लिए ही हमारी सारी जुगतें होती हैं। व्यक्ति अपनी मूलभूत जरूरतों के बाद जो कुछ करता है वो इसीलिए तो करता है! अब यहाँ मुश्किल है। ये किसी और पर निर्भरता! कोई और हमें ये अहसास दिलाए कि हम जैसे हैं ठीक हैं, यही गड़बड़ है। अब दुर्भाग्य से किसी के जीवन में ऐसे लोग न हों तो वो क्या करे? और यहाँ तक भी ठीक लेकिन यदि जीवन में ऐसे लोग हों जो हर बात में उसकी गलती निकालते हों, उसे सुधारना चाहते हों, चाहते हों कि वो अपने तरीकों से नहीं उनके तरीकों से जिए तब तो बेचारे का दम ही घुट जाएगा। मुफ्त में अपना जीवन कुण्ठा और अवसाद में गुजार रहा होगा। होगा तो वो अपने आप में बिल्कुल ठीक लेकिन महज इसलिए कि उसके जीवन में इस बात का अहसास दिलाने वाले लोग नहीं, वो ऐसे जीने को मजबूर होगा। 
ये तो कोई बात नहीं हुई! हमारा जीवन, हमारा मन, हमारी खुशियाँ क्यूँ किसी और पर निर्भर रहे! क्या हो कि हम अपने आप को ठीक, बिल्कुल ठीक माने चाहे कोई कुछ कहे। 
और कुछ ऐसा होगा भी क्योंकि प्रकृति की योजना में जब सब कुछ परफेक्ट है तो वो हमें यूँ दूसरों पर निर्भर बनाने से रही! पर वो क्या है?

सारे जवाब सवालों में ही छुपे होते हैं, शायद मेरा भी वहीं था। 
और वो छुपा था 'प्रकृति' शब्द की ओट में। 
हमें अपने दैनिक जीवन का कुछ हिस्सा प्रकृति को देना होगा। प्रकृति को देना यानि अपने आप को देना क्योंकि हम भी तो प्रकृति ही हैं। कुछ वक्त उन चीजों के साथ गुजरना होगा जिनमें कोई अहं नहीं। कुछ ऐसे काम करने होंगे जो फायदे-नुकसान से परे हैं। कभी अपरिचित लोगों के बीच जाना होना या अनदेखी जगहों के लिए निकलना होगा।
आप जब इनमें से अपने माफिक का कुछ भी कर रहे होंगे तब प्रकृति उसी लहजे में आपको ये अहसास दिला रही होगी कि मैं जैसी हूँ वैसी ठीक हूँ इसलिए तू भी जैसा है ठीक है। और तब आपको किसी और की जरुरत नहीं होगी। आप हर हाल में ठीक होंगे, बिल्कुल ठीक। 

तो जो मैं समझा वो ये कि सारी मुश्किल अपने साथ नहीं होने की है, अपने साथ कुछ देर नहीं बैठने की है। यदि हम अपने से दोस्ती कर लें तो फिर और दोस्त मिलें तो भी ठीक और नहीं मिलें तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता।

दैनिक नवज्योति स्तम्भ-'जो मैं समझा' 
(रविवार, 11 मार्च 2018 के लिए)