Monday 24 October 2011

We Are Enough


मैंने पिछले कुछ दोनों से अपनी ही एक ऐसी आदत को पकड़ा है जो मुझे ही बहुत परेशान किए रखती है. मैंने पाया कि में कुछ भी करता हूँ तो दिमाग के एक कोने से आवाज़ आती है कुछ कमी रह गयी, थोडा और कर लेते या ऐसे नहीं वैसे कर लेते तो ठीक रहता.

मैंने महसूस किया कि मेरी यह आदत मुझे कभी अपने किए का आनंद उठाने नहीं देती थी. मैंने जब यह बात अपने दोस्तों से साझा कि तो अधिकतर का यह मत था कि ऐसा ही होना चाहिए क्योंकि मन कि असंतुष्टि हमें  आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा देती है. ये हुई दुविधा. क्या आगे बढ़ने के लिए असंतुष्ट बने रहना ज़रूरी है?  क्या स्वयं को कमतर महसूस कर हम अपने व्यक्तित्व को सुंदर बना सकते है?

मेरे मन में सवालों कि यह रेलगाड़ी चली तो मैंने अपने काम - व्यवहार को समग्रता से देखने कि कोशिश की और तब पाया कि ऐसे बहुत से लोग है जो मुझे पसंद करते है मैंने इन लोगो कि सूची बनाई तो पाया कि मेरे दृष्टिकोण को नकारने वालों कि संख्या तो दो- चार ही है जबकि सराहने वालों कि कहीं अधिक. इस बात ने मेरे अंतस को शांति से भर दिया.

वास्तव में हम अपना मूल्यांकन दूसरों के तय किए मापदंडो पर करते है लेकिन यह भूल जाते है कि हमारे जीने का अंदाज़ अलग होना स्वाभाविक है. शायद ईश्वर ने हम सभी  को अलग - अलग चेहरे यही बात याद दिलाने के लिए दिए है.

कुछ हद तक हमारी पारंपरिक परवरिश भी इसके लिए जिम्मेदार है. सामान्यतया हम सब ही अपने बच्चों को यह तो बताते है कि क्या गलत है और क्या सही लेकिन कभी उनके मन में क्यों का जवाब नहीं देते. यह भी  तब जब बच्चे कुछ कर चुके होते है. यही से नींव पड़ती  है इस आदत की कि हमारे काम का मूल्यांकन काम करने के बाद कोई और करेगा. इससे अनजाने ही हम किसी काम को करने के बाद संदेह कि निगाह से देखने लगते है कि हमने ठीक किया या नहीं.

धीरे- धीरे हमारा जीवन 'चाहिए शब्द {may, might, could, would, must} चलाने लगता है और इस तरह हम असंतुष्ट रहने लगते है.
जब हम अपनी ज़िन्दगी के निर्णय स्वयं लेने लगते है तब भी अपना मूल्यांकन दूसरो के मापदंडो के आधार पर क्यों करते है? क्यों नहीं अपने मूल स्वभाव पर लौट आते? वो इसलिए क्योंकिं प्रेम हमारी प्रकृति है और इस आदत कि जड़ प्रेम पाने कि लालसा में है, जिनसे हम प्रेम करते है उनकी नज़रों में स्वीकार्य होने कि इच्छा में है. कोई हमें सम्पूर्णता से स्वीकारे इसके लिए सबसे पहले हमें अपनी सम्पूर्णता को स्वीकारना होगा.

हम अपने जैसे ही हो सकते है किसी और के जैसे नहीं इसलिए हम अपने काम को अपने स्वभाव के पैमाने पर मापें.

निस्संदेह हम अपने आलोचकों कि सुने, उन्हें  अपनी कसौटी पर समय, काल और परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य  में कसे  और फिर सही पाए तो ज़रूर अपनाए और अपने इस गुण को भी अपनी सम्पूर्णता का हिस्सा माने.

संतुष्ट जीवन कि मंगल कामनाओ के साथ,

आपका

राहुल ............

No comments:

Post a Comment