Monday 25 December 2017

बच्चों की सीख

और उसने कहा, "यदि मैं थोड़ा बहुत भी असंतुष्ट नहीं होऊँगा तो कुछ भी पाने की कोशिश ही नहीं करूँगा? मैं अपने जीवन में प्रगति करता चला जाऊँ इसके लिए जरुरी है कि मेरे मन में थोड़ी-बहुत ही सही, असंतुष्टि बनी रहे।"
ये पहला मौका नहीं था जब मुझे ऐसा कुछ सुनने को मिला था; कैरियर, प्रोग्रेस या सक्सेस के नाम पर जिन्दगी के बारे में जब-जब किसी से बात हुई ऐसा ही कुछ सुनने को मिला था। 
संतुष्टि जैसे ठहराव का पर्याय है!
पर क्या ऐसा है?

ऐसा होता तो सबसे पहले आपको बच्चे असंतुष्ट, बेचैन नजर आते क्योंकि कोई भी व्यक्ति बचपन में जितना कुछ नया सीखता है, जितनी प्रगति कर पाता है वैसी शायद ही जिन्दगी के और किसी दौर में कर पाता हो। बोलना, चलना, दौड़ना, लिखना और न जाने क्या-क्या? कितनी जल्दी वो भाषा सीख जाता है, बिना किसी व्याकरण के, बिना किसी टीचर के। क्या आप और मैं बड़े होने के बाद उतनी ही सहजता से किसी भाषा को सीख सकते हैं?, सवाल ही नहीं!
पर वो तो दुनिया का सबसे संतुष्ट प्राणी नजर आता है। 
बस, इसी बात में हमारा उत्तर और उत्तर का कारण छिपा है।
संतुष्टि ठहराव का नहीं प्रगति के लिए पूरी तरह से तैयार होने का पर्याय लगता है। आप जो हैं, आपके पास जो है उसके प्रति कृतज्ञ होते हैं और उसके होने से खुश हैं। ये कृतज्ञता, आपका खुश मन आपको वो सब पाने के लिए उत्साह और उमंग से भरे रखता है जो आप पाना चाहते हैं। 

चाहना, हमारा और हमारी ही तरह प्रकृति के हर अंग का नैसर्गिक गुण है। हम सब कल जो थे उससे आज आगे बढ़ रहे हैं, बीज पौधा बन रहा है, पौधों पर फूल आ रहे हैं, .........। 
यानि आगे बढ़ना, प्रगति करना हमारे अन्दर है। 
लेकिन असंतुष्टि, वो बाहर से आती है। किसी को देखकर, किसी से अपनी तुलना करके या अपने आपको किसी और के तय किए मापदण्डों पर कस के। ये आपकी नहीं होती, इसलिए आपकी कोई मदद भी नहीं करती। आप जिन्हें देखकर अपनी असन्तुष्टियाँ तय करते हैं वे जब तक पूरी होती हैं तब तक उनकी जगह कोई और आ चुका होता है और आप नई असन्तुष्टियाँ पाल चुके होते हैं, बिल्कुल एक मृग-मरीचिका की तरह ये मिलती कभी नहीं पर बनी हमेशा रहती है। 

इस तरह असंतुष्ट रहना हमारी आदत में शुमार हो जाता है। हम कुछ भी पाकर असंतुष्ट ही बने रहते हैं क्योंकि हम ही ने तो तय किया होता है कि चूँकि हमें जिन्दगी में प्रगति करनी है तो मन में थोड़ा-बहुत ही सही असंतुष्टि का भाव तो रखना ही होगा। हम जीवन भर असंतुष्ट बने रहते हैं इसीलिए जीवन भर नाखुश भी क्योंकि जिस घर में असंतुष्टि रहती हो वहाँ ख़ुशी तो फटक भी नहीं सकती। यानि एक मिनट के लिए मान भी लें कि मन की असंतुष्टि से हम कुछ पा भी लेंगे तो यकीन मानिए वो हासिल आपको खुशियाँ तो नहीं ही दे पाएगा। और जब आपकी प्रगति आपके जीवन में खुशियाँ ही नहीं ला सकती तो पहला, वो किस काम की होगी? और दूसरा, कि क्या वो सचमुच प्रगति भी होगी? 


तो जो मैं समझा वो ये कि 
हम जो हैं, जैसे हैं, जो कुछ हमें मिला है उसके लिए प्रकृति के प्रति कृतज्ञ बने रहने का अभ्यास करना होगा। ये कृतज्ञता मन में संतुष्टि का भाव लाएगी और तब हम उत्साह और उमंग के साथ अपने जीवन में जो कुछ करना चाहते हैं, जो कुछ पाना चाहते हैं, के लिए तत्पर होंगे। 
चाहना और असंतुष्ट होना दो अलग-अलग बातें हैं। एक हमारा नैसर्गिक गुण है तो दूसरा एक नकारात्मक भाव जो अन्ततः जीवन में नकारात्मकता ही ला पाएगा। 
और जब हम उत्साह और उमंग के साथ जीवन में बढ़ रहे होंगे तब प्रगति सहज और खुशियाँ स्वाभाविक होगी और यही सही मानों में हमारी प्रगति होगी।    

Saturday 7 October 2017

कैसे थमे ये सिलसिला?


