Saturday 31 December 2011

Success is within



सफल होना तय है


एक नन्ही चिड़िया पैदा होने के बाद जब पहली बार उड़ने की कोशिश करती है और उड़ नहीं पाती तब भी उसका उड़ पाना तय होता है. एक चिड़िया में ' उड़ना ' होता है. चिड़िया उड़ने की कोशिश न तो किसी के कहने पर करती है, न किसी से जीतने के लिए. उड़ना उसका स्वाभाव है. अंतर्मन की प्रेरणा से वह उड़ने की कोशिश करती है और कुछ ही दिनों में अपने चिड़िया होने को साबित कर देती है.

यदि हम अंतर्मन की प्रेरणा से कुछ करें तो उसके नहीं हो सकने की कोई गुंजाइश ही नहीं होती. अंतर्मन हमें उसी ओर प्रेरित करता है जिसका हो पाना हममें पहले ही दिन से होता है.
इसमें संदेह तब पैदा होता है जब माता-पिता के रूप में हम अपने बच्चों के लिए सफलता के मायने तय करने लगते है. हम ' उनकी भलाई ' के नाम पर यह बताते है की उनके लिए क्या ठीक है क्या नहीं जबकि होना तो यह चाहिए की हम उनमें अच्छे (उचित) और बुरे (अनुचित) में भेद करने की समझ पैदा करने में मदद करें और उनके लिए क्या ठीक है यह उन्हें तय करने दें. इस तरह ये बच्चे धीरे-धीरे मानने लगते है की जीवन एक संघर्ष है और जिस दिन अपने पैरों पर खड़े होते है तो अपनी सफलता के मायने बाहरी दुनिया से उधार ले लेते है. ऐसे में इनकी हालत बिलकुल ताँगे के उस घोड़े-सी हो जाती है जिसे हमेशा ही कोई और हांक रहा होता है.

जब शुरू से जीवन - पर्यंत (आज तक) हम ' क्या करें ' और हम ' क्या हों ' यह कोई और व्यक्ति या परिस्थिति तय करते है तो हमारे मन में असहाय होने की धारणा ( Helplessness ) घर करने लगती है. इस धारणा के साथ जीते - जीते बेचारगी की, दूसरों की सहानुभूति पर जीने की और भाग्य व परिस्थितियों को दोष देकर पल्ला झाड़कर हर क्षण अपने आपको सही सिद्ध करने की कोशिश करते रहने की आदत सी पड जाती है.यह वैसे ही है जैसे एक चिड़िया हिरन के कहे अनुसार तेज दौड़ने को अपना जीवन - ध्येय बना ले.

जिस तरह एक चिड़िया में उड़ पाना होता है वसे ही हममें वो सब कुछ है जो हमारे हो पाने के लिए जरुरी है. जो हमारे काम - हमारी सफलता के लिए जरुरी है बस इतनी भर जरुरत है की हम हमारे स्वाभाव को पहचाने एवमं अंतर्मन की आवाज़ को सुनें. हम बिलकुल ठीक है, हमें अपने आपको बदलना नहीं विस्तार देना है. यदि हम जीवन को सच्ची अभिव्यक्ति देते है तो बदले में जीवन से सच्चा आनंद और संतुस्ठी निश्चित मिलेगी.

आइए इस वर्ष हम अपने से एक वादा करें की हम अपने जीवन की डोर अपने अंतर्मन के हाथों सौंप अपना और अपनों का जीवन खुशहाल बनाने की कोशिश करेंगे.
नए वर्ष पर दिल से इन्हीं शुभकामनाओं के साथ;

आपका,
राहुल......

Saturday 24 December 2011

Just Keep On

 लगे रहो......भाई




इस विषय पर बात करते हुए मुझे याद आते है मेल फिशर जिन्हें कंही से मालूम चला था कि कई सालों पहले खजाने से लदा स्पेनिश जहाज फ्लोरिडा के छोटे-छोटे द्वीपों के पास डूब गया था. उन्होंने अपने स्तर पर खोज-बीन की और जैसे-जैसे वे पता करते गए उनका विश्वास पक्का होता गया और तब उन्होंने उस जहाज को ढूँढना अपना लक्ष्य बना लिया और जुट गए. उन्होंने इस काम के लिए अपनी अरबो रुपये की जमा-पूंजी और हजारों कर्मचारी लगा दिए. मेल फिशर ने अपने गोताखोरों और कर्मचारियों की टी-शर्ट पर लिखवा रखा था 'Today's the day'. उन्होंने चौदह साल तक हर दिन 'आज ही वो दिन है' समझ कर उस जहाज को ढूंढा और आखिर एक दिन वो दिन आ ही गया और उन्हें जो मिला वो उन चौदह साल की मेहनत की तुलना में कंही ज्यादा था.

यदि मन को पक्का विश्वास हो, लक्ष्य स्पष्ट हो एवम हम कृतसंकल्प हो तो असफल होने की गुंजाईश ही नहीं बचती.

सामान्यतया जब हम कोई काम शुरू करते है तो बहुत उत्साहित होते है क्योंकि हमने उसे अपनी पसंदगी और परिणामों के आधार पर चुना होता है जो निश्चित रूप से बहुत ही लुभावने और सुनहरे होते है लेकिन जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते है उस काम के लिए आवश्यक मेहनत, अनुशासन और लगन के कारण अपने उत्साह को, अपने जज्बे को कायम नहीं रख पाते. खजाना पाना है तो मेल फिशर की तरह ऐसे जुटना होगा जैसे आज ही वो दिन है.

किसी काम में सच्चे दिल से जुट जाना ही हमारी निष्ठां है और हमारी निष्ठां स्वतः ही प्रकृति की उन शक्तियों को अपनी और आकर्षित कर लेती है जो लक्ष्य प्राप्ति के लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण करती है.

संस्कारवश हम हर काम को एक उम्र-विशेष से बाँध लेते है. यह सही है कि जीवन के अधिकतर काम एक उम्र-विशेष में ही करने में आते है लेकिन यह सिर्फ हमारी सुविधा के लिए एक व्यवस्था है. कोई भी काम उम्र के किसी दौर में किया जाए इसका न तो उसकी उचितता से लेना-देना है और न ही सफलता से. जिस प्रकार नाश्ते, सुबह के खाने और रात के खाने का एक लगभग समय होता है क्योंकि सामान्यतया उस समय हर व्यक्ति को भूख लगती है लेकिन खाने कि पहली शर्त भूख है न कि खाने का समय.

मन में पक्का विश्वास और दृढ निश्चय हो तो न समय से कोई फर्क पड़ता है न लक्ष्य कि उंचाई से; खजाना मिलता ही है. फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' का शीर्षक कितना सार्थक है; यदि लगे रहो तो गाँधी जी भी दिखने लग जाते है.

इसी विश्वास के साथ कि हमें अपना-अपना खजाना मिलें.

