Friday 26 April 2013

ऐसे भलों से दूरी भली



शाम का समय था, कॉलोनी पार्क में बहुत चहल-पहल थी। पेड़ की छाँव में खड़ी दो महिलाएँ आपसी बातचीत में थोड़ी देर के लिए मशगूल क्या हुई उनके दोनों बच्चे न जाने कब आँख चुरा उसी पेड़ पर चढ़ गए। जैसे ही ध्यान गया, एक मिनट के लिए तो दोनों ही बुरी कदर घबरा गई। बच्चे भी समझ गए और नीचे उतरने लगे। पहली महिला अपने बेटे से बोली, बेटा! ध्यान से, कहीं गिर न जाओ। दूसरी ने कहा, बेटा! सम्भल कर, तुम उतर पाओगे। पहली वाली का बेटा उतरते हुए गिर पड़ा जबकि दूसरी वाली का बेटा धीरे-धीरे आराम से उतर पाया।

दोनों बच्चों की क्षमताओं में कोई कमी नहीं थी, जिस बच्चे के अवचेतन ने जैसा सुना वैसा किया। एक ने 'गिरना' सुना तो दूसरे ने 'सम्भलना'। हमारे लिए भी यह ध्यान रखना बहुत जरुरी है कि हमारा अवचेतन क्या ग्रहण कर रहा है। हमारा अवचेतन विचार-वाक्य में सिर्फ क्रिया को समझ पता है जैसे उसने 'गिरना' तो समझा लेकिन उसके साथ लगे 'न' को नहीं समझ पाया। चेतन-शक्ति जिसके लिए असम्भव कुछ भी नहीं, जुट जाती है उसे वास्तविकता में बदलने जो अवचेतन ने सुना-समझा होता है। अब आप ही बताइए कितना जरुरी है ऐसे लोगों से दूर रहना जो बात-बात पर हमें अपनी कमतरी का अहसास कराते हों, हमारी आलोचना करते हों, चाहे उनकी मंशा कितनी ही अच्छी क्यूँ न हो।

हम सब के जीवन में ये शुभचिंतक दोस्त, रिश्तेदार या संगी-साथी के रूप में मौजूद है। इन बेचारों की कोई गलती नहीं, इनका अहं इन्हें ऐसा करने को मजबूर करता है। अहं इनकी अच्छाई, बुद्धिमत्ता और सामर्थ्य को अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने में उपयोग लेने लगता है और ये उसके हाथ की कठपुतली बन जाते है। बेशक ये हमारा भला ही चाहते है लेकिन अपनी श्रेष्ठता का अहसास करवाये बिना ये ऐसा कर ही नहीं पाते और ऐसा करने के लिए जाने-अनजाने ये हमें गलत सिद्ध करने लगते है। कुछ लोगों को तो मदद करने की लत होती है, उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि अगले को इसकी जरुरत भी है या नहीं।

संयम तो हमें जिन्दगी की मुश्किल घड़ियों में रखना होता है। एक तरफ तो हमारा कमजोर विश्वास तो दूसरी तरफ मदद को हमेशा बेताब ये लोग। ऐसे समय भी हमें हर सम्भव कोशिश करनी चाहिए कि हम ऐसे लोगों से बचे रहें। हो सकता है उस समय-विशेष का काम इनकी मदद से आराम से पूरा हो जाए लेकिन इनकी मदद करने का तरीका हमें ज्यादा लम्बे समय के लिए मानसिक रूप से कमजोर बना सकता है जिससे उबर पाना भी बहुत कठिन। इसके बावजूद ऐसे लोगों की मदद लेनी भी पड जाए तो अपना ध्यान रखिए कि इनकी अहम् तुष्टि के चलते आप में कोई हीन या कमतरी की भावना घर न कर जाए।

मैं कतई इस बात की पैरवी नहीं कर रहा कि हमें किसी की मदद नहीं लेनी चाहिए बल्कि मैं तो मानता हूँ कि वाजिब मदद माँगने में बिल्कुल झिझक नहीं होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो फिर वो हमारा अहं है लेकिन हाँ, इतना जरुर है कि इस बात का ख़ास ख्याल रखना चाहिए कि हम मदद ले किस से रहे हैं? मदद लेने और देने का आधार प्रेम हो न कि अहं की तुष्टि।

अपने रिश्तों का आधार विचारों, मूल्यों और प्रेम को बनाइए न कि कौन सा व्यक्ति कितना काम आ सकता है, फिर देखिए जिन्दगी की कोई परेशानी आपके पास फटक ही नहीं सकती और रही बात उन लोगों कि तो मैं बस इतना ही कहूँगा कि ऐसे भलों से तो दूरी भली।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 21 अप्रैल को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ..............                              

