Saturday 16 April 2016

सफलता, आपके अपने तरीके से


सफलता की ये परिभाषा सचमुच हौसला बढ़ाने वाली लेकिन सोचने पर मजबूर देनी वाली थी। मेरे प्रिय लेखक ऐलन कोहेन लिखते हैं, "व्यक्ति की सबसे बड़ी सफलता अपनी तरह जी पाने में है।" 
हौसला बढ़ाने वाली इसलिए कि मेरे अपने जीने के तरीके को समर्थन था। मैं जैसा हूँ ठीक हूँ ये छिपा सन्देश था, जैसे मेरे होने को ही मान्यता थी। और सोचने वाली इसलिए कि अपनी तरह जीना कहते किसे हैं? ये 'अपना तरीका' किसी में कब और कैसे बनता है? या ये उसमें होता है, जन्मजात जैसे डीएनए। 

जब मैं इस 'अपने तरीके' को टटोलने लगा तो पाया हम अमूमन उसे अपना तरीका कहते हैं जिसे हमसे पहले किसी और ने आजमा कर वो सब हासिल किया है जो हम भी अपनी जिन्दगी से चाहते हैं। वाजिब भी है हमारा ऐसा सोचना, दो दूनी चार होते हैं तो चार भाजक दो भी तो दो ही होंगे ना? वैसे ही, हम कैसे जीना चाहते हैं ये स्पष्ट हैं तो हमें तरीका भी तो वो ही अपनाना पड़ेगा ना? कारण और परिणाम की यही शिक्षा तो हम स्कूल-कॉलेज में लेकर बड़े हुए हैं। पर न जाने क्यूँ अपने आप से तर्क करते हुए मैं भी ठीक वैसा ही महसूस कर रहा था जैसा पढ़ते हुए अभी आप कर रहे हैं, थोड़ा सा असहज। क्या गड़बड़ है ये तो मालूम नहीं चल रहा था पर कुछ तो है जो ठीक नहीं है ऐसा पक्के से लग रहा था। 

काफी सोचने के बाद भी कुछ नहीं सूझा तो लगा दो-चार दिनों के लिए बात यहीं छोड़ देते हैं, प्रश्न करना हमारा काम है जवाब देना प्रकृति का। वो अपने तरीके से जब उचित समझेगी अपने आप बताएगी। मैं दूसरा कुछ पढ़ने-लिखने में लग गया। अचानक एक दिन लगा जैसे कोई मुझसे पूछ रहा था कि जिन्दगी क्या कोई गणित है? ये प्रश्न नहीं जवाब था। और फिर इसके सहारे-सहारे तो मैं चलता ही चला गया। हम चाहे अपने मन से तय करें या किसी को देखकर कि हम अपना जीवन कैसे जीयेंगे लेकिन उसे पाने का तरीका हमारा अपना होगा, वो जो हमारे जीवन-मूल्यों से मेल खाता हो। लता मंगेशकर की बड़ी तमन्ना थी कि वे एक बार के. एल. सहगल के साथ गाए और उतना ही नाम कमाए, उन्होंने शायद उससे भी अधिक कमाया भी पर गाया हमेशा अपनी तरह। बात समृद्धि की हो तो व्यापार नारायण मूर्ति और प्रेमजी अजीम जैसे लोग भी करते हैं और वे लोग भी हैं जिनके नाम रोज अखबारों को भरने के काम आते हैं।  

अब बात थी कि ये 'अपना तरीका' जन्मजात होता है या व्यक्ति इसे कहीं से सीखता है? बात लता जी चल रही थी तो इसे भी गायन के उदाहरण से ही समझते हैं, अपनी तरह गाना जन्मजात होता है लेकिन पेशेवर गायिकी में अपना व्यवहार कैसा रखना है, कैसे गाने गाने हैं ये निर्भर करता है उस गायक के जीवन-मूल्यों पर जो उसने अपनी सोच-समझ से चुनें हैं। यानि ये होता जन्मजात है जिसे व्यवहार में लाना व्यक्ति धीरे-धीरे अपने चारों ओर से चुनता है, सीखता है। 

तो, जो मैं समझा 
वो ये था कि हम जैसे हैं ठीक हैं, हमारे तरीके हमारे अपने हैं जिन्हें बदलने की कोई जरुरत नहीं चाहे हम जो जिन्दगी से चाहते हैं वो किसी और ने किन्हीं और तरीकों से हासिल किया हो। इस तरह सफलता की इस परिभाषा में एक आश्वासन भी छिपा था कि एक ही चीज को कई तरीकों से हासिल किया जा सकता है। ये आश्वासन ही तो इसकी विशेषता है जो हमें हिम्मत देती है अपने विश्वासों, अपने मूल्यों पर टिके रहने की। और ऐसा व्यक्ति तो निश्चित ही सफल है ही। 

