Friday 25 May 2012

जीवन, ताश का एक खेल





एक अच्छा नर्तक वही है जो संगीत की लय-ताल के साथ अपना तारतम्य बिठा लें. जब संगीत साज की बजाय उसके पैरों और भाव-भंगिमाओं से फूटता जान पड़े. जीवन जीने की कला भी यही है जब व्यक्ति अपने जीवन की लय के साथ अपनी कदम-ताल मिलाएं, जीवन धारा के साथ एकरूप हो जाए.

जीवन-धारा के साथ बहने का मतलब यह कतई नहीं है की हम समाज द्वारा निर्धारित परम्पराओं, मान्यताओं और रुढियों को ज्यों का त्यों अपना लें या हम क्या करें यह किसी और के जीवन से उधार ले लें. जीवन-धारा के साथ एकरूप होने का यह मतलब भी नहीं है की हम निष्क्रिय हो, अपनी स्वाभाविक रचनात्मकता को छोड़ लोगों के हाथों की कठपुतली बन जाएँ. अपना जीवन वसे जिएँ जैसा लोग हमसे चाहते है. जीवन-धारा में बहने का मतलब तो है वह करना जो इस क्षण में हमारी समझ से सबसे ज्यादा उपयुक्त है.

हम सब एक सामान्य शिकायत जिसने मुझे आपसे इस विषय पर बात करने के लिए प्रेरित किया कि ' यदि मैं परिस्थितियों के हाथों मजबूर नहीं होता तो इससे कहीं बेहतर होता.' सबसे पहले तो हम जीवन की अधिकांशतः परिस्थितियों के लिए स्वयं जिम्मेदार होते है और दूसरा हमारा अहम् जो हमारे साहसी नहीं होने को परिस्थितियों के गले मढ़ देता है.

हाँ, जीवन मैं कुछ परिस्थतियाँ ऐसी भी होती है जिनके लिए न तो हम जिम्मेदार होते है न ही वे हमारे नियंत्रण मैं होती है.ऐसे समय मैं हो सकता है हमारे लिए वैसा करना ज्यादा ठीक हो जैसा हम साधारण परिस्थितियों में नहीं करते. यही है अपने कर्तव्यों का निर्वहन. मेरे निजी अनुभवों ने यह बात समझाई है की ये परिस्थितियाँ वो संकेत है जिस दिशा मैं प्रकृति हमें ले जाना चाहती है. हमें एक दृश्य का ज्ञान है तो प्रकृति को पूरी पटकथा का. निःसंदेह प्रकृति के इशारे हमारी बुद्धि से ज्यादा भरोसे लायक होते है. हमें भरोसा रखना चाहिए की यदि ऐसा है भी तो प्रकृति ने हमारे लिए हमसे ज्यादा अच्छा सोच रक्खा होगा और इस तरह कर्त्तव्य बोध हमारी इच्छाओं की उपज होगी न की मज़बूरी की. कर्तव्यों को जब हम मजबूरन निभाते है तो जीवन एक बोझ बन जाता है और मज़बूरी समझकर लाख ढंग से निभाए कर्त्तव्य भी जीवन-परिस्थितियों को हमारे अनुकूल नहीं बना पाते. इसी कारण हमें अपनी जीवन-परिस्थितियों से हमेशा शिकायत रहती है. सच्चा कर्त्तव्य वही है जिसे करने को हमारा अंतस भी कहें और बुद्धि भी सही ठहराएँ.

भाग्य और पुरुषार्थ के इस द्वन्द को डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक भगवदगीता के परिचय में बिलकुल ठीक समझाया है, " जीवन, ताश का एक खेल है. न तो हमने इसका अविष्कार किया न ही इसके नियम बनाये. पत्तों के बंटवारे पर भी हमारा कोई नियंत्रण नहीं चाहे वे अच्छे है या बुरे. भाग्य का शासन बस यहीं तक है. आगे हम पर है की हम कैसे खेलें. हो सकता है एक कुशल खिलाड़ी खराब पत्तों के बावजूद जीत जाएँ और एक अनाडी अच्छे पत्तों के साथ भी खेल का नाश कर दें." यही है पुरुषार्थ. वे आगे लिखते है, " अपने चुनाव का समुचित प्रयोग करते हुए हम धीरे-धीरे सभी तत्वों पर नियंत्रण कर प्रकृति के नियतिवाद को समाप्त कर सकते है."

