Wednesday 16 November 2016

खेल-खेल में







आज ही तो मिला था उसे खिलौना, और उसने पूरा खोल दिया था उसे। अब लगा था अस्थि-पंजर जोड़ने। ऐसा वो ही नहीं सारे बच्चे ही करते हैं। वे अचम्भित होते हैं उसे बजता, कूदता, नाचता देख और फिर रह नहीं पाते कि ये होता कैसे हैं? नतीजा, तितर-बितर हो जाता है वो बेचारा। बहुत कम ही बार होता है कि वो वापस से जुड़ पाता है, लेकिन जब कभी ऐसा हो पाता है एक अजब सी पुलक उनके चेहरे पर होती है, जैसे कलिंग विजय कर ली हो। 

धीरे-धीरे ये छोटी-छोटी विजयें हमारे सीने पर होशियार होने का तमगा लगा देती है और इसके साथ ही हम बड़े होते जाते हैं। ये भूल जाते हैं कि ये सब तब की बातें थीं, हमारा कौतूहल था, इसका मूलतः हार-जीत से कोई लेना-देना नहीं था। वो तो बस सहज परिणाम थी, पर बड़े होकर हम सहज कहाँ रह जाते हैं। कौतूहल अहं में तब्दील हो चुका होता है। अब तो, हमें रोज जीतना होता है, ये हमें सन्तुष्टि का अहसास देता है, हमारे होने को स्वीकृति देता है लेकिन इसके लिए जरुरी है कि कुछ बिखरा हो। तब ही तो हम जोड़ पायेंगे, जीत पायेंगे और और जब ऐसा नहीं होता तब बच्चों की ही तरह बिखेरने-फैलाने लगते हैं। इस बात का मुझे अहसास उस दिन हुआ जब बिना वजह मैं अपने चारों और अपनों के बारे में सोचने लगा था। मुझे तो नहीं लगता, पर उनकी नजर में वे समस्याओं से घिरे थे। बिल्कुल वैसे ही जैसे, 'जवानों चारों और से दुश्मन ने हमें घेर रखा है, गोली जिधर चलाओगे दुश्मन ही मरेगा।' वे गोलियाँ चलाने में लगे हैं लेकिन छलनी भी खुद ही हो रहे हैं, क्योंकि दुश्मन तो असल में कहीं है नहीं और लड़ने में जो जान निकल रही है सो अलग। 

ऐसा नहीं, कुछ बातें, कुछ परिस्थितियाँ होती हैं जिन्हें किसी भी हालत में हमारी जिन्दगी में नहीं होना चाहिए, और इन्हीं से अनवरत युद्ध असल जीवन है लेकिन वे बहुत थोड़ी, बहुत गहरी होती हैं। रही बात रोजमर्रा की तो ऐसे लगता है जैसे हमें समस्याओं से प्रेम है। हम चाहते हैं उनका हमारी जिन्दगी में होना। ये मौका देती है हमें उन्हें हल करने का जो हमारे अहं को सन्तुष्ट करता है। नहीं मिलती है तो हम ढूँढने लगते है, और ढूँढते हैं तो किसी कोने में कोई छोटी सी दुबकी मिल भी जाती है और ऐसा भी नहीं हो पाता, तो सोच-सोच कर पैदा कर लेते हैं। फिर हमें अच्छा लगता है, हम थकते हैं, तनाव से भरते हैं पर जीतने की इच्छा बरकरार रहती है। 

तो जो मैं समझा वो ये कि 
जिन्दगी को उसकी अपूर्णता के साथ ही स्वीकार करना होगा। कुछ भी 'परफेक्ट' नहीं, और यही सौन्दर्य है, फिर हम क्यूँ लगे हैं अपनी जिन्दगी को 'परफेक्ट' बनाने में। जिन्दगी सहज, सरल है और इसका आनन्द लेना है तो वैसा ही बन कर लिया जा सकता है। उसकी यही 'रिदम' है। हम बहुत कुछ कर सकते हैं, पर योजनाएँ जिन्दगी की होंगी। उन्हें होने देना और सफल बनाना ही पुरुषार्थ है। 
सब कुछ हल नहीं करना होता और हर अनचाही स्थिति समस्या नहीं होती। 
हमारी योग्यता अहं बन जीवन के आनन्द को कम न करने पाए।  

Monday 17 October 2016

इसमें उसकी कोई गलती नहीं







काम पड़ गया था उससे फिर एक बार। हर बार सोचता था अब कभी इससे दिमाग नहीं लगाऊँगा, लेकिन हर बार स्थितियाँ ऐसी बनती कि अन्ततः अपने आपको उससे बात करते पाता। इस बार फोन पर उधर से आ रही आवाज में एक विश्वसनीयता झलक रही थी, और अन्त तो इस तरह हुआ कि, "जो भी होगा मैं आपको बताऊँगा, 'हाँ' होगी तब भी और 'ना' होगी तब भी, और वो फलाँ तारीख की शाम को नहीं तो अगले दिन सुबह।"

बड़े भरोसे में वे तीन दिन बीते, फिर वो शाम भी और फिर अगले दिन की सुबह भी। मैंने सोचा, कुछ हो गया होगा! लग जाता है समय किसी को भी, एक दिन तो और देखना चाहिए, यूँ जल्दबाजी करना भी ठीक नहीं ........ वो दिन भी बीता। अगले दिन मैंने फोन लगाया और वो नहीं उठा। मैंने अलग-अलग समय पर, गैप दे, कांटेक्ट करने की कोशिश की। उसे नहीं उठाना था उसने नहीं उठाया। हर बार झुँझलाहट बढ़ती, और अन्तिम कोशिश गुस्से में तब्दील होकर बन्द हुई। मैं फिर वही मन्त्र दोहरा रहा था, आईन्दा कभी इस आदमी से दिमाग नहीं लगाऊँगा। 

काम किसी के भरोसे नहीं रहता, मेरा भी निकल गया, मन कुछ शान्त हुआ और मैं सोचने लगा, कुछ तो है जो मैं नहीं सीख रहा हूँ तब ही तो हर बार इस झुँझलाहट और गुस्से का शिकार होता हूँ। और ना जाने कहाँ से पृथ्वीराज चौहान-मोहम्मद गौरी की दास्ताँ याद हो आयी और पूरी बात समझ में आ गई। क्षमा सदगुण है लेकिन किसी व्यक्ति के स्वभाव को नहीं पहचानना लापरवाही। क्योंकि मुझे जरुरत थी, क्योंकि उसका लहजा विश्वसनीय था, इससे उसका स्वभाव नहीं बदल जाता। वैसे भी किसी के स्वभाव का बदल पाना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है। ये कोई और नहीं खुद व्यक्ति ही कर सकता है, वो भी केवल चाहने भर से नहीं होता बल्कि लगातार वर्षों के अथक प्रयासों का परिणाम होता है। उसने जो किया, वो वैसे ही कर सकता था। इसमें उसकी कोई गलती नहीं थी। गलती मेरी थी कि मैंने उससे उसके स्वभाव से विपरीत आचरण की उम्मीद की। 