फिर एक बाबा के कारनामे सामने आए हैं। पहले वो, फिर उनके और अब ये, सिलसिला थमता ही नहीं। कितने लोग ठगे जाते हैं, कितनी जिन्दगियाँ बरबाद होती हैं? लाखों लोग अपने जीवन का आधार उनके प्रति अपनी श्रद्धा को बना लेते हैं। ये श्रद्धाएँ जब टूटती हैं तो इन लोगों के साथ वही होता है जो उस वृक्ष के साथ होता है जिसके नीचे की जमीन अचानक आयी तेज बारिश में बह गई हो। और ऐसे में जिस तरह वृक्ष के गिरने का खामियाजा आस-पास के पेड़-पौधों को भुगतना पड़ता है वैसे ही बिखरी आस्थाओं के इन लोगों के क्रोध का शिकार रास्ते में पड़ते आम आदमी को होना पड़ता है।  

आज उनका आधार खोया है, कल हो सकता है मेरा भी खोए और परसों आपका। हम सब ये जानते हैं, फिर भी हर बार ठगे जाते हैं। क्यों करते हैं हम ऐसा जानते-बुझते? कहाँ चूक हो जाती है हमसे? 
अपने ही मन को खँगालने लगा तो पाया, हम सब को अपने-अपने जीवन में किसी न किसी आदर्श पुरुष की तलाश होती है। एक ऐसा व्यक्ति जिसकी तरफ हम हर छोटी-बड़ी बात के लिए देख सकें, उसका जीवन-उसकी बातों को आँख मूँद कर मान सकें, जो हमारी सुने, हमें दिलासा दें और फिर हौसला बढ़ाए। हमें प्रेरित करे। एक समय था जब अमूमन हमारी ये सारी जरूरतें देश-समाज के नायकों को देख, अपने घर के बड़ों से और मित्रों से ही पूरी हो जाया करती थी। सामाजिक-राजनैतिक जीवन के अग्रज वे होते थे जिनका जीवन अनुसरणीय होता था, घर के बड़े हमें हौसला और प्रेरणा देने के लिए काफी होते थे और दोस्त ऐसे के जिनके सामने हम अपने दिल के गुबार आसानी से खोल पाते थे। 
फिर, ......फिर समय के साथ ये ताना-बाना पहले ढीला और फिर टूटता चला गया। 
और हम अकेले हो गए। 

इस अकेलेपन का फायदा उठाया इन बाबाओं, पंचों और नेताओं ने। 
कारण ही समाधान होता है। पहले तो हमें अपने आप को मजबूत करना होगा। अपने अकेलेपन को स्वीकार करना होगा क्योंकि जो ताना-बाना समय के इतने बड़े अन्तराल में बिखरा है वो एक दिन में तो ठीक होने से रहा! हमारी ये स्वीकार्यता स्वतः हमें इस भाव से भर देगी कि जिस तरह मैं अकेला हूँ वैसे ही मेरे अपने भी अकेले हैं। और तब अपने आप हमारे हाथ बढ़ने लगेंगे, दूरियाँ कम होने लगेंगी। ताना-बाना फिर से कसने लगेगा। जब ऐसा होने लगेगा तब हम किसी को भी अपनी श्रद्धा यूँ ही नहीं अर्पित कर रहे होंगे। हमारे विश्वास घर देख कर ही किसी को अपनाएँगे। 
जब ऐसा होगा तब देश और समाज की रखवाली भी उनके हाथ होगी जो इस लायक होंगे। जिनके जीवन ही प्रेरणास्पद होंगे। और तब ये सिलसिला थमेगा वरना हर बार हम अलग-अलग नामों से यूँ ही ठगे जाते रहेंगे। 


तो जो मैं समझा वो ये कि 
भावनाओं से बढ़कर कुछ नहीं, हमें भावनाओं की तरफ लौटना होगा, एक दूसरे के सुख-दुख भागीदार होना होगा। श्रद्धा समर्पण से जन्म लेती है यानि सबसे पवित्र और कोमल भावना। इसे हम किसी को यूँ ही नहीं सौंप सकते। ये किसी के प्रति स्वतः जन्म लेती है तो ठीक, इसे अपने किसी काम साधने के लिए किसी को नहीं सौंप सकते। और ऐसा तब होगा जब मूल्य हमारे जीवन को निर्देशित कर रहे होंगे। ऐसे में हमारी अगुवाई अपने आप ही वैसे लोग कर रहे होंगे जो इस लायक होंगे क्योंकि आखिर वे भी तो हम में से ही निकलते हैं।  

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 10  सितम्बर को प्रकाशित)

Saturday 23 September 2017

आत्मा बची रही


"यदि ऐसा ही होना है तो होने दो।", यही कहा था शालिनी ने उस मनोचिकित्सक को जो न जाने क्या-क्या सोच कर कैसी-कैसी तैयारी करके आया था। उसे शालिनी को खबर देनी थी कि हो सकता है उसे अपने दोनों हाथ और दोनों पैर गवाँ देने पड़े। 
ऐसा क्या हुआ था?, कुछ खास नहीं। ये बात है, 2012 की। वो उम्मीदों से थी और शादी की चौथी सालगिरह मनाने अपने पति के साथ कम्बोडिया गई थी। छुट्टियाँ बड़ी मजेदार रहीं, वापस लौटी तो हल्का बुखार रहने लगा था। डॉक्टर्स ने कहा, डेंगू होगा!  और वो अस्पताल में भर्ती हो गई। वाजिब से ज्यादा दिन बीतने आए थे पर पारा टस से मस नहीं हो रहा था। इस बीच एक दिन इस बुखार ने उसके गर्भ में पल रहे बच्चे की भी जान ले ली। इतने दिन, अब डॉक्टर्स को भी समझ में आ रहा था कि बात डेंगू तक की ही नहीं है, और उन्होंने रक्त की विस्तृत जाँचे करना शुरू की। 
जो मालूम चला वो हैरतअंगेज था, कम्बोडिया में किसी विशेष मच्छर के काटने से वो ऐसे इन्फेक्शन के चपेट में आ चुकी है जो शायद 10 लाख लोगों में से किसी एक को होता होगा। इस बात को पता चलने में वक्त अब इतना बीत गया कि शरीर के करीब-करीब सारे अंग इसकी गिरफ्त में थे, वो कोमा में जाने जैसी हालत में थी; तब की बात है जब मनोचिकित्सक ने आकर उसे वो सब कहा था, पर ये भी कि "हम कोशिश पूरी करेंगे।"

