Thursday 1 September 2016

मन की आजादी









'तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है', नीरज जी की ये मार्मिक कविता कितनी माफिक बैठती है हम पर। कितने आगे आ गए हम इन सत्तर वर्षों में, पर मन जैसे दिन-ब-दिन गुलाम होता जा रहा है। जैसे सुबह से शाम तक हम को कोई हाँक रहा हो। सुबह उठने के बाद हम तय नहीं करते हैं कि हम क्या करेंगे और क्या नहीं, ये तो पहले से ही तय होता है। एक लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त तैयार होती है जिसकी हर बात या तो 'पड़ेगा' पर खत्म होती है या 'चाहिए' पर, शायद ही कभी इनकी जगह 'चाहता हूँ' आता हो। 


मजे की बात तो ये कि कोई हमें टोके इसके पहले हमारे पास इसके जवाब मौजूद होते है, जिनका घुमा-फिरा कर मतलब 'सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट' के इर्द-गिर्द होता है यानि अच्छे से जीवन गुजारना है, बने रहना है तो ये सब तो करना ही होगा। मतलब गुलामी तो है ही हमने उसे स्वीकार भी कर लिया है। तन की गुलामी जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी के भेष में आयी थी मन की ये गुलामी सफलता के भेष में आती है और तनाव की जंजीरों से हमें जकड़ लेती हैं। सफल होना है तो खूब काम करना होगा और काम अगर इतना होगा तो जिन्दगी में तनाव तो होगा ही, इस बात पर हमें यकीं ही नहीं है गाहे-बगाहे हम अपने से छोटों को तर्कों-वितर्कों से इस पर यकीं करवाते हुए मिल भी जाएँगे। 

क्या सचमुच ऐसा होगा? क्या मन का गुलाम रहना सफल जिन्दगी की कीमत है? ऐसा कैसे हो सकता है? ऐसा तो नहीं हो सकता, फिर गड़बड़ कहाँ हैं? ये 'पड़ेगा' और 'चाहिए' ही शायद सबसे बड़ी झंझट है। यदि बिल्कुल नहीं तो कम से कम ऐसा हो कि फलाँ काम करना ही पड़ेगा या फलाँ काम मुझे करना ही चाहिए, तब हमारा मन सचमुच मुक्त होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो, जब काम पर हमारा नियन्त्रण और उसे करने, न करने की स्वतन्त्रता होगी तब ही हमारा मन भी आजाद होगा।  
पर ये कैसे होगा?

तो जो मैं समझा, वो ये कि सबसे पहले तो हमें कुछ जगह खाली करनी होगी यानि कुछ काम या जिम्मेदारियाँ जो अनावश्यक हमने ओढ़  लीं हैं उससे मुक्ति पानी होगी। न जाने कितने ऐसे काम हम रोजाना नियम से करते चले जाते हैं जिनके बारे में एक मिनट भी रुककर देखें भी, तो हमें अहसास हो जाएगा कि उन्हें करने की अब कोई आवश्यकता ही नहीं रही। इसके बाद बचे कामों का नियोजन यानि प्लानिंग करनी होगी। ये प्लानिंग समय के दबाव से मुक्त करेगी। ये समय का दबाव ही तो है जो हमें दौड़ता है और फिर वहीं से तनाव का बनना शुरू होता है। अब रही बात काम को करने या न करने की स्वतन्त्रता की, तो इसके लिए हमें थोड़ा अध्यात्म की तरफ मुड़ना होगा। कहीं अपने काम से होने वाले लाभ से हमें मोह तो नहीं हो गया है? हर क्षण ये चिन्ता कि, कहीं मुझे नहीं मिला तो? इसका मतलब यह भी नहीं की हमें अपने काम से मिलने वाले परिणामों की उत्सुकता या इच्छा न हो, बस इतना ही कि ये उसके चुनने की वजह न हो। ये इच्छा-उत्सुकता बढ़ कर मोह में तब्दील हो हमारा सुख-चैन न छिन लें। 
यदि ये हम कर पाए, समझ पाए तो मैं समझता हूँ, उस दिन हमारा तन ही नहीं मन भी आजाद होगा। 

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