Thursday 15 November 2018

काम भी, अवकाश भी






त्योहारों के दिन बीते! सफाई, रँगोली, मिठाइयाँ, मिलना-जुलना और न जाने क्या-क्या। कल से फिर जिन्दगी ढर्रे पर आने वाली है। कहीं न कहीं इतने दिनों के बाद उसकी भी चाह होने लगी है जो अन्यथा हमें बोर करने लगती है। शायद भाग-दौड़, उत्सव और मनाना इनकी भी एक सीमा होती है। और फिर दो दिनों से मन में न जाने कितने काम, कितनी योजनाएँ घूम रही है। लगता है, एक बार शुरू हो तो मैं लगूँ। इनमें से अधिकतर कोई नई नहीं, न जाने कितने दिनों से उन्हें करने की सोच रहा हूँ लेकिन अब लगता है बस काम शुरू हो तो मैं बिना समय गवाएँ उन सब पर काम करना शुरू कर दूँगा। 

ये जो हो रहा है, यही वजह है त्योहारों की और यही उनकी उपयोगिता भी। त्योहार एक अन्तराल देते है जो मन की मरम्मत के काम आता है और उनसे जुड़े प्रसंग हमारी आस्थाओं को पुनर्स्थापित कर जाते हैं। झूठ, कपट और बेईमानी के बीच कहीं न कहीं हम अनजाने ही मानने लग जाते हैं कि यही एकमात्र रास्ता है और इस बीच कोई त्योहार आ जाता है जो कह जाता है कि अन्ततः जीत अच्छाई ही की होती है या कोई बहन असुरक्षित नहीं या फिर यही कि गम न कर जिन्दगी रंगों से भरी है। 

त्योहार के बाद की ये तरो-ताजगी सिद्ध करती है अवकाश की उपयोगिता को। 
और यही वो कड़ी थी जहाँ से मुझे नया सूत्र मिला और वो ये कि हमारे किसी भी नियम से अवकाश की चाह गलत नहीं बल्कि जरुरी और स्वाभाविक है। 
हम सब ने अपनी दिनचर्या में न जाने कितने नियम पाल रखें हैं और वे हैं भी जरुरी पर उतनी ही जरुरी है कभी-कभार उनसे छुट्टी। इस छुट्टी को मनाने के बाद आप वैसा ही फर्क महसूस करेंगे जैसा आप आँखें मूँद के चलने और रास्ते का आनन्द लेते हुए चलने में करते हैं।  

यहाँ तक कि ये सूत्र हमारे आध्यात्मिक और धार्मिक आदतों पर भी ज्यों का त्यों लागू होता है जैसे ये हमारे काम और दूसरी आदतों पर लागू होता है। सीधे शब्दों में कहूँ तो यदि ध्यान, पूजा या पाठ जैसे कोई भी आदत अब आँखे मूँद कर होने लगी है, उनमें कोई रस नहीं रहा। अब वे आपको पहले की तरह सकारात्मकता से भर नहीं रहीं तो संकेत समझिए। वे अच्छी हुईं तो क्या, वे भी अपनी मरम्मत, नवीनीकरण के लिए विराम चाहती हैं। ठीक वैसे ही जैसे त्योहारों के ये दिन बीते। ऐसा करना उनका ही भाग है, उन्हें ही सार्थक करेगा। और फिर जब आप लौटेंगे पुनः इन पर तो आपका ध्यान, आपकी पूजा और आपका पाठ आपके लिए काम कर रहे होंगे। 

तो जो मैं समझा वो ये कि जिस तरह काम का जीवन में महत्त्व है उतना ही अवकाश का भी क्योंकि ये अवकाश ही है तो काम को भोंतरा होने से बचाते हैं, उन पर धार लगाते है। जीवन को नई ताजगी से भर देते हैं। 


दैनिक नवज्योति, 11 नवम्बर 2018
मासिक स्तम्भ - 'जो मैं समझा' 