आपका,
राहुल....

Saturday 17 December 2011

Go Wholeheartedly




जीवन की कोई राह ऐसी नहीं होती जिसमें मुश्किलें नहीं होती फिर भी मंजिल को पाने के लिए किसी एक राह पर तो निकलना ही होता है. हम इस जीवन में क्या करना चाहते है यह बहुत जरुरी है जीवन की राह को चुनने के लिए लेकिन हम जो कुछ भी करना चाहते है उसकी सफलता के लिए इतना भर काफी नहीं है. हमें अपनी पसंद से, अपने आप से वचनबद्ध होना होगा. हमारी वचनबद्धता ही हमें रास्ते की मुश्किलों का सामना करने की शक्ति देगी.

जब भी हम किसी काम को पसंद तो करते है लेकिन उससे वचनबद्ध नहीं होते तो जैसे ही मुश्किलें आने लगती है हम अपने चुनाव पर ही संदेह करने लगते है. हम रास्ते की रूकावटो को अपनी सुविधा के लिए अपनी असफलता मानने लगते है और फिर या तो आधे-अधूरे मन से आगे बढ़ते है या रास्ता ही बदल लेते है और इन सब का दोष भाग्य या परिस्थितियों पर मढ़ देते है.

वास्तव में ये मुश्किलें हमें जीवन के वो पाठ पढ़ाने आती है जिन्हें सीखे बिना जीवन में वो नहीं पाया जा सकता जो हम चाहते है. यदि किसी काम के परिणाम वैसे नहीं आते जैसे हमने सोचे थे और ऐसा एक या दो से ज्यादा बार होता है तो हमें अपनी वचनबद्धता को टटोलना चाहिए, अपने इरादों की गंभीरता को जांचना चाहिए; हो सकता है कुछ कमी राह गयी हो. कमी याने हमारे काम की आर्कित्रकचरल ड्राइंग उतनी स्पष्ट नहीं हो जितनी सफलता की इमारत के लिए जरुरी हो.
परिणामों के आधार पर अपनी वचनबद्धता को जांचने में हमें यह ख़ास तौर पर ध्यान देना होगा की कंही अहम् बीच में न आ जाए. परिणामों को स्वीकार करना अहम् को कभी मंजूर नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा करने से तो उसका वजूद ही खतरे में पड जाएगा इसलिए हमारा अहम् मनचाहे परिणामों के नहीं मिलने का दोष भाग्य और परिस्थितियों पर मढ़ने के लिए भांति-भांति के तर्क देने लगता है और हम कभी सही कारणों को जान ही नहीं पाते.

इस सारी बात का कतई यह मतलब नहीं है की यदि हमने कोई निर्णय क्षणिक भावावेश में ले लिया था या वह हमारा स्व-भाव नहीं है या समय, काल और परिस्थितियों के कारण अप्रासंगिक हो चुका है तो भी 'प्रतिज्ञा' के नाम पर उसे ढ़ोते रहें और जीवन भर इस अफ़सोस के साथ जियें की मैंने ऐसा किया ही क्यूँ?
ऐसी स्थिति में हमें पूरा-पूरा अधिकार है की हम अपनी राह बदल लें. ऐसा कर हम न केवल अपनी निजता का सम्मान कर रहे होंगे वरन उन लोगों के जीवन को भी सुन्दर और बेहतर राहों की तरफ प्रेरित कर रहे होंगे जो हमारे निर्णय से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित है और इसलिए एक क्षण के लिए भी अपने मन में ग्लानि या अपराध-बोध को जगह देने की जरुरत नहीं है.

हमारी पहली वचनबद्धता अपने आप से है फिर किसी और से, यदि हम अपने आप से वचनबद्ध नहीं हो सकते तो कभी किसी और से भी नहीं हो सकते. किसी ने ठीक ही कहा है.  'You cannot have a half hearted intentions and a whole hearted results.' 
 
हम जो भो करें पूरे दिल से करें, बढ़ते जाएँ, मंजिल हमारा इन्तजार कर रही होगी.
इन्हीं शुभकामनाओं के साथ, 
आपका,
राहुल......





Saturday 10 December 2011

Come Out




हम प्रतिदिन अपने जीवन को और अच्छा एवं बेहतर बनाने की कोशिश में लगे है और इसके लिए भविष्य में आ सकने वाली तकलीफों - मुश्किलों का पहले से ही इंतजाम कर लेना चाहते है. इन तकलीफों और मुश्किलों का आकलन हम अपने भूतकाल,परिवेश,प्रचलित धारणाओं और हमारे प्रियजनों के भूतकाल के आधार पर कर लेते है. यह भी सच है की हर व्यक्ति के जीवन में कुछ न कुछ जरुर अप्रिय घटता है ; इसी का नाम माया है लेकिन इस चक्कर में किसी के भी साथ में जो कुछ अप्रिय घटित हो चूका है उन सब से अपने आपको सुरक्षित करने की कोशिश में जुट हम अपने जीवन को बेहतर बनने की बजाय और तनावमय एवं डरा हुआ बना लेते है.

डा. वेन डब्लू डायर ने FEAR को बिलकुल ठीक विस्तारित किया है. False Evidences Appearing Real.

हम भूतकाल में हो चुके को भविष्य में हो सकने वाली धटनाओं का प्रमाण मान लेते है और अपना वर्तमान खराब कर लेते है. वास्तव में डर भूत या भविष्य में रहता है वर्तमान में इसका कोई स्थान नहीं होता.

इस पूरी आप - धापी में हम यह भूल जाते है की हम ईश्वर की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है और हमारी असीमित संभावनाओं को अहम् सुरक्षा के नाम पर सीमित कर देता है.
सर्कस में हाथी को इसी तरह ट्रेन किया जाता है. बचपन से ही उसके पिछले पैर को रस्सी से बाँध देते है और इसीलिए वो एक घेरे में ही घूम पाता है. कुछ सालों बाद जब उसकी रस्सी खोल दी जाती है तब भी वह अपने घेरे से नहीं निकल पाता. डर वास्तव में हमारे दिमाग की उपज है इसका हकीकत से कोई लेना देना नहीं.

जाने - अनजाने हम सब अपने लिए कोई न कोई घेरा बना ही लेते है और अपनी ही बनाई धारणाओं में कैद होकर रह जाते है. जीवन का आनंद लेने के लिए हमें सुरक्षा घेरे को तोड़ इस क्षण को सम्पूर्णता के साथ जीने की कोशिश करनी चाहिए. हमारी सच्ची अभिव्यक्ति दिल की आवाज़ पर चलने में है और ये अनजानी राहें घेरे के बाहर है.

कुछ नया करने से पहले हमारे मन में घबराहट या उद्विग्नता (Nervousness) का उपजना लाजमी है. यदि किसी काम को करने से पहले हमारे मन में हल्की सी घबराहट, थोड़ी सी उद्विग्नता भी नहीं है इसका साफ़ मतलब है की ये वो काम नहीं है जो हमें करने चाहिए. ये भावनाएं संकेत है इस बात का की जीवन में इस बार हम यही सब कुछ सीखने आये है.

