Friday 15 January 2016

अफसोस की टोकरी और नया साल



.......... और कैलेन्डर बदल गया। दिन बीतते-बीतते कब वे महीनों में बदल जाते हैं और फिर कब वे अचानक यूँ साल ही पलट देते हैं, मालूम ही नहीं चलता और इस बार भी यही हुआ। बधाई-संदेशों और शुभकामनाओं की बारिश के साथ हर बार की तरह इस बार भी हर कोई कुछ न कुछ तय करने में लगा था कि इस बार क्या कुछ नया करना है या फिर और ज्यादा दृढ़ता से करना है जिसे वो पिछली बार नहीं कर पाया था। कुछ लोग ऐसे भी कहते-सुनते मिले कि मैं कोई रिजोल्यूशन-विजोल्यूशन पास नहीं करता। ये तो होते ही टूटने के लिए हैं, इससे बढ़िया है जिन्दगी जो परोसे उसका भरपूर आनन्द लो। बात तो ये भी ठीक थी पर ये उपजी पुराने अनुभवों से थी, जो सोचा वो न कर पाने की वजह से थी न कि इस भावना से कि वे लोग बस आज में जीना चाहते हैं, हर क्षण का आनन्द लेना चाहते हैं। 

इस तरह सोच कर मैं खुद ही फँस गया था, और अब तो समस्या और भी बड़ी होती जा रही थी। मुझे लगने लगा कि बात नए साल की ही नहीं है, हम कभी चाह कर भी कुछ नया कर ही नहीं पाते। उसी पटरी पर गाड़ी चाहे जितनी तेज भगवा लो, लेकिन पटरी नहीं बदली जाती और यही वजह है कि कभी स्टेशन भी नहीं बदलते और फिर दोष देने के लिए तो बेचारी किस्मत है ही हमारे पास। क्या वजह हो सकती थी? सबसे पहले जो जेहन में कौंधी वो थी कि हमारा निश्चय पक्का नहीं होता। ....... पर ये बात खुद को भी वैसी ही लग रही थी जैसे ए फॉर एप्पल, रटी-रटायी। या तो बात कोई और थी या निश्चय के पक्का न रह पाने की वजह कोई और। ...... बात कुछ और थी! 

प्रकृति ने संकेत दिया एक किताब के मार्फत, लिखा था नया साल कुछ ही दिनों के बाद पुराने साल के ही जैसा इसलिए हो जाता है क्योंकि हम आगमन को तो जोर-शोर से तैयार होते हैं लेकिन विदाई की तरफ हमारा ध्यान ही नहीं होता। सोचा तो पाया, सही तो था, हम नए साल में प्रवेश करते है अफसोस की टोकरी के साथ जिसमें रखी होती हैं वे सारी बातें जो हमें बुरी लगीं, जो हमसे नहीं हुई और वो भी जो सच में हमारे साथ अच्छा नहीं हुआ लेकिन हमारे हाथ में भी नहीं था। अब जब भी हम रिश्तों को नयापन देने की कोशिश करते हैं, कुछ अलग सा करने लगते हैं या अपने विश्वास को पुख्ता करने लगते है, ये टोकरी सबूत पेश कर हमें वहीं के वही जकड़ी रखती है। ऐसा नहीं कि गए साल में कुछ अच्छा न हुआ हो लेकिन वो पेश ही नहीं होता क्योंकि वो इस टोकरी में रखा ही नहीं होता। 

यदि हमें इस जकड़न से मुक्त होना है तो इस अफसोस नाम की रद्दी की टोकरी से निजात पानी होगी। विदाई को भी आगमन की तरह निभाना होगा। बात गए साल की हो या जिन्दगी की कोई और, जो हो चुका उसे जाने देना होगा, उसे पूरी तरह से विदा करना होगा और यह तब ही होगा जब यह धन्यवाद के साथ हो, जो कुछ हुआ उसके लिए आप कृतज्ञ हों और ऐसा तब ही हो पाता है जब हम अपने अच्छे अनुभवों को याद रखते हुए ये समझें कि जिन्हें हम बुरा समझ रहे हैं वे वास्तव में अध्याय हैं जिन्दगी के जिन्हें पढ़े बिना हमारा अगली कक्षा में जाना सम्भव नहीं और अगली कक्षा में पहुँचे बिना स्कूल यानि जिन्दगी का मजा नहीं। 

जो मैं समझा, वो यही था कि हम अपने जीवन में कुछ नया चाहते हैं तो पुराने को छोड़ना होगा। नये को आ पाने के लिए जगह देनी होगी और ये तब ही होगा जब पुराने को पूरे प्यार और सम्मान के साथ विदा करें। समझना होगा कि हर चीज की एक एक्सपायरी डेट होती है, जो कल तक दवाई थी आज जहर बन चुकी है। .........और तब हम तय करें न करें, हमारी हर सुबह नित-नयी होगी, उत्साह और उमंग से लवरेज।   