Saturday 8 September 2018

पक्की जीत के लिए







सुग्रीव के बड़े भाई, किष्किन्धा नरेश बाली; कहते हैं वे जब लड़ते थे तब सामने वाले की शक्ति आधी रह जाती थी और यही वजह थी कि सँसार में सामने आकर उसे हराना नामुमकिन था। शायद उसे कोई वरदान प्राप्त था! यही आप और मैं सुनते-पढ़ते आए हैं। 
एक बारगी तो ये बात धार्मिक-पौराणिक लगती है लेकिन जब मैंने इसे उलट कर देखा तब मुझे तो ये सफलता का महत्वपूर्ण सूत्र नजर आया। इसे उलटेंगे तो बात कुछ यूँ होगी कि, बाली हार ही नहीं सकता था क्योंकि वो लड़ता ही ऐसे था कि सामने वाले कि शक्ति आधी रह जाती थी। उसे अपनी जीत में कभी कोई सन्देह नजर नहीं आता यानि उसका हर प्रहार, हर बचाव आत्म-विश्वास से भरा होता। और यही आत्म-विश्वास उसकी शक्ति को दोगुना कर देता या यों कह लीजिए कि दुश्मन की शक्ति को आधा कर देता।  

लड़ने के हजारों तरीके हो सकते होंगे लेकिन लड़ाई में जीतने का एक यही तरीका होता है। तो, काम करने के भी हजारों तरीके हो सकते हैं लेकिन अपना सर्वश्रेष्ठ कर पाने का यही एकमात्र तरीका है कि आप जो कुछ भी करें वो पूरे आत्म-विश्वास के साथ करें। 
ये सब सोचते हुए लगा कि तपस्या के बदले मिलने वाले वरदान जिनसे हमारी पौराणिक कथायें भरी पड़ी है, से मतलब यही रहा होगा कि व्यक्ति अपने गुणों पर इतना काम कर ले कि वो उसमें दक्ष हो जाए और वो दक्षता उसके व्यक्तित्व का हिस्सा। 

तो बात फिर पहुँची यहाँ कि ये आत्म-विश्वास आए कैसे और बना कैसे रहे? कैसे किसी भी परिस्थिति में कोई भी ये सोच पाए कि, 'कोई बात नहीं! मैं कर लूँगा।' 
जवाब हमेशा प्रश्नों की ओट में छिपे रहते हैं, इसका भी था। और जब बाहर खींचा तब मालूम चला कि बात सिर्फ इतनी सी है कि हम अपने दैनिक जीवन में छोटी-छोटी नयी जिम्मेदारियाँ उठाना शुरू करें। अपने 'कम्फर्ट जोन' से बाहर निकलें। थोड़ा-थोड़ा करके उन कामों को अपने हाथ में लें जो आपकी जिन्दगी का हिस्सा हैं, आपके लिए जरुरी हैं लेकिन जिनको लेकर आपके मन में सन्देह है कि मैं उनको कर पाऊँगा या नहीं। जिनके लिए आप हमेशा ही किसी और पर निर्भर हैं। 
धीरे-धीरे ये छोटी-छोटी जिम्मेदारियाँ आपको आत्म निर्भर बनाती चली जाएँगी और आपको अहसास होगा कि वो बस आपके मन की हिचक थी। आप 'मैं कर सकता हूँ' के आनन्द से भर उठेंगे। ये आनन्द आपको अपने घेरे से और बाहर निकलने की शक्ति और प्रेरणा देगा और बस फिर क्या, आत्म-विश्वास की रेलगाड़ी चल निकलेगी। 
और तब आपको हराना यानि किसी परिस्थिति का आप पर हावी हो जाना मुश्किल होगा। 