पहले डर कर और फिर सुरक्षा के नाम पर स्वयं को कैद करने की बजाय लाख गुना बेहतर है जीवन-धारा के साथ बहें और आहत हो जाने के लिए तैयार रहें. रास्ते की ठोकरों से बचने के लिए चलना बंद कर देना कितना बेवकूफी भरा होगा.

भूतों को भविष्य के लिए छोड़ दे और वर्तमान में रहें; दिल की सुने और दिल से जियें.

आपका,
राहुल.... 

 

Friday 2 December 2011

Try Even Better

 
 
 
जीवन में एक जगह खड़ा ही नहीं रहा जा सकता; या तो आप आगे कि और बढ़ रहे है वरना आप नीचे कि और फिसलने लगेंगे. यह ढलान कि चढ़ाई है.
सेना जब दुश्मन पर चढाई करती है तो जिन पुलों को पार करती जाती है उन्हें जलाती जाती है. वे पीछे जाने का कोई अवसर ही नहीं छोड़ना चाहते. उनके जेहन में सिर्फ एक बात होती है या तो दुश्मन के घर पर कब्ज़ा कर लेंगे या मर मिटेंगे.

जब हम पीछे जा ही नहीं सकते, एक जगह खड़े हो ही नहीं सकते तो बेहतर है कि आगे बढे.
इस जगह यह बात समझने कि जरुरत पैदा होती है कि हम अपनी जीवन-यात्रा में कई मोड़ों पर ठहर ही जाना क्यूँ चाहते है? क्यूँ हमारे मन में आगे बढ़ने का उत्साह कम होने लगता है?

मैंने कई लोगों को यह कहते सुना है कि जीवन एक संघर्ष है. में जिन्दगी से लड़ते-लड़ते थक गया हूँ. मुझसे अब और नहीं होता. खूब कर लिया. मैं और कर ही क्या सकता हूँ?

जीवन सकारात्मक ऊर्जा का मूर्त रूप है संघर्ष शब्द ही नकारात्मक है. आप संघर्ष कर रहे है मतलब किसी न किसी के विरुद्ध है. जीना शब्द अपने साथ ' आनंद ' को लिए है वंही ' लड़ाई ' शब्द अपने साथ ' हार-जीत ' और ' थकान ' को लिए है. हम से अब और इसलिए भी नहीं होता क्योंकि यह लड़ाई के बाद कि थकान होती है.
' मैंने खूब कर लिया ' या ' मैं क्या कर सकता हूँ? ' ये भावनाएं वास्तव में तब घर करने लगती है जब हमें कड़ी मेहनत और बार-बार के प्रयासों के बावजूद मनचाहे परिणाम नहीं मिलते. ऐसे समय हमें यह देखने कि जरुरत है कि क्या हमने प्रयासों में बदलाव किया. यदि हम किसी काम को एक ही तरीके से बार-बार करेंगे तो हम हर बार वो ही परिणाम पायेंगे. हमें परिणामों में बदलाव के लिए प्रयासों में बदलाव लाना होगा.

प्रयासों में बदलाव के लिए हमें ठिठकना भी होगा. यह छोटा सा अंतराल हमारी आगे कि यात्रा के लिए जरुरी भी है जब हम यह सोच सकें कि हमें प्रयासों में बदलाव क्या और कैसे लाने है. यह पड़ाव आगे कि यात्रा के लिए अपने आपको तैयार और तरोताजा करने के लिए है न कि हार मानकर बैठ जाने के लिए. हमें ठिठकना है ठहरना नहीं.

मुझे याद आता है बचपन में पापा शाबासी देने के साथ यह कहा करते थे बेटा! अगली बार और बेहतर करने कि कोशिश करना. उस समय यह बात खुद की सफलता को कमतर करने सी लगती थी लेकिन आज समझ आता है की सफलता की निरंतरता के लिए ' और बेहतर करने ' की भावना कितनी जरुरी है. सच तो यह है की हम यदि इस क्षण को ' और बेहतर ' जीने की कोशिश करेंगे तो हम जीवन के हर क्षण का पूरा-पूरा आनंद तो उठा ही रहे होंगे साथ ही जीवन में स्वतः ही आगे की ओर भी बढ़ रहे होंगे जहाँ थकान और ठहराव का कोई स्थान नहीं होगा.

हमारा जीवन और बेहतर बने दिल से इन्ही शुभकामनाओं के साथ;
आपका
राहुल....
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Friday 25 November 2011

Live by Ethics not by Rules





गांधीजी ने नमक कानून तोडा, मार्टिन लूथर किंग  (जू) ने रंगभेद नीती के कानून तोड़े, राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा का विरोध किया, दलाई लामा चीन की तिब्बत पर प्रभुसत्ता स्वीकार नहीं करते और आन सां सू की बर्मा की सरकार को सरकार ही नहीं मानती तो क्या ये सारे लोग ईमानदार, निष्ठावान और सद्चरित्र नहीं है?  सच तो यह है की इन लोगो ने नियमों की बजाय नैतिक मूल्यों पर अपना जीवन जीया और उदाहरण बन गए.

सच तो यह है की नियम-कानून बनाए ही इसलिए जाने चाहिए जिससे देश- समाज में नैतिक मूल्यों की रक्षा की जा सके बिलकुल उसी तरह जिस तरह परिवार में माता-पिता अपने बच्चों में अच्छे संस्कार के लिए घर में अनुशासन का वातावरण बनाते है.
वास्तव में व्यक्ति और सभ्यता के विकास के साथ- साथ नियम प्रथाएं भी अप्रासंगिक होने लगती है जिन्हें देश-समाज की बेहतरी के लिए बदल दिया जाना नितांत जरुरी हो जाता है. उदाहरण के तौर पर आपको याद दिला दूँ कि कुछ सालों पहले तक अमेरिका में गुलामों को रखना वैधानिक था और आज़ादी के बाद भी वहां महिलाओं को मतदान का अधिकार नहीं था.

लेकिन व्यावहारिक जिन्दगी में सामान्य व्यक्ति क्या करें?
 न तो उसके लिए देश के कानून और समाज कि प्रथाओं को बदल सकना संभव है और न ही वो जीवन-भर किसी आन्दोलन का इंतज़ार कर सकता है.

उसे तो बस यह निश्चय भर करना है कि वो अपना जीवन नैतिक मूल्यों के आधार पर जीयेगा वैसे तो ऐसा करते हुए वह स्वतः ही नियमों कि पालना कर रहा होगा लेकिन फिर भी यदि कोई नियम उससे नैतिक मूल्यों कि अवहेलना करवाता है तो यह उसका नैतिक अधिकार है कि वह उन नियम प्रथाओं को न मानें. ऐसा करते हुए वह एक क्षण के लिए भी अपने मन में ग्लानि भाव न रखे क्योंकि वह तो ईमानदारी और सद्चरित्रता के ऊँचे मापदंडों को छू रहा होगा.

