Saturday 18 October 2014

ये हमें क्या होता जा रहा है?





अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली चिड़ियाघर में फोटो के फेर में एक युवक बाघ के पिंजरे में जा गिरा। आगे क्या हुआ ये न जाने आप कहाँ-कहाँ पढ़ चूके .......... लेकिन मेरा मन विचलित हो उठा यह देखकर कि वहाँ खड़े सब लोग अपने-अपने मोबाईल से फोटो और वीडियो क्लिप बनाने में लगे थे। शाम तक तो वो क्लिप सोशियल मीडिया पर वायरल हो चूकी थी। वहाँ खड़े इतने लोगों में से किसी ने इस ओर सोचा नहीं कि क्या किसी तरह इस युवक को बचाया भी जा सकता है? शायद सब अपनी शर्ट उतार कर एक रस्सी बना लेते या कुछ और। हम इतने संवेदनहीन कैसे हो सकते हैं? ये हमें क्या होता जा रहा है?

बारिश के दिनों में भी नदी के किनारे पिकनिक मनाते कुछ लोगों के दुर्भाग्यवश तेज बहाव में बह जाने के फोटो-वीडिओज़ इतने जल्दी आ जाते है जैसे खींचने वाले को पहले से मालूम था और वो इसीलिए वहाँ आया था। हमें बस फर्स्ट आना है, चर्चित रहना है और जीवन के हर क्षण में उन्माद की तलाश है। आइंस्टाइन ने ठीक ही कहा था, " मुझे डर है एक दिन तकनीक मानवीय सम्बन्धों पर हावी न हो जाए और ऐसा हुआ तो दुनिया में वह भोंदूओं की पीढ़ी होगी।" लगता है हर बार की तरह आइंस्टाइन इस बार भी सही सिद्ध हुए हैं। सामाजिक सरोकार तो छोड़िये, परिवार में भी जब कभी सब साथ बैठे होते हैं तब भी वे वहाँ नहीं होते। मोबाईल, जिसे में लानत कहता हूँ, के जरिए अपनी-अपनी दुनिया में रम रहे होते हैं। हर माता-पिता इस बीमारी से पीड़ित होते हुए भी चिंतित है कि कहीं यह बीमारी उनके बच्चों का भविष्य न लील जाए। 

कुछ समय पहले मैं 'क्रोध' के बारे में पढ़ रहा था, तब कई मनोवैज्ञानिक तरीकों के बारे में जाना जो अलग-अलग विशेषज्ञों ने सुझाए थे लेकिन मेरे गले एलन कोहेन का सुझाया मार्ग ही उतरा। वे कहते हैं, क्रोध को निकालने या दबाने की बजाए सबसे पहले उसे स्वीकार कीजिए और फिर कुछ ऐसा सोचने-करने की कोशिश कीजिए जो आपके मन को अच्छा लगता हो। हो सकता है, ऐसा कर पाने के लिए आपको अपने साथ थोड़ी जबरदस्ती करनी पड़े। इस तरह आप अपने मस्तिष्क पर पुनः काबू पा लेंगे और उस कारण को सही रूप में देख-समझ पाएंगे जो क्रोध की वजह बना और तब उसका इलाज कर पाना आपके लिए संभव होगा। 

ठीक ऐसे ही बच्चों को सारे दिन मोबाईल-टी.वी. के लिए टोकने और उनकी चौकीदारी करने की बजाए उन्हें ऐसे कामों के लिए प्रेरित और व्यस्त करने की कोशिश करनी चाहिए जहाँ उनकी संवेदनाएँ पुनः हरकत में आए। वे अपने दिन-सप्ताह में कुछ वक़्त उन जगहों पर गुजारें जहां वे दूसरों की भावनाओं को समझ सकें। जहां वे दुनिया की विविधता को देख सकें। हमारे बच्चे सोचने-समझने में तो हमसे आगे हैं ही, अगर हम इनकी संवेदनाओं के तारों को झंकृत कर पाए तो तकनीक कभी मानवीय संबंधों पर हावी न होने पाएगी और तब बाघ के पिंजरे में भी कोई अपने आपको अकेला नहीं पाएगा।  


(दैनिक नवज्योति में 'सेकंड सन्डे', 12 अक्टूबर को प्रकाशित)
राहुल हेमराज ............