आइए, जीवन-धारा के साथ बह प्रकृति से एकरूप हो जाएँ. जीवन-संगीत पर थिरकें और जीवन उत्सव का आनंद उठाये.


( रविवार, 20 मई को नवज्योति में प्रकाशित)

आपका,
राहुल.....  



Friday 18 May 2012

देने में ही पाना है




रेत को हम जितनी जोर से मुट्ठी में पकड़ने की कोशिश करते है उतनी ही तेजी से वह फिसलने लगती है.यह बात जीवन के हर पहलू पर ज्यों की त्यों लागू होती है चाहे बीता कल हो, रिश्ते हो या हमारी सांसारिक उपलब्धियाँ. हम अपनी सुखद स्मृतियों को इस क्षण में जीना चाहते है, रिश्तों को मजबूत बनाने के लिए कोशिश करने लगते है की दूसरे हमारे हिसाब से जिएँ और जीवन में जो कुछ हम हासिल कर पाए उसे बनाये रखने को जीवन जीने का आधार बना लेते है. होता ठीक इसका उलट है; इस तरह हम रिश्तों में घुटन भर लेते है, अपनी स्वाभाविक रचनात्मकता का गला घोंट देते है और इस क्षण को खोकर तो जीवन ही को खो देते है.

हम ऐसा क्यूँ करने लगते है ?

आपने महसूस किया होगा हम हर छोटी - बड़ी बात पर उन दिनों का हवाला देते है जब हम सोचते है की सब कुछ ठीक था. यह और कुछ नहीं हमारी प्रवृति है. कुछ सालों बाद हम 'आज' को भी इसीलिए याद करेंगे. यह प्रवृति है बीते हुए कल में रहने की. हमें वे सुखद स्मृतियाँ इसलिए कचोटती है की सब कुछ ठीक था लेकिन हम उन दिनों को उनकी सम्पूर्णता से नहीं जी पाए, उनका भरपूर आनंद नहीं ले पाए. यह अफ़सोस ही उन दिनों को जिन्दा रखता है और हम उन क्षणों को आज में जीने की कोशिश करने लगते है. कल को आज में तो कोई नहीं जी पाया. हाँ, इतना जरुर है की इस चक्कर में हम आज को भी खो देते है.

यह भी सही है की किसी व्यक्ति के लिए जीवन के हर क्षण को उसकी सम्पूर्णता के साथ जीना संभव नहीं. हमारा यह सारा अभ्यास वहाँ तक पहुँचने भर तक का है. हमें यह मानना होगा की उन दिनों हमने वही किया जितनी हमारी समझ थी. उससे अलग या अच्छा कर पाना हमारे लिए संभव ही नहीं था इसलिए किसी भी प्रकार के अफ़सोस का कोई स्थान नहीं. यही स्पष्टता हमें इस क्षण को भरपूर जीने का उत्साह देगी.

यही गलती हम अपने रिश्तों में भी कर बैठते है. जब रिश्तों में होते है तब एक दूसरे को अपनी ही तरह ढालने की कोशिश में लगे रहते है लेकिन जब रिश्तों की उम्र हो जाती है तब उन्हें पूरी तरह नहीं जी पाने की कसक लिए उन्हें याद करते है. जीवन की सच्ची ख़ुशी इसी में है की हम रिश्तों का आनंद तब लें जब उनमें हों. हम एक-दूसरे को अपनी-अपनी जगह दें. रिश्ते होते ही इसलिए है की एक दूसरे को अपने-अपने तरीके से जीने और अभिव्यक्त करने में सहायता कर सकें.

