Friday 30 November 2012

हर साज की अपनी तान




जिन्दगी है, परिवार है तो आवश्यकताएँ भी है और आवश्यकताएँ है तो उन्हें पूरा करने के लिए धन की जरुरत है और उसके लिए किसी ऐसे काम में होना जरुरी है जो हमें जरुरत का धन दिला सके इसलिए हम अपने जीवन में कौन सा काम करें इसका पैमाना उससे मिलने वाला धन होता है। ठीक लगता है लेकिन ये तर्क क्या सचमुच उतना ठीक है जितना लगता है? ठीक लगता है लेकिन ये तर्क क्या सचमुच उतना ठीक है जितना लगता है?  दिल की सुनें, अपने सपनों  को जिएँ .............ये सब क्या कहने-सुनने की बातें है?

इस कड़ी को थोडा आगे बढ़ाते है। कौन-सा काम हमें कितना धन दिलाएगा ये हम कैसे तय करते है? निश्चित रूप से, औरों को देखकर। फलाँ व्यक्ति ने फलाँ काम कर कितना पैसा कमाया। मुझे लगता है बाकी बातें तो अपनी जगह ठीक है पर बस इस आखिरी पायदान पर आकर हमसे गलती हो जाती है। आपकी समृद्धि सिर्फ और सिर्फ उसी काम से संभव है जो आपके लिए बना है। हो सकता है जिस व्यक्ति की सफलता और समृद्धि को देखकर आप काम चुन रहे हों वो उसके लिए बना हो, आपके लिए नहीं। निस्संदेह आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन की अनिवार्यता को नकारा नहीं जा सकता लेकिन इससे अधिक की तृष्णा वह भी यह सोचकर कि यह जीवन मैं खुशियाँ लाएगा, बिल्कुल बेतुकी है। खुश रहना व्यक्ति का आत्मिक भाव है इसका धन या किसी और बाहरी परिस्थिति से कोई लेना-देना नहीं। तो धूम-फिरकर प्रश्न फिर वहीँ आकर ठहर गया कि हम कौन सा काम चुनें? 

खलील जिब्रान कहते है, " बाँसुरी बन कर काम करें जिसके हृदय से घंटों फूँकने का जतन संगीत बनकर निकलता है। जिन्दगी का गूढ़ रहस्य है उसे मेहनत के जरिए प्यार करना। आपका काम आपके आत्मिक प्रेम का इजहार हो, यही संतुष्टि देगा।"

आप अपने जीवन में वो काम करें जिसकी आप बाँसुरी है और फिर एक दिन आपका काम स्वयं संगीत की तरह बोलने लगेगा। हर व्यक्ति हर काम की बाँसुरी नहीं होता। आप उस काम को चुनें जो आपको बजाकर उसमें से संगीत निकाल दें। जिसे आप रियाज की तरह कर सकें, जहाँ न समय का भान हो न भूख का और न ही परिणामों की कोई चिंता, बस इच्छा हो तो सिर्फ मीठी तान की। यही जीवन में खुशियाँ लाएगा, यही संतुष्टि देगा। दूसरी ओर, यदि भीतर झाँकें यानी आत्म का अध्ययन करें यानी अध्यात्म की नज़र से देखें तो पाएँगे कि व्यक्ति का सार-तत्त्व, उसकी मूल-प्रकृति है -- विशुद्ध प्रेम। कोई भी व्यक्ति या तो प्रेममय है और यदि किसी और स्थिति में है तो चाह प्रेम की ही है और यही सबूत है 'विशुद्ध प्रेम' के  प्रकृति होने का अतः स्वाभाविक और आवश्यक है कि हमारा काम हमारे प्रेम का इजहार हो। जब ऐसा होगा तब हम अपने काम में सिर्फ सर्वश्रेष्ठ होंगे।

व्यक्ति के साथ उसके काम का जन्म होता है इसलिए आपकी जिन्दगी की आवश्यकताएँ उतनी ही होती है जो उस काम से पूरी हो सकें या यों कह लें कि आपके काम में हमेशा ही उतनी क्षमता होती है कि वो उन्हें पूरा कर सकें। हाँ इतना जरुर है, व्यक्ति को ये स्वयं ही ढूँढना होता है कि वो किस तरह अपने पसंद के काम को अपने जीविकोपार्जन का साधन बना सकता है और यही व्यक्ति का सच्चा पुरुषार्थ है। आपकी बाँसुरी को सुनने वाले आप ही को  ढूँढने होंगे।


(जैसा कि रविवार, 25 नवम्बर को नवज्योति में प्रकाशित)
आपका,
राहुल........ 