तो, जो मैं समझा वो ये कि 
हमें निश्चित ही छोटी-छोटी बातों में किसी के बारे में राय नहीं बनानी चाहिए, यानी 'जजमेंटल' नहीं होना चाहिए। हमारा व्यवहार काफी कुछ उन परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है जिनसे उस समय हम गुजर रहे होते हैं लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि हम किसी के स्वभाव को समझे ही ना। समझना होगा कि, व्यक्ति अपने स्वभाव के विपरीत आचरण तो चाह कर भी नहीं कर सकता। 
और प्रकृति का वरदान हैं हमारे में अच्छे-बुरे में भेद करने की क्षमता का होना। ऐसा न कर हम अपने ही रास्ते में खड़े होते हैं। ये वैसे ही है जैसे हम अहिंसा के नाम पर अपनी आत्म-रक्षा से ही परहेज करने लगें।  

Thursday 15 September 2016

सहज ही सही






बात ही कुछ ऐसी थी, मैंने अपने मित्र के साथ कोई काम शुरू किया था और आज बातचीत आपसी लेन-देन पर होनी थी। एक जगह आकर उसने कहा, देख लेना यार, इसे और सोचना 'स्ट्रेस' पैदा कर रहा है इसलिए मैं आगे नहीं सोच रहा। बात यहीं खत्म हो गई और हमने एक-दूसरे से विदा भी ले ली पर मैं मन ही मन अभी भी उसे देख रहा था, सुन रहा था। बहुत कम बार होता है जब मैं किसी को अपने सहज होने को लेकर इतना सजग, इतना गम्भीर पाता हूँ। हम तो ये ख्याल ही नहीं रख पाते कि निर्णय न लेना भी एक विकल्प होता है। इसके लिए हम नहीं वो घुट्टी दोषी होती है जिससे हम समझ आने के पहले दिन से सीख जाते हैं कि जीवन में अवसर बार-बार नहीं आते, पर कभी न कभी आते जरूर हैं इसलिए सफल होना हो तो हर क्षण ताक में रहना चाहिए और जैसे ही आये उन्हें झपट लेना चाहिए। 
हम इसे यूँ कभी देख ही नहीं पाते कि जिन्दगी का तो हर क्षण दो राहा होता है,- ये करें या वो, और हर बार हम उसमें से एक को चुनते हैं। यानि जिन्दगी का हर क्षण एक अवसर है, सहजता और तनाव में से किसी एक को चुनने का। 
क्योंकि आखिरकार ये जिन्दगी है, कोई चूहे-बिल्ली का खेल नहीं। 

हमारी संवेदनाएँ मन से आए संकेत होती हैं यानि तनाव होना ही नकारात्मक संकेत है, इस बात का कि या तो आप सही दिशा में नहीं या अभी सही समय नहीं और ऐसी स्थिति में कुछ तय नहीं करना ही ज्यादा ठीक। तो बेहतर है, यदि रिश्ते विश्वास के हों तो अगले पर छोड़ दें नहीं तो प्रकृति पर। प्रकृति के पास अनगिनत तरीके हैं सही समय पर आपको सही जवाब देने के। वैसे भी, हर बात के होने का एक समय होता है, वो न तो उसके पहले होनी चाहिए और न ही उसके बाद, ठीक एक बच्चे के जन्म की तरह। कई बार हम जरूर अपनी इच्छाओं के चलते कुछ जल्दबाजी मचाने लगते हैं, पर ऐसे करने से होता कुछ नहीं अलबत्ता बात बिगड़ती ही है। आप क्या आप से बात करते-करते, मैं भी सोचने लगा हूँ कि जिन्दगी हमेशा इतनी आसान तो नहीं होती कि आप इतना सीधा-सीधा सोच पाओ। कई मौके ऐसे होते हैं जब हमें कुछ न कुछ निर्णय लेने ही होते हैं, उनका समय आ चुका होता है चाहे वे कितने ही तनाव भरे क्यूँ न हों। पर जब बहुत सोचा तो पाया, सच में वे निर्णय तनाव भरे नहीं होते। हमें हर बार मालूम होता है कि हमें करना क्या चाहिए। हाँ, कई बार हमें करना वो होता है जो हम करना नहीं चाहते। उन निर्णयों के परिणाम हमें पसन्द नहीं होते और तब हम हर सम्भव कोशिश में जुटे होते हैं कि वे किसी तरह टल जाएँ। पर ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि जीवन प्रकृति से बँधा है और प्रकृति नियमों से। 

तो जो मैं समझा, 
वो ये कि यदि आप सहज हैं तो सही हैं, और यदि ऐसा नहीं तो कहीं न कहीं गड़बड़ तो है। 
ऐसा है तो रुकिए, टटोलिये और तब आगे बढिए, यही एकमात्र रास्ता है।  
और ऐसे निर्णय जिन्हें लेना तनाव से भरता हो, उन्हें लेने में उनके परिणामों की बजाय अपनी सहजता को प्राथमिकता दें। यदि ऐसा किया तो धीरे-धीरे ही सही हम उस दिशा में बढ़ते चले जाएँगे जहाँ से परिणाम हमारे पक्ष में आने शुरू होंगे, और यही तो हम चाहते हैं। 

Thursday 1 September 2016

मन की आजादी









'तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है', नीरज जी की ये मार्मिक कविता कितनी माफिक बैठती है हम पर। कितने आगे आ गए हम इन सत्तर वर्षों में, पर मन जैसे दिन-ब-दिन गुलाम होता जा रहा है। जैसे सुबह से शाम तक हम को कोई हाँक रहा हो। सुबह उठने के बाद हम तय नहीं करते हैं कि हम क्या करेंगे और क्या नहीं, ये तो पहले से ही तय होता है। एक लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त तैयार होती है जिसकी हर बात या तो 'पड़ेगा' पर खत्म होती है या 'चाहिए' पर, शायद ही कभी इनकी जगह 'चाहता हूँ' आता हो। 


मजे की बात तो ये कि कोई हमें टोके इसके पहले हमारे पास इसके जवाब मौजूद होते है, जिनका घुमा-फिरा कर मतलब 'सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट' के इर्द-गिर्द होता है यानि अच्छे से जीवन गुजारना है, बने रहना है तो ये सब तो करना ही होगा। मतलब गुलामी तो है ही हमने उसे स्वीकार भी कर लिया है। तन की गुलामी जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी के भेष में आयी थी मन की ये गुलामी सफलता के भेष में आती है और तनाव की जंजीरों से हमें जकड़ लेती हैं। सफल होना है तो खूब काम करना होगा और काम अगर इतना होगा तो जिन्दगी में तनाव तो होगा ही, इस बात पर हमें यकीं ही नहीं है गाहे-बगाहे हम अपने से छोटों को तर्कों-वितर्कों से इस पर यकीं करवाते हुए मिल भी जाएँगे। 

क्या सचमुच ऐसा होगा? क्या मन का गुलाम रहना सफल जिन्दगी की कीमत है? ऐसा कैसे हो सकता है? ऐसा तो नहीं हो सकता, फिर गड़बड़ कहाँ हैं? ये 'पड़ेगा' और 'चाहिए' ही शायद सबसे बड़ी झंझट है। यदि बिल्कुल नहीं तो कम से कम ऐसा हो कि फलाँ काम करना ही पड़ेगा या फलाँ काम मुझे करना ही चाहिए, तब हमारा मन सचमुच मुक्त होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो, जब काम पर हमारा नियन्त्रण और उसे करने, न करने की स्वतन्त्रता होगी तब ही हमारा मन भी आजाद होगा।  
पर ये कैसे होगा?