तो, जो मैं समझा वो ये कि हमें अपने लिए ऐसी जिन्दगी चुननी होगी जिसके सारे काम हम कर सकते हों फिर उन्हें चाहे हम करें न करें। साधनों का उपयोग तब सुविधा होगा आश्रितता नहीं। सुविधाएँ जिन्दगी को आसान बनाती है और आश्रितता कमजोर। यही क्रोध और नाराजगी का कारण बनती है। इसके लिए जरुरी है कि हम समय-समय पर अपनी जीवन-शैली को छानते रहें, उन आदतों को निकालते रहें जो हमें आश्रित बनाती हैं। साथ ही छोटी-छोटी जिम्मेदारियों से अपनी काबिलियत को बढ़ाते रहें और तब बेहिचक उन सुविधाओं का भी आनन्द उठाएँ। इस तरह हमारी जिन्दगी आसान से और आसान होती चली जाएगी।

दैनिक नवज्योति, 12 अगस्त 2018
मासिक स्तम्भ - 'जो मैं समझा' 

Tuesday 31 July 2018

प्रस्तुति से पहले





प्रेस क्लब में वरिष्ठ साहित्यकार श्री असगर वजाहत साहब के साथ साहित्य-संवाद था। एक ही दिन पहले उनकी चुनिन्दा रचनाओं के संकलन 'हिन्दू पानी-मुस्लिम पानी' का लोकार्पण हुआ था। ऐसे व्यक्ति को सुनना सचमुच एक अनुभव था, फिर समय आया श्रोताओं की जिज्ञासाओं का। बात होने लगी उनके नाटक 'जिन लाहौर नई देख्या ओ जनम्या ही नइ' की, और इसी सन्दर्भ में किसी ने पूछा कि आजकल कला की हर विधा की तरफ लोगों का रुझान कम हो रहा है, ऐसे में नाटक देखने कौन आता है भला? वे कहने लगे में भी थिएटर से जुड़ा हूँ ऐसे में आप ही बताइए, "हम क्या कर सकते हैं कि लोगों को वापस थियेटर की ओर खींचा जा सके।"

बात तो सही थी, आजकल हमारा सारा समय तो टी.वी. और मोबाइल खा जाते हैं, ऐसे में थियेटर! और जब नाटक खेले ही नहीं जायेंगे तो उन्हें लिखेगा कौन! इस बात को तो मैंने भी महसूस किया था। किसी भी किताबों की दुकान में चले जाओ, जो मिलती ही बड़ी मुश्किल से है और मिल भी जाए तो कहानियों, उपन्यासों और दूसरी किताबों के ढेर के बीच इक्का-दुक्का ही नाटक पड़े मिलेंगे, वे भी पुराने-प्रसिद्ध। 

असगर साहब कुछ क्षणों के लिए तो चुप्प हो गए फिर उन्हीं महाशय से पूछने लगे, "आप नाटक करते हैं तो क्या लोगों को पूछकर करते हैं कि वे आएँगे या नहीं।" 
अब सकपकाने की बारी उनकी थी। 
असगर साहब उन्हें आसान करते हुए कहने लगे, आप मेरे कहने का मतलब समझे नहीं। हम कला से जुड़े लोगों की यही मुश्किल है कि प्रस्तुति से पहले हम लोगों को जोड़ते नहीं। उनमें हमारे काम के प्रति कोई उत्सुकता पैदा नहीं करते, ऐसे में उन्हें हमारे बारे में पता ही क्या चलेगा और चल भी गया तो कौन सी बात उन्हें खींच कर लाएगी?यदि आपको अपनी किसी प्रस्तुति, किसी रचना को लोगों तक पहुँचाना हो तो पहले उससे, अपने आप से लोगों को जोड़ना होगा।

मुझे लगा जैसे उस समय मैं किसी 'आर्ट मार्केटिंग एक्सपर्ट' से बात कर रहा हूँ। कितनी सही बात कह रहे थे वे! हमें कुछ भी बेचना हो तो हम पब्लिसिटी का सहारा लेते हैं तो जब बात कला की किसी विधा की आती है तो इससे इतना कतराते क्यूँ हैं? 
"क्योंकि कला एक साधना है, एक तपस्या और इसलिए इतनी ही पवित्र जबकि बेचने के लिए निकलना तो झूठ का सहारा लेना है।" 
मुझे लगता है ये धारणा ही हमारी समस्या है। झूठ से हमारी चिढ़ वाजिब है तो इसे नकारें, प्रचार को क्यूँ? क्या सच्चाई के साथ प्रचार नहीं किया जा सकता? 
बिल्कुल किया जा सकता है जैसे आन्दोलनों का, सत्याग्रहों का किया जाता है। 
तो कला का क्यों नहीं?