सबसे पहले बायें हाथ का ऑपरेशन हुआ। उसके कुछ ही दिनों उसके देवर अस्पताल में उसकी मदद कर रहे थे कि दायाँ हाथ छिटक कर उनके हाथ ही में आ गया। इस तरह कुछ महीने और बीते, बाकि अंगों पर इन्फेक्शन का प्रभाव तो काबू में आने लगा था लेकिन बचते-बचाते भी उसके दोनों पैर गैगरिन की चपेट में आ गए। इसके बाद तो वो कोई अंग हो उसे अलग करने के अलावा कोई चारा ही नहीं बचता। शालिनी बताती है, ऑपरेशन के पहले उसने खूब चमकीली बैंगनी नेल पॉलिश से पैरों को सँवारा था,"इन्हें जाना ही है तो जरा स्टाइल में तो जाएँ।"

इस तरह अस्पताल के बेड से उठ कृत्रिम, प्रोस्थेटिक पैरों के सहारे बाहर निकलने में उसे करीब दो साल लग गए। इसके बावजूद वो अपनी दैनिक दिनचर्या के अधिकाँश कामों के लिए अपने पति पर तो निर्भर थी ही, पर इससे उसे कोई तकलीफ नहीं थी। तकलीफ थी उसे अपने मन की। वो किसी भी हालत में तैयार नहीं थी कि किसी दिन उसमें जीने का उत्साह ही शेष नहीं रहे। उसका होना, न होना एक-सा हो जाए। वो अपने होने को साबित करना चाहती थी। एक दिन उसने सोचा क्यों न वो एथलीट होने का रास्ता चुने। दौड़े, और यही तो एक काम था जो वो अब कर सकती थी। 
और वो पहुँच गयी ग्राउण्ड पर। जब आप चलने लगते हैं तो रास्ते अपने आप बनने लगते हैं। कोच अय्यपा सर उतनी ही शिद्दत से तैयारी करवाने लगे, उन्होंने कभी उसे विकलांग होने को कभी छूट नहीं दी। पति प्रशान्त का तो हर कदम पर साथ थे ही। 

और अब आप अपने दाँतो तले ऊँगली डाल लीजिए, शालिनी ने हाल ही में 10 कि.मी. की टीसीएस बैंगलुरु मैराथॉन कम्पलीट की है, और अब वो पैरा ओलंपिक्स की तैयारी में जुटी है। "जब मेरा दायाँ हाथ छिटका था तब वो मेरे आगे बढ़ने का संकेत था" और ये सब लिखा उन्होंने अपने ब्लॉग 'आत्मा बची रही।' 
ये कहानी सामने आयी तो मैं इसे आपके साथ साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा था और इससे जो मैं समझा वो ये कि हर स्थिति में हमें ही अपने आपको उठाना होता है। यदि निकलने की कोशिश हमने नहीं की तो बाहर खड़ा व्यक्ति कितना ही हाथ दे दे, कुछ नहीं होने वाला। और ये भी कि हर स्थिति में हमारे पास कुछ तो बचा होता है जैसे शालिनी के पास दौड़ना बचा था। यही वो बात है जिस पर हमें अपने विश्वास को दृढ करना होगा, यही तो वो सहारा है जिसे ले हम अपने आप को उठा पाएँगे, सम्भाल पाएँगे। 

राहुल हेमराज_
(दैनिक नवज्योति, रविवार 13 अगस्त 2017

Monday 31 July 2017

और कोई ऑप्शन ही नहीं था!





उसने अपनी बात खत्म करते हुए कहा, " और मेरे पास ऑप्शन ही क्या था?" और जैसे झटका लगा! क्या सचमुच उसके पास कोई ऑप्शन नहीं था? दोस्तों की नजर से तो उसने फटे में टाँग डाली थी। झगड़ा कामवाली बाई और उसके पति के बीच का था। रोजाना मारपीट करता, पैसे छीनता और उसकी शराब पी जाता। ये जैसे दैनिक दिनचर्या का हिस्सा था, जो ऐसे घरों में कोई नयी या अनोखी बात तो थी नहीं!

लेकिन उस दिन तो उसने हद ही पार कर दी थी। ऐसे भी कोई मारता है भला! थे ही नहीं पैसे उसके पास तो देती कहाँ से? पर वो, वो मारे ही जा रहा था। रात गुजर गयी, दिन चढ़ने लगा था जिसके साथ उसका पारा भी चढ़ रहा था। इधर तलब और उस पर गुस्सा, वो पहुँच गया गली के नुक्कड़ पर बैठे रहते आवारा लड़कों के बीच। उसने 15,000 में सौदा कर लिया। तुम चाहे जो करो, वो अकेली है, मैं शाम तक कमरे की तरफ झाकूँगा तक नहीं।   

किसी तरह जान छुड़ाकर भागी थी वो और पहुँची सीधी मेरी दोस्त के पास, और वो उसे लेकर पहुँच गई थाने। अब हुआ ये कि उसका पति तो फिलहाल ठीक हो गया था, पर रिपोर्ट में उन बदमाशों के भी नाम थे और वे पड़ गए मेरी दोस्त के पीछे। न जाने कैसी-कैसी धमकियों भरे फोन आने लगे थे। परेशान और डरे हुए सब थे, शायद थोड़ी वो खुद भी पर बाकियों और उसमें एक फर्क था। उसका कहना था, और मैं कर ही क्या सकती थी? मुझे मालूम था कि मैं अपने लिए आफत मोल ले रही हूँ पर मैं और करती भी क्या?, और बाकियों का कहना था, कर देती थोड़ी बहुत मदद पर इस तरह, यूँ इतना पचड़े में पड़ने की जरुरत ही क्या थी?, आखिर आदमी को अपने भले-बुरे का ध्यान तो रखना चाहिए ना! 

