Saturday 23 September 2017

आत्मा बची रही


"यदि ऐसा ही होना है तो होने दो।", यही कहा था शालिनी ने उस मनोचिकित्सक को जो न जाने क्या-क्या सोच कर कैसी-कैसी तैयारी करके आया था। उसे शालिनी को खबर देनी थी कि हो सकता है उसे अपने दोनों हाथ और दोनों पैर गवाँ देने पड़े। 
ऐसा क्या हुआ था?, कुछ खास नहीं। ये बात है, 2012 की। वो उम्मीदों से थी और शादी की चौथी सालगिरह मनाने अपने पति के साथ कम्बोडिया गई थी। छुट्टियाँ बड़ी मजेदार रहीं, वापस लौटी तो हल्का बुखार रहने लगा था। डॉक्टर्स ने कहा, डेंगू होगा!  और वो अस्पताल में भर्ती हो गई। वाजिब से ज्यादा दिन बीतने आए थे पर पारा टस से मस नहीं हो रहा था। इस बीच एक दिन इस बुखार ने उसके गर्भ में पल रहे बच्चे की भी जान ले ली। इतने दिन, अब डॉक्टर्स को भी समझ में आ रहा था कि बात डेंगू तक की ही नहीं है, और उन्होंने रक्त की विस्तृत जाँचे करना शुरू की। 
जो मालूम चला वो हैरतअंगेज था, कम्बोडिया में किसी विशेष मच्छर के काटने से वो ऐसे इन्फेक्शन के चपेट में आ चुकी है जो शायद 10 लाख लोगों में से किसी एक को होता होगा। इस बात को पता चलने में वक्त अब इतना बीत गया कि शरीर के करीब-करीब सारे अंग इसकी गिरफ्त में थे, वो कोमा में जाने जैसी हालत में थी; तब की बात है जब मनोचिकित्सक ने आकर उसे वो सब कहा था, पर ये भी कि "हम कोशिश पूरी करेंगे।"

सबसे पहले बायें हाथ का ऑपरेशन हुआ। उसके कुछ ही दिनों उसके देवर अस्पताल में उसकी मदद कर रहे थे कि दायाँ हाथ छिटक कर उनके हाथ ही में आ गया। इस तरह कुछ महीने और बीते, बाकि अंगों पर इन्फेक्शन का प्रभाव तो काबू में आने लगा था लेकिन बचते-बचाते भी उसके दोनों पैर गैगरिन की चपेट में आ गए। इसके बाद तो वो कोई अंग हो उसे अलग करने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचता। शालिनी बताती है, ऑपरेशन के पहले उसने खूब चमकीली बैंगनी नेल पॉलिश से पैरों को सँवारा था,"इन्हें जाना ही है तो जरा स्टाइल में तो जाएँ।"

इस तरह अस्पताल के बेड से उठ कृत्रिम, प्रोस्थेटिक पैरों के सहारे बाहर निकलने में उसे करीब दो साल लग गए। इसके बावजूद वो अपनी दैनिक दिनचर्या के अधिकाँश कामों के लिए अपने पति पर तो निर्भर थी ही, पर इससे उसे कोई तकलीफ नहीं थी। तकलीफ थी उसे अपने मन की। वो किसी भी हालत में तैयार नहीं थी कि किसी दिन उसमें जीने का उत्साह ही शेष नहीं रहे। उसका होना, न होना एक-सा हो जाए। वो अपने होने को साबित करना चाहती थी। एक दिन उसने सोचा क्यों न वो एथलीट होने का रास्ता चुने। दौड़े, और यही तो एक काम था जो वो अब कर सकती थी। 
और वो पहुँच गयी ग्राउण्ड पर। जब आप चलने लगते हैं तो रास्ते अपने आप बनने लगते हैं। कोच अय्यपा सर उतनी ही शिद्दत से तैयारी करवाने लगे, उन्होंने कभी उसे विकलांग होने को कभी छूट नहीं दी। पति प्रशान्त का तो हर कदम पर साथ थे ही। 

और अब आप अपने दाँतो तले ऊँगली डाल लीजिए, शालिनी ने हाल ही में 10 कि.मी. की टीसीएस बैंगलुरु मैराथॉन कम्पलीट की है, और अब वो पैरा ओलंपिक्स की तैयारी में जुटी है। "जब मेरा दायाँ हाथ छिटका था तब वो मेरे आगे बढ़ने का संकेत था" और ये सब लिखा उन्होंने अपने ब्लॉग 'आत्मा बची रही।' 
ये कहानी सामने आयी तो मैं इसे आपके साथ साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा था और इससे जो मैं समझा वो ये कि हर स्थिति में हमें ही अपने आपको उठाना होता है। यदि निकलने की कोशिश हमने नहीं की तो बाहर खड़ा व्यक्ति कितना ही हाथ दे दे, कुछ नहीं होने वाला। और ये भी कि हर स्थिति में हमारे पास कुछ तो बचा होता है जैसे शालिनी के पास दौड़ना बचा था। यही वो बात है जिस पर हमें अपने विश्वास को दृढ करना होगा, यही तो वो सहारा है जिसे ले हम अपने आप को उठा पाएँगे, सम्भाल पाएँगे। 

राहुल हेमराज_
(दैनिक नवज्योति, रविवार 13 अगस्त 2017