तो जो मैं समझा वो ये कि प्रचार उतना ही अहम् है जितना पावन हमारा कला धर्म। कला की सार्थकता और सम्पूर्णता तब ही हैं जब तक वो उसके प्रेमियों तक पहुँचे इसलिए जरुरी है अपनी प्रस्तुति से पहले लोगों को जोड़ना और इससे परहेज करना अपने साथ ही नहीं अपने काम के साथ भी अन्याय करना होगा।  

(दैनिक नवज्योति; रविवार, 15 जुलाई 2018) 

Saturday 30 June 2018

काम का दबाव, कितना सही?






फेसबुक पर मित्र ने एक वीडियो शेयर किया था। एक युवा मोटिवेशनल गुरु बड़े ही आकर्षक तरीके से बता रहे थे कि 'प्रेशर' यानि काम का दबाव कोई नकारात्मक शब्द नहीं है जैसी की आम धारणा है। ये तो इस बात का प्रूफ है कि हमारे पास इतना काम है कि हम उसे कैसे करें और पहले क्या करें! ये दबाव ही है जो हमें सामंजस्य और अपने काम की मुश्किलों के प्रति विनम्र होना सिखाता है। वे आगे एक बड़ा ही रोचक उदाहरण देने लगते हैं; कहते हैं, जैसे हम एक कच्चा आलू खा नहीं सकते लेकिन जैसे ही प्रेशर-कुकर की तीन-चार सीटियाँ वो सुन ले, वो खाने लायक बन जाता है वैसे ही काम का प्रेशर-कुकर हमें लचीला बना हर तरह के व्यक्ति के साथ व्यवहार करने में कुशल बना देता है और तब हमारी सफलता निश्चित होती है। 
उनकी बातों की रौ में मैं ऐसा बहा कि मुझे भी लगा, क्या बात है! पर अगले ही क्षण लगा मन राजी नहीं है। कहीं कुछ खटक रहा था और मैं सोचने लगा.......... काम का दबाव होने का तो मतलब हुआ मन में इस बात की चिन्ता रहना कि ये सब मैं कर पाऊँगा भी या नहीं, तय नहीं कर पाना कि पहले कौन सा करूँ और कुछ भी करते समय उसके बाद क्या करना है उस पर ध्यान का बने रहना। 
तो भला, जो बात मन में चिंता, अनिश्चितता और उदिग्नता पैदा कर रही है वो कैसे सकारात्मक हो सकती है? 

सवाल भी सच में बारिश होते हैं, शुरू होते हैं तो झड़ी लगा देते हैं। क्यों कहा होगा उन्होंने ऐसा? ऐसा तो नहीं कि उन्हें इस बात का अहसास नहीं होगा! और सबसे बड़ा, फिर हमारा काम कैसा हो जो रात-दिन बढ़ता जाएँ, हमें और से और सफल बनाता जाए लेकिन उसका हम पर दबाव न हो?