उसे इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना होगा कि वह अपनी मान्यताओं का अनावश्यक प्रचार न करें. ऐसा करने पर सामयिक व्यवस्था उसे दोषी ठहरा देगी एवं वह सजा या भर्त्सना पाकर अपने और अपने परिवार के लिए मुसीबतें खड़ी कर देगा. वह तो अपने आपको जितना हो सके उस परिद्रश्य से परे हटा लें और यदि एक हद से ज्यादा यह संभव नहीं है तो उचित सामंजस्य बिठा लें. सिर्फ सामंजस्य,समझौता नहीं. वहां भी वह अपनी निजता व मूल्यों कि रक्षा करें. यदि वह ऐसा करता है तो प्रकृति अपने आप उसको ऐसे अवसर देगी जिससे वह अपने जीवन के परिद्रश्य को बदल सके; जहाँ उसके लिए नैतिक मूल्यों पर चलना न केवल आसान हो बल्कि जहाँ इसके लिए उसे उचित प्रशंसा और पुरस्कार मिले.

आइए हम सब मिलकर मूल्यों पर आधारित समाज कि रचना में अपना हाथ बटाएँ;
आपका,
राहुल.....

Friday 18 November 2011

Re - Create Yourself

                                                                      हरदम , जब कभी ; बस निकल लें,
                                                                      थोडा  - सा  आराम करें
                                                                      और तब
                                                                      जब आप लौटेंगे काम पर
                                                                      आपके निर्णय होंगे ज्यादा पक्के
                                                                      बिना विश्राम कैसे रहेगा
                                                                      आपके निर्णयों में पैनापन

                                                                      थोडा दूर निकल जाएँ
                                                                      काम दिखेगा छोटा-सा
                                                                      और उससे भी ज्यादा
                                                                      दिखेगा पूरा का पूरा
                                                                      और तब
                                                                      चल जाएगा तुरंत मालूम
                                                                      कहाँ अनुपात गड़बड़ा रहा है
                                                                      कहाँ  लय टूट रही है
                                                                                                    -लेओनार्दो  दी विन्ची

                                                                                                                                       लेओनार्दो दी विन्ची; महानतम चित्रकार, पुनर्जागरण के प्रणेताओं में से एक और सबसे अहम् इतिहासकारों द्वारा ठहराए गए आज तक के सबसे बड़े जिज्ञासु.
ऐसे व्यक्ति जिनकी खोजबीन से जिन्दगी का कोई कोना छूटा हो ऐसा नहीं लगता. जिन्होने पहली विमान-उड़ान के 400 वर्ष पहले इसकी संभावनाओं को तलाशा. उनके जीवन को देखकर तो ऐसा लगता है की कोई व्यक्ति एक ही जीवन में इतना कुछ कैसे कर सकता है.
जब ऐसा व्यक्ति हमें रुकने की, सुस्ताने की सलाह देता है तो निश्चित रूप से इसका महत्व तो है.

वे हमें इस सुंदर कविता के द्वारा यह कहना चाहते है की रोजमर्रा की जिन्दगी जीते जीते हमारी रचनात्मकता क्षीण होने लगती है. हम अपने काम को करते-करते काम में कम और समय सीमाओं में ज्यादा उलझ कर रह जाते है. कितने बजे उठना है, कितने बजे काम पर जाना है, कितने बजे खाना खाना है और कितने बजे सोना है, इत्यादि.

वहीँ रचनात्मकता तो मन की उपज होती है और मन को समय की समझ नहीं होती. हम मन के क्रिया- कलापों को घडी से बाँधने लगते है. यह भी ठीक है कि समय में उलझ जाना सामान्यतया हमारी मज़बूरी होती है क्योंकि हमारा दिन एक के बाद एक दायित्वों से बंधा होता है. समय कि इन सीमाओं को निबाहते निबाहते हम अनजाने ही यह भूलने लगते है कि किसी काम को करने या न करने का चुनाव हमारा नैसर्गिक अधिकार है और हमारी अभिव्यक्ति का मूल. अवकाश हमारे मन को समय के बंधनों से मुक्त कर हमारे निर्णयों को पक्का करता है और हमारी रचनात्मकता लौटता  है.

एक और पहलू जो हमारी रचनात्मकता को धुंधली करने लगता है वह है सांसारिक नकारात्मकता. हमारा काम कभी एक पक्षीय नहीं होता और जिन्हें ये प्रभावित करता है वे हमें नियंत्रित करने कि कोशिश करने लगते है. ऐसा हम भी करते है और वे भी. हम सभी यह कोशिश करने करने लगते है है कि हर व्यक्ति अपना काम हमारे तरीके से करें. यह रस्साकशी अहम् के हाथों में चली जाती है और हमारा काम जो प्रेम कि अभिव्यक्ति होना चाहिए अहम् कि लड़ाई का मैदान हो जाता है. इस सारी उठापटक में हमारा मन खंडित होने लगता है. मन कि दीवारों पर तरेड़ें (cracks) आने लगती हैं.

अवकाश मन कि मरम्मत करने का समय होता है. उसे ताज़ा और सुंदर बनाने के लिए होता है. अंग्रेजी का शब्द (Re - create) बिलकुल सार्थक है. अवकाश मन को पुनः सर्जित करता है. इस समय हम अपने काम को निर्र्विकारभाव के साथ समग्रता से देख पाते है और तब ही जान पाते है कि काम के किस भाग को हम जरुरत से अधिक या कम महत्व दे रहे है और कहाँ हमारे जीवन कि लयात्मकता (Rhythm) टूट रही है.

हमारा काम हमारा परिचय बनें, इन्ही शुभकामनाओं के साथ;
आपका
राहुल.....

Monday 31 October 2011

Deepawali

दीपावली पर दिल से ढेरों शुभकामनायें.

दीपावली यानि दीपों कि अवली यानि दीपों कि पंक्ति. दीपावली अमावास के दिन आती है. अमावास जो अन्धकार का प्रतीक है. अन्धकार जिसका नाम आते ही डर और निराशा ध्यान आते है लेकिन दीपों कि रोशनी इस अमावास को ऐसा बना देती है कि पूर्णिमा भी लजा जाए.

दीपावली का यह पावन त्यौहार रूपक है हमें वापस याद दिलाने के लिए कि हमें अपने मन के अन्धकार को मिटाने  के लिए भी जागृति (Awareness) का दीपक लगाना होगा. अन्धकार चाहे कितना ही घना क्यूँ न हो,कितना ही फैला क्यूँ न हो बस रोशनी कि एक किरण ही काफी होती है.

