Saturday 3 February 2018

मैं खुश रहूँगा






'अरे! आप', उसने कहा था। हम दोनों अक्सर किताबों पर होने वाली हमारी मासिक गोष्ठी में मिला करते थे। कुछ देर इधर-उधर की बातें हुईं और फिर किताबों पर आकर ही ठहर गई। हम कोई साज बजा लें आखिर राग अपना ही अलापने लगते हैं। लेकिन इस बातचीत का एक तीसरा पक्ष भी था। उसके साथ एक वृद्ध आए थे, पद्माकर जी। मैं नहीं मिला था पहले उनसे कभी लेकिन जाने कितने वर्षों बाद इतना भावपूर्ण सन्तुष्ट चेहरा देखा था। हमारे चेहरे तो ऐसे नजर आते हैं जैसे सर पर सौ-दो सौ किलो का सामान रखा हो और बेचारी चेहरे की मांसपेशियाँ बस उसे ही सहन करने में लगी हों। उनकी बातें इतनी आनन्द से भरी थीं कि कुछ ही समय में लगने लगा था कि हम एक-दूसरे को न जाने कब से जानते हैं। 

उन्होंने जो बताया वो ये था कि वो वहीं पीछे ही अपने बेटे के यहाँ आए हुए हैं। करीब तीन महीने रहेंगे। उम्र 84 वर्ष है, सुबह घूमने जाते हैं लेकिन बूढ़ों के साथ नहीं घूमते। जवाब देते हैं, "मैं बूढ़ा हो जाऊँगा तब तुम्हारे साथ घूमूँगा", रेल्वे की नौकरी से रिटायर हुए हैं और पति-पत्नी अजमेर रहते हैं। 
उनके जाने के बाद सोचने लगा, कितनी परफेक्ट लाइफ है अंकल की। इस उम्र में पति-पति का साथ बना हुआ है, बिना किसी सहारे के अपनी जगह पर रह पा रहे हैं, स्वस्थ हैं, पेंशन मिल रही होगी, शायद यही इनके इतने खुश, इतने सन्तुष्ट होने की वजह है। 
पर जो हो मैं उनसे प्रभावित था। 

कुछ दिनों बाद फिर वे एक दिन आये। वे वैसे ही आये थे लेकिन मेरी जिज्ञासा उनके इतने खुश, इतने सन्तुष्ट रहने के राज जानने की थी। किताबों की बातों को मैंने उनके जीवन तक पहुँचाया और उनसे पूछने लगा। 
लेकिन जो कुछ मालूम चला वो तो कुछ और ही था! 
आंटी को पार्किन्सन था, इस हद का कि डॉक्टर्स ने दस साल पहले ही कह दिया था कि बेहतर है आप ईलाज न लें। मरीज की उम्र बढ़ाना उसे तकलीफ देना होगा। एक ऐसा व्यक्ति जो अपने हरे-भरे दिनों में अपनी दिनचर्या के लिए पूरी तरह अपनी पत्नी पर निर्भर था, पिछले दस सालों से अपनी पत्नी का यों ध्यान रख रहा था, यों सेवा कर रहा था कि उनकी बीमारी आज भी नियन्त्रण में थी। इन सब के बावजूद वो अपनी जगह, अपने घर अजमेर में ही रहना चाहता था क्योंकि सुविधा से ज्यादा उसे स्वतन्त्रता प्यारी थी। वे कह रहे थे कि मैं घूम कर लौटूँ तब मेरे नाश्ते का समय हो न कि मुझे नाश्ते के समय लौटना पड़े। दुख है उन्हें तो बस एक बात का कि मैं चला गया तो इसका ध्यान कौन रखेगा? लेकिन वे जिन्दादिल हैं। हर बात में हँसी ढूँढ़ते हैं। आप को उनके साथ बैठकर लगता है कि मैं कितने दिनों बाद अपनी स्वाभाविक हँसी हँसा हूँ। 

उनसे मिलना एक अनुभव है और उनसे मिलकर जो मैं समझा, एक बार फिर से, वो ये था कि स्थितियाँ कभी परफेक्ट नहीं होती। वे सबके लिए, सबके साथ जिन्दगी भर खट्टी-मिट्ठी बनी रहती हैं। हमारा खुश होना हमारी जिन्दगी की परिस्थितियों पर कभी निर्भर करता ही नहीं है कि जिसकी अनुकूल है वो खुश है और जिसकी नहीं वो नाखुश। खुश होना हमारा निर्णय होता है, जिन्दगी के जैसे दौर से भी हम गुजर रहें हो उसके बीच। 
और जिन परिस्थितियों को हम नहीं बदल सकते वे खुश रहने से भी बदलती तो नहीं लेकिन तब उनके साथ जीना बहुत, बहुत आसान हो जाता है। फिर कौन है जिसको सब मिला है, जिसको कोई दुख नहीं लेकिन फिर भी कुछ लोग खुश, सन्तुष्ट नजर आते हैं और कुछ परेशान, थके-थके क्योंकि कुछ ने खुश रहना चुना होता है और कुछ ने नाराज रहना। तो बात सोचने कि है कि हम हमारे लिए खुशी के अलावा कुछ और चुन ही कैसे सकते हैं! 
​राहुल हेमराज_

दैनिक नवज्योति; कॉलम- 'जो मैं समझा' 
(रविवार, 14 जनवरी 2017 के लिए)