Friday 19 April 2013

जो है वो अच्छा



एक था राजा, गुणों का पारखी। एक से बढ़कर एक रत्न थे उसके दरबार में। उनमें भी एक उनका बिल्कुल खास जिसे वे हमेशा अपने साथ रखते थे क्योंकि उसके पास हर दुविधा का जवाब होता था। हर मुश्किल को देखने का अलग नजरिया। इसके बावजूद राजा उसकी एक आदत से बहुत परेशान था। वो थी, बुरी से बुरी बात में भी बहुत अच्छा देखने की कोशिश करना। कई बार तो हद ही हो जाती थी।

ऐसा ही हुआ जब एक बार राजा उसे शिकार पर अपने साथ ले गए। मचान पर बैठने और अपनी स्थिति लेने से ठीक पहले राजा अपने हथियार सम्भाल रहे थे। क्या मालूम क्या हुआ कि उनके हाथ से अचानक ही तलवार छिटक गई और जा गिरी सीधे पैर के अंगूठे पर और अंगूठा अलग। राजा दर्द से कराह उठे। उनका वो मित्र दरबारी लपका लेकिन पट्टी बाँधते हुए बोलने लगा, 'चलो! अच्छा ही हुआ, इसमें भी कुछ अच्छा ही होगा।' इस बार राजा अपने गुस्से को नहीं सम्भाल पाए। उन्होंने उसे सूखे कुएँ में धकेल, मरने के लिए छोड़ दिया और स्वयं वापस लौटने लगे। इधर जंगल के आदिवासी अपनी पूजा-अर्चना के लिए नर-बलि ढूंढ़ रहे थे। उन्होंने लौटते हुए राजा को धर लिया। राजा को तैयार करके बलि के लिए लाया गया। अचानक उनके पुरोहित की नज़र राजा के नदारद पैर के अंगूठे पर पड़ी। उसने सारा उत्सव वहीं रुकवा दिया। अंग-भंग वाले नर की बलि नहीं दी जा सकती थी और राजा उनके चंगुल से छूट गया।

राजा को अपनी गलती का अहसास हो रहा था, वो तेजी से उस सूखे कुएँ के पास पहुँचे। अपने मित्र को सही-सलामत देख उनके जान में जान आयी। उसे बाहर निकाला और उससे माफ़ी माँगने लगे। मित्र बोला, 'कोई बात नहीं राजन, माफ़ी की कोई जरुरत नहीं। ये भी अच्छा ही हुआ।' इस बार राजा को गुस्सा नहीं आया पर उसने पूछा जरुर कि अब इसमें तुम्हें क्या अच्छा नज़र आ रहा है? मित्र बोला, सोचो राजन! यदि मैं आपके साथ होता तो मेरी बलि चढ़ जाती। राजा अवाक रह गए।

हमें पूरी बात कहाँ मालूम? इस कहानी की ही तरह कितनी बार नहीं होता कि जो बात हमें घटते समय दुर्भाग्यपूर्ण लगती है वही आगे चलकर हमारे लिए फायदेमंद साबित होती है। कई बार तो वे हमारे जीवन का निर्णायक मोड़ होती है। हम खामखाँ ही परेशान होते है। हमारा काम तो महज इतना है कि अनचाही परिस्थितियों में भी जितना हो सके शांत मन एवम पूर्ण विवेक के साथ जो उचित हो वो करते चले जाएँ। जीवन के प्रति यह दृष्टी कुछ ही समय में यह अहसास करवा देगी कि स्थिति कोई भी अच्छी या बुरी नहीं होती, वे सिर्फ स्थितियाँ होती है। ये क्षण बीते क्षणों का नतीजा जरुर होता है लेकिन इस क्षण को कैसे और कितना सुन्दर बनाना हमेशा हमारे हाथ होता है।

जिस तरह हम स्थितियों के अच्छी या बुरी होने की धारणा बना लेते है वैसे है हम अपनी आधारभूत प्रकृति के बारे में भी धारणा बना लेते है। कोई कम बोलता है तो कोई ज्यादा, किसी को अकेला रहना पसंद है तो कोई लोगों से घिरा रहता है और ऐसे ही न जाने कितने भिन्न स्वभाव। जिस में जो है उस पर ही वो अवगुण का लेबल चस्पा कर देता है और अपने मन में ग्लानि और हीन-भावना के लिए जगह खाली कर देता है। क्या सच हमें पक्का मालूम है कि ये जिन्दगी हमें कहाँ ले जाना चाहती है, उनके लिए किन विशेषताओं की जरुरत  है?