उस दिन वह यही तो बता रही थी। आज थाने से फोन आया था कि उसमें से कुछ बदमाश पकड़े गए हैं, और उसने संतोष भरी गहरी साँस ली, और हम सब की आँखों में आदर का भाव तैर गया। 
और उस दिन जो मैं समझा वो ये कि 
जब हमारे सामने कोई तकलीफ में होता है, हमारे किसी अपने को मदद की जरुरत होती है तो सच मानों में हमारे पास कोई विकल्प नहीं होता है सिवाय अपना हाथ आगे बढ़ाने के। लेकिन हम अपने आराम में खलल ना पड़े, हम किन्हीं अज्ञात मुसीबतों में न घिर जाएँ इसलिए बहाने ढूँढने लगते हैं और उन्हें अपनी ही नजरों में सही ठहराने के लिए 'उचित' कारण भी। भूल जाते हैं कि कल ऐसी ही किसी स्थिति में हम होंगे और वो व्यक्ति जो उस समय-परिस्थिति में हमारी मदद कर सकता होगा वो भी ऐसे ही बहाने और कारण ढूँढ लेगा। सच पूछो तो, सही बात का कभी कोई विकल्प होता ही नहीं।

(दैनिक नवज्योति में मेरा मासिक स्तम्भ 'जो मैं समझा'- 11 जून, 2017)

Monday 10 July 2017

मैं और मेरा जेबखर्च






बच्चे अपनी जेबखर्च का पैसा कितना सम्भल-सम्भल कर खर्च करते है, बिल्कुल सिलसिलेवार। सबसे पहले वो जो उन्हें कब से चाहिए थी, फिर उसी क्रम में दूसरी और फिर तीसरी। वे और किसी बात के बारे में नहीं सोचते ये तय करने से पहले।
​ ​
पर ये भी कि वे अपने किसी भाई-बहन को सचमुच का अपने से ज्यादा बेचैन देखते है तो अपना जेबखर्च या अपनी पसंदीदा चीज ख़ुशी-ख़ुशी देने या साझा करने तैयार हो जाते हैं। ये 'सचमुच' वे बड़ी आसानी से भाँप जाते है वरना वे एक धेला ना दें किसी को। इसीलिए वे
​ ​
जो कुछ कर पाते हैं उससे पूरी तरह
​ ​
खुश और सन्तुष्ट होते हैं।यानि उनके
​ ​
पास जो कुछ है उसे सही जगह पर लगाने का कुदरती विवेक होता है।

बात है उस दिन की जब हम घर-घर के हमउम्र किसी निजी उत्सव पर साथ में खाना खा रहे थे,
​ ​
गप्पें
​ ​
लगा रहे थे। ऐसे मौकों पर
​ ​
राजनीति सबसे सुरक्षित और चहेता विषय होता है। ये आपस की नाराजगी से दूर तो रखता ही है, बात भी
​ ​
इस पर आप चाहे
​ ​
जितनी देर कर सकते हो। चलते-चलते चर्चा
​ ​
का तापमान कुछ ज्यादा ही
​ ​
बढ़ने लगा था
​ ​
कि अचानक एक
​ ​
भाई
​ ​
बोला, ये हम क्या कर रहे हैं? क्या हम सचमुच कल सुबह इसके लिए कुछ करने वाले हैं? नहीं ना
​!​
 फिर
​ ​
क्यों हम इतने अशान्त हो रहे हैं? 
हमारे अपने-अपने काम हैं, और उन्हें ही हमारे लिए सबसे पहले होना चाहिए। 

उनकी सब मानते भी हैं, तो एक बार तो
​ ​
माहौल शान्त हो गया!
​ ​
पर
​ ​
उनकी ये बात मन में
​ ​
घुमड़ती रही। सोचने लगा, फिर क्या हमें
​ ​
अपने आस-पास, देश-दुनिया से कोई सरोकार ही न रहे?
​ ​
ये क्या बात हुई? आखिर जागरूक नागरिक की भी कोई भूमिका होती है! और हर कोई ऐसा,
​ ​
यही तो करता है। मैंने अपने आस-पास टटोला तो अपने आपको सही भी पाया। 

पर नजरें गहरी हुईं तो इस बात का भी इल्म हुआ कि जो लोग अपने काम में ही मग्न हैं वे ज्यादा काबिल भी हैं और कामयाब भी और सोच की गाड़ी का पहिया धँसने लगा। क्या व्यक्ति 'मैं और मेरा' के घेरे में ही रहे, इतना स्वार्थी हो जाए? या फिर सरोकारों का जीवन जिये चाहे वो मन को कितना भी अशान्त करता रहे? ऐसा ही ठीक लगता है, पर क्या अशान्त जीवन का चुनाव सही हो सकता है जबकि सारी बात ही तो शान्त जीवन के लिए है। 

और यही वो क्षण था जब वे बच्चे याद आए थे। 
और धँसा पहिया बाहर निकलने लगा था, हमें
​ ​
भी तो बस थोड़ा सा
​ ​
ही जेबखर्च मिला है!
​ ​
थोड़ा समय और
​ ​
थोड़ी ऊर्जा, अब ये हम पर है कि हम इसे कहाँ खर्च करते हैं। यदि इसे हमने अपने उद्देश्यों में, जो हम अपनी जिन्दगी से चाहते हैं उसमें झोंक दी तो हमारा सफल होना, वो पा लेना जो हम चाहते हैं तय है और नहीं तो हम उन सब के काबिल होते हुए भी हासिल नहीं कर पायेंगे।
​ ​
लेकिन इसका मतलब ये
​ ​
भी नहीं कि हमें अपने आस-पास, देश-दुनिया से कोई सरोकार ही न रहे। सरोकार रहे, हम भागीदार भी बने लेकिन जिस जगह पर हम हैं उस मुताबिक।
​ ​
अब यदि हमें अपनी भागीदारी बढ़ानी है, कोई बात हमें इतनी विचलित करती है कि हमसे रहा नहीं जा रहा तो हमें अपनी जगह बदलनी होगी। लेकिन बिना अपनी जगह बदले हम ये करने लगे तो ना हम घर के होंगे ना घाट के। 