और फिर जीवन - पथ  के हर पायदान पर हम जागृति का दीपक लगाते जाएँ हमारा हर दिन खुशियों की रोशनी से भर जाएगा.
यही ईश्वर से मेरी प्रार्थना है.

उत्सव मनाने के लिए अवकाश चाहिए, मुझे भी अगले सप्ताहांत की अनुमति दे. चलिए, फिर हम अपने क्रम को इसी विषय से पुनः शुरू करेंगे की जीवन में  अवकाश क्यों और कितना जरुरी है.

आपका
राहुल.....

Monday 24 October 2011

We Are Enough


मैंने पिछले कुछ दोनों से अपनी ही एक ऐसी आदत को पकड़ा है जो मुझे ही बहुत परेशान किए रखती है. मैंने पाया कि में कुछ भी करता हूँ तो दिमाग के एक कोने से आवाज़ आती है कुछ कमी रह गयी, थोडा और कर लेते या ऐसे नहीं वैसे कर लेते तो ठीक रहता.

मैंने महसूस किया कि मेरी यह आदत मुझे कभी अपने किए का आनंद उठाने नहीं देती थी. मैंने जब यह बात अपने दोस्तों से साझा कि तो अधिकतर का यह मत था कि ऐसा ही होना चाहिए क्योंकि मन कि असंतुष्टि हमें  आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा देती है. ये हुई दुविधा. क्या आगे बढ़ने के लिए असंतुष्ट बने रहना ज़रूरी है?  क्या स्वयं को कमतर महसूस कर हम अपने व्यक्तित्व को सुंदर बना सकते है?

मेरे मन में सवालों कि यह रेलगाड़ी चली तो मैंने अपने काम - व्यवहार को समग्रता से देखने कि कोशिश की और तब पाया कि ऐसे बहुत से लोग है जो मुझे पसंद करते है मैंने इन लोगो कि सूची बनाई तो पाया कि मेरे दृष्टिकोण को नकारने वालों कि संख्या तो दो- चार ही है जबकि सराहने वालों कि कहीं अधिक. इस बात ने मेरे अंतस को शांति से भर दिया.

वास्तव में हम अपना मूल्यांकन दूसरों के तय किए मापदंडो पर करते है लेकिन यह भूल जाते है कि हमारे जीने का अंदाज़ अलग होना स्वाभाविक है. शायद ईश्वर ने हम सभी  को अलग - अलग चेहरे यही बात याद दिलाने के लिए दिए है.

कुछ हद तक हमारी पारंपरिक परवरिश भी इसके लिए जिम्मेदार है. सामान्यतया हम सब ही अपने बच्चों को यह तो बताते है कि क्या गलत है और क्या सही लेकिन कभी उनके मन में क्यों का जवाब नहीं देते. यह भी  तब जब बच्चे कुछ कर चुके होते है. यही से नींव पड़ती  है इस आदत की कि हमारे काम का मूल्यांकन काम करने के बाद कोई और करेगा. इससे अनजाने ही हम किसी काम को करने के बाद संदेह कि निगाह से देखने लगते है कि हमने ठीक किया या नहीं.

धीरे- धीरे हमारा जीवन 'चाहिए शब्द {may, might, could, would, must} चलाने लगता है और इस तरह हम असंतुष्ट रहने लगते है.
जब हम अपनी ज़िन्दगी के निर्णय स्वयं लेने लगते है तब भी अपना मूल्यांकन दूसरो के मापदंडो के आधार पर क्यों करते है? क्यों नहीं अपने मूल स्वभाव पर लौट आते? वो इसलिए क्योंकिं प्रेम हमारी प्रकृति है और इस आदत कि जड़ प्रेम पाने कि लालसा में है, जिनसे हम प्रेम करते है उनकी नज़रों में स्वीकार्य होने कि इच्छा में है. कोई हमें सम्पूर्णता से स्वीकारे इसके लिए सबसे पहले हमें अपनी सम्पूर्णता को स्वीकारना होगा.

हम अपने जैसे ही हो सकते है किसी और के जैसे नहीं इसलिए हम अपने काम को अपने स्वभाव के पैमाने पर मापें.

निस्संदेह हम अपने आलोचकों कि सुने, उन्हें  अपनी कसौटी पर समय, काल और परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य  में कसे  और फिर सही पाए तो ज़रूर अपनाए और अपने इस गुण को भी अपनी सम्पूर्णता का हिस्सा माने.

संतुष्ट जीवन कि मंगल कामनाओ के साथ,

आपका

राहुल ............

Monday 17 October 2011

Violence - Last resort

हमारे देश के स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास ने मुझे शुरू से ही उद्वेलित किया है. हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन कि मुख्य धारा अहिंसात्मक थी जिसका नेतृत्व किया था हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने. स्कूल के शुरूआती सालों में मुझे स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास किसी चमत्कार से कम नहीं लगता था लेकिन फिर जैसे जैसे बालगंगाधर तिलक, सुभाष चन्द्र बोस, लाला लाजपतराय  कि आन्दोलन में भूमिका को पढ़ा जहाँ में उलझन बढ़ती चली गई.

निश्चित रूप से गांधीजी का अहिंसात्मक आन्दोलन और उसके परिणाम किसी चमत्कार से कम नहीं है और किस तरह अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए अहिंसात्मक तरीके से लड़ कर इन्हें हासिल किया जा सकता है इसका जीवंत उदाहरण है गाँधी-दर्शन और हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास.

मेरी उलझन न तो यह हे कि अपनी स्वतंत्रता में किस कि भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण थी या कौन सा रास्ता ज्यादा सही था बल्कि मेरी उलझन तो यह है कि अपनी स्वतंत्रता और जीने के मूल अधिकारों कि रक्षा करने के लिए अहिंसात्मक रास्ते पर चलते-चलते क्या जीवन में कई बार हम उस बिंदु पर नहीं पहुँच जाते जहां हिंसा जिसे युद्ध कहना चाहिए एकमात्र रास्ता बच जाता है ? क्या हमें इस बिंदु पर पहुंचकर भी अहिंसात्मक बने रहना चाहिए चाहें कोई व्यक्ति या व्यवस्था अपने फायदे के लिए हमारी स्वतंत्रता और अधिकारों का हनन करे या हमारे विचारों और सिद्धांतों को हमारी कमजोरी समझे ?

मुझे सुलझन का सिरा मिला शरीर-विज्ञानं में. शरीर कि किसी व्याधि का उपचार मेडिसिन से हो या सर्जरी से इसका निर्णय डॉक्टर इस आधार पर करता है कि शरीर का वो हिस्सा पुनर्जाग्रत होने कि स्थिति में है या नहीं. बस बिलकुल इसी तरह यदि कोई व्यक्ति या व्यवस्था अहिंसा के सारे रास्ते अपनाने के बाद भी हमारी स्वतंत्रता और जीने के मूल अधिकारों पर अतिक्रमण करें या जान बूझकर अपने फायदे के लिए विलम्बित करें तो फिर उसका नष्ट हो जाना ही शुभकर है.

