Sunday 17 August 2014

सफलता का प्लेसमेन्ट






कुछ दिनों पहले मैं आर.डी.बर्मन पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री देख रहा था। एक ऐसा व्यक्ति जिसने फिल्म संगीत को बदल कर रख दिया। '70 और '80 के दशक की फ़िल्में यदि अपने मधुर संगीत के लिए याद रखी जाती है तो उसका एक कारण प्रमुख पंचम दा ही है। लोग प्यार और सम्मान में इसी नाम से उन्हें पुकारते थे। उनके सहायक मनोहारी सिंह और सपन चक्रवर्ती जैसे लोग रहे तो वाद्धकारों में हरी प्रसाद चौरसिया, शिवकुमार शर्मा, लुईस बैंक, भूपिन्दर और क्रेसी लॉर्ड जैसे लोग। 

331 फिल्मों में संगीत देने वाले इस विलक्षण व्यक्ति के जीवन में '80 के दशक के उत्तरार्ध से ऐसा बुरा समय आया जिसका अन्त पंचम दा से हमारे विछोह के साथ ही ख़त्म हुआ। लता मंगेशकर के शब्दों में, "ही डाइड़  टू यंग एण्ड टू अनहैप्पी।" ये एक ऐसा समय था तब एक के बाद एक उनकी 27 फ़िल्में फ्लॉप होती चलीं गई। वे जितना समेटने की कोशिश करते जीवन उतना ही बिखरता जा रहा था। किसी जीनियस के साथ ऐसा होता ही चला जाए, आखिर कोई तो वजह रही होगी? क्या उनसे कोई चूक हो रही थी या ये सिर्फ किस्मत ही थी? दुःख और आश्चर्य भरे मन से यही सब सोच रहा था की डॉक्यूमेंट्री के अन्त में विधु विनोद चोपड़ा आए। वे कहने लगे, '1942 - ए लव स्टोरी' के लिए पंचम ही मेरी पहली पसंद थे। मैं जानता था कि उनमें कितना अद्भुत संगीत था। गानों की पहली रिहर्सल में उन्होंने जो धुनें सुझाई वे वैसी ही पाश्चात्य ले पर थी जो '80 के दशक में उनका पर्याय बन चुकी थी। शायद वे सोचते थे सफलता का साथ जहां छूटा है वहीँ से वापस हो सकता है, शायद लोग मुझसे वही सब चाहते हैं। 

विनोद आगे कहते हैं, मैंने इस पर आपत्ति की और उन्हें अपने स्वाभाविक संगीत लिए प्रेरित किया। सफल और असफल होने से परे मैंने कहानी से गूँथ जाए ऐसे संगीत के लिए उन्हें छूट दी। मैं चाहता था कि कहानी सुन उनके अंदर से जो संगीत वही फिल्म के लिए माफिक होगा। फिल्म रिलीज के  नतीजा सबके सामने था, 1942 का संगीत 'सदी का मधुरतम' करार दिया गया। पंचम दा को अपना अंतिम और तीसरा फिल्मफेयर मिला लेकिन इसका दुःख हम सबको रहेगा कि इस खोयी सफलता को भोगने वे मौजूद नहीं थे। 

मेरे मन की गुत्थी सुलझ गई थी। वे अब तक सफलता को आगे रख कर उसे पुनः पाना चाहते थे। उनके काम को सफलता डिक्टेट कर रही थी। व्यक्ति अपना श्रेष्ठ तब ही दे सकता है जब वह काम स्वाभाविकता से करे। सफलता आपकी प्रेरणा रहे इसमें कोई ऐतराज नहीं लेकिन आपके काम और उसके तरीकों को वह तय करे तो यह केवल आपके असफल होने की गारंटी है। आप जब भी ऐसा करते है तब या तो किसी और की सफलता मापदण्ड होती है या बीते दिनों की सुनहरी यादें। आप भूल जाते हैं कि कोई और आप हैं नहीं और बीता समय हमेशा ही देश, काल और परिस्थितियों के सापेक्ष होता है। इस तरह आपका काम जिसे मैं आपकी अभिव्यक्ति कहना ज्यादा उपयुक्त समझता हूँ, सफलता को आकर्षित नहीं कर पाता, खिल नहीं पाता। 

सफलता काम के पीछे रहे तो ही अच्छा, जब-जब आगे रहती है हमें असफल बना देती है। आप वो करें, वैसे करें जिसमें सहज हैं, जो आपके लिए स्वाभाविक है। यही वो मंत्र है जो सफल तो बनता ही है सफलता को बरक़रार भी रखता है। 


(दैनिक नवज्योति में 'सेकंड संडे' 10 अगस्त को प्रकाशित)
राहुल हेमराज .............