आप जैसे है ठीक है, स्थितियाँ जैसी है ठीक है। यदि आपका अंतर्मन कहता है कि आप अपने में या स्थितियों को बदलिए तो ऐसा जरुर कीजिए लेकिन उन्हें गुण-अवगुण या अच्छी-बुरी के कठघरे में खड़ी मत कीजिए। जी है वो अच्छा है तभी जो होगा वो भी अच्छा होगा।


(जैसा की नवज्योति में रविवार, 14 अप्रैल को प्रकाशित) 
आपका 
राहुल .............                                          

Friday 12 April 2013

आनन्द और प्रेम



यह सच है कि हमारे कुछ करने या न करने से कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई रास्ता कहीं नहीं पहुँचाता। आप चाहे जितने विवेकी हों, आप कुछ पा नहीं सकते, कोई आपसे कुछ छीन नहीं सकता। आप सम्पूर्ण है, थे और रहेंगे। ये सारी बातें सुनी सबने है पर अध्यात्म हमें इसका अनुभव कराता है। जब हम स्वयं को जानने-समझने की कोशिश में लगे होते है तब एक जगह आकर ऐसा लगने लगता है कि कुछ करने की जरुरत नहीं। अगर यह सब निरर्थक है तो कुछ नहीं करना ही अच्छा। शायद यही कारण है कि हम में से अधिकांश लोग अध्यात्म से कतराते है या इसे उन लोगों के लिए ठीक समझते है जिन्होंने अपनी जिन्दगी को भरपूर जी लिया हो।

यह सत्य की गलत व्याख्या है, अर्थ का अनर्थ है। आत्म को जानना कभी आत्मिक सुख से दूर नहीं कर सकता वैसे ही जैसे अपनी पसंद को जानना कभी आपको नाखुश नहीं कर सकता। अरे! जब परमात्मा ही प्रतिक्षण सृजन में लिप्त है तो अध्यात्म हमें निष्क्रिय कैसे बना सकता है? यह ज्ञान कि 'हम ईश्वर की स्वतंत्र भौतिक अभिव्यक्ति है' और 'विशुद्ध प्रेम हमारी ऊर्जा है', तो हमें समर्थ बनाता है कि हम वो करें जिसे सोचने मात्र से हम अपने आपको अधिक जीवित महसूस करते हों, जिसे करना हमें अपनी सम्पूर्णता और सार्थकता का अहसास कराता हो। जब हम कुछ भी करें और कोई फर्क नहीं पड़ता तो वो क्यूँ करें जो मन कचोटता हो। हम वो करें और वैसे करें कि हमारी सुगन्ध उसमें हमेशा ताजा कायम रहे। हमारा कुछ भी किया हमारी उपस्थिति दर्ज कराए।

अपनी बात को और ढंग से कहने के लिए माँ के हाथ की बनी रोटी से बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है। रोटी बनाने में कोई बड़ी विद्या नहीं, पर माँ के हाथ की रोटी का स्वाद हो कुछ और होता है। माँ खाना खिला रही हो, और बीच में किसी और के हाथ की बनी रोटी आ जाए तो फट से मालूम हो जाता है क्योंकि वह रोटी प्रेम की आँच पर सीकी होती है। हम भी तो अपने किए और न किए के सृजक है, माँ है।

इन सारी बातों का निचोड़ सिर्फ इतना ही कि आप अपने जीवन की नींव उन मूल्यों पर रखें जिन्हें आपका अंतर्मन सहज स्वीकार करता हो। याद रखें, आप ईश्वर की स्वतंत्र भौतिक अभिव्यक्ति है और आपकी अद्वितीयता से ही इस संसार की सुन्दरता है। अपने जीवन का वो रास्ता चुनें जो आपको ख़ुशी देता हो। आपके कुछ करने या न करने का प्रथम आधार उससे मिलने वाला आत्मिक आनन्द हों। जिस काम से आपको आत्मिक आनन्द मिलेगा उसे ही तो आप विशुद्ध प्रेम की उष्मा दे पाएँगे। विशुद्ध प्रेम, जो हमारे वज़ूद की वजह है। यदि कोई काम आप प्रेम से नहीं कर सकते तो बेहतर है उसे न करें, चाहे बात रोजमर्रा के छोटे-मोटे कामों की हो या जीवन के महत्ती कामों की।

सार-संक्षेप यही कि आत्म की दृष्टी से कुछ भी करने योग्य नहीं फिर भी कर्म हमारा स्वभाव है अतः अपने जीवन में आत्मिक आनन्द का सृजन करते चलिए और शेष उस सृजक पर छोड़ दीजिए जिसकी हम सृजना है। खलील जिब्रान गागर में सागर यूँ भरते है, " अपने कर्मों की बाँसुरी बन जाएँ। बाँसुरी, जिसके ह्रदय में घंटों फूंकने का जतन संगीत बनकर निकलता है। जिन्दगी का गूढ़ रहस्य है उसे मेहनत के जरिये प्रेम करना। हमारे कर्म अन्तरम प्रेम के इज़हार का जरिया हों, वे ही आत्मिक आनन्द देंगे।"


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 7 अप्रैल को प्रकाशित)
आपका 
राहुल .............    