सबसे पहले तो मैं उनकी जगह होकर सोचने लगा, एक मोटिवेशनल गुरु जिसने अपना कैरियर यही होना तय किया है और जो सोशियल मीडिया पर इसका प्रचार करने में जुटा हो! और तब दीखने लगा कि आजकल सारे ही लोग लोकप्रिय होने के लिए ऐसी ही बातें करने में लगे हैं। हमारी कमजोरियों, गलतियों को सही ठहराने में लगे हैं जिससे वे हमें पहली बार में ही अच्छे लगने लगें और स्वीकार हो जाएँ। हमारा अहं कहीं बीच में न आए और उनकी सक्सेस रेट बढ़ जाए। 
अब बात थी काम की जो सफलता की सीढ़ियाँ तो चढ़ाता जाए लेकिन दबाव की थकान जरा भी न हो। और मुझे डॉ. अभय बंग की वे पंक्तियाँ याद आने लगी। वे लिखते हैं, "नियन्त्रण जिनके स्वयं  हाथ में था, कैसा व कितना काम करें इसकी स्वतन्त्रता थी, उन्हें तनाव कम था।" काम पर नियन्त्रण यानि आप किसी पर निर्भर न हों। काम का कोई हिस्सा चाहे आप किसी और से करवा रहें हों लेकिन वो आपको भी करना आता हो। आपके काम का पूरा होना किसी और की मर्जी का गुलाम न हो। और काम की स्वतन्त्रता यानि आप इस स्थिति में हों कि तय कर सकें कि मैं कौन सा काम करूँगा और कितना करूँगा। काम आपको दौड़ाए नहीं आप उसकी सवारी करें। 
जब ऐसा होगा तो निश्चित ही है कि न दबाव होगा और न उससे उपजा तनाव।  

तो जो मैं समझा वो ये था कि दबाव का लगातार बने रहना इस बात का सूचक है कि आप का काम बदलाव की माँग कर रहा है। आपको कुछ और या इसी काम को किसी और तरीके से करना माफिक आएगा। बजाय इस बीमारी को 'सकारात्मक' कह टालते रहने से बेहतर होगा कि रुककर सोचें कि मैं अपने काम में क्या और कैसे बदलाव कर सकता हूँ कि मेरा काम मुझे दबाए नहीं मेरी खुशियों का, मेरी अभिव्यक्ति का साधन बन जाए! 

दैनिक नवज्योति स्तम्भ-'जो मैं समझा' 
(रविवार, 10 जून 2018 के लिए) 

Tuesday 26 June 2018

एक रास्ता यह भी







दोस्तों के बीच उस दिन चर्चा का विषय था कि हमें किसी की राय से कोई फर्क पड़ना भी चाहिए या नहीं? हमें किसी की सुननी भी चाहिए या जो हमने सोचा है उसी पर चलते चला जाना चाहिए? शीर्षक दिया था हमने, "ओपिनियन मैटर्स?" एक ने कहा कि किसी की क्या राय है इससे मुझे फर्क नहीं पड़ता, और पड़ना भी नहीं चाहिए क्योंकि इस शब्द में बू ही नकारात्मकता की है। लेकिन हाँ, यदि कोई अपना मुझे सलाह देता है तो मैं जरूर सुनूँगा। सलाह आपको सुनती है और राय आपको एक खास नजर से देखती है और उसी को सही मानने को कहती है। ये तो किसी और के हिसाब से अपनी जिन्दगी जीना हुआ! 

कुछ का मत था कि किसी अपने की राय को सुनना अपनी दृष्टि को विस्तार देना है, तस्वीर को पूरी देखने की एक कोशिश। हो सकता है हम किसी बात का वो पक्ष देख ही नहीं पा रहे हों। प्रकृति वो भी हमारे सामने रखना चाहती हो  ऐसे में उसकी राय को नहीं सुनना तो अपने निर्णयों को कमजोर और अपनी सफलता को संदिग्ध बनाना ही होगा! बेहतर है हम सब की नहीं पर अपनों की तो सुनें, उसे अपने सन्दर्भों में सोचें, और ठीक पायें तो अपनायें। यही फूल प्रूफ स्ट्रैटेजी हो सकती है। 

एक ने कहा, कोई बात ऐसी नहीं होती जिसका ताल्लुक बस हम से ही होता है। और हर बात में कोई एक लीडर होता है जिसकी राय निर्णायक होनी ही चाहिए। इन सब के बीच वे जो ध्यान और धैर्य से सुन रही थी, उन्होंने कहा, 'निर्भर करता है।' जीवन में कई बातें ऐसी होती है जिनमें तो मैं किसी की नहीं सुनुँगी। चाहे किसी को भी ठीक न लगे, मुझे मालूम होता है कि मैं जो कर रही हूँ वो सही है, और उसके बिना मैं नहीं रह सकती। हाँ, उसके अलावा की बातों में मैं सुनुँगी ही नहीं, मानूँगी भी। यहाँ तक कि कोई हर्ज नहीं होगा तो वो भी जिन्हें मैं ठीक नहीं समझती लेकिन मेरी है वो तो मेरी ही है। 