तो जो मैं समझा वो ये कि 
एक फिल्म की तरह जिन्दगी में भी हम सब के अपने-अपने किरदार हैं। हमें अपना किरदार खूबसूरती और लगन से निभाना है। बस, इतना भर काफी होगा हमारी ओर से उस फिल्म के लिए। और ऐसा ही सब सोचने लगें तो फिल्म अपने आप ही बेहतरीन बन पड़ेगी लेकिन अपने अलावा हम सबने एक-दूसरे के रोल में टाँग अड़ानी शुरू कर दी तो
​ ​
फिर उस फिल्म को फ्लॉप होने से कोई नहीं बचा सकता। 

(दैनिक नवज्योति में मेरा मासिक स्तम्भ 'जो मैं समझा'- 9 जुलाई, 2017)

Sunday 4 June 2017

और मुसीबत टल गयी





जस्टिन बीबर आए और चले गए और मुझे मुसीबत में डाल गए। ये मुसीबत जब तब पहले भी खड़ी हुई है लेकिन लगता है इस बार हल हुए बिना ये टलने वाली नहीं। और मुसीबत ये कि क्या हम जैसों को ऐसे कॉन्सर्ट में शरीक होना चाहिए? हम जैसों का मतलब, चाहे हमारे पास कितने भी पैसे हों आज भी हमारे यहाँ कोई भूखा सो रहा है, कोई किसान आत्महत्या कर रहा है या ऐसा ही कुछ और, और ऐसे में ये सब। अरे! मैं ये बताना तो भूल ही गया कि उनके कॉन्सर्ट के एक टिकट की कीमत थी 76,000 रुपये और इसके अलावा भी न जाने क्या-क्या। 
और ये कोई मेरे मन में उपजा प्रश्न नहीं था बल्कि सोशियल मीडिया ने मुझे पकड़ाया था लेकिन पढ़-पढ़ कर लगने लगा था जैसे मैं ही इसका जवाब माँग रहा हूँ।   

ये प्रश्न हर बार यूँ ही सुलगने लगता फिर अगले किसी भव्य समारोह तक के लिए बुझ जाता है पर विचार करें तो ये हम सब की निजी जिन्दगी से भी उतना ही जुड़ा है। त्यौहार हो, शादी-ब्याह, जन्मदिन हो या और कोई उत्सव, हम सब भी तो अपनी-अपनी जेब और जज्बातों के हिसाब से उसे मनाते हैं। जो हमारे लिए मितव्ययता है वो किसी और के लिए फिजूलखर्ची हो सकती है और जो किसी की मितव्ययता है वो हमारे लिए फिजूलखर्ची। 
क्या कोई मापदण्ड हो सकता है इसका? 
मुझे तो नहीं लगता। 
व्यक्ति की आर्थिक हैसियत कई सारे कारणों और संयोगों पर निर्भर करती है। और हमने यदि सबसे एक जैसे खर्चे की पैरोकारी तो व्यक्ति कमाएगा क्यूँ कर? और ऐसे में तो हम अकर्मण्यता की तरफ जाने लगेंगे। ये तो किसी देश-समाज के लिए ठीक नहीं होगा? और कोई कमाये तो उसे अपनी मर्जी मुताबिक खर्च करने का हक क्यों न हो? क्यों उस पर फिजूलखर्ची का इल्जाम लगे और वो क्यूँ अपनी खुशियों को मनाते कोई ग्लानि रखे?

पर क्या इन सब तर्कों के चलते व्यक्ति संवेदनहीन हो जाए। कोई गरीब, कोई किसान या ऐसे ही किसी के साथ जो बीतती है बीतती रहे और वो बस, अपनी खुशियों और उत्सवों में डूबा रहे? मैंने कहा था ना आपको, ये जस्टिन बीबर क्या आया मुझे मुसीबत में डाल गया। अब पार तो पाना था, तो मैंने पहले मुद्दों को पॉइन्ट-आउट यानि रेखाँकित करने की कोशिश की। और सामने दो मुद्दे आए, पहला तो ये कि व्यक्ति इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? और दूसरा, क्या उसे जितना कमाए उसे अपनी मर्जी मुताबिक खर्च करने का हक भी है? 

और जो मैं समझा वो ये कि 
किसी को भी अपना कमाया अपनी मर्जी के मुताबिक खर्च करने का हक है बशर्ते कि उसने वो धन नैतिक तरीकों से कमाया हो। मसला खर्च की राशि का नहीं बल्कि कमाने के तरीकों का है। यदि कमाया सही है तो ये खर्च करने वाले का विवेक है कि वो किस पर कितना खर्च करता है। इसके बावजूद भी आपको लगे तो आप सुझाव दे सकते हैं, दोषी नहीं ठहरा सकते। 
रही बात संवेदनहीनता की तो ये मसला फिर सँस्कारों का है। हम अपनी कमाई में से अधिकाँश हिस्सा अपने पर खर्च करें लेकिन ये अहसास भी बना रहे कि मेरे कुछ सामाजिक दायित्व भी हैं। मैं हूँ क्योंकि और भी हैं, इसलिए मेरा सिर्फ मेरा नहीं है। मेरे होने में जितना योगदान उनका है कम से कम उनके होने में मुझे उतना योगदान तो निभाना ही होगा। 
बात ये नहीं कि आप 76,000 क्यूँ खरीदते हैं, बात ये है कि वो पैसा आपने नैतिक तरीकों से कमाया है या नहीं, और ऐसा सब करते हुए आपको अपनी सामाजिक दायित्वों का अहसास है या नहीं। यदि है, तो ये आपकी निजी पसन्द का मामला है, इसमें गलत या सही का प्रश्न ही नहीं।  

Saturday 27 May 2017

जीने की स्टाइल






बात निकल पड़ी थी कि क्या आक्रामकता और क्रोध यानि एग्रेशन और एंगर में कोई फर्क है? मौका था पिछले महीने के पहले रविवार की हमारी नियमित बैठक का। विषय था क्रोध, क्या है और कैसे सम्भालें? 
मसला नाजुक था और सब ही को छू रहा था लेकिन अपने-अपने नजरिए से सब ही ने कहा यही कि, क्रोध का आना कतई बुरा नहीं, ये तो आएगा ही और आना भी चाहिए लेकिन समस्या पैदा इसलिए होती है क्योंकि हमें इसे सम्भालना नहीं आता। 
और यूँ करते-करते बात यहाँ आकर ठहरी थी।  

