Monday 17 October 2016

इसमें उसकी कोई गलती नहीं







काम पड़ गया था उससे फिर एक बार। हर बार सोचता था अब कभी इससे दिमाग नहीं लगाऊँगा, लेकिन हर बार स्थितियाँ ऐसी बनती कि अन्ततः अपने आपको उससे बात करते पाता। इस बार फोन पर उधर से आ रही आवाज में एक विश्वसनीयता झलक रही थी, और अन्त तो इस तरह हुआ कि, "जो भी होगा मैं आपको बताऊँगा, 'हाँ' होगी तब भी और 'ना' होगी तब भी, और वो फलाँ तारीख की शाम को नहीं तो अगले दिन सुबह।"

बड़े भरोसे में वे तीन दिन बीते, फिर वो शाम भी और फिर अगले दिन की सुबह भी। मैंने सोचा, कुछ हो गया होगा! लग जाता है समय किसी को भी, एक दिन तो और देखना चाहिए, यूँ जल्दबाजी करना भी ठीक नहीं ........ वो दिन भी बीता। अगले दिन मैंने फोन लगाया और वो नहीं उठा। मैंने अलग-अलग समय पर, गैप दे, कांटेक्ट करने की कोशिश की। उसे नहीं उठाना था उसने नहीं उठाया। हर बार झुँझलाहट बढ़ती, और अन्तिम कोशिश गुस्से में तब्दील होकर बन्द हुई। मैं फिर वही मन्त्र दोहरा रहा था, आईन्दा कभी इस आदमी से दिमाग नहीं लगाऊँगा। 

काम किसी के भरोसे नहीं रहता, मेरा भी निकल गया, मन कुछ शान्त हुआ और मैं सोचने लगा, कुछ तो है जो मैं नहीं सीख रहा हूँ तब ही तो हर बार इस झुँझलाहट और गुस्से का शिकार होता हूँ। और ना जाने कहाँ से पृथ्वीराज चौहान-मोहम्मद गौरी की दास्ताँ याद हो आयी और पूरी बात समझ में आ गई। क्षमा सदगुण है लेकिन किसी व्यक्ति के स्वभाव को नहीं पहचानना लापरवाही। क्योंकि मुझे जरुरत थी, क्योंकि उसका लहजा विश्वसनीय था, इससे उसका स्वभाव नहीं बदल जाता। वैसे भी किसी के स्वभाव का बदल पाना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। ये कोई और नहीं खुद व्यक्ति ही कर सकता है, वो भी केवल चाहने भर से नहीं होता बल्कि लगातार वर्षों के अथक प्रयासों का परिणाम होता है। उसने जो किया, वो वैसे ही कर सकता था। इसमें उसकी कोई गलती नहीं थी। गलती मेरी थी कि मैंने उससे उसके स्वभाव से विपरीत आचरण की उम्मीद की। 

तो, जो मैं समझा वो ये कि 
हमें निश्चित ही छोटी-छोटी बातों में किसी के बारे में राय नहीं बनानी चाहिए, यानी 'जजमेंटल' नहीं होना चाहिए। हमारा व्यवहार काफी कुछ उन परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है जिनसे उस समय हम गुजर रहे होते हैं लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि हम किसी के स्वभाव को समझे ही ना। समझना होगा कि, व्यक्ति अपने स्वभाव के विपरीत आचरण तो चाह कर भी नहीं कर सकता। 
और प्रकृति का वरदान हैं हमारे में अच्छे-बुरे में भेद करने की क्षमता का होना। ऐसा न कर हम अपने ही रास्ते में खड़े होते हैं। ये वैसे ही है जैसे हम अहिंसा के नाम पर अपनी आत्म-रक्षा से ही परहेज करने लगें।