तो जो मैं समझा, वो ये कि सबसे पहले तो हमें कुछ जगह खाली करनी होगी यानि कुछ काम या जिम्मेदारियाँ जो अनावश्यक हमने ओढ़  लीं हैं उससे मुक्ति पानी होगी। न जाने कितने ऐसे काम हम रोजाना नियम से करते चले जाते हैं जिनके बारे में एक मिनट भी रुककर देखें भी, तो हमें अहसास हो जाएगा कि उन्हें करने की अब कोई आवश्यकता ही नहीं रही। इसके बाद बचे कामों का नियोजन यानि प्लानिंग करनी होगी। ये प्लानिंग समय के दबाव से मुक्त करेगी। ये समय का दबाव ही तो है जो हमें दौड़ता है और फिर वहीं से तनाव का बनना शुरू होता है। अब रही बात काम को करने या न करने की स्वतन्त्रता की, तो इसके लिए हमें थोड़ा अध्यात्म की तरफ मुड़ना होगा। कहीं अपने काम से होने वाले लाभ से हमें मोह तो नहीं हो गया है? हर क्षण ये चिन्ता कि, कहीं मुझे नहीं मिला तो? इसका मतलब यह भी नहीं की हमें अपने काम से मिलने वाले परिणामों की उत्सुकता या इच्छा न हो, बस इतना ही कि ये उसके चुनने की वजह न हो। ये इच्छा-उत्सुकता बढ़ कर मोह में तब्दील हो हमारा सुख-चैन न छिन लें। 
यदि ये हम कर पाए, समझ पाए तो मैं समझता हूँ, उस दिन हमारा तन ही नहीं मन भी आजाद होगा। 

Thursday 21 July 2016

रफत-रफत में





मैं उन्हें डेन्टिस्ट के यहाँ ले कर गया था, हमारा आज का कोई अप्पोइंटमेंट नहीं था, कल ही तो उन्होंने केप लगवायी थी। एक तरह से ट्रीटमेन्ट कल ही खत्म हो गया था। डॉक्टर ने तो रस्मी तौर पर कहा था कि कल आप मुझे फोन पर ही बता देना कि सब कुछ ठीक ही रहा। पर रात ही से उन्हें दर्द था। उन्होंने बड़ी हिम्मत से सहन किया, कोई पेन किलर नहीं लिया जिससे वे डॉक्टर को सही स्थिति बता सकें और उसके लिए तकलीफ को जड़ से पकड़ना आसान हो। जैसे ही हमने अपनी सारी बात बताई, छूटते ही डॉक्टर ने कहा, "तो आपने पेन किलर क्यों नहीं खाई। दर्द जैसे ही बढ़ने लगे हमें दवा खा लेनी चाहिए। दर्द का 'साइकल' तोड़ना बहुत जरूरी होता है, नहीं तो दर्द इकट्ठा होने लगता है और फिर पहले वह असहनीय और फिर लाईलाज हो जाता है।"

डॉक्टर साहब तो रफत-रफत में अपनी बात कह गए पर मुझे काम दे गए ........ "दर्द का 'साइकल' तोड़ना बहुत जरूरी होता है, नहीं तो दर्द इकट्ठा होने लगता है और फिर पहले वह असहनीय और फिर लाईलाज हो जाता है।" एक बार तो लगा जैसे वे दाँत के दर्द की नहीं बल्कि दर्शन की बात कर रहे हैं, या फिर जीवन जीने की कला को उदाहरण के साथ समझा रहे हैं। दूसरे ही क्षण मुझे एक्हार्ट टॉल की 'द पॉवर ऑफ नॉउ' का वो कॉन्सेप्ट याद आ गया जिसमें वे लिखते हैं कि हर बार जब हमें कोई बात इतनी बुरी लगती है कि गुस्सा आने लगता है तब उस गुस्से के गुजर जाने के बाद भी उसकी कुछ बातें हमारे मन में बच जाती है। ऐसे हर बार हमारे वैसी ही किसी बात पर गुस्सा आने पर ये बची हुई बातें एक साथ इकट्ठा होने लगती हैं। इन्हें बातों की जगह शायद बारूद के कण कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। फिर किसी दिन वैसी ही किसी बात पर जब हमें गुस्सा आता है तो जैसे सारी इकट्ठा हुई बातों को चिंगारी लग जाती है। बात तो हम उस समय जो बुरा लगा उसकी ही कर रहे होते हैं लेकिन आवेश उन सारी इकट्ठा हुई बातों का होता है। जैसे कोई बम ही फट पड़ा हो, और इस तरह एक छोटी-सी बात हमारे रिश्तों को तहस-नहस कर देती है। 

और ऐसा इसलिए होता है कि हर बार गुस्सा आने पर मन में हम कुछ बचा लेते हैं। हम गुस्से का पेन किलर नहीं खाते, और इसका 'साइकल' बन जाता है और दाँत के दर्द ही तरह यह पहले असहनीय और फिर लाईलाज यानि काबू से बाहर हो जाता है। लेकिन गुस्से का पेन किलर क्या हो? निश्चित ही ये दवा सबके लिए अलग-अलग होगी क्योंकि क्रोध एक भाव है और सबकी भावनाओं की तीव्रता अलग-अलग। पर जो भी हो; चाहे कह लीजिए, समझ लीजिए, माफ कर दीजिये या किनारा कर लीजिए लेकिन गुस्से एक भी कण मन में नहीं बचना चाहिए।

तो जो मैं समझा, 
वो ये कि विकार आना मानवीय शरीर और मन की कमजोरी और विशेषता है, वे आयेंगी ही लेकिन उनका कुछ भी शेष अपने पास बचा कर नहीं रखना है। हर वो सम्भव प्रयास करना है जिससे उनका चक्र न बनने पाए। यदि ऐसा हुआ जो जैसे-जैसे समय बीतेगा उनसे निजात पाना मुश्किल होता चला जाएगा। और इकट्ठा हुआ जहर तो नुकसान फैलाएगा ही इसमें क्या सन्देह है। 
सहेजना ही है तो उसके लिए खुशियाँ होती हैं, दर्द नहीं।  

Wednesday 15 June 2016

खुशियों की तैयारी




दुनिया में ऐसा कोई नहीं जो खुश नहीं रहना चाहता। कम से कम ये एक बात तो हम सब में कॉमन है ही, और मुझे नहीं लगता इसमें कोई दो राय होगी। खुशियाँ, चाहिए हम सबको और है बहुत कमों के पास, डिमाण्ड और सप्लाई में इतना बड़ा गैप शायद ही और किसी में हो, इसलिए है भी ये बहुत कीमती। पर विचार करते-करते एक बात चौंकाने वाली दिखी, और वो ये थी कि इसे हमने उस श्रेणी में डाल दिया है जहाँ हमने उन बातों को रख रखा है जो प्रकृति के अधिकार में है, जिस पर हमारा कोई जोर नहीं। 