एक ने कहा, जिन्हें क्रोध अधिक और हर छोटी बात पर आता है वे स्वतः ही आक्रामक होते हैं। क्रोध और आक्रामक होने में एक सीधा रिश्ता है। दूसरे ने इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, जो अपने क्रोध को काबू में रख पाते हैं असल में वे ही अपने कामों में आक्रामक हो पाते हैं, और इसलिए ज्यादा सफल भी। उनकी नजर में आक्रामकता क्रोध का सदुपयोग था। 
तो बात करते-करते प्रश्न खड़ा हुआ कि क्या जिन्दगी की हर मुश्किल से दो-दो हाथ करने के लिए मन में क्रोध का बने रहना जरुरी है? क्या मन में क्रोध का हमेशा यूँ बने रहना किसी के लिए भी ठीक हो सकता है? 
इतने में किसी ने बात को हल्की करते हुए लेकिन बहुत ही मार्मिक टिप्पणी कि, तब तो विराट कोहली अपने जीवन में हमेशा गुस्से में ही रहते होंगे, आखिर वे आक्रामक बल्लेबाज जो ठहरे? 
और इतनी सी बात पर क्रोध और आक्रामकता का वो रिश्ता जो थोड़ी देर पहले तक बहुत मजबूत नजर आ रहा था चूर-चूर हो गया। बात ने विराट कोहली से पलटी मारी थी और उनसे अधिक आज कौन सफल होगा भला?
अब बात जम रही थी, वैसे भी कोई आत्मविश्वासी हो ही कैसे सकता है यदि वो अन्दर से शान्त न हो। और जिसे अपने पर ही विश्वास नहीं होगा वो मुश्किलों से दो-दो हाथ क्या करेगा!

अब बात आक्रामक होने या नहीं होने की चल रही थी और उदाहरण भी सामने था कि ऐसे व्यक्ति ही अपने जीवन में अधिक सफल होते हैं ऐसे में सब ही का इस पर एकमत होना लाजिमी ही था। पर एक दोस्त को ये बात शायद पूरी तरह हजम नहीं हो रही थी। उसने कहा, जिन्दगी हर क्षण अचम्भे देती है और ऐसे में हमेशा आक्रामक बने रहना मुझे तो ठीक नहीं लगता। रक्षात्मकता का पुट तो होना ही चाहिए। कोई जरुरी तो नहीं कि हर मुश्किल से जीतने जितनी ताकत हमेशा ही हमारे पास हो, ऐसे में दो कदम पीछे हटने का विवेक भी व्यक्ति में होना ही चाहिए। आक्रामकता अधूरी होगी बिना रक्षात्मक सतर्कता के। 
अरे! ये तो तुरुप का पत्ता था, और बात अब अपने मुकाम पर पहुँच रही थी। 

उस दिन जो मैं समझा वो यही कि 
आक्रामकता का क्रोध से कोई लेना-देना नहीं। आक्रामकता तो जीने की स्टाइल है, हमारी स्वाभाविक वृत्ति। हम किस तरह अपने सामने आने वाले मुद्दों का सामना करते हैं, बस। और सच मानों में आक्रामक वही हो सकता है जिसे खुद पर यकीन हो, जो जोखिम उठाने को उत्सुक हो। 
ये भी कि आक्रामकता हमारे आत्मविश्वास की उपज होनी चाहिए न कि हमारा दुःसाहस। और जब ऐसा होगा तब स्वतः ही इसमें रक्षात्मक सतर्कता यानि डिफेंसिव एलर्टनेस की उचित मात्रा मिली होगी जो जिन्दगी की हर मुश्किल से निपटने में कारगर होगी। 

Saturday 22 April 2017

बड़ी दूर तक जाता है ये






दिल्ली से जयपुर का सफर था, ट्रेन रवाना होने को थी कि एक भाई साहब भागते-दौड़ते पहुँचे। कूपे की छः बर्थ के हम पाँच मुसाफिर पहले से बैठे थे और थोड़ी-थोड़ी गप्पें लगना शुरू हो गयीं थी। बातों का सिलसिला जारी रखते हुए, हम थोड़ा खिसके कि वे भी बैठ जाएँ। हमें कहाँ मालूम था कि उनका मूड उखड़ा हुआ है। उन्होंने अपना सीट नम्बर तलाशा जो कि खिड़की के पास वाला था। वहाँ एक महिला बैठी थी जो अपना लैपटॉप जमाकर काम भी कर रही थी और हमसे बातें भी। 'ये सीट तो मेरी है', भाई साहब बोले। उनकी आवाज में इतनी खीझ और झुंझलाहट थी कि हम सब चुप हो, उनकी तरफ देखने लगे। 

ट्रेन में सोने से पहले नीचे वाली बर्थ पर तीन लोग साथ ही तो बैठते हैं, खिड़की से सटी जगह उन भाई साहब की थी और उसके बाद वाली उस महिला की और फिर मेरी। यानि बिल्कुल पास-पास लेकिन उनकी बॉडी लैंग्वेज को देख उस महिला ने भी उन्हें कुछ नहीं कहना ही उचित समझा, और वो बाहर निकल आयी। हम सब ही शायद मन ही मन सोच रहे थे, ये खडूस कहाँ से आ गया पर किसी ने चेहरे से भी इसका इजहार नहीं होने दिया और फिर से हम अपनी बातों में लग गए। उन भाईसाहब ने इतने में अपना मोबाइल निकाला और किसी पर भड़कने लगे। उनकी बातों से ही लग रहा था कि वे कॉरपोरेट वर्ल्ड के बाशिन्दे हैं, और अपने जूनियर्स से बात कर रहे हैं। वे गुस्से में थे इसलिए तेज बोल रहे थे। 