वे फीमेल बाइक राइडर हैं, हाल ही मैं 9,000 कि.मी. की सोलो राइड करके आयीं हैं। बाइक राइडिंग उनका जुनून हैं, वे उसी परिपेक्ष्य में बात कर रही थी। वे कह रही थी कि इसके बिना मैं नहीं रह सकती इसलिए मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसकी क्या राय है। 
घर आकर जब मेरे जेहन में सारी बातों का रिपीट टेलीकास्ट चल रहा था तो लगने लगा ऐसा तो हम सब के साथ में है। कुछ बातें हम सबकी हैं जो हमें करनी ही होती हैं। जिनके बारे में हमें कोई सन्देह नहीं होता; न ये कि मैं कर रहा हूँ वो सही है या नहीं और न ही ये कि ये मुझसे हो पाएगा कि नहीं। उनमें मेरा विश्वास नहीं आस्था होती है।  

और तब जो मैं समझा वो ये कि ये ही वे बातें होती हैं जो हमारा होना होती हैं। इन्हीं से हम अपनी सम्पूर्णता पाते हैं, यही वो खिड़की होती से जिससे खुशियों की रोशनी हमारी जिन्दगी के भीतर आती है। यही हमें करना होता है और यही वे बातें होती हैं जिसके लिए हम इस बार आये हैं, जैसे बाइक राइडर होना उनका होना हैं। 
तो, एक रास्ता यह भी है पता करने का कि हमें जिन्दगी में करना क्या है,- वो बात जो हम इतनी शिद्द्त से चाहें कि किसी की भी राय का हमें फर्क न पड़े। 

दैनिक नवज्योति स्तम्भ-'जो मैं समझा' 
(रविवार, 20 मई 2018 के लिए)

Friday 25 May 2018

अपना साज अपनी राग






करीब दस दिन पहले की बात है अचानक से वो किताब मुझसे टकरा गयी। सोचा नहीं था पर इन्तजार तब से था जब से मैंने उसके लेखक विश्व-प्रसिद्ध जीव वैज्ञानिक ब्रूस लिप्टन का इंटरव्यू पढ़ा था। वे विस्तार से खुलासा कर रहे थे कि हमारा जीवन, तौर-तरीका, आदतें हमारी आनुवांशिकता पर नहीं हम कैसी ऊर्जा के साथ जीते हैं, पर निर्भर करती हैं। हम मानते आए हैं कि हम जैसे है उसके लिए मुख्यतः हमारे 'जीन्स' ही जिम्मेदार होते हैं लेकिन वे कह रहे थे सचमुच ऐसा है नहीं। जीन्स तो हमारे होने के नक्शे भर होते हैं, उन्हें जिस तरह हमारी कोशिकाएँ पढ़ पाती हैं उसी से ये सारी बातें तय होती हैं। और उनका ये पढ़ पाना निर्भर करता है उन कोशिकाओं की ऊर्जा पर।
अब एक मानव खरबों कोशिकाओं से बना होता है। तो, समझ लीजिए हम कैसे हैं और कैसे हो सकते हैं ये निर्भर करता है हम कैसी ऊर्जा के साथ जीते हैं उस पर, हमारे मानसिक वातावरण पर।  
यानि फिर वही बात कि हम जैसा सोचते है वैसा ही हमारा जीवन बनता चला जाता है। 