शायद इसलिए कि हम पैदा तो खुश ही हुए थे पर फिर जैसे-जैसे हम बड़े होते गए ये हमसे दूर होती गई। अध्ययन कहते हैं कि जब हम बच्चे थे, कभी किसी तो कभी किसी बात पर दिन में 400 बार होंठों पर मुस्कराहट थिरक उठती थी, और अब बड़े होने पर हालत ये कि बमुश्किल 40 बार आ पाती है। हमने सोचा यह स्वाभाविक होगा, जैसे बड़े होने के साथ हमारी आवाज बदलती है या दूसरे परिवर्तन आते हैं वैसे ही खुशियों के साथ भी होता होगा! 'यही जिन्दगी है!' - हम खुश हैं तो हैं और नहीं तो नहीं, जैसा हमारा भाग्य। जीवन की परिस्थितियाँ हमारे तो बस में नहीं, हमारा काम तो बस उसका डटकर मुकाबला करना है, बस। कभी हम हार जाते हैं तो कभी जीत, जीत गए तो खुश हो लिए और हार गए तो दुखी; पर हाथ में कुछ नहीं, जैसा नियति ने लिखा है वैसा भोगना है। 

तो फिर ये सारा ज्ञान, सारा कर्म किसलिए? क्या हम महज परिस्थितियों के गुलाम भर हैं? नहीं, नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता है? हम खुश पैदा हुए थे यानि ये हमारा नैसर्गिक, मूल स्वभाव है। तब तो इसका मतलब ये हुआ कि हम खुश हैं तो नॉर्मल हैं, खुश नहीं हैं तो, एबनॉर्मल। ऐसा हैं, तो फिर आयी कहाँ से ये एबनोर्मल्टी। रुका, सोच और विचार को रोका, और ऐसा करते ही कुछ सतह पर आया। जो आया वो यह था कि हम जैसे-जैसे बड़े होते गए, जिन्दगी की तैयारी करने लगे। पहले तो अपने बड़ों से सुन, फिर अपने आस-पास देख उसकी एक छवि गढ़ ली। ये छवि बड़ी डरा देने वाली थी जैसे जिन्दगी नहीं कोई जंग हो। अब हम इस जंग की तैयारी में जुट गए। हमें ऐसे बिहेव करना है, ऐसे बोलना है, लोग कैसे होते हैं?, क्या-क्या मुश्किलें हमारे सामने आने ही वाली हैं?, और न जाने क्या-क्या। एक योद्धा की तरह हमने आपको लैस कर लिया, अब आप ही बताइए ऐसे में खुशियाँ क्या खाक फटकेंगी हमारे पास?

तो करना बस इतना ही होगा कि इस कवच-बख्तर को, इन हथियारों को उतारना होगा। अपने आपका सहज करना होगा। डर की जगह विश्वास को जगह देनी होगी। ऐसा नहीं कि हमारे ऐसा करने से दुनिया एकदम से अच्छी हो जाएगी, पहले की तरह ही इसमें अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोग होंगे, सब दिन अच्छे भी नहीं होंगे लेकिन मेरा पाला अच्छे लोगों से पड़ेगा, मेरे साथ अच्छा ही होगा क्योंकि मेरा विश्वास अच्छाई में है, इस बात को समझना और इस पर भरोसा कायम करना होगा। 

तो जो मैं समझा,
वो ये था कि खुशियों को हर पल का साथी बनाना है तो सब से पहले जिन्दगी की तैयारी में जो कुछ सीखा है उसे अनसीखा करना होगा और उन बातों का अभ्यास करना होगा जो हममें थीं ही। अभ्यास इसलिए की इतने साल हो गए, हमें हमारे स्वभाव की ही आदत नहीं रही। अकारण किसी को देख मुस्करा देना, छोटी सी बात पर खुश हो जाना, अपनी पसन्द-नापसन्द को खुल कर बताना, जो है सो कहना, बात इसलिए करना कि कुछ कहना या जानना चाहते हैं और न कि किसी से जीतना। ........... हाँफने लगा हूँ, ये फेहरिस्त लम्बी है, बस यूँ समझ लीजिए जैसे हम थे वही होने का अभ्यास करना है। 
तो लब्बोलुआब ये कि खुश रहना सीखा जा सकता है, ये हम पर हैं कि हम इसके लिए कितने तैयार हैं और कितना प्रयास करते हैं।   

Wednesday 18 May 2016

जो नहीं उसकी जरूरत भी नहीं



जब आचार्य विनोबा भावे जैसा व्यक्ति कहे कि, "जो गुण अपने में नहीं है, वह गुण अपने में लाने की कोशिश नहीं करनी है", तो ऐसा नहीं लगता जैसे सिर पर न जाने कब से रखा टनों बोझ किसी ने नीचे उतार, रख दिया हो। पर आप चौंकते भी हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है? अपनी कमियों को देखना और फिर उसमें सुधार करना, ये बात तो हम उस पहले दिन से रट रहे हैं जिस दिन से हम कुछ समझने लगे थे।हम आज जो हैं वो उन सुधारों का और उन कमियों का जो हम नहीं सुधार पाए, का जोड़ ही तो हैं। और जो बातें हम नहीं सुधार पाए, उनका आज भी हमें अफसोस है। फिर ऐसा कैसे हो सकता है? जो गुण अपने में नहीं है, वही तो लाने की कोशिश करनी है। यही तो बेहतर इन्सान बनने का फलसफा है, पर्सनल्टी-डेवलपमेंट का बेसिक सब्जेक्ट मैटर। और वे हैं कि कह रहे हैं, जो गुण अपने में नहीं है, वह गुण अपने में लाने की कोशिश नहीं करनी है। 

वे आगे लिखते हैं, "दूसरों के गुणों के लिए आदर बढ़ाना होगा और अपने गुणों का विकास करना होगा। ......... हमारे में दोष भी होंगे। जिन मनुष्यों में वे दोष न हों, उनका द्वेष न करें।" यहाँ आकर तो वे जैसे पूरी तरह आजाद ही कर देते हैं। हमारे में दोष होंगे ही, और ये कोई अफसोस की भी बात नहीं। हमें तो सिर्फ अपने गुणों का विकास करना है यानि हम सब में कोई न कोई गुण, कोई न कोई खास बात है, इतना भी तय है। हमारे में, हम सब में कई ऐसी बातें भी होंगी जो हमारे में नहीं होनी चाहिए, इन्हें सहर्ष स्वीकार करना होगा, यहाँ तक कि जिनमें वे दोष नहीं हैं उनसे तुलना करने की भी कोई जरुरत नहीं। आपके कुछ दोष आपको किसी तरह कमतर नहीं बनाते। 
हैं न ! पूरी आजादी, पर ये आजादी भी है हर आजादी की तरह एक जिम्मेदारी के साथ कि आपको अपने गुणों का बढ़ाना होगा। 