आधा घण्टा लगा होगा, वे नॉर्मल होने लगे, और फिर धीरे-धीरे हमारी बातों में शामिल। हमें भी कहाँ गाँठ बाँधनी थी, ज्यादा से ज्यादा घण्टा भर और जागते, सुबह जयपुर और सब अपने-अपने घर। शायद ही कभी वापस मिलना हो। 
जिन्दगी में भी यही होता है पर प्रकृति ऐसा छलावा खेलती है कि हम याद ही नहीं रख पाते कि कुछ सालों बाद हम सब को भी बिछड़ना है। काश! हमें ये याद रह पाता तो एक-दूसरे को माफ करना, वो जैसा है उसे स्वीकार करना कितना आसान हो जाता। 
खैर, बातें चल रही थी, कि अचानक उन्होंने कहा, सॉरी, मैंने आते ही जिस तरह सीट के लिए कहा। वो एक्चुअल में हफ्ते भर पहले की ही बात है, मुझे एक जरुरी प्रेजेंटेशन बनानी थी, खिड़की के पास वाली सीट उस दिन भी एक महिला की ही थी। मैंने उससे रिक्वेस्ट की, कि वो एक घण्टे के लिए मुझे वहाँ बैठने दे दे। मुझे अपने लैपटॉप और फाइलों के साथ काम करना है तो थोड़ी आसानी होगी, पर वो महिला तो वापस ऐसे बोली जैसे उसने वो सीट खरीद ही ली हो। 

क्या कहता हम में से कोई, पर उस महिला ने जो आज उनकी जगह पर बैठी थी, असहजता तोड़ते हुए कहा, कोई बात नहीं। हो जाता है हम सब से कभी-कभी ऐसा। मुश्किल से एक या दो मिनट गुजरे होंगे कि वे कहने लगे, आप सब ने सोचा होगा कि कैसा आदमी है जो अपने जूनियर्स से ऐसे बात कर रहा है। पर, क्या बताऊँ आपको? कल की ही बात है, दिल्ली हैडऑफिस ने अचानक मीटिंग कॉल कर ली। मैं जयपुर से रवाना हुआ, इन्हीं जूनियर्स को कहकर कि वे मुझे जरुरी इनपुट देंगे, और सुबह जल्दी उठ में प्रेजेंटेशन तैयार कर लूँगा। पर इन्होंने ऐसी बुरी की मेरे साथ, रात के दस बजे तक तो फोन नहीं उठाए, फिर उठाए तो देर रात तक इनपुट्स भेजने का कहा, सुबह उठा, मेल खोली तो पाया सारे के सारे आधे-अधूरे। बड़ी मुश्किल से अपने लैपटॉप पर पुराने स्टोर्ड डाटा के भरोसे दौड़ते-भागते मीटिंग अटेन्ड की और अपनी जान बचायी। 
उन्होंने फिर अपने व्यवहार के लिए क्षमा माँगी, और बात आयी-गयी हो गयी। 


मैं सोचने लगा, हम अपने व्यवहार को लेकर कितने बेपरवाह होते हैं लेकिन ये कितनी दूर तक जाता है। किसी के साथ हमारा व्यवहार हमारा आपसी मसला ही नहीं होता बल्कि न जाने कितनों को प्रभावित कर रहा होता है। खासकर हम अपनों के साथ तो कुछ ज्यादा ही लापरवाह होते हैं कि कभी मना लेंगे। ख्याल ही नहीं आता कि ऐसा कर हम तब तक उन्हें उस मनोस्थिति में छोड़ रहे हैं जहाँ वे उन भाई साहब की ही तरह दूसरों के साथ व्यवहार करने लगेंगे। और हम ही वजह होंगे उस व्यवहार के बाद में उनके शर्मिन्दा होने और माफी माँगने के पीछे। अरे बापरे! इतनी बड़ी कीमत चुका रहे होते हैं हम अपनी इस बेपरवाही की। 

Saturday 4 February 2017

शिकायत जरुरी




बहुत बड़े संयुक्त परिवार के मुखिया हैं वे। गर्व और संतुष्टि के भाव से बता रहे थे, "मैंने तो अपने परिवार की सारी लड़कियों को विदा करते समय ही कह दिया था, बेटा! कभी अपने ससुराल से कोई शिकायत लेकर मत आना। और सभी ने आज तक तो मेरी बात रखी है।" कई लोग थे हम, किसी शादी में ही मिलना हुआ था और उनके अनुभवों का लाभ ले रहे थे। उनकी बात सुन हम सब की आँखों में प्रशंसा के भाव थे लेकिन मेरी आँख में शायद कोई किरकिरी रल रही थी। बात कानों को तो अच्छी लग रही थी  पर दिल अपने अन्दर आने नहीं दे रहा था। और मेरा दिमाग, बिना पूछे ही काम पर लग गया। 

कोई शिकायत ना लायें? तो बिटिया किसके पास जाए? क्या हर शिकायत गलत ही होती है? क्या शान्ति, सुकून और अच्छा लगने के नाम पर वो बस 'एडजस्ट' करते चली जाए?
नहीं, ऐसा तो किसी हालत में नहीं होना चाहिए। 
ये मतलब शायद उन बुजुर्ग का भी नहीं रहा होगा। वे कहना चाहते होंगे कि बिटिया वहाँ सब ही से अच्छे से पेश आए। नए रिश्तों को स्वीकारे, और सुने यह मानकर की कहने वाला भी उसका अपना है। ये रिश्तों के मिट्टी का खाद-पानी होगा जो दाम्पत्य-जीवन के वृक्ष को हरा-भरा रखेगा। 
कोई बुजुर्ग और क्या 'भलावण' देगा भला। 

लेकिन परम्पराओं से चले आ रहे ये शब्द इतनी अच्छी बात को कितने गलत अर्थों के साथ पहुँच रहे थे। जैसे उसके लिए सारे दरवाजे बन्द हो गए हो। जो है, जैसा है उसे बस निभाना है। उसे ही अपने आप को बदलना है क्योंकि यही हिदायत मिली है उसको। और हम, उसके शिकायत ना करना उसका सुखी होना समझ लेते हैं। पर, हम जानते हैं कई बार ऐसा नहीं भी होता। 

