Friday 19 December 2014

तीन बन्दरों का विज्ञान




जापान के डॉ सुमोटो ने एक अचम्भित करने वाला प्रयोग किया। उन्होंने तीन बीकर लिए, हर बीकर में आधा मुट्ठी चावल को पानी में भिगो दिया। डॉ सुमोटो रोजाना एक बार पहले बीकर के चावलों को 'थैंक यू', दूसरे बीकर के चावलों को 'इडियट' कहते और तीसरे बीकर के चावलों पर ध्यान ही न देते। एक महीने बाद  क्या देखते हैं? पहले बीकर के चावल खमीर उठने के कारण महक उठे थे जबकि दूसरे बीकर के चावल काले पड़ चुके थे और जिनकी कोई परवाह ही न की थी वे तो बुरी तरह सड़ चुके थे।

उन निर्जीव चावलों का ये हाल हुआ तो हमारे मन-मस्तिष्क का क्या हाल होता होगा? फिर सोच-समझ पाना तो प्रकृति की इन्सान को सबसे कीमती भेंट है। कीमती है तो उतनी ही सावधानी की जरुरत भी। उन चावलों के तो हाथ में तो नहीं था कि उनका क्या होगा लेकिन हमारे हाथ में तो है। हम 'थैंक यू' सुनेगें या 'इडियट' ये हमारा चुनाव है इसलिए जीवन में महक उठेंगे या काले पड़ जाएंगे यह पूरी तरह हमारे हाथ में है। यही तो है गाँधी जी के उन तीन बंदरों का विज्ञानं जिसकी प्रमेय है; बुरा मत देखो, बुरा म,मत सुनो, बुरा मत कहो। 

होता यूँ है कि जैसा हम देखते-सुनते हैं वैसे ही विचार हमारे मन में बनने लगते हैं। एक जैसा देखते-सुनते हम उन विचारों के सही होने पर विश्वास करने लगते हैं। विसंगति ये कि जिन विचारों पर हम विश्वास करने लगते है ठीक वैसा ही हमारे जीवन में घटने लगता है चाहे हम चाहें या न चाहें। आपने शायद गौर नहीं किया होगा, रोजाना की ख़बरें कि आज फिर किसी ने झूठ और बेईमानी से फलाँ चीज या मुकाम हासिल कर लिया, हमारे मन में उन तरीकों के प्रति विश्वास जगाने लगता है। हम मानने लगते है कि जीवन में कुछ हो सकता है तो ऐसे ही और तब अनजाने ही हम भी उस राह पर निकल पड़ते हैं। इस तरह हम तथाकथित रूप से सफल भी हो जाते है लेकिन अन्दर से खुश नहीं होते क्योंकि झूठ और बेईमानी का ये जहर हमारे व्यक्तित्व से लेकर परिवार और बच्चों तक फ़ैल रहा होता है। यही कारण है कि यह सफलता 'तथाकथित' हो जाती है। भला कोई उपलब्धि हमारे जीवन में खुशियाँ ही न लाए तो वह सफलता कैसे हो सकती है ?

तो तीनों बंदरों की इस प्रमेय को दोहराता हूँ; बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत कहो। मैंने कई बार बातों-बातों में सुना है कि 'कहना' तो हमारे हाथ में है लेकिन 'देखने-सुनने' का हम क्या कर सकते हैं? जैसा देश-समाज में घटेगा वैसा ही तो देखेंगे-सुनेगें।  मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि ऐसा कतई नहीं है। इस दुनिया में बुरा घट रहा है तो उतना ही अच्छा भी, बस फर्क इतना है कि नालायक जरा ऊधम ज्यादा करते हैं, शोर अधिक मचाते हैं इसलिए वही देखने-सुनने में आते हैं। हम चाहें तो हमेशा ही ऐसा देख-सुन सकते हैं जो मन को सुकून देता हो, जो हमें नई ऊर्जा से भर दे। 

एक बात विशेष ध्यान रखने की है कि हम सभी के जीवन में ऐसे लोग होते ही हैं जो हमारी भलाई के नाम पर बात-बात पर हमारी आलोचना, हमें हतोत्साहित करते रहते हैं। इनसे दूरी बनाना सबसे जरुरी है। इनकी बातों को मान लेना ठीक वैसा ही है जैसे पैर में रस्सी बाँध दौड़ने की कोशिश करना। अपने जीवन में अच्छा देखने और सुनने की भला इससे बढ़िया शुरुआत क्या हो सकती है? तो आइए, नए वर्ष पर इस संकल्प के साथ अपने जीवन की गाडी को खुशियों की राह पर मोड़ लेते है कि अच्छा देखेंगे, अच्छा सुनेगें और अच्छा कहेंगे। 

(रविवार, 14 दिसम्बर को दैनिक नवज्योति में प्रकाशित)
राहुल हेमराज ...........