Friday 5 April 2013

साथ चल कर देखें



जीवन एक उत्सव है तो दुनिया एक सैर और हम सब यहाँ इकट्ठा हुए है जिन्दगी नाम की पिकनिक को मनाने। पिकनिक, जहाँ हमख्याल दोस्त कुछ समय के लिए ही सही, साथ मिलकर जिन्दगी का आनन्द उठाते है। आप भी कई बार पिकनिक गए होंगे। आपने नहीं देखा, वहाँ आपकी कुछ बातें दूसरे मान लेते है तो कुछ दूसरों की बातें आपको माननी पड़ती है। हमारा जीवन भी कुछ ऐसा ही है क्योंकि उत्सव मनाने का यही सही तरीका है और दुनिया शब्द का तो अर्थ ही 'दो' से है।

आप कहेंगे एक तरफ तो, व्यक्ति ईश्वर की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है अतः वह अपना जीवन कैसे जिएगा यह सिर्फ और सिर्फ वह ही तय करेगा। व्यक्ति के जीवन की दिशा वह हो जिस ओर से अन्तर्मन पुकारे। दूसरी तरफ आज मैं जिन्दगी का लुत्फ़ उठाने के लिए एक दूसरे की बात मानने की वकालात कर रहा हूँ। एक दुसरे का साथ निभाने की बात कर रहा हूँ।

देखिए, जीवन की कुछ बातें होती है सैद्वान्तिक जिनका सम्बन्ध व्यक्ति की छोटी-मोटी आदतों से होता है। निस्संदेह व्यक्ति को किसी के लिए भी अपने जीवन मूल्यों से समझोता नहीं करना चाहिए। श्रेष्ठ जीवन वही है जिसका आधार मूल्य हों। साथ ही आपको यह छूट अपने प्रियजनों और परिजनों को भी देनी होगी, उनकी अद्वितीयता को स्वीकारना होगा और यह तब ही संभव होगा जब हम अपनी छोटी-मोती आदतों को बदलने को तैयार हों। अपने आराम को छोड़ने के लिए तत्पर हों। शायद इसीलिए रहन के साथ सहन जुड़ा होता है। साथ रहना है तो थोडा सहना भी होगा।

इस तरह जब आप दूसरों की बात समझने को तैयार होंगे, उनकी बात उन्ही की भाषा में सुनने को तैयार होंगे तो निश्चित ही वे अपने आपको आपके साथ सहज महसूस करेंगे। वे आपकी बात खुले मन से सुनेगें  और तब ही आप अपनों के जीवन में किसी सुन्दर बदलाव का कारण बन पाएँगे। ये आपके जीवन को भी स्वतः ही सुंदर बना देगा क्योंकि प्रत्युत्तर में आप भी तो वैसा ही व्यवहार पाएँगे।

क्या मालूम हम सबकी यह प्रवृति है कि कोई माँगे तो दूँ , शायद यह भी अहं का ही एक राग है। हम इंतज़ार करते है कि कोई हमें कहे तो हम उसके लिए कुछ करें। मैं सोचता हूँ, क्यों नहीं हम अपना जीवन सुखद बनाने के लिए ऐसा सोच कर देखें कि वे मेरी कौनसी आदतें है जो मेरे अपने मुझमें बदलना चाहेंगे। आपको भी मालूम है और मुझे भी, कि जानते तो हम सब है पर उन्हें सतह पर नहीं आने देना चाहते क्योंकि इससे हमारे आराम में खलल पड़ता है, बेचारे अहं को चोट पहुँचती है। जिन्दगी को बुहारना है तो ये कष्ट को पाना ही पड़ेगा। अपनों के लिए अपने को थोडा सा बदलकर देखिए, आप अंदाजा ही नहीं  सकते कि एवज में आपको कितना मिल सकता है। निदा फाज़ली ठीक ही फरमाते है.............

मुम्किन है सफ़र हो आसाँ,
             अब साथ भी चल कर देखें 
कुछ तुम भी बदल कर देखो 
             कुछ हम भी बदल कर देखें
 

(नवज्योति में रविवार, 31मार्च को प्रकाशित)
आपका 
राहुल……