Friday 1 January 2016

प्यारा बच्चा और अच्छे अंकल



आप को भी अपने रेल सफर में कई बार मन मोहने वाले मासूम बच्चे जरूर मिले होंगे। उनके साथ बात करते सफर कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता। अपने-अपने स्टेशन पर उतरते ऐसा लगता है जैसे कोई बिल्कुल अपना बिछड़ रहा हो। ऐसा हमें ही नहीं उसे भी लग रहा होता है, शायद इसलिए कि बहुत दिनों बाद उसे भी कोई मिला होता है जो उसकी हर बात का आनन्द ले रहा होता है, बिना उसको कहे कि बेटा, ऐसे नहीं ऐसे करो या ऐसे नहीं ऐसे बैठों, और डाँट, उसका तो सवाल ही उठता। अधिक से अधिक प्यार से कुछ समझा दिया बस, इसलिए जितना प्यारा वो होता है उतने ही अच्छे अंकल हम। 

अभी कुछ ही दिनों पहले में भी ऐसे ही एक रेल सफर पर था, ऐसे ही आस-पास बैठे बच्चों से बातें कर रहा था, तो न जाने कैसे मेरा ध्यान इसके आगे इस बात बात पर पहुँच गया कि क्या मेरा बच्चा अगर यही बात कर रहा होता तो क्या मैं उतनी ही तस्सली से सुनता, उसे समझाता। क्या मैं उसकी ऐसी ही कितनी सारी प्यारी-प्यारी बातों और हरकतों का इतना ही मजा ले पाता हूँ और अगर नहीं ले पाता तो नुकसान में कौन रहता है? मैं या वो। ये बात सच है कि मैं पराये बच्चे को डाँट नहीं सकता, लेकिन क्या अपने बच्चे को डाँटने से पहले एक मिनट भी ख्याल करता हूँ कि डाँटने से पहले या बजाय मैं अपनी बात को मनवाने के लिए क्या और भी कुछ कर सकता हूँ? मैं उससे और वो भी मुझसे बहुत प्यार करता है पर वो मेरे साथ इतना खुश, इतना सहज क्यों नहीं है? मेरा सर घूमने लगा था।

कोई जवाब सवाल के बाहर नहीं होता, मेरा जवाब भी वहीं छुपा था। हम जितनी अच्छी तरीके से ये बात दूसरे बच्चों के लिए समझ लेते हैं कि ये ऐसा ही है इसलिए ऐसा ही करेगा, अपने बच्चे के लिए नहीं समझ पाते। निश्चित रूप से इसके पीछे भी हमारा प्रेम ही होता है। हम सोचते हैं हम उसे वैसा बना दे जैसा एक अच्छे बच्चे को होना चाहिए, और इसका हम एक भी मौका नहीं चूकना चाहते। हम उसकी बातों, हरकतों में यही मौके ढूँढ़ते रहते है, क्योंकि हम समझते है उसे अच्छा बनाने का जो हमारा कर्तव्य है उसके लिए ये बहुत जरुरी है। हम जो बात अपने लिए जानते हैं कि व्यक्ति अपने आपको हल्का-फुल्का 'मोल्ड' कर सकता है लेकिन अपनी 'बेसिक नेचर' को नहीं बदल सकता, अपने बच्चे के लिए समझने और मानने को तैयार नहीं होते। 

मैंने जब इस कड़वे प्रश्न का सामना किया तो पाया कि शायद हम यही समझते हैं कि बच्चों की कोई 'बेसिक नेचर' होती ही नहीं, ये तो उसके लालन-पालन से पड़ती है। आप ही एक मिनट के लिए उन सारी बातों को भूलाकर सोचिए जो आज तक हम कहते-सुनते आए हैं, क्या ऐसा हो सकता है? नहीं ना। सबकी एक 'बेसिक नेचर' होती है, एक स्वतन्त्र अस्तित्व और वैसे ही एक बच्चे का भी और इसे नहीं मानना ही समस्या की जड़ है। जब ये बात मेरे जेहन में साफ हुई तो लगा, ये बात बच्चों के ही नहीं हमारे अपने घर में हर रिश्ते के साथ है। हम अपने अपनों को अपने जैसा बनाने लग जाते हैं, और ऐसा हम सब करते हैं और इसीलिए बाहर हम सब सहज होते हैं लेकिन अपने घर को असहज बना लेते हैं। बात तो ठीक है, लेकिन इसे अपनायें कैसे? तो अचानक, वो अंग्रेजी में 'जेंटलमैन्स कर्टसी' कहते हैं, याद हो आया। 

जो मैं समझा, वो यही एकमात्र तरीका था एक-दूसरे के साथ सहज होने का। इतना सा अदब कि हमें दूसरे के बुरे लगने का भान रहे। जितना हम परायों के साथ थोड़े से अपने होते हैं उतना ही हमें अपनों के साथ भी थोड़ा सा पराया होना होगा। एक हल्की सी दूरी हमें और पास ले आएगी। ये दूरी वही जगह देगी जो पौधों को क्यारी देती है, और तब हम ज्यादा खुश, ज्यादा सहज होंगे, उतने ही जितने हम और किसी के साथ होते हैं।