Monday 4 April 2016

जो है वही है


अभी मैं जो पुस्तक पढ़ रहा हूँ ये सचमुच नई दृष्टि देनी वाली है। डॉ. अभय बंग की लिखित 'ह्रदय रोग से मुक्ति'। नाम से तो ऐसा ही लगेगा जैसे हर दूसरी किताब की तरह ये भी कोई नुस्खे बताने वाली किताब ही है, बशर्ते कि आप श्री अभय बंग को नहीं जानते हों। महाराष्ट्र के गढ़ चिरौली आदिवासी इलाके में डॉ. अभय पिछले करीब 28 सालों से काम कर रहे हैं। एम.डी. के बाद आगे पढ़ने वे जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी, अमेरिका चले गए, समय-समय पर उनके रिसर्च-पेपर अलग-अलग मेडिकल जर्नल्स में छपते रहे हैं। 44 वर्ष की उम्र में एक दिन अचानक उन्हें हार्ट-अटैक आ गया। वैसे ये किसी को भी कह कर नहीं आता, पर सभी को लगता ऐसे ही है। बात जीवन-मरण की थी और वो भी एक शोधार्थी के सामने। उन्होंने अपनी ही शोध शुरू कर दी। 

अगले तीन सालों तक उनका जीवन ही उनकी प्रयोगशाला रहा और वे बीमारी को काबू में ही नहीं पलटने में भी कामयाब हुए। ये उसी सफर की आत्म-कथा है। पहले दो अध्यायों में तो उनकी पड़ताल शरीर के स्तर पर होती है पर तीसरे अध्याय से वे मन को खंगालने लगते हैं। आप चौंक उठते हैं, ऐसा लगता है जैसे आपके मन की परतें भी साथ में उधड़ रही हैं। एक जगह आकर वे लिखते हैं कभी ईश्वर होने या उसके कैसे होने की मैं कल्पना करता तो वैसी ही कर पाता जैसा मैंने बचपन से पौराणिक कथा-कहानियों में सुना था। बादलों के पार बड़े से सिंहासन पर बैठा सोने के मुकुट-आभूषणों और रेशमी वस्त्र पहने कोई दिव्य पुरुष। पर साथ ही लगता, ऐसा कैसे हो सकता है? और दूसरे ही पल सँस्कार इस पर सोचने से मना करने लगते। पर अब तो वे शोध कर रहे थे। 
एक दिन उनके हाथ लगी गाँधी जी की आत्म-कथा, 'सत्य के साथ प्रयोग।' पढ़ी उन्होंने विद्यार्थी-जीवन में भी थी पर अब दृष्टि दूसरी थी। उसमें एक जगह गाँधी जी कहते हैं, 'सत्य ही ईश्वर है।' बस, यही वो तथ्य था जिसने उनकी शोध के इस हिस्से को मुकाम तक पहुँचाया।  

हम सब ये तो सुनते-पढ़ते बड़े हुए हैं कि 'ईश्वर ही सत्य है' पर वे तो कह रहे थे, 'सत्य ही ईश्वर है'। बात तो ठीक थी, यदि ईश्वर सत्य है तो सत्य ही ईश्वर है पर शब्दों के इस फेर से आगे रोशनी दिखने लगी थी। ईश्वर को हम खोज पाएँ न खोज पाएँ, या खोजा भी जा सकता हो या नहीं लेकिन 'सत्य' को तो ढूँढा ही जा सकता है। और यदि वही ईश्वर है तब तो इसका मतलब हुआ कि ईश्वर को भी ढूँढा जा सकता है। तो 'सत्य' क्या है? ......... अरे! प्रश्न को मुश्किल क्यूँ बनाना? जो है वही तो सत्य है, हमारे चारों तरफ बिखरा पड़ा। ये पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, आप-मैं, यहाँ तक कि एक चींटी भी, और यही ईश्वर है। ऐसा समझते ही एक बात और सतह पर आयी और वो यह कि जो है वो तो इसी क्षण में है। अतः 'जो है' उससे जुड़ना है तो इसी क्षण में रहना होगा। इसी क्षण में रहना युक्ति है तो इसी क्षण में बिखरा सौन्दर्य 'ईश्वर'। शायद इसी सौन्दर्य को बखानने हमारे पूर्वजों ने उस 'दिव्य-पुरुष' की कल्पना की होगी। 

तो, जो मैं समझा,
वो यह कि यदि ईश्वर ही हमारा उद्धार करते हैं तो वे तो इसी क्षण में हैं। यानि न तो जो था और न ही जो होगा उससे हमारा कुछ हो सकता है। हमारा कुछ हो सकता है तो बस, इस क्षण में जो है उसी से। इस तरह तो 'जो है' उसे स्वीकारना 'ईश्वर-दर्शन' ही हुआ और उससे आगे बढ़ने  प्रयास 'ईश्वर-भक्ति'। बात बस इतनी सरल-सीधी है और हम हैं कि न जाने कहाँ-कहाँ उलझे हुए हैं।