रही बात सांसारिक उपलब्धियों की तो इन्हें बनाए रखने की जुगत हमें नया कुछ कुछ भी करने से रोकती है. कुछ नया करना यानि जोखिम उठाना यानि जो कुछ है उसके खोने का डर. इस तरह हम खुद ही अपने को जीवन में और अधिक सफलताओं और ऊचाईयों को छूने से रोक लेते है.

जीवन की यही उलटबांसी जो सैंट फ्रांसिस की विश्व - प्रसिद्द प्रार्थना की एक पंक्ति है, " देने में ही पाना है ". हम जिसका जितना मोह छोड़ेंगे उतना ज्यादा उसे अपने जीवन में पायेंगे.

स्मृतियों का सुखद अहसास, रिश्तों में प्रेम की इच्छा या काम में सफलता की इच्छा रखना गलत नहीं है वरन इच्छाओं से आसक्त होना गलत है.' कर्म कर, फल की इच्छा मत रख ' कह कर हम गीता को गलत उद्धृत करते है. गीता तो कहती है, ' कर्म कर,फल की इच्छा भी रख लेकिन इच्छा से आसक्ति मत रख.'  अरे! कर्म-फल की इच्छा तो कर्म की प्रेरणा-शक्ति है लेकिन फल की आसक्ति हमारी समझ पर पर्दा डाल हमारा पथ-भ्रष्ट कर देती है. हम येन-केन-प्रकारेण अपनी इच्छाओं की पूर्ति में लग अपने ही जीवन में जहर घोल देते है. कर्म-फल पर अपना अधिकार छोड़ना ही उसे पाना है, यही कृष्ण का निष्काम कर्म है.

आसक्ति से विरक्ति ही कर्म को सुकर्म बना जीवन के हर क्षण में खुशियों के रंग भरती है.

(नवज्योति में रविवार, 13 मई को प्रकाशित )

आपका 
राहुल....

Saturday 12 May 2012

क्रोध को ख़त्म नहीं काबू में करें



हमारी भावनाएँ हमारी आत्मिक भूख को पोषित करती है. जिस तरह खाना, पीना, सोना हमारी शारीरिक और सोचना हमारी बौद्धिक भूख है उसी तरह भावनामय होना हमारी आत्मिक जरुरत है. वो व्यक्ति ही क्या जिसे भूखे को देख दया, घायल को देख करुणा, बच्चों को देख प्रेम, प्रकृति को देख आनंद - आश्चर्य न आये. आध्यात्मिक होने का मतलब भावनाशून्य होना कतई नहीं है.

भावनाओं के समुद्र में डुबकी लगाने से पहले तैरना सिखाना बहुत जरुरी है वरना डूबने का डर है. भावनाओं में बह हम अपने जीवन की लय - ताल बिगाड़ लेते है. भावनाओं का अतिरेक हमेशा ही विनाश का कारण बना है चाहे वह ध्रतराष्ट्र का पुत्र- प्रेम हो या हिटलर की घ्रणा. भावनाओं का अतिरेक उत्तेजना पैदा कर हमारे कर्मों को अपने अधीन कर लेता है और तब बुद्धि हमारा साथ छोड़ देती है. यदि अपनों को बीमार देख हम खुद ही रोने बैठ जायेंगे तो उनकी सेवा कैसे कर पायेंगे. करुणा का भाव हमें सेवा के लिए उद्धत करें वहाँ तक सुंदर है लेकिन इससे आगे यह हमें ही अपाहिज बना देगा.

