Friday 25 May 2018

अपना साज अपनी राग






करीब दस दिन पहले की बात है अचानक से वो किताब मुझसे टकरा गयी। सोचा नहीं था पर इन्तजार तब से था जब से मैंने उसके लेखक विश्व-प्रसिद्ध जीव वैज्ञानिक ब्रूस लिप्टन का इंटरव्यू पढ़ा था। वे विस्तार से खुलासा कर रहे थे कि हमारा जीवन, तौर-तरीका, आदतें हमारी आनुवांशिकता पर नहीं हम कैसी ऊर्जा के साथ जीते हैं, पर निर्भर करती हैं। हम मानते आए हैं कि हम जैसे है उसके लिए मुख्यतः हमारे 'जीन्स' ही जिम्मेदार होते हैं लेकिन वे कह रहे थे सचमुच ऐसा है नहीं। जीन्स तो हमारे होने के नक्शे भर होते हैं, उन्हें जिस तरह हमारी कोशिकाएँ पढ़ पाती हैं उसी से ये सारी बातें तय होती हैं। और उनका ये पढ़ पाना निर्भर करता है उन कोशिकाओं की ऊर्जा पर।
अब एक मानव खरबों कोशिकाओं से बना होता है। तो, समझ लीजिए हम कैसे हैं और कैसे हो सकते हैं ये निर्भर करता है हम कैसी ऊर्जा के साथ जीते हैं उस पर, हमारे मानसिक वातावरण पर।  
यानि फिर वही बात कि हम जैसा सोचते है वैसा ही हमारा जीवन बनता चला जाता है। 

मैं भी ऐसा ही मानता आया हूँ लेकिन वे इसे विज्ञान से सिद्ध कर रहे थे इसीलिए इस किताब 'द बायोलॉजी ऑफ बिलीफ' को मैं तब से पढ़ना चाहता था। 
बड़े उत्साह से उसे शुरू किया लेकिन थोड़ी ही देर में लगा जैसे, जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ रहा हूँ पिछला चूकता जा रहा है। लगा, शायद इसकी अँग्रेजी क्लिष्ट है या मेरी आदत छूट गयी है। कोई शब्द ऐसा तो नहीं था जो मुझे आता न हो फिर भी मैं उनके साथ नहीं जा पा रहा था। शुरू के कुछ पेज आँखे गड़ाकर पढ़े पर मन सन्तुष्ट नहीं था, वापस पढ़े, फिर पढ़े पर उनके अर्थ मेरे नहीं हो पा रहे थे। 
जरूर, मेरी अँग्रेजी पढ़ने की आदत ही छूट गयी है!

मैं जाँचने के लिए डॉ. वेन डब्ल्यू. डायर की एक किताब ले आया। वे मेरे पसंदीदा लेखक है, लेखक क्या गुरु ही हैं। पढ़ना शुरू किया, तो रफ्तार ऐसी बनी जैसे प्रेमचन्द को पढ़ रहा हूँ। याद ही नहीं रहा कि हिन्दी पढ़ रहा हूँ या अँग्रेजी। अब किताब रखी तो दूसरी समस्या शुरू हो गयी। ये क्या था? एक किताब के साथ टेबल-कुर्सी पर बैठ आँखे गढ़ाने पर भी सुर नहीं बन्ध रहा था तो दूसरी के साथ बिना कोशिश जुगलबन्दी हो रही थी। 
और तब समझ में आया, बात दरअसल ये थी कि वो विज्ञान की भाषा थी और मैं जीवन का विद्यार्थी।

ये बात चलते-चलते हमारी पसन्द, फिर शिक्षा से होते हुए कैरियर और सफलता-असफलता तक के चक्कर लगा आयी। किसी विषय में अच्छे नहीं होने से ये निष्कर्ष नहीं निकलता कि हम पढ़ाई में अच्छे नहीं वरन इतना ही कि वो विषय मेरा नहीं। जिन्दगी की गुजर-बसर के लिए जो काम हम कर रहे हैं उससे गाड़ी नहीं चल पा रही तो इसका मतलब ये नहीं कि हम काम नहीं कर पा रहे बल्कि ये कि हमारे लिए कोई और काम है। और ऐसे ही हम असफल है इसका मतलब हमारा कमतर होना नहीं बल्कि ये कि सफलता हमारा कहीं और इन्तजार कर रही है। मैं खुद हैरत में था कि बात कहाँ की कहाँ पहुँच गयी, और जो इतनी मामूली लग रही थी वो तो जिन्दगी का मर्म समझा रही थी। 

इस तरह उन दो दिनों में जो मैं समझा वो ये कि हम सब का अपना-अपना संगीत है जो हम में 'इन-बिल्ट' है; हमारे में निहित है। संगीत का होना चिन्ता की नहीं समझने की बात है। रही बात प्रयासों की तो वे सिर्फ ये पता लगाने में करने हैं कि वो संगीत कौन सा है और किस साज से बजेगा। 

दैनिक नवज्योति स्तम्भ-'जो मैं समझा' 
(रविवार, 8 अप्रैल 2018 के लिए)