Monday 31 July 2017

और कोई ऑप्शन ही नहीं था!





उसने अपनी बात खत्म करते हुए कहा, " और मेरे पास ऑप्शन ही क्या था?" और जैसे झटका लगा! क्या सचमुच उसके पास कोई ऑप्शन नहीं था? दोस्तों की नजर से तो उसने फटे में टाँग डाली थी। झगड़ा कामवाली बाई और उसके पति के बीच का था। रोजाना मारपीट करता, पैसे छीनता और उसकी शराब पी जाता। ये जैसे दैनिक दिनचर्या का हिस्सा था, जो ऐसे घरों में कोई नयी या अनोखी बात तो थी नहीं!

लेकिन उस दिन तो उसने हद ही पार कर दी थी। ऐसे भी कोई मारता है भला! थे ही नहीं पैसे उसके पास तो देती कहाँ से? पर वो, वो मारे ही जा रहा था। रात गुजर गयी, दिन चढ़ने लगा था जिसके साथ उसका पारा भी चढ़ रहा था। इधर तलब और उस पर गुस्सा, वो पहुँच गया गली के नुक्कड़ पर बैठे रहते आवारा लड़कों के बीच। उसने 15,000 में सौदा कर लिया। तुम चाहे जो करो, वो अकेली है, मैं शाम तक कमरे की तरफ झाकूँगा तक नहीं।   

किसी तरह जान छुड़ाकर भागी थी वो और पहुँची सीधी मेरी दोस्त के पास, और वो उसे लेकर पहुँच गई थाने। अब हुआ ये कि उसका पति तो फिलहाल ठीक हो गया था, पर रिपोर्ट में उन बदमाशों के भी नाम थे और वे पड़ गए मेरी दोस्त के पीछे। न जाने कैसी-कैसी धमकियों भरे फोन आने लगे थे। परेशान और डरे हुए सब थे, शायद थोड़ी वो खुद भी पर बाकियों और उसमें एक फर्क था। उसका कहना था, और मैं कर ही क्या सकती थी? मुझे मालूम था कि मैं अपने लिए आफत मोल ले रही हूँ पर मैं और करती भी क्या?, और बाकियों का कहना था, कर देती थोड़ी बहुत मदद पर इस तरह, यूँ इतना पचड़े में पड़ने की जरुरत ही क्या थी?, आखिर आदमी को अपने भले-बुरे का ध्यान तो रखना चाहिए ना! 

उस दिन वह यही तो बता रही थी। आज थाने से फोन आया था कि उसमें से कुछ बदमाश पकड़े गए हैं, और उसने संतोष भरी गहरी साँस ली, और हम सब की आँखों में आदर का भाव तैर गया। 
और उस दिन जो मैं समझा वो ये कि 
जब हमारे सामने कोई तकलीफ में होता है, हमारे किसी अपने को मदद की जरुरत होती है तो सच मानों में हमारे पास कोई विकल्प नहीं होता है सिवाय अपना हाथ आगे बढ़ाने के। लेकिन हम अपने आराम में खलल ना पड़े, हम किन्हीं अज्ञात मुसीबतों में न घिर जाएँ इसलिए बहाने ढूँढने लगते हैं और उन्हें अपनी ही नजरों में सही ठहराने के लिए 'उचित' कारण भी। भूल जाते हैं कि कल ऐसी ही किसी स्थिति में हम होंगे और वो व्यक्ति जो उस समय-परिस्थिति में हमारी मदद कर सकता होगा वो भी ऐसे ही बहाने और कारण ढूँढ लेगा। सच पूछो तो, सही बात का कभी कोई विकल्प होता ही नहीं।

(दैनिक नवज्योति में मेरा मासिक स्तम्भ 'जो मैं समझा'- 11 जून, 2017)

Monday 10 July 2017

मैं और मेरा जेबखर्च






बच्चे अपनी जेबखर्च का पैसा कितना सम्भल-सम्भल कर खर्च करते है, बिल्कुल सिलसिलेवार। सबसे पहले वो जो उन्हें कब से चाहिए थी, फिर उसी क्रम में दूसरी और फिर तीसरी। वे और किसी बात के बारे में नहीं सोचते ये तय करने से पहले।
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पर ये भी कि वे अपने किसी भाई-बहन को सचमुच का अपने से ज्यादा बेचैन देखते है तो अपना जेबखर्च या अपनी पसंदीदा चीज ख़ुशी-ख़ुशी देने या साझा करने तैयार हो जाते हैं। ये 'सचमुच' वे बड़ी आसानी से भाँप जाते है वरना वे एक धेला ना दें किसी को। इसीलिए वे
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जो कुछ कर पाते हैं उससे पूरी तरह
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खुश और सन्तुष्ट होते हैं।यानि उनके
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पास जो कुछ है उसे सही जगह पर लगाने का कुदरती विवेक होता है।