क्रोध सबसे तीव्रतम भाव है. जीवन में क्रोध पर काबू पा लेने से बड़ी कोई विजय नहीं हो सकती. इसके लिए सबसे पहले तो यह जानना जरुरी है की क्रोध आता ही क्यूँ है? हम बारीकी से पड़ताल करें तो पायेंगे की जब किसी का व्यवहार हमारा मनचाहा नहीं होता तो हमें क्रोध दिलाता है. हम सब जानते है पर मानते नहीं या भूल बैठते है की जिस तरह हमें अपने जीवन को अपने तरीके से जीने का अधिकार है किसी और को भी है. दूसरों की स्वतंत्रता के सम्मान में ही हमारी स्वतंत्रता निहित है. सम्मान रिश्तों की क्यारी में खाद - पानी का कम करता है. रिश्ते यदि बनते भावनाओं से है तो उन्हें उम्र मिलती है आपसी सम्मान से. एक दुसरे को सम्पूर्णता के साथ स्वीकार करना ही सम्मान करना है. हमारी यही समझ हमें ऐसे समय में विचलित होने से बचाती है जब स्थितियां मन के अनुकूल न हों.

इस सारी समझ के बावजूद भी जीवन में कई मौकों पर व्यक्ति अहम् के अधीन हो क्रोध कर ही बैठता है. सबसे जटिल प्रश्न तो यह है की यदि व्यक्ति को क्रोध आ ही जाएँ तब वो क्या करें? कुछ लोगों का मानना है की क्रोध को व्यक्त कर देने से मन साफ़ हो जाता है लेकिन ऐसे समय हम यह भूल जाते है की ऐसा करना हमारे रिश्तों में कडवाहट भर देगा. हम अपने अपने घर को साफ़ रखने के लिए पडोसी के घर के सामने कचरा नहीं फेंक सकते. ऐसे समय तो हम दूसरों के उन गुणों पर अपना ध्यान ले जाने की कोशिश करें जिनके कारण हम उन्हें अपना मानते है. उन व्यवहारों को याद करें जिनसे हमें जीवन में कभी संबल मिला था. क्रोध को इस तरह काबू कर हम सार्थक संवाद की स्थिति में आ पाएंगे. हमारा स्वर और शब्दों पर नियंत्रण रहेगा. स्पष्ट लेकिन आहत न करने वाले स्वर और शब्दों में व्यक्त की गई अपनी असहमति और नाराजगी हमारे रिश्तों को और मजबूत बनाएगी.

क्रोध का आना नहीं वरन उसका बेकाबू हो जाना गलत है. क्रोध यदि काबू में रहे तो इससे बड़ी कोई रचनात्मक शक्ति नहीं हो सकती. ट्रेन के डिब्बे से बाहर निकल फेंकने पर आया गाँधी जी का क्रोध ही था जिसने देश को आज़ादी दिलाई. धनानंद के अपमानजनक व्यवहार के प्रति चाणक्य का क्रोध ही था जो देश को एक सूत्र में पिरोने की प्रेरणा - शक्ति बना. क्रोध को घटना नहीं वरन घटना के पीछे के कारणों के विरुद्ध इस्तेमाल किया जाना चाहिए.

इसी तरह सारी भावनाएँ हमारे जीवन की चाशनी होती है. इन्ही से हमारे जीवन में रस भी है और मिठास भी; लेकिन ध्यान रहें बावनाओं का अतिरेक जीवन को उसी तरह दुखदायी बना देता है जिस तरह चीनी की अधिकता चाशनी को कड़वा बना देती है.

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 6 मई को 'भावनाओं का अतिरेक-विनाश का कारण' शीर्षक के साथ प्रकाशित)

आपका 
राहुल.

Friday 4 May 2012

हमारा सही परिचय




मनुष्य को परमात्मा की सुंदरतम भेंट है उसका मस्तिष्क जिसे बोलचाल की भाषा में दिमाग भी कहते है. मस्तिष्क के सही उपयोग से जन्म लेती है बुद्धि ; बुद्धि यानि अच्छे और बुरे में भेद करने की समझ इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति वही है जो अपने दिमाग का सही उपयोग करें. हम सब यहाँ अपने अपने तरीके से संसार को अनुभव करने और अपने आपको व्यक्त करने आते है अतः स्वस्थ मस्तिष्क के बिना तो हमारा जन्म लेना भी सार्थक नहीं. कुल मिलाकर एक अच्छे जीवन की कल्पना एक स्वस्थ मस्तिष्क के बिना नहीं की जा सकती.