मैं भी ऐसा ही मानता आया हूँ लेकिन वे इसे विज्ञान से सिद्ध कर रहे थे इसीलिए इस किताब 'द बायोलॉजी ऑफ बिलीफ' को मैं तब से पढ़ना चाहता था। 
बड़े उत्साह से उसे शुरू किया लेकिन थोड़ी ही देर में लगा जैसे, जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ रहा हूँ पिछला चूकता जा रहा है। लगा, शायद इसकी अँग्रेजी क्लिष्ट है या मेरी आदत छूट गयी है। कोई शब्द ऐसा तो नहीं था जो मुझे आता न हो फिर भी मैं उनके साथ नहीं जा पा रहा था। शुरू के कुछ पेज आँखे गड़ाकर पढ़े पर मन सन्तुष्ट नहीं था, वापस पढ़े, फिर पढ़े पर उनके अर्थ मेरे नहीं हो पा रहे थे। 
जरूर, मेरी अँग्रेजी पढ़ने की आदत ही छूट गयी है!

मैं जाँचने के लिए डॉ. वेन डब्ल्यू. डायर की एक किताब ले आया। वे मेरे पसंदीदा लेखक है, लेखक क्या गुरु ही हैं। पढ़ना शुरू किया, तो रफ्तार ऐसी बनी जैसे प्रेमचन्द को पढ़ रहा हूँ। याद ही नहीं रहा कि हिन्दी पढ़ रहा हूँ या अँग्रेजी। अब किताब रखी तो दूसरी समस्या शुरू हो गयी। ये क्या था? एक किताब के साथ टेबल-कुर्सी पर बैठ आँखे गढ़ाने पर भी सुर नहीं बन्ध रहा था तो दूसरी के साथ बिना कोशिश जुगलबन्दी हो रही थी। 
और तब समझ में आया, बात दरअसल ये थी कि वो विज्ञान की भाषा थी और मैं जीवन का विद्यार्थी।

ये बात चलते-चलते हमारी पसन्द, फिर शिक्षा से होते हुए कैरियर और सफलता-असफलता तक के चक्कर लगा आयी। किसी विषय में अच्छे नहीं होने से ये निष्कर्ष नहीं निकलता कि हम पढ़ाई में अच्छे नहीं वरन इतना ही कि वो विषय मेरा नहीं। जिन्दगी की गुजर-बसर के लिए जो काम हम कर रहे हैं उससे गाड़ी नहीं चल पा रही तो इसका मतलब ये नहीं कि हम काम नहीं कर पा रहे बल्कि ये कि हमारे लिए कोई और काम है। और ऐसे ही हम असफल है इसका मतलब हमारा कमतर होना नहीं बल्कि ये कि सफलता हमारा कहीं और इन्तजार कर रही है। मैं खुद हैरत में था कि बात कहाँ की कहाँ पहुँच गयी, और जो इतनी मामूली लग रही थी वो तो जिन्दगी का मर्म समझा रही थी। 

इस तरह उन दो दिनों में जो मैं समझा वो ये कि हम सब का अपना-अपना संगीत है जो हम में 'इन-बिल्ट' है; हमारे में निहित है। संगीत का होना चिन्ता की नहीं समझने की बात है। रही बात प्रयासों की तो वे सिर्फ ये पता लगाने में करने हैं कि वो संगीत कौन सा है और किस साज से बजेगा। 

दैनिक नवज्योति स्तम्भ-'जो मैं समझा' 
(रविवार, 8 अप्रैल 2018 के लिए)

Saturday 21 April 2018

मैं ही मेरा दोस्त





आज बात एक दुविधा की, लेकिन उससे पहले उसके बैकग्राउण्ड की। बैकग्राउण्ड ये कि जैसे शरीर की अपनी जरूरतें हैं वैसे ही मन की भी अपनी जरूरतें हैं। उसके बिना वो नहीं रह सकता। और ऐसे देखें तो स्वीकार किया जाना शायद व्यक्ति की पहली मानसिक जरुरत है। स्वीकार किया जाना, जैसे आप हैं वैसे के वैसे। जहाँ आपकी कमियाँ आपकी विशेषताएँ बन जाती है। इसलिए यही प्रेम की बुनियाद भी होती है। 
कहते हैं सबसे पवित्र प्रेम माँ और बच्चे के बीच होता है क्योंकि वे एक दूसरे के लिए पूर्ण होते हैं, जैसे है वैसे। एक माँ के लिए अपने बच्चे से सुन्दर दूसरा दुनिया में कोई नहीं होता और एक बच्चे के लिए माँ उसका अन्तिम पड़ाव होती है। 