अपने गुणों को बढ़ाना होगा, स्वाभाविक है पर जो नहीं है उसे लाने की कोशिश ही न करना ,......... निश्चित ही कोई गहरी बात होगी, मैं काफी दिनों तक मथता रहा। समझना चाहता था इसके पीछे का विज्ञान। फिर एक दिन सूझा कि इसे उलट कर देखते हैं और जैसे ही ऐसा किया पूरी कहानी समझ में आ गयी। कैसे किसी व्यक्ति की एक गलत आदत धीरे-धीरे उसमें सारी गलत आदतें लगवा देती है। जैसे एक चोर चोरी करते-करते किसी दिन बड़ा हाथ मार ले तो जुआ खेलने लगता है। जुआरियों के साथ बैठ कर शराब और फिर लालच में आकर कोई बड़ा अपराध, हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य। उसने अपनाया था एक अवगुण को पर लग गए धीरे-धीरे सारे। वैसे ही जब हम उस गुण को पालने-पोसने लगते हैं जो हमारे में हैं तो एक सीमा तक बढ़ जाने के बाद वो स्वतः दूसरे गुणों को आकर्षित करने लगता है। और धीरे-धीरे आप में वे सारे अच्छे गुण भी आने लगते हैं जिसके लिए आपने अलग से कोई प्रयास किए ही नहीं। जैसे एक करुणा से भरा व्यक्ति किसी से क्या झूठ बोलेगा, अहिंसा में तो उसका विश्वास होगा ही, और सेवा की तरफ स्वतः उन्मुख भी। 

तो जो मैं समझा,
वो ये था कि हम सब में कोई न कोई खास बात है। प्रकृति ने एक भी ऐसा इन्सान नहीं बनाया जिसे कोई विशेष गुण न दिया हो। हमें उसे पहचानना कर उसे बढ़ाना होगा। यदि आप में सच बोलना है, या दूसरों की दुखों को कम करना अच्छा लगता है, या फिर आप अपने काम में ईमानदार बने रहना चाहते हैं या कोई और बात,- आप बस इन्हें ही अपने आप में बढ़ाइए। प्रकृति ने आपके बढ़ने का यही रास्ता चुना है। जो आप में नहीं है, यदि वे जरुरी हैं तो इसी रास्ते मिलेंगे। इसके साथ गाँठ बाँध लीजिए कि आप में जो नहीं है उसका एक मिनट भी दुख नहीं मनाना है, ये भी प्रकृति का ही चुनाव है। जिनमें है, वो उनका रास्ता है। आप सिर्फ अपने रास्ते पर चल सकते हैं इसलिए इस बात को लेकर न तो अपने आप को कमतर समझने की जरुरत है और न ही उन रास्तों पर पहुँचने की कोशिश करने की दरकार।   

Saturday 16 April 2016

सफलता, आपके अपने तरीके से


सफलता की ये परिभाषा सचमुच हौसला बढ़ाने वाली लेकिन सोचने पर मजबूर देनी वाली थी। मेरे प्रिय लेखक ऐलन कोहेन लिखते हैं, "व्यक्ति की सबसे बड़ी सफलता अपनी तरह जी पाने में है।" 
हौसला बढ़ाने वाली इसलिए कि मेरे अपने जीने के तरीके को समर्थन था। मैं जैसा हूँ ठीक हूँ ये छिपा सन्देश था, जैसे मेरे होने को ही मान्यता थी। और सोचने वाली इसलिए कि अपनी तरह जीना कहते किसे हैं? ये 'अपना तरीका' किसी में कब और कैसे बनता है? या ये उसमें होता है, जन्मजात जैसे डीएनए। 

जब मैं इस 'अपने तरीके' को टटोलने लगा तो पाया हम अमूमन उसे अपना तरीका कहते हैं जिसे हमसे पहले किसी और ने आजमा कर वो सब हासिल किया है जो हम भी अपनी जिन्दगी से चाहते हैं। वाजिब भी है हमारा ऐसा सोचना, दो दूनी चार होते हैं तो चार भाजक दो भी तो दो ही होंगे ना? वैसे ही, हम कैसे जीना चाहते हैं ये स्पष्ट हैं तो हमें तरीका भी तो वो ही अपनाना पड़ेगा ना? कारण और परिणाम की यही शिक्षा तो हम स्कूल-कॉलेज में लेकर बड़े हुए हैं। पर न जाने क्यूँ अपने आप से तर्क करते हुए मैं भी ठीक वैसा ही महसूस कर रहा था जैसा पढ़ते हुए अभी आप कर रहे हैं, थोड़ा सा असहज। क्या गड़बड़ है ये तो मालूम नहीं चल रहा था पर कुछ तो है जो ठीक नहीं है ऐसा पक्के से लग रहा था। 

काफी सोचने के बाद भी कुछ नहीं सूझा तो लगा दो-चार दिनों के लिए बात यहीं छोड़ देते हैं, प्रश्न करना हमारा काम है जवाब देना प्रकृति का। वो अपने तरीके से जब उचित समझेगी अपने आप बताएगी। मैं दूसरा कुछ पढ़ने-लिखने में लग गया। अचानक एक दिन लगा जैसे कोई मुझसे पूछ रहा था कि जिन्दगी क्या कोई गणित है? ये प्रश्न नहीं जवाब था। और फिर इसके सहारे-सहारे तो मैं चलता ही चला गया। हम चाहे अपने मन से तय करें या किसी को देखकर कि हम अपना जीवन कैसे जीयेंगे लेकिन उसे पाने का तरीका हमारा अपना होगा, वो जो हमारे जीवन-मूल्यों से मेल खाता हो। लता मंगेशकर की बड़ी तमन्ना थी कि वे एक बार के. एल. सहगल के साथ गाए और उतना ही नाम कमाए, उन्होंने शायद उससे भी अधिक कमाया भी पर गाया हमेशा अपनी तरह। बात समृद्धि की हो तो व्यापार नारायण मूर्ति और प्रेमजी अजीम जैसे लोग भी करते हैं और वे लोग भी हैं जिनके नाम रोज अखबारों को भरने के काम आते हैं।  

अब बात थी कि ये 'अपना तरीका' जन्मजात होता है या व्यक्ति इसे कहीं से सीखता है? बात लता जी चल रही थी तो इसे भी गायन के उदाहरण से ही समझते हैं, अपनी तरह गाना जन्मजात होता है लेकिन पेशेवर गायिकी में अपना व्यवहार कैसा रखना है, कैसे गाने गाने हैं ये निर्भर करता है उस गायक के जीवन-मूल्यों पर जो उसने अपनी सोच-समझ से चुनें हैं। यानि ये होता जन्मजात है जिसे व्यवहार में लाना व्यक्ति धीरे-धीरे अपने चारों ओर से चुनता है, सीखता है। 