Friday 23 November 2012

जीना इसी का नाम है





' जब मृत्यु आये तो आप चिरनिंद्रा के लिए जमीन की बजाय लोगों के दिलों में जगह की चाह रखें।'
                                                                                                                       -- रूमी 

दिवाली अभी तक ज़ेहन से गयी नहीं और जो बात रह-रहकर मन में उठ रही है वह है रावण की अमर होने की इच्छा। बात उठी तो उसने सोचने पर मजबूर किया कि क्या अमर होने की इच्छा गलत थी? गलत तो नहीं हो सकती क्योंकि हम सब भी तो कहीं न कहीं चाहते है कि अपने जाने के बाद याद रखे जाएँ और फिर हम सबके जीवन में ऐसे लोग रहे है जिनकी याद आज भी मुश्किल घड़ियों में हमें सम्बल देती है और उनका जीवन प्रेरणा। हमारी ऐसी चाह बिल्कुल निर्दोष है लेकिन रावण ने अमरता को जिन मायनों में समझा और फिर उसके लिए जो रास्ता अपनाया शायद वही गलत था जो अन्ततः उसके सर्वनाश का कारण बना।

रावण अपने शारीर के जरिए अमर होना चाहता था जो संभव ही नहीं। आप अमर हो सकते है किसी की यादों में और किसी को याद आएँगे उसके दिल में जगह बनाकर। आप ऐसा कुछ करें कि आपके जाने के बाद कोई आपके बारे में सोचे और एक विचार बनकर आप उसके जेहन में उपस्थित रहें। किसी के दिल में उतरना है तो सबसे पहले रावण की तरह बनाई अपनी झूठी छवि से मुक्ति पा अपनी मूल प्रकृति को जीना होगा। हम सब अलग-अलग तरह से अपनी एक छवि गढ़ लेते है। कोई अपनी सफलताओं को, कोई अपनी शारीरिक सुन्दरता को तो कोई अपने अर्जित ज्ञान को अपना परिचय बना लेता है। इस परिचय के अनुरूप ही हम व्यवहार करने लगते है; यह भूलकर कि हमारी प्रकृति है विशुद्ध प्रेम और हमारे व्यवहार सिर्फ प्रेम की उपज होने चाहिए। हम जब भी किसी से मिलें परिचय के इस बोझ को उतारकर पूरी आत्मीयता से मिलें। कोई आप से कुछ कह रहा है तो उसे अपना सम्पूर्ण अखंडित ध्यान दें। आप कुछ कहें तो वह खानापूर्ति के लिए नहीं हो बल्कि आप उसमें पूरा विश्वास रखते हों। दुनिया में किसी को भी दी जा सकने वाली इससे कीमती भेंट और कोई हो नहीं सकती। 

इस तरह आप लोगों के दिलों में उतर तो गए लेकिन वहाँ अपना पक्का ठौर बनाना है तो कुछ ऐसा कर गुजरना होगा कि उनके जीवन की कुछ खुशियों के कारण आप हों। निस्संदेह व्यावहारिक जीवन की अपनी मजबूरियाँ होती है अतः आपके काम सबसे पहले आपकी जरूरतें और जिम्मेदारियाँ पूरी करें लेकिन उसके एक छोटे से हिस्से का मेहनताना  सिर्फ दूसरों की खुशियाँ हो। गीता में इसे लोक-संग्रह के कार्य कहा गया है। ऐसे काम जो दुनिया के पहिए को घुमाने के लिए जरुरी हों। आप भी अपना अंशदान दीजिए। आप जिस भी क्षेत्र में है उसी में रहकर ऐसा कर सकते है, अलग से कुछ भी करने की जरुरत नहीं।

दूसरों की खुशियों के लिए किया छोटा-सा काम भी आपको इतनी आत्म-संतुष्टि देगा कि तब आप महसूस करेंगे कि इसे तो और किसी विधि से हासिल किया ही नहीं जा सकता। अपनी अभिव्यक्ति का आधार अपनी प्रकृति को बनाइए, प