हिंसा के इस रचनात्मक उपयोग में डर सिर्फ इस बात का लगा रहता है कि यह कठोर अनुशासन और ऊँचे दर्जे का विवेक मांगती हैं. किसी भी व्यक्ति या व्यवस्था को नष्ट करना या होने देना तब ही शुभकर हो सकता है जब कि उसका नष्ट हो जाना शेष समाज को बचाने के लिए अंतिम विकल्प हो.

गीता ने इसे धर्मयुद्ध कहा है. धर्मयुद्ध न तो हार-जीत के लिए लड़ा जाता है और न ही किसी व्यक्ति-विशेष के खिलाफ; इसका  उद्देश्य तो उन धारणाओं और व्यवस्थाओं को बदलना होता है जो हमारी स्वतंत्रता और जीने के मूल अधिकारों का हनन कर रही होती है.

यानि किसी व्यक्ति, वस्तु,  स्थिति या विचार को नष्ट न होने देना चाहे  उससे सम्पूर्ण समाज संक्रमित हो जाये कभी उचित नहीं हो सकता. समाज को संक्रमित होने से बचाने के लिए अंतिम विकल्प के रूप में कि गई हिंसा भी अनुचित नहीं हो सकती.

जियो और जीने दो कि इसी भावना के साथ ;
आपका
राहुल.....

Monday 10 October 2011

Ego is essential

दुनिया में कुछ भी अपनी सम्पूर्णता में अच्छा या बुरा नहीं होता. अहम् के बारे में भी मेरा ऐसा ही मानना है. हमारा जीवन हमारे द्वारा किए गए चुनावों का नतीजा होता है. इस क्षण में हम क्या करने का चुनाव करते है यह ही निश्चित करता है कि अगले क्षण के लिए प्रकृति हमें चुनाव के लिए क्या-क्या विकल्प देगी. यही जीवन है.
इस क्षण को हम कैसे जियेंगे इसका निर्णय हमें अंतरात्मा कि आवाज़ पर करना होगा. अंतरात्मा कि आवाज़ जिसे हम मन कि इच्छा, inner calling, intution, दिल कि आवाज़ जैसे नामों से पुकारते है.

एक ही क्षण में, समान परिस्थितियों में एक बच्चा फुटबॉल खेलना चाहता है तो दूसरा कोई पहेली सुलझाना चाहता है. दोनों ही बच्चों के निर्णय न तो सही है न गलत बस अपने-अपने है. दोनों ने ही वो किया जो उनका मन किया और वह ही दोनों के लिए ठीक भी है.
हमारे लिए क्या ठीक है यही स्व को पहचानना है एवं स्व कि पहचान ही तो हमारा अहम् है, यानि अहम् उतना भर जरुरी है जिससे हम इस क्षण को कैसे जियें इसके लिए उपलब्ध विकल्पों को जानकार उनका विश्लेषण कर सकें तब ही तो हम यह तय कर पाएंगे कि इस क्षण को जीने का कौनसा अंदाज़ हमें सच्चे अर्थों में अभिव्यक्त करेगा.

अहम् स्व कि पहचान (self-knowing) है यह अहंकार  (false-self)  में नहीं बदलना चाहिए; जैसा कि सामान्यता हो जाता है और हम अपनी और अपनों कि जिन्दगी खराब कर लेते है. हम परमात्मा कि स्वतंत्र भौतिक अभिव्यक्ति है और यही हमारी पहचान है, न कि हमारी सांसारिक उपलब्धियाँ. अभिव्यक्ति कि इस स्वतंत्रता और निजता को बनाए रखना ही हमारा अहम् है और उतना ही जरुरी भी. अहम् कि भावना जैसे ही बढ़ती है यानि जैसे ही हम अपनी पहचान सांसारिक उपलब्धियों से बनाने लगते है हमारा यही गुण हमारे लिए विनाशकारी हो जाता है.

हम अपनी और अपनों कि निजता का सम्मान करें और जिन्दगी के हर क्षण को अपनी सुगंध से भर पायें ; दिल से इन्ही शुभकामनाओं के साथ,

आपका
राहुल.....

Sunday 2 October 2011

Let us be touched by life

जिन्दगी का अर्थ ही अनुभूति और अभिव्यक्ति है या यों कह लें जिन्दगी के हर लम्हे को महसूस करना और उसे अपने अंदाज़ में जीना; तब भी जब समय हमारी इच्छाओं के अनुरूप हो और तब भी जब समय विपरीत हो. दुनिया में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जिसके जीवन में ऐसा समय न आया हो जब उसने सोचा न हो कि 'अब क्या होगा?' ' अब कैसे होगा?' जब उसे लगा हो कि जीवन ठहर सा गया है. जब उसे जीवन के उस पार दिखाई ही न दे.

जिन्दगी में कुछ  दुःख ऐसे होते हैं जिन पर हमारा कोई बस नहीं चलता और कुछ मुश्किलें ऐसी होती है जो हमें उन पहलुओं कि तरफ इशारा कर रही होती हैं जिन्हें हम  जाने-अनजाने अनदेखा कर रहे होते है. चाहे जो भी हो मुश्किलों से गुजरकर ही और दुःख में भीगकर ही जीवन के उस पार जाया जा सकता है. हर दुःख और हर मुश्किल हमें वो पाठ  पढ़ाने को आती है जिन्हें सिखाने के लिए हमने जिंदगी कि इस पाठशाला में प्रवेश लिया है.



मेरे जीवन  कि दूसरी बड़ी दुखद घटना जब अचानक से मम्मी चल बसी. रात के ११ बजे  का समय था. सब रिश्तेदार इकठ्ठा हो रहे थे लेकिन में सकपकाया था;कुछ भी समझ नहीं पा रहा था कि क्या हुआ. दो-तीन घंटे  लगे मुझे  स्थिति को स्वीकार करने में और तब मेरी रुलाई फूटने लगी. मैं उन क्षणों को उनकी गहराई से महसूस करने लगा और मेरा मन रोकर उनको व्यक्त कर देना चाहता था लेकिन जैसे ही मैं रोने को होता मेरे एक रिश्तेदार 'हिम्मत रखो' , 'आपको ही संभालना है.' कहकर चुप करा देते. आज भी व क्षण कुछ ठहरे से लगते है. आज भी लगता है कि दिल के किसी कोने में  कुछ  अव्यक्त सा पड़ा है.

