Saturday 30 June 2018

काम का दबाव, कितना सही?






फेसबुक पर मित्र ने एक वीडियो शेयर किया था। एक युवा मोटिवेशनल गुरु बड़े ही आकर्षक तरीके से बता रहे थे कि 'प्रेशर' यानि काम का दबाव कोई नकारात्मक शब्द नहीं है जैसी की आम धारणा है। ये तो इस बात का प्रूफ है कि हमारे पास इतना काम है कि हम उसे कैसे करें और पहले क्या करें! ये दबाव ही है जो हमें सामंजस्य और अपने काम की मुश्किलों के प्रति विनम्र होना सिखाता है। वे आगे एक बड़ा ही रोचक उदाहरण देने लगते हैं; कहते हैं, जैसे हम एक कच्चा आलू खा नहीं सकते लेकिन जैसे ही प्रेशर-कुकर की तीन-चार सीटियाँ वो सुन ले, वो खाने लायक बन जाता है वैसे ही काम का प्रेशर-कुकर हमें लचीला बना हर तरह के व्यक्ति के साथ व्यवहार करने में कुशल बना देता है और तब हमारी सफलता निश्चित होती है। 
उनकी बातों की रौ में मैं ऐसा बहा कि मुझे भी लगा, क्या बात है! पर अगले ही क्षण लगा मन राजी नहीं है। कहीं कुछ खटक रहा था और मैं सोचने लगा.......... काम का दबाव होने का तो मतलब हुआ मन में इस बात की चिन्ता रहना कि ये सब मैं कर पाऊँगा भी या नहीं, तय नहीं कर पाना कि पहले कौन सा करूँ और कुछ भी करते समय उसके बाद क्या करना है उस पर ध्यान का बने रहना। 
तो भला, जो बात मन में चिंता, अनिश्चितता और उदिग्नता पैदा कर रही है वो कैसे सकारात्मक हो सकती है? 

सवाल भी सच में बारिश होते हैं, शुरू होते हैं तो झड़ी लगा देते हैं। क्यों कहा होगा उन्होंने ऐसा? ऐसा तो नहीं कि उन्हें इस बात का अहसास नहीं होगा! और सबसे बड़ा, फिर हमारा काम कैसा हो जो रात-दिन बढ़ता जाएँ, हमें और से और सफल बनाता जाए लेकिन उसका हम पर दबाव न हो?

सबसे पहले तो मैं उनकी जगह होकर सोचने लगा, एक मोटिवेशनल गुरु जिसने अपना कैरियर यही होना तय किया है और जो सोशियल मीडिया पर इसका प्रचार करने में जुटा हो! और तब दीखने लगा कि आजकल सारे ही लोग लोकप्रिय होने के लिए ऐसी ही बातें करने में लगे हैं। हमारी कमजोरियों, गलतियों को सही ठहराने में लगे हैं जिससे वे हमें पहली बार में ही अच्छे लगने लगें और स्वीकार हो जाएँ। हमारा अहं कहीं बीच में न आए और उनकी सक्सेस रेट बढ़ जाए। 
अब बात थी काम की जो सफलता की सीढ़ियाँ तो चढ़ाता जाए लेकिन दबाव की थकान जरा भी न हो। और मुझे डॉ. अभय बंग की वे पंक्तियाँ याद आने लगी। वे लिखते हैं, "नियन्त्रण जिनके स्वयं  हाथ में था, कैसा व कितना काम करें इसकी स्वतन्त्रता थी, उन्हें तनाव कम था।" काम पर नियन्त्रण यानि आप किसी पर निर्भर न हों। काम का कोई हिस्सा चाहे आप किसी और से करवा रहें हों लेकिन वो आपको भी करना आता हो। आपके काम का पूरा होना किसी और की मर्जी का गुलाम न हो। और काम की स्वतन्त्रता यानि आप इस स्थिति में हों कि तय कर सकें कि मैं कौन सा काम करूँगा और कितना करूँगा। काम आपको दौड़ाए नहीं आप उसकी सवारी करें। 
जब ऐसा होगा तो निश्चित ही है कि न दबाव होगा और न उससे उपजा तनाव।  

तो जो मैं समझा वो ये था कि दबाव का लगातार बने रहना इस बात का सूचक है कि आप का काम बदलाव की माँग कर रहा है। आपको कुछ और या इसी काम को किसी और तरीके से करना माफिक आएगा। बजाय इस बीमारी को 'सकारात्मक' कह टालते रहने से बेहतर होगा कि रुककर सोचें कि मैं अपने काम में क्या और कैसे बदलाव कर सकता हूँ कि मेरा काम मुझे दबाए नहीं मेरी खुशियों का, मेरी अभिव्यक्ति का साधन बन जाए! 

दैनिक नवज्योति स्तम्भ-'जो मैं समझा' 
(रविवार, 10 जून 2018 के लिए) 

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