हर क्षण उपलब्ध विकल्पों में से बेहतर का चुनाव ही हमारे जीवन को सुंदर बनता है. इस क्षण हम क्या चुनते है यह ही निश्चित करेगा की हमारे आने वाला क्षण कैसा होगा. बेहतर विकल्प का चुनाव हम बुद्धि के सहारे करते है जो हमें सफल बनाती है. समस्या तो तब पैदा होती है जब हम इसी बुद्धि के सहारे हासिल की गई सफलताओं को अपना परिचय समझने लगते है. इस तरह हमारा मस्तिष्क अनियंत्रित हो पद, पैसा और ज्ञान के ईंट -गारे से हमारी एक छवि गढ़ लेता है और हम अपनी ही बनायीं छवि में कैद होकर रह जाते है. हम जीवन भर अपने -आपको भूल, आत्मिक आनंद को छोड़ अपनी ही बनायीं इस झूठी छवि के बचाव में जुटे रहते है. आप ही बताइए, एक ख़ाली जेल के जेलर की हालत एक कैदी से कम बदतर होती है ? स्वयं का झूठा परिचय ही अहम् है. इस तरह जब भी हमें लगता है की कोई व्यक्ति, घटना या स्थिति हमारी छवि को यानि हमारे अहम् को चोट पहुंचा रही है हम विचलित हो उठते है और हमारी खुशियाँ पराधीन हो जाती है. इपिकटीट्स ने ठीक ही कहा है, ' हमारी परेशानियों का सबब घटनाएँ नहीं अपितु घटनाओं के बारे में हमारी सोच है.'

मस्तिष्क की क्षमताओं और संभावनाओं का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है की वैज्ञानिकों के अनुसार आइन्स्टाइन भी अपने मस्तिष्क का 5% ही उपयोग कर पायें. जितना शक्तिशाली साधन होगा उतनी ही सावधानी बरतनी होगी चाहे वह परमाणु - उर्जा हो या हमारा मस्तिष्क. आंकड़े कहते है की एक सामान्य व्यक्ति के मस्तिष्क में औसतन 60,000 विचार आते है और इनमे से अधिकांशतः वे ही होते है जो कल भी आये थे और परसों भी. यहाँ हमें ठिठक कर यह सोचना होगा की हम मस्तिष्क का उपयोग कर रहे है या मस्तिष्क हमारा. नियंत्रित मस्तिष्क और सदबुद्धि व्यक्ति को राम बना सकती है और विकृत मस्तिष्क और अहंकारी बुद्धि रावण.


हम सभी ईश्वर की स्वतंत्र भौतिक अभिव्यक्ति है. मूलतः एक होते हुए भी अनुभूति और अभिव्यक्ति के स्तर पर भिन्न है और हमारी इसी निजता को सहेजता है हमारा मस्तिष्क. अब जहाँ निजता होगी वहाँ अहम् भी होगा इसलिए यह भी अनुचित होगा की हमारा अहम् शून्य हो जाएँ. हर व्यक्ति की अपनी नज़र है और अपना संसार. हर व्यक्ति की उचित और अनुचित की अपनी - अपनी परिभाषा है इसलिए अहम् उतना भर जरुरी भी है की हम उपलब्ध जानकारियों का अपने परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण कर सकें.


हम अपने पद, पैसे और ज्ञान को भूलें नहीं, इनका भरपूर आनंद लें आख़िरकार इन्हें हमने हासिल किया है लेकिन याद रखें यह ' हम ' नहीं है. हम इसका आनंद लेने वाले है. मस्तिष्क का हम उपयोग करें मस्तिष्क हमारा नहीं. अहम् को ' स्व की पहचान ' की सीमाओं में रखें उसे अहंकार न बनने दें. जीवन आनद का यही रहस्य है.



( दैनिक नवज्योति में रविवार, 29 अप्रैल को शीर्षक 'स्वयं के झूठे परिचय से दुरी ही अच्छी ' के साथ प्रकाशित ) 

आपका 
राहुल....