दुःख और मुश्किलों से हम जितना भागते है उतना ही वे हमारा पीछा करती है और जैसे ही हम उनका सामना करते है वे हमें जीना  सिखाने लगती है. जितनी नाजुक ये संवेदनाएं है उतनी ही सावधानी इन्हें सँभालने में बरतनी पड़ेगी. हमें हर हाल में सचेत रहना है कि हम न तो अपने दुःख और मुश्किलों का कारण किसी व्यक्ति-परिस्थिति में ढूंढें  और न ही इससे अपनी कोई छवि ही  गढ़ लें. हमारा अहम् हमें इस दौरान बार-बार इस रास्ते पर ले जाने कि कोशिश करेगा लेकिन हमें अपने आपको रोकना होगा. अनुभूति की गहराई  और अभिव्यक्ति कि सच्चाई ही जीवन को सार्थक बनाएगी.

जीने कि कला संवेदनाओं से पीछा छुड़ाने में नहीं है अपितु अपने हर पहलु का जिन्दगी के साथ तारतम्य बिठा कर अपनी विशिष्टता पर आनंदित होने में है.
हम इस जीवन को इसकी सम्पूर्णता के साथ जी पायें; इन्ही शुभकामनाओं के साथ.

आपका
राहुल.....

Saturday 24 September 2011

A THIN LINE

हमारे संस्कार और हमारा परिवेश हमें अच्छा बनने कि बराबर याद दिलाते हैं लेकिन हम अच्छे होने कि कोशिश को भूल अच्छे लगने कि कोशिश में जुट जाते हैं. हमारा जीवन मूल्यों पर आधारित न होकर दूसरों कि इच्छाओं और अपेक्षाओं पर निर्भर हो जाता है.
हम में से सभी को थोड़ी या ज्यादा;सबको  यह शिकायत रहती है कि लोग हमारे अच्छे व्यवहार का गलत इस्तेमाल करते है, हमारा फायदा उठाते हैं. ये हमारे जीवन के वो ही महत्वपूर्ण लोग होते है जिन्हें हम अनजाने ही अच्छे होने के प्रमाण-पत्र देने का अधिकार दे बैठते है.

हमारे व्यक्तित्व का यह गुण होना ही चाहिए कि हम किसी व्यक्ति के बारें में राय न बनाएं एवं व्यक्ति और घटनाओं को अलग-अलग करके देखें. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम अच्छे और बुरे में भेद ही न करें. घटनाओं के पीछे व्यक्ति कि मंशा उसके चरित्र को परिलक्षित करती है और हमारा यह ही गुण जीवन में हमारी रक्षा करता है.

हमारा समाज असहमति को आक्रामकता मानता है और खुद कि इच्छाओं के सम्मान करने को अहंकार. हमारा अहम् हमारी पहचान न बने लेकिन उतना भी अतिआवश्यक है जिससे हम अपनी जानकारियों  का विश्लेषण कर सकें. हम ' धारणा '  (Judgement) न बनायें लेकिन ' सही देखे समझें ' (Right seeing). यह हमारे  आध्यात्मिक विकास का हिस्सा भी है और हमारा जीवन धर्म भी.
हम सब अपने-अपने जीवन कि डोर स्वयं संभालें. इन्हीं शुभकामनाओं के साथ अपनी बात यहीं समाप्त करता हूँ; अगले सप्ताहांत किसी और विषय पर चर्चा करेंगे.

आपका
राहुल.....

Saturday 17 September 2011

Looking Tokyo, going London.

हम क्षण भर ठहर कर अपने चारों ओर बिखरी खुबसूरत प्रकृति पर नज़र डालें तो एक गुण जो प्रकृति के हर घटक में स्पष्ट नज़र आएगा वो है संतुलन. सूर्य पूर्व में उदय  होने के लिए पश्चिम में अस्त होता है, अमावस से पूर्णिमा तक पहुँचने चाँद लयात्मक कलाएं करता है और पतझड़ वसंत के लिए होता है.
फिर ये हमारी जिन्दगी में भेंगापन क्यूँ ? क्यूँ हम देखते कुछ और है और हमारी नज़रें कंही और है ? हम जाना दिल्ली चाहते है ट्रेन बम्बई कि पकड़ते है.
 
हर व्यक्ति के मन में एक तड़प होती है कि वो अपने जीवन को कैसे गुजरेगा. मन को पता होता है कि उसके लिए क्या सही है और क्या गलत पर मन के पास तर्क नहीं होते और ये तड़प दुनिया के सफलता के मानदंडो में कहीं दब कर रह जाती है.
हम अपनी रोजमर्रा कि जिन्दगी पर नज़र डालें तो पाएंगे कि हमारे दैनिक कामों और जैसी जिन्दगी हम जीना चाहते है के बीच कोई संतुलन नहीं है. दिन - दिन मिलकर ही तो जीवन बनता है. हमारे दैनिक काम ऐसे होने चाहिए जो हमें उस जीवन कि ओर ले जाएँ. 
जीवन में इस संतुलन के लिए हमें स्वयं को अपने ही मूल  गुणधर्म को वापस याद दिलाना होगा और वह है 'हम जैसा सोचते है वैसा पाते है, चाहे हम चाहें या न चाहें'.
 
हमारे विचार उर्जा-पुंज होते है और वे समान तरंगीय क्षमताओं कि उर्जा को ही अपनी ओर आकर्षित करते है इसलिए हमें अपनी वैचारिक शक्ति को हमारे सपनो से एकरूप करना होगा. हम अपना ध्यान जैसा जीवन चाहते है उस पर केन्द्रित करें न कि रास्ते में आने वाली मुश्किलों पर. हमारी मानसिक द्रढ़ता मुश्किलों का हल स्वतः ढूंढ़ लेगी.
हमे रोज पग-पग अपने इच्छित जीवन कि ओर बढ़ना होगा. रोजमर्रा में क्या करें और क्या न करें इसके निर्णय का आधार इसे ही बनाना होगा.
हमारे जीने का अंदाज ही हमारा परिचय हो.
 
आपकी अद्वितीयता को अभिवादन के साथ.
 
आपका
राहुल...... 
 
      