अब दुविधा ये कि इस तरह हमारा स्वीकार किया जाना सामने से आता है। कोई और चाहिए होता है जो हमें स्वीकार करे। हमारी इस मानसिक जरुरत के लिए हम किसी और पर निर्भर होते हैं। हमें अपने घर में, अपने काम में, अपने दोस्तों में, समाज में, हर जगह ऐसे व्यक्तियों की जरुरत होती है जो हमारे होने को हामी भरें। या यों कह लें इन सारी जगहों पर स्वीकार किए जाने के लिए ही हमारी सारी जुगतें होती हैं। व्यक्ति अपनी मूलभूत जरूरतों के बाद जो कुछ करता है वो इसीलिए तो करता है! अब यहाँ मुश्किल है। ये किसी और पर निर्भरता! कोई और हमें ये अहसास दिलाए कि हम जैसे हैं ठीक हैं, यही गड़बड़ है। अब दुर्भाग्य से किसी के जीवन में ऐसे लोग न हों तो वो क्या करे? और यहाँ तक भी ठीक लेकिन यदि जीवन में ऐसे लोग हों जो हर बात में उसकी गलती निकालते हों, उसे सुधारना चाहते हों, चाहते हों कि वो अपने तरीकों से नहीं उनके तरीकों से जिए तब तो बेचारे का दम ही घुट जाएगा। मुफ्त में अपना जीवन कुण्ठा और अवसाद में गुजार रहा होगा। होगा तो वो अपने आप में बिल्कुल ठीक लेकिन महज इसलिए कि उसके जीवन में इस बात का अहसास दिलाने वाले लोग नहीं, वो ऐसे जीने को मजबूर होगा। 
ये तो कोई बात नहीं हुई! हमारा जीवन, हमारा मन, हमारी खुशियाँ क्यूँ किसी और पर निर्भर रहे! क्या हो कि हम अपने आप को ठीक, बिल्कुल ठीक माने चाहे कोई कुछ कहे। 
और कुछ ऐसा होगा भी क्योंकि प्रकृति की योजना में जब सब कुछ परफेक्ट है तो वो हमें यूँ दूसरों पर निर्भर बनाने से रही! पर वो क्या है?

सारे जवाब सवालों में ही छुपे होते हैं, शायद मेरा भी वहीं था। 
और वो छुपा था 'प्रकृति' शब्द की ओट में। 
हमें अपने दैनिक जीवन का कुछ हिस्सा प्रकृति को देना होगा। प्रकृति को देना यानि अपने आप को देना क्योंकि हम भी तो प्रकृति ही हैं। कुछ वक्त उन चीजों के साथ गुजरना होगा जिनमें कोई अहं नहीं। कुछ ऐसे काम करने होंगे जो फायदे-नुकसान से परे हैं। कभी अपरिचित लोगों के बीच जाना होना या अनदेखी जगहों के लिए निकलना होगा।
आप जब इनमें से अपने माफिक का कुछ भी कर रहे होंगे तब प्रकृति उसी लहजे में आपको ये अहसास दिला रही होगी कि मैं जैसी हूँ वैसी ठीक हूँ इसलिए तू भी जैसा है ठीक है। और तब आपको किसी और की जरुरत नहीं होगी। आप हर हाल में ठीक होंगे, बिल्कुल ठीक। 

तो जो मैं समझा वो ये कि सारी मुश्किल अपने साथ नहीं होने की है, अपने साथ कुछ देर नहीं बैठने की है। यदि हम अपने से दोस्ती कर लें तो फिर और दोस्त मिलें तो भी ठीक और नहीं मिलें तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता।

दैनिक नवज्योति स्तम्भ-'जो मैं समझा' 
(रविवार, 11 मार्च 2018 के लिए)