बात है उस दिन की जब हम घर-घर के हमउम्र किसी निजी उत्सव पर साथ में खाना खा रहे थे,
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गप्पें
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लगा रहे थे। ऐसे मौकों पर
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राजनीति सबसे सुरक्षित और चहेता विषय होता है। ये आपस की नाराजगी से दूर तो रखता ही है, बात भी
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इस पर आप चाहे
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जितनी देर कर सकते हो। चलते-चलते चर्चा
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का तापमान कुछ ज्यादा ही
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बढ़ने लगा था
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कि अचानक एक
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भाई
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बोला, ये हम क्या कर रहे हैं? क्या हम सचमुच कल सुबह इसके लिए कुछ करने वाले हैं? नहीं ना
​!​
 फिर
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क्यों हम इतने अशान्त हो रहे हैं? 
हमारे अपने-अपने काम हैं, और उन्हें ही हमारे लिए सबसे पहले होना चाहिए। 

उनकी सब मानते भी हैं, तो एक बार तो
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माहौल शान्त हो गया!
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पर
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उनकी ये बात मन में
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घुमड़ती रही। सोचने लगा, फिर क्या हमें
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अपने आस-पास, देश-दुनिया से कोई सरोकार ही न रहे?
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ये क्या बात हुई? आखिर जागरूक नागरिक की भी कोई भूमिका होती है! और हर कोई ऐसा,
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यही तो करता है। मैंने अपने आस-पास टटोला तो अपने आपको सही भी पाया। 

पर नजरें गहरी हुईं तो इस बात का भी इल्म हुआ कि जो लोग अपने काम में ही मग्न हैं वे ज्यादा काबिल भी हैं और कामयाब भी और सोच की गाड़ी का पहिया धँसने लगा। क्या व्यक्ति 'मैं और मेरा' के घेरे में ही रहे, इतना स्वार्थी हो जाए? या फिर सरोकारों का जीवन जिये चाहे वो मन को कितना भी अशान्त करता रहे? ऐसा ही ठीक लगता है, पर क्या अशान्त जीवन का चुनाव सही हो सकता है जबकि सारी बात ही तो शान्त जीवन के लिए है। 

और यही वो क्षण था जब वे बच्चे याद आए थे। 
और धँसा पहिया बाहर निकलने लगा था, हमें
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भी तो बस थोड़ा सा
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ही जेबखर्च मिला है!
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थोड़ा समय और
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थोड़ी ऊर्जा, अब ये हम पर है कि हम इसे कहाँ खर्च करते हैं। यदि इसे हमने अपने उद्देश्यों में, जो हम अपनी जिन्दगी से चाहते हैं उसमें झोंक दी तो हमारा सफल होना, वो पा लेना जो हम चाहते हैं तय है और नहीं तो हम उन सब के काबिल होते हुए भी हासिल नहीं कर पायेंगे।
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लेकिन इसका मतलब ये
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भी नहीं कि हमें अपने आस-पास, देश-दुनिया से कोई सरोकार ही न रहे। सरोकार रहे, हम भागीदार भी बने लेकिन जिस जगह पर हम हैं उस मुताबिक।
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अब यदि हमें अपनी भागीदारी बढ़ानी है, कोई बात हमें इतनी विचलित करती है कि हमसे रहा नहीं जा रहा तो हमें अपनी जगह बदलनी होगी। लेकिन बिना अपनी जगह बदले हम ये करने लगे तो ना हम घर के होंगे ना घाट के। 

तो जो मैं समझा वो ये कि 
एक फिल्म की तरह जिन्दगी में भी हम सब के अपने-अपने किरदार हैं। हमें अपना किरदार खूबसूरती और लगन से निभाना है। बस, इतना भर काफी होगा हमारी ओर से उस फिल्म के लिए। और ऐसा ही सब सोचने लगें तो फिल्म अपने आप ही बेहतरीन बन पड़ेगी लेकिन अपने अलावा हम सबने एक-दूसरे के रोल में टाँग अड़ानी शुरू कर दी तो
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फिर उस फिल्म को फ्लॉप होने से कोई नहीं बचा सकता। 

(दैनिक नवज्योति में मेरा मासिक स्तम्भ 'जो मैं समझा'- 9 जुलाई, 2017)