Saturday 29 November 2014

विश्वास के बीज, खुशियों की फसल



एक व्यक्ति अपने जीवन में जहाँ कहीं है वह अपने विचारों की बदौलत है और ये विचार, ये बनते हैं हमारे देखने-सुनने से। जैसा हम देखते-सुनते है वैसे ही विचार हमारे मन में बनने लगते है और फिर धीरे-धीरे उन पर यकीं होने लगता है। जिन विचारों पर हम यकीं करने लगते वे ज्यों के त्यों हमारे जीवन में घटने लगते है चाहे हम चाहें या न चाहें। 

कितना महत्वपूर्ण होता है हमारा देखना और सुनना, इस बात का और भी शिद्दत से अहसास हुआ जब मैंने डॉ. सुमोटो का चावल पर किए प्रयोग का वीडियो देखा। तब मैंने अपने चारों ओर नजर घुमाई तो पाया कि हम शायद ही ऐसा कुछ देख-सुन रहे हैं जो मन को सुकून पहुँचाने वाला हो। अब भला रोज ही झूठ-बेईमानी की कहानियों से घिरे रहेंगे तो अछाई पर यकीं भला क्यों कर होने लगा? हम इन लोगों को सफल मानने लगते है पर ऐसा है नहीं। हासिल इन्होंने चाहे जो कर लिया हो ये खुश नहीं हो सकते वैसे ही जैसे नमक डालने से हलवा कभी मीठा नहीं हो सकता। 

हमारे मन की बदहाली की वजह हमारे अपने विचार है जो हमने अविश्वास के बीजों को बोकर पाए हैं। मैंने सोचा क्यों न मैं रोजाना किसी ऐसी सच्ची घटना को आपके साथ साझा करूँ जी मन में विश्वास जगाती हो, कम शब्दों में उस लिंक के साथ जहाँ से मैंने उसे उठाया हो पर विश्वास बड़ा जगाती हो। विश्वास इस बात का कि अन्ततः अच्छा सिर्फ उनके साथ है अच्छाई को चुनते है। तब हमारे होने या न होने से फर्क पड़ने लगता है। 

तो आइए, facebook.com/dilsebyrahul पर, वहीं खुशियों की फसल के लिए विश्वास के बीज बोते हैं। 
(डॉ सुमोटो का वीडियो भी आप आज की पोस्ट में देख सकते हैं)

इंतजार में,
राहुल हेमराज ........  

Saturday 15 November 2014

रौशनी की सौग़ात






जज्बातों का कोई धर्म नहीं होता, इसी को जी कर दिखाया मुधा पांडे गाँव के असलम बेग ने। मुधा पांडे गाँव रामपुर, उत्तर प्रदेश से कोई 10 कि.मी. पर है। आज से तक़रीबन 15 वर्ष पुरानी बात होगी, गाँव ही की यशोदा देवी के पति अचानक चल बसे। अर्थ जीवन की गाड़ी का ईंधन है। यशोदा देवी का जीवन भी ठहरने लगा। वे अपनी बूढी माँ और छोटे बेटे के साथ बड़ी ही दयनीय स्थिति में एक झोपड़ी में रहने लगी। गाँवों की यही तो ख़ास बात होती है कि यहाँ सब एक-दूसरे को जानते हैं। असलम बेग से ये सब देखा न गया। उन्होंने यशोदा देवी को अपनी राखी-बहन बना लिया।  

रिश्ता बनाना आसान है पर निभाना कोई असलम बेग से सीखे। सबसे पहले तो उन्होंने जरुरत के रुपयों-पैसों के साथ उनके लिए एक घर का इंतज़ाम किया। तब से ईद-दिवाली दोनों परिवार साथ मनाते, मुश्किल घडी में एक-दूसरे के साथ खड़े होते। यह भाई-बहन का परिवार था जिसके बीच दान या मदद नाम की कोई खाई न थी; एक बराबरी का रिश्ता। हर बार की तरह इस भाई दूज, 26 अक्टूबर'14 को भी असलम बेग अपनी बहन यशोदा देवी के यहाँ जाने को तैयार हो रहे थे कि खबर आयीं, वे नहीं रहीं। बात यहीं ख़त्म नहीं होती। वे भारी मन से अपनी बहन के यहाँ पहुंचे तो परिजन अन्तिम संस्कार की चर्चा कर रहे थे। सामान्य था वे गाँव ही के शमशान के बारे में सोच रहे थे लेकिन असलम भाई का विचार था कि वे अपनी बहन का संस्कार गंगा किनारे करें। वे अपने खर्चे पर सारे नाती-रिश्तेदारों के साथ अपनी बहन के पार्थिव शरीर को गंगा किनारे गढ़-मुक्तेश्वर लेकर पहुँचे जहां पूरी श्रद्धा के साथ अपनी बहन का अन्तिम संस्कार किया। 

उनके आपसी रिश्तों में धर्म कभी बीच में न आया। आना भी नहीं चाहिए क्योंकि धर्म आस्था का विषय है और आस्था निजता का। यह उतना ही निजी है जितना कि आज आप कौन से रंग का कपड़ा पहनना चुनते हैं या खाने में क्या लेना पसंद करते हैं। क्या हम किसी से बात करते हुए, व्यापार-व्यवहार या फिर दोस्ती करते हुए ये सब देखते हैं कि कोई क्या पहनता है या क्या खाता है तो उसका धर्म क्यों देखें? धर्म उस ऊर्जा तक पहुँचने का एक जरिया है जो हम सब के होने की वजह है, महत्वपूर्ण वह ऊर्जा है। क्या फर्क पड़ता है आपके कमरे में रोशनी बिजली के तारों से आती है, सौर-ऊर्जा के पैनल से या फिर गोबर-गैस के प्लान्ट से ही; महत्वपूर्ण है आपके कमरे का रौशन होना। ठीक इसी तरह महत्वपूर्ण है आपके अन्तस का रौशन होना चाहे वो जिस धर्म से होता हो। 

व्यक्तियों में भेद होना ही हो तो रौशन और बेरौशन का हो। रौशन वे जिन्हें हर क्षण याद रहे कि हम सब के होने की वजह एक है और बेरौशन वे जो अहं की गिरफ्त में एक-दूसरे से बेहतर सिद्ध करने जुगत में लगे हैं और तब ये जिम्मेदारी रौशन लोगों की हो जाती है कि वे किसी को अन्धकार में न जीने दें। रौशनी की ये सौग़ात जो इस दिवाली हमें असलम भाई और यशोदा देवी ने दी है, हमें सम्भाल कर रखनी है।


(दैनिक नवज्योति में 'सेकंड सण्डे' 9,नवम्बर को प्रकाशित)
राहुल हेमराज ..........