Monday 17 October 2011

Violence - Last resort

हमारे देश के स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास ने मुझे शुरू से ही उद्वेलित किया है. हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन कि मुख्य धारा अहिंसात्मक थी जिसका नेतृत्व किया था हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने. स्कूल के शुरूआती सालों में मुझे स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास किसी चमत्कार से कम नहीं लगता था लेकिन फिर जैसे जैसे बालगंगाधर तिलक, सुभाष चन्द्र बोस, लाला लाजपतराय  कि आन्दोलन में भूमिका को पढ़ा जहाँ में उलझन बढ़ती चली गई.

निश्चित रूप से गांधीजी का अहिंसात्मक आन्दोलन और उसके परिणाम किसी चमत्कार से कम नहीं है और किस तरह अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए अहिंसात्मक तरीके से लड़ कर इन्हें हासिल किया जा सकता है इसका जीवंत उदाहरण है गाँधी-दर्शन और हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास.

मेरी उलझन न तो यह हे कि अपनी स्वतंत्रता में किस कि भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण थी या कौन सा रास्ता ज्यादा सही था बल्कि मेरी उलझन तो यह है कि अपनी स्वतंत्रता और जीने के मूल अधिकारों कि रक्षा करने के लिए अहिंसात्मक रास्ते पर चलते-चलते क्या जीवन में कई बार हम उस बिंदु पर नहीं पहुँच जाते जहां हिंसा जिसे युद्ध कहना चाहिए एकमात्र रास्ता बच जाता है ? क्या हमें इस बिंदु पर पहुंचकर भी अहिंसात्मक बने रहना चाहिए चाहें कोई व्यक्ति या व्यवस्था अपने फायदे के लिए हमारी स्वतंत्रता और अधिकारों का हनन करे या हमारे विचारों और सिद्धांतों को हमारी कमजोरी समझे ?

मुझे सुलझन का सिरा मिला शरीर-विज्ञानं में. शरीर कि किसी व्याधि का उपचार मेडिसिन से हो या सर्जरी से इसका निर्णय डॉक्टर इस आधार पर करता है कि शरीर का वो हिस्सा पुनर्जाग्रत होने कि स्थिति में है या नहीं. बस बिलकुल इसी तरह यदि कोई व्यक्ति या व्यवस्था अहिंसा के सारे रास्ते अपनाने के बाद भी हमारी स्वतंत्रता और जीने के मूल अधिकारों पर अतिक्रमण करें या जान बूझकर अपने फायदे के लिए विलम्बित करें तो फिर उसका नष्ट हो जाना ही शुभकर है.

हिंसा के इस रचनात्मक उपयोग में डर सिर्फ इस बात का लगा रहता है कि यह कठोर अनुशासन और ऊँचे दर्जे का विवेक मांगती हैं. किसी भी व्यक्ति या व्यवस्था को नष्ट करना या होने देना तब ही शुभकर हो सकता है जब कि उसका नष्ट हो जाना शेष समाज को बचाने के लिए अंतिम विकल्प हो.

गीता ने इसे धर्मयुद्ध कहा है. धर्मयुद्ध न तो हार-जीत के लिए लड़ा जाता है और न ही किसी व्यक्ति-विशेष के खिलाफ; इसका  उद्देश्य तो उन धारणाओं और व्यवस्थाओं को बदलना होता है जो हमारी स्वतंत्रता और जीने के मूल अधिकारों का हनन कर रही होती है.

यानि किसी व्यक्ति, वस्तु,  स्थिति या विचार को नष्ट न होने देना चाहे  उससे सम्पूर्ण समाज संक्रमित हो जाये कभी उचित नहीं हो सकता. समाज को संक्रमित होने से बचाने के लिए अंतिम विकल्प के रूप में कि गई हिंसा भी अनुचित नहीं हो सकती.

जियो और जीने दो कि इसी भावना के साथ ;
आपका
राहुल.....

No comments:

Post a Comment