तो, जो मैं समझा 
वो ये था कि हम जैसे हैं ठीक हैं, हमारे तरीके हमारे अपने हैं जिन्हें बदलने की कोई जरुरत नहीं चाहे हम जो जिन्दगी से चाहते हैं वो किसी और ने किन्हीं और तरीकों से हासिल किया हो। इस तरह सफलता की इस परिभाषा में एक आश्वासन भी छिपा था कि एक ही चीज को कई तरीकों से हासिल किया जा सकता है। ये आश्वासन ही तो इसकी विशेषता है जो हमें हिम्मत देती है अपने विश्वासों, अपने मूल्यों पर टिके रहने की। और ऐसा व्यक्ति तो निश्चित ही सफल है ही। 

Monday 4 April 2016

जो है वही है


अभी मैं जो पुस्तक पढ़ रहा हूँ ये सचमुच नई दृष्टि देनी वाली है। डॉ. अभय बंग की लिखित 'ह्रदय रोग से मुक्ति'। नाम से तो ऐसा ही लगेगा जैसे हर दूसरी किताब की तरह ये भी कोई नुस्खे बताने वाली किताब ही है, बशर्ते कि आप श्री अभय बंग को नहीं जानते हों। महाराष्ट्र के गढ़ चिरौली आदिवासी इलाके में डॉ. अभय पिछले करीब 28 सालों से काम कर रहे हैं। एम.डी. के बाद आगे पढ़ने वे जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी, अमेरिका चले गए, समय-समय पर उनके रिसर्च-पेपर अलग-अलग मेडिकल जर्नल्स में छपते रहे हैं। 44 वर्ष की उम्र में एक दिन अचानक उन्हें हार्ट-अटैक आ गया। वैसे ये किसी को भी कह कर नहीं आता, पर सभी को लगता ऐसे ही है। बात जीवन-मरण की थी और वो भी एक शोधार्थी के सामने। उन्होंने अपनी ही शोध शुरू कर दी। 

अगले तीन सालों तक उनका जीवन ही उनकी प्रयोगशाला रहा और वे बीमारी को काबू में ही नहीं पलटने में भी कामयाब हुए। ये उसी सफर की आत्म-कथा है। पहले दो अध्यायों में तो उनकी पड़ताल शरीर के स्तर पर होती है पर तीसरे अध्याय से वे मन को खंगालने लगते हैं। आप चौंक उठते हैं, ऐसा लगता है जैसे आपके मन की परतें भी साथ में उधड़ रही हैं। एक जगह आकर वे लिखते हैं कभी ईश्वर होने या उसके कैसे होने की मैं कल्पना करता तो वैसी ही कर पाता जैसा मैंने बचपन से पौराणिक कथा-कहानियों में सुना था। बादलों के पार बड़े से सिंहासन पर बैठा सोने के मुकुट-आभूषणों और रेशमी वस्त्र पहने कोई दिव्य पुरुष। पर साथ ही लगता, ऐसा कैसे हो सकता है? और दूसरे ही पल सँस्कार इस पर सोचने से मना करने लगते। पर अब तो वे शोध कर रहे थे। 
एक दिन उनके हाथ लगी गाँधी जी की आत्म-कथा, 'सत्य के साथ प्रयोग।' पढ़ी उन्होंने विद्यार्थी-जीवन में भी थी पर अब दृष्टि दूसरी थी। उसमें एक जगह गाँधी जी कहते हैं, 'सत्य ही ईश्वर है।' बस, यही वो तथ्य था जिसने उनकी शोध के इस हिस्से को मुकाम तक पहुँचाया।  

हम सब ये तो सुनते-पढ़ते बड़े हुए हैं कि 'ईश्वर ही सत्य है' पर वे तो कह रहे थे, 'सत्य ही ईश्वर है'। बात तो ठीक थी, यदि ईश्वर सत्य है तो सत्य ही ईश्वर है पर शब्दों के इस फेर से आगे रोशनी दिखने लगी थी। ईश्वर को हम खोज पाएँ न खोज पाएँ, या खोजा भी जा सकता हो या नहीं लेकिन 'सत्य' को तो ढूँढा ही जा सकता है। और यदि वही ईश्वर है तब तो इसका मतलब हुआ कि ईश्वर को भी ढूँढा जा सकता है। तो 'सत्य' क्या है? ......... अरे! प्रश्न को मुश्किल क्यूँ बनाना? जो है वही तो सत्य है, हमारे चारों तरफ बिखरा पड़ा। ये पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, आप-मैं, यहाँ तक कि एक चींटी भी, और यही ईश्वर है। ऐसा समझते ही एक बात और सतह पर आयी और वो यह कि जो है वो तो इसी क्षण में है। अतः 'जो है' उससे जुड़ना है तो इसी क्षण में रहना होगा। इसी क्षण में रहना युक्ति है तो इसी क्षण में बिखरा सौन्दर्य 'ईश्वर'। शायद इसी सौन्दर्य को बखानने हमारे पूर्वजों ने उस 'दिव्य-पुरुष' की कल्पना की होगी। 

तो, जो मैं समझा,
वो यह कि यदि ईश्वर ही हमारा उद्धार करते हैं तो वे तो इसी क्षण में हैं। यानि न तो जो था और न ही जो होगा उससे हमारा कुछ हो सकता है। हमारा कुछ हो सकता है तो बस, इस क्षण में जो है उसी से। इस तरह तो 'जो है' उसे स्वीकारना 'ईश्वर-दर्शन' ही हुआ और उससे आगे बढ़ने  प्रयास 'ईश्वर-भक्ति'। बात बस इतनी सरल-सीधी है और हम हैं कि न जाने कहाँ-कहाँ उलझे हुए हैं। 

Monday 21 March 2016

परिवर्तन की नदी और परम्पराओं की टहनी


'परिवार, परम्पराएँ और परिवर्तन', यही विषय था जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल के उस सेशन का, वक्ता थीं मृदुला सिन्हा और अल्का सरावगी। बातों ही बातों में एक बात पर अल्का जी ने कहा, 'मेरी दादी मेरी माँ से कहीं ज्यादा खुले विचारों की थी।' अरे! हाँ, मैं सोचने लगा, बात छोटी सी थी पर मैं स्वयं भी तो पिछले कई सालों से कुछ ऐसा ही महसूस कर रहा था जिसे आज शायद बस शब्द मिल गए थे। क्या आपको नहीं लगता, हम जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे हैं ज्यादा परम्परावादी होते जा रहे हैं। रीती-रिवाजों को संस्कृति के नाम पर धर्म समझने लगे है। सीधे कहूँ तो, रहन-सहन से तो मॉडर्न और विचारों से दकियानूस। क्यों होते जा रहे हैं हम इतने दकियानूस?

क्या आजादी के बाद से अस्सी के दशक तक की पीढ़ी जन्मपत्री, मांगलिक-दोष, वास्तु में इतना ही विश्वास करती थी? मुझे नहीं लगता। त्योहारों को ही ले लीजिए, उनके पीछे की बात और उसे मनाना तो जैसे कहीं पीछे छूट गया है और हम विधियों में उलझ कर रह गए हैं। मैं नहीं कहता कि ये फिजूल हैं। है, इनका भी विज्ञान है लेकिन मैं निश्चित हूँ कि हमारी वो वजह नहीं। तो साफ है, इन सब के पीछे वजह है डर, और कुछ नहीं। तो हम इतने डरे हुए क्यूँ है? पहले से आज हमारे जीवन में सुविधाएँ भी बढ़ी है और रहन-सहन का स्तर भी। क्या जब हम शुरू हुए थे तब हमने सोचा था कि किसी दिन इतना सब हमारे पास होगा? नहीं ना, तब तो फिर हमारा डर कम होना चाहिए था, पर ये तो बढ़ा। क्यूँ हुआ ऐसा?