Sunday 11 September 2011

Permanent address

अमर होने कि   इच्छा बहुत आदिम है. हर व्यक्ति अपने जीवन में ऐसा कुछ कर गुजरना चाहता है कि वो हमेसा ही याद रखा जाए. पद, ज्ञान, पैसा, उद्देश्यपूर्ण दान और कई दूसरे ऐसे रास्ते है जिन्हें वह अपने होने को प्रमाणित और स्थायी  करने के के लिए चुन लेता है.जीवन के संध्याकाळ में उसे यह सारी जुगत भी असफल होती दिखती है और वो इसलिए कि कहीं  व्यक्ति अपने व्यक्त होने के मूल उद्देश्य को ही भूल बैठता है और वह है प्रेम को अनुभव करना. प्रेम कि अभिव्यक्ति और अनुभूति .
 प्रेम यानि विशुद्ध प्रेम; वो शक्ति जो इस सृष्टी   को चलायमान रखे है.
 जो शक्ति इस सृष्टी को चलायमान रखे है, जो आपको और सभी को जीवित रखे है उसी कि निरंतरता ही तो आपको चिर स्थायी जीवन दे सकती है; आपको अमर बना सकती है. प्रेम वह एकमात्र भाव है जो आपको अमर बना सकता है. लोगो के दिल ही वो जगह है   जहाँ आप स्थाई रूप से रह सकते है.
                                      When  you  are  dead,
                                                                    seek  for  your  resting  place
                                      Not  in   the   earth,
                                                                    but   in   the  hearts  of  men.
                                                                                                       -  Rumi   
किसी पर निर्भर रहना प्रेम नहीं है. प्रेममय होना तो वह है कि जब आप किसी से मिले तो ऐसे मुस्कराएँ कि अगले को अंदर तक भीगों दे, जिसके साथ हो तो इस अहसास के साथ कि दुनिया में वह ही व्यक्ति जिसके साथ आप यह क्षण गुजारना चाहते थे, किसी कि बात सुनें तो आपका पूरा ध्यान उस व्यक्ति कि बात और उसकी भावनाओं पर हों. लोगों के दिलों में रहना है तो उनके दिलों तक पहुचना होगा.
 
हम इसकी शुरुआत अपने बच्चों से कर सकते है. बच्चे जो प्रकृति प्रद्दत हमारी निरंतरता के सबूत है. दुनिया में कोई है तो वे हमारे बच्चे ही है जिनसे हम अखंडित प्रेम पा सकते है. जिनके हर काम में हम सुगंध के रूप में हमेशा विद्ध्यमान रह सकते है.
 
बच्चे हमें हमारी मूल प्रकृति जो कि निःसंदेह प्रेम ही है से पुनः पहचान कराने में सहायक होते है. हमारा काम तो इतना भर है कि हम हमारी मूल प्रकृति को पहचानने और फिर उसे विस्तार दें. इस जीवन यात्रा में टकराने वाले हर व्यक्ति को आत्मीयता के अनुभव का साधन बनाएं और इस तरह लोगों के दिलों में अपना स्थायी निवास ढूंढ़ लें; अमर हो जाएँ.
 
आपके विचार मुझे उन्नत करेंगे, प्रतीक्षा में;
 
आपका
राहुल....

Sunday 4 September 2011

Let go, let god.

संवत्सरी के इस पावन पर्व पर दिल से क्षमा-याचना.

क्षमा मन का सुंदरतम भाव है. क्षमा कर पाना एक वरदान है जो हमें हमीं से मिलता है. क्षमा  कर पाने से तात्पर्य है स्वयं या किसी और  को दण्डित करने के भाव से मुक्त होना.

दैनिक जीवन में कहीं हम मान बैठते हैं की क्षमा  करने का मतलब है किसी और के दृष्टिकोण  को स्वीकार कर लेना, अच्छे और बुरे में भेद न करते हुआ समान व्यवहार करना, कोई हमारा महज़ उपयोग कर रहा हो तो सतर्क न होना या अपने मूल्यों से समझौता करना. वास्तव में यह आचरण क्षमाशीलता नहीं कायरता है. क्षमाशील होने का मतलब है अपनी निजता,आत्म सम्मान, और मूल्यों को बचाते हुआ स्वयं को एवं  किसी और को दण्डित करने के भाव से मुक्त होना.

क्षमा करने की शुरुआत स्वयं से करनी होगी. स्वयं को  क्षमा कर पाना किसी और को क्षमा कर पाने से ज्यादा महत्वपूर्ण है. हम अपने जीवन में क्या कर सकते थे? हमें जीवन में क्या करना चाहिए था? हमने जैसा किया वैसा क्यूँ किया? हमने वैसा क्यूँ नहीं किया?  सोचने का यह तरीका हमें हमेशा आत्म-ग्लानि से भरा रखेगा  और  हम अपना भविष्य भी खराब कर लेंगे. इस तरह तो हम कभी अपने जीवन को खुशहाल नहीं बना पायेंगे.

जिस समय हमारे विवेक ने हमें जो कहा वह किया या नहों किया. उस समय के लिए वह ही सही था. आज हम जो भी हैं वो उन  सभी क्षणों में से होकर गुजरने का ही परिणाम है. यदि हम खुद को प्यार नहीं कर सकते. समान नहीं दे सकते तो दूसरों से ऐसी अपेक्षा करना ही व्यर्थ है.

हमें अपने लिए और अपनों के लिए शान्ति बनानी होगी.

इसी आशा और विश्वास के साथ.
मंगलमय कामनाओं के साथ अगले हफ्ते तक के लिए आज्ञा चाहूँगा.

आपका
राहुल......

Sunday 28 August 2011

work is your love made visible

हमारी इस जीत पर आप सभी  को  दिल से बधाई !
आज कोई भी बात अन्ना के बिना शुरु ही नहीं सकती और होनी भी नहीं चाहिये . अब  हम नहीं कहें की इस सिस्टम का  कुछ नहीं हो सकता.


 प्यार आपकी प्रकृति है और आपका काम आपके अंदर मौजूद उस प्रकृति की भौतिक अभिव्यक्ति होना चाहिए . आप कौनसा  काम करें इस का आधार सिर्फ और सिर्फ आपकी ह्रदय की आवाज़ होनी चाहिए. आपके लिए वह  ही काम बना है जिसे करते हुए आपको थकान न हो,समय का भान  न रहे और जिसे करने मात्र से आपको संतुस्ठी मिले.
यदि आप किसी ऐसे काम में है जिसे आप कम पसंद करते है या इसकी अपेक्षा कुछ और करना चाहते है तो भी इसका आधार घ्रणा  नहीं हो सकता. वर्तमान में कर रहे काम से घ्रणा  कर हम भविष्य में कुछ अच्छा नहीं कर सकते.घ्रणा के बीज से प्यार के फल देने वाला पेड़ कभी नहीं  लग सकता. वर्तमान काम को प्यार से , पूरे मन से कीजिये और जो करना चाहते है उसमे रूपांतरण की कोशिश कीजिये. यदि यह आपकी आत्मा की आवाज़ है तो परमात्मा आपके साथ है.
हम परमात्मा की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है. हम अपने आपको परमात्मा के साथ तय किये गए रूप में इस जीवन में अभिव्यक्त होने आयें है  यही हमारा काम है और यह ही हमारा जीवन उद्देश्य.
वह काम जो आपको आत्मिक संतोष देता है वह ही आपकी सच्ची अभिव्यक्ति है और वह ही परमात्मा की एच्छा है .क्या परमात्मा की एच्छा में असफलता का कोई स्थान हो सकता है ?
आने वाला सप्ताह आपके  लिए मंगलमय हो.
आपका
राहुल  ......



Saturday 27 August 2011

shuruaat

हम कल से हर रविवार को किसी  ऐसे विषय पर बात करेंगे जो हमारे जीवन में दुविधा की स्थिती  खड़ी करती है . 

राहुल धारीवाल