बचपन से हर छोटी बात में उसकी मदद को तैयार रहते हम माँ-बाप, जिन्दगी के इतने अहम पड़ाव पर उसे यूँ अकेला कैसे छोड़ सकते हैं? जब भाई-बहनों को सुलह-सफाई की जरुरत होती है, तो नव-दम्पति को ऐसी जरुरत हो इसमें गलत क्या है? फिर छोटे बच्चों को समझाना तो आसान होता है जबकि बड़े बच्चों का 'ईगो' को आकार ले चुका होता है। हाँ, ये जरूर एहतियात बरतनी होगी कि हम किसी का पक्ष ना लें, दोनों को पूछें, सुनें और उनकी मदद करें। लेकिन यदि सचमुच हमारी बिटिया को कोई शिकायत है तो उसे भरोसा होना चाहिए कि कहीं हो न हो दुनिया में एक जगह है जहाँ जाकर वो अपना दिल हल्का कर सकती है, जहाँ से कोई न कोई रास्ता तो अवश्य निकलेगा। 

तो जो मैं समझा वो ये कि,
शिकायत तो करनी होगी, और शिकायत करना कतई गलत नहीं होता। बल्कि शिकायत तो वही करता है जिसमें आत्म-विश्वास हो। पर अकेले आत्म-विश्वास का होना भी तो काम नहीं आता। कई बार आत्म-विश्वास हो भी तो हम सब के पास शिकायत करने की जगह नहीं होती। खुशकिस्मत होते है जिनके पास कोई होता है जिसके पास वे अपनी शिकायत कर सकें! 
तो जवाब में प्रश्न उठता है कि हम किन-किन को वो भरोसा दिला पा रहे हैं? हमारे कितने अपने निर्भीकता से हमारे पास आ अपनी शिकायत कर सकते हैं? और यदि नहीं, तो ऐसा कर पाने के लिए हम क्या कर रहे हैं? 

Tuesday 10 January 2017

पूजा के फूल





पहाड़ी गाँव में रहती थी वो। रोजाना सुबह झरने से पानी लाना उसकी दिनचर्या का हिस्सा था। एक गडरिए की तरह दोनों कन्धों पर एक लाठी और दोनों सिरों पर एक-एक घड़ा। अकेली जान को दिन भर के लिए इतना पानी काफी होता था। पर, उसमें से एक घड़ा थोड़ा रिसता था जिसे वो हमेशा अपने बायें हाथ की तरफ बाँधती थी। झरना दूर था और घर पहुँचते-पहुँचते घड़े में आधा पानी ही बचता। घड़े को बहुत ग्लानि होती। सोचता, कैसा हूँ मैं? कितना गया-गुजरा! जितना पानी ला पाने के लिए बना हूँ, उससे बड़ी मुश्किल आधा ही ला पाता हूँ। मैं चाहकर भी कभी दूसरे घड़ों जैसा नहीं हो पाऊँगा! क्या सोचती होगी अम्मा मेरे बारे में? ये तो ठीक है, वे हैं कोई दूसरी होती तो कभी का मुझे पटक चुकी होती। कैसा जीवन है मेरा! उनकी दया पर जिन्दा हूँ। इससे तो अच्छा हो उनसे पानी भरते हुए मैं किसी से टकरा जाऊँ, और वहीं बात खत्म। 

ऐसा सोचते-सोचते दो साल बीत गए। ग्लानि कुण्ठा की गाँठ बन चुकी थी और एक दिन फूट पड़ी। उसने अम्मा से कहा, आप क्यों मुझे इतना सँभाले हुए हैं? फेंक क्यों नहीं देती कहीं? इस उम्र में इतनी मेहनत करती हो आप। मुझे भर, पूरा वजन उठाती हो और मैं घर पहुँचते-पहुँचते आधा रीत जाता हूँ। क्यों करती हो आप ऐसा? दायें वाला कितना अच्छा है। वैसा ही दूसरा बाजार से क्यों नहीं ले आती?

अम्मा हौले से मुस्करायी, बोली, क्या आते हुए तुमने कभी रास्ते पर ध्यान दिया है? तुम्हारी ओर कैसी फुलवारी होती है पर ऐसा दाँयीं ओर नहीं है। पता है क्यूँ? क्योंकि तुम में से पानी रिसता है। पिछले दो सालों से तुम रास्ते के बायीं ओर के पौधों को रोजाना पानी पिला रहे हो। तुम्हारी वजह से वो रास्ता आबाद, खुशगवार है और मालूम तुम्हें, ये जो रोज पूजा में ताजे-सुगन्धित फूल मैं चढ़ा पाती हूँ, उसकी वजह तुम ही हो। वरना इस उम्र में मैं कहाँ जाती फूल चुनने। तुम तो अब तक के सारे घड़ों में मुझे सबसे प्रिय हो। अब तो उस रिसते घड़े की आँखों में भी पानी था। 

ये चीनी लोक-कथा मैंने कहीं पढ़ी, कितनी मार्मिक!
और इससे जो मैं समझा वो ये कि 
रिसने में ही उस घड़े की सार्थकता थी। जिसे वो आज तक अपनी कमी और दुर्भाग्य समझता आया था वही उसकी खास बात थी। उसी वजह से तो वो अम्मा को इतना प्यारा था। उसका जीवन-उद्देश्य अम्मा के लिए ताजे-सुगन्धित पूजा के फूल जुटा पाना था और ये उसके रिसते रहने से ही सम्भव था। 
तो, हम जैसे हैं ठीक हैं, यही हमारा होना है और जरुरी भी क्योंकि इसके बिना हमारा अपने उद्देश्यों को पूरा करना सम्भव नहीं। यही वो बात है जो हमें सबसे अलग करती है और हमारे अपनों की नजरों में चढ़ाती है। इसी वजह से ही हमारे जीवन में सुन्दरता है और हम प्रेम के लायक।