ये विश्लेषण मेरा है पर मैं अल्का जी के निष्कर्ष से सहमत था, हम भले ही अच्छी रफ्तार से आगे बढे लेकिन समय में परिवर्तन उससे कहीं तेज हुआ और हम चाह कर भी उससे ताल नहीं मिला पाए। इसमें हमारी गलती थी भी नहीं पर इसने हमें असुरक्षा की भावना से भर दिया। परिवर्तन की नदी के तेज बहाव में अपने आपको बचाए रखने के लिए हमने परम्पराओं की टहनी पकड़ ली। हम चाहेंगे ही कि हमारे बच्चे सुरक्षित खुश रहें, हमारे परिवार में कभी धन-धान्य की कमी न हो, हम सब खुश रहें पर वक्त इतना तेजी से बदला कि हम डर गए और हमने इसका जवाब जन्मपत्री, वास्तु और दूसरे कर्मकाण्डों में ढूँढ लिया। 

बात वहाँ इतनी ही होकर रह गयी थी, पर ये तो पूरी नहीं थी। घर आकर मैं सोचने लगा, आखिर आप और मैं करें क्या? या सिर्फ ऐसा होते हुए देखते रहें, अपनी जिन्दगी यूँ ही डर में गुजार दें। मैं वापस सोचने लगा, परिवर्तन-ताल-असुरक्षा, और तब अचानक एक छूटी कड़ी दिखाई देने लगी। वो थी, क्या हर होने वाला परिवर्तन हमारे लिए है? प्रश्न के स्पष्ट होते ही जवाब जैसे तैयार था,- नहीं, हर परिवर्तन हमारे लिए नहीं; और फिर तो जैसे दरवाजे खुलते चले गए। 

और जो मैं समझा
वो ये था कि हमारी दुनिया हम बनाएँगे। कितना बदलना है ये हम तय करेंगे न कि बाजार या हमारे संगी-साथी। जो उपलब्ध है उसे अपनाना जरुरी नहीं जब तक कि वो आपके जीवन को बेहतर न बनाता हो। हर व्यक्ति के जीने का अपना तरीका है। कोई और जो चुनता है ये उसके जीवन की जरुरत होगी। ऐसा करने से परिवर्तन का अनावश्यक दबाव कम होगा। चीजें नियंत्रण में होगीं तो अपने आप पर विश्वास लौटेगा। न बहने का खतरा होगा न टहनी को पकड़ने की जरुरत।  

Sunday 28 February 2016

इष्ट आपका कौन हो?

ये बात सही है कि आपका इष्ट कौन है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अन्ततः वह एक ही है।
लेकिन इसे थोड़ा समझना होगा,-
इष्ट वो महापुरुष जिन्हें दर्शन, निर्वाण, कैवल्य, आत्मज्ञान हुआ। ऐसा होने के बाद वे भी वही हो गए, शुद्धतम ऊर्जा। सच, इस मायने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
लेकिन उन्होंने यह मंजिल अलग-अलग रास्तों पर चलकर पायी।
किसी ने भक्ति से, ध्यान से, तो किसी ने तपस्या से। किसी ने समर्पण से तो किसी ने शक्ति से।
आप भी पाएँगे कि कुछ रास्ते आपको सहज लगते हैं और कुछ रास्ते जिनके बारे में भी आप मानते हैं की वे भी आपको वहीं पहुँचायेंगे पर आपको अपने लिए उतने सहज नहीं लगते।

तो स्पष्ट है कि जिन रास्तों पर चलना आपको सहज लगता है उस पर चला वो महान व्यक्ति ही आपका इष्ट होना चाहिए जिसने उस पर चलकर अपने आपको अनुभव किया, कैवल्य प्राप्त किया।  

 (डायरी पन्ना)

Friday 15 January 2016

अफसोस की टोकरी और नया साल



.......... और कैलेन्डर बदल गया। दिन बीतते-बीतते कब वे महीनों में बदल जाते हैं और फिर कब वे अचानक यूँ साल ही पलट देते हैं, मालूम ही नहीं चलता और इस बार भी यही हुआ। बधाई-संदेशों और शुभकामनाओं की बारिश के साथ हर बार की तरह इस बार भी हर कोई कुछ न कुछ तय करने में लगा था कि इस बार क्या कुछ नया करना है या फिर और ज्यादा दृढ़ता से करना है जिसे वो पिछली बार नहीं कर पाया था। कुछ लोग ऐसे भी कहते-सुनते मिले कि मैं कोई रिजोल्यूशन-विजोल्यूशन पास नहीं करता। ये तो होते ही टूटने के लिए हैं, इससे बढ़िया है जिन्दगी जो परोसे उसका भरपूर आनन्द लो। बात तो ये भी ठीक थी पर ये उपजी पुराने अनुभवों से थी, जो सोचा वो न कर पाने की वजह से थी न कि इस भावना से कि वे लोग बस आज में जीना चाहते हैं, हर क्षण का आनन्द लेना चाहते हैं। 

इस तरह सोच कर मैं खुद ही फँस गया था, और अब तो समस्या और भी बड़ी होती जा रही थी। मुझे लगने लगा कि बात नए साल की ही नहीं है, हम कभी चाह कर भी कुछ नया कर ही नहीं पाते। उसी पटरी पर गाड़ी चाहे जितनी तेज भगवा लो, लेकिन पटरी नहीं बदली जाती और यही वजह है कि कभी स्टेशन भी नहीं बदलते और फिर दोष देने के लिए तो बेचारी किस्मत है ही हमारे पास। क्या वजह हो सकती थी? सबसे पहले जो जेहन में कौंधी वो थी कि हमारा निश्चय पक्का नहीं होता। ....... पर ये बात खुद को भी वैसी ही लग रही थी जैसे ए फॉर एप्पल, रटी-रटायी। या तो बात कोई और थी या निश्चय के पक्का न रह पाने की वजह कोई और। ...... बात कुछ और थी! 

प्रकृति ने संकेत दिया एक किताब के मार्फत, लिखा था नया साल कुछ ही दिनों के बाद पुराने साल के ही जैसा इसलिए हो जाता है क्योंकि हम आगमन को तो जोर-शोर से तैयार होते हैं लेकिन विदाई की तरफ हमारा ध्यान ही नहीं होता। सोचा तो पाया, सही तो था, हम नए साल में प्रवेश करते है अफसोस की टोकरी के साथ जिसमें रखी होती हैं वे सारी बातें जो हमें बुरी लगीं, जो हमसे नहीं हुई और वो भी जो सच में हमारे साथ अच्छा नहीं हुआ लेकिन हमारे हाथ में भी नहीं था। अब जब भी हम रिश्तों को नयापन देने की कोशिश करते हैं, कुछ अलग सा करने लगते हैं या अपने विश्वास को पुख्ता करने लगते है, ये टोकरी सबूत पेश कर हमें वहीं के वही जकड़ी रखती है। ऐसा नहीं कि गए साल में कुछ अच्छा न हुआ हो लेकिन वो पेश ही नहीं होता क्योंकि वो इस टोकरी में रखा ही नहीं होता। 

यदि हमें इस जकड़न से मुक्त होना है तो इस अफसोस नाम की रद्दी की टोकरी से निजात पानी होगी। विदाई को भी आगमन की तरह निभाना होगा। बात गए साल की हो या जिन्दगी की कोई और, जो हो चुका उसे जाने देना होगा, उसे पूरी तरह से विदा करना होगा और यह तब ही होगा जब यह धन्यवाद के साथ हो, जो कुछ हुआ उसके लिए आप कृतज्ञ हों और ऐसा तब ही हो पाता है जब हम अपने अच्छे अनुभवों को याद रखते हुए ये समझें कि जिन्हें हम बुरा समझ रहे हैं वे वास्तव में अध्याय हैं जिन्दगी के जिन्हें पढ़े बिना हमारा अगली कक्षा में जाना सम्भव नहीं और अगली कक्षा में पहुँचे बिना स्कूल यानि जिन्दगी का मजा नहीं। 

जो मैं समझा, वो यही था कि हम अपने जीवन में कुछ नया चाहते हैं तो पुराने को छोड़ना होगा। नये को आ पाने के लिए जगह देनी होगी और ये तब ही होगा जब पुराने को पूरे प्यार और सम्मान के साथ विदा करें। समझना होगा कि हर चीज की एक एक्सपायरी डेट होती है, जो कल तक दवाई थी आज जहर बन चुकी है। .........और तब हम तय करें न करें, हमारी हर सुबह नित-नयी होगी, उत्साह और उमंग से लवरेज।   

Friday 1 January 2016

प्यारा बच्चा और अच्छे अंकल



आप को भी अपने रेल सफर में कई बार मन मोहने वाले मासूम बच्चे जरूर मिले होंगे। उनके साथ बात करते सफर कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता। अपने-अपने स्टेशन पर उतरते ऐसा लगता है जैसे कोई बिल्कुल अपना बिछड़ रहा हो। ऐसा हमें ही नहीं उसे भी लग रहा होता है, शायद इसलिए कि बहुत दिनों बाद उसे भी कोई मिला होता है जो उसकी हर बात का आनन्द ले रहा होता है, बिना उसको कहे कि बेटा, ऐसे नहीं ऐसे करो या ऐसे नहीं ऐसे बैठों, और डाँट, उसका तो सवाल ही उठता। अधिक से अधिक प्यार से कुछ समझा दिया बस, इसलिए जितना प्यारा वो होता है उतने ही अच्छे अंकल हम। 

अभी कुछ ही दिनों पहले में भी ऐसे ही एक रेल सफर पर था, ऐसे ही आस-पास बैठे बच्चों से बातें कर रहा था, तो न जाने कैसे मेरा ध्यान इसके आगे इस बात बात पर पहुँच गया कि क्या मेरा बच्चा अगर यही बात कर रहा होता तो क्या मैं उतनी ही तस्सली से सुनता, उसे समझाता। क्या मैं उसकी ऐसी ही कितनी सारी प्यारी-प्यारी बातों और हरकतों का इतना ही मजा ले पाता हूँ और अगर नहीं ले पाता तो नुकसान में कौन रहता है? मैं या वो। ये बात सच है कि मैं पराये बच्चे को डाँट नहीं सकता, लेकिन क्या अपने बच्चे को डाँटने से पहले एक मिनट भी ख्याल करता हूँ कि डाँटने से पहले या बजाय मैं अपनी बात को मनवाने के लिए क्या और भी कुछ कर सकता हूँ? मैं उससे और वो भी मुझसे बहुत प्यार करता है पर वो मेरे साथ इतना खुश, इतना सहज क्यों नहीं है? मेरा सर घूमने लगा था।

कोई जवाब सवाल के बाहर नहीं होता, मेरा जवाब भी वहीं छुपा था। हम जितनी अच्छी तरीके से ये बात दूसरे बच्चों के लिए समझ लेते हैं कि ये ऐसा ही है इसलिए ऐसा ही करेगा, अपने बच्चे के लिए नहीं समझ पाते। निश्चित रूप से इसके पीछे भी हमारा प्रेम ही होता है। हम सोचते हैं हम उसे वैसा बना दे जैसा एक अच्छे बच्चे को होना चाहिए, और इसका हम एक भी मौका नहीं चूकना चाहते। हम उसकी बातों, हरकतों में यही मौके ढूँढ़ते रहते है, क्योंकि हम समझते है उसे अच्छा बनाने का जो हमारा कर्तव्य है उसके लिए ये बहुत जरुरी है। हम जो बात अपने लिए जानते हैं कि व्यक्ति अपने आपको हल्का-फुल्का 'मोल्ड' कर सकता है लेकिन अपनी 'बेसिक नेचर' को नहीं बदल सकता, अपने बच्चे के लिए समझने और मानने को तैयार नहीं होते। 

मैंने जब इस कड़वे प्रश्न का सामना किया तो पाया कि शायद हम यही समझते हैं कि बच्चों की कोई 'बेसिक नेचर' होती ही नहीं, ये तो उसके लालन-पालन से पड़ती है। आप ही एक मिनट के लिए उन सारी बातों को भूलाकर सोचिए जो आज तक हम कहते-सुनते आए हैं, क्या ऐसा हो सकता है? नहीं ना। सबकी एक 'बेसिक नेचर' होती है, एक स्वतन्त्र अस्तित्व और वैसे ही एक बच्चे का भी और इसे नहीं मानना ही समस्या की जड़ है। जब ये बात मेरे जेहन में साफ हुई तो लगा, ये बात बच्चों के ही नहीं हमारे अपने घर में हर रिश्ते के साथ है। हम अपने अपनों को अपने जैसा बनाने लग जाते हैं, और ऐसा हम सब करते हैं और इसीलिए बाहर हम सब सहज होते हैं लेकिन अपने घर को असहज बना लेते हैं। बात तो ठीक है, लेकिन इसे अपनायें कैसे? तो अचानक, वो अंग्रेजी में 'जेंटलमैन्स कर्टसी' कहते हैं, याद हो आया। 

जो मैं समझा, वो यही एकमात्र तरीका था एक-दूसरे के साथ सहज होने का। इतना सा अदब कि हमें दूसरे के बुरे लगने का भान रहे। जितना हम परायों के साथ थोड़े से अपने होते हैं उतना ही हमें अपनों के साथ भी थोड़ा सा पराया होना होगा। एक हल्की सी दूरी हमें और पास ले आएगी। ये दूरी वही जगह देगी जो पौधों को क्यारी देती है, और तब हम ज्यादा खुश, ज्यादा सहज होंगे, उतने ही जितने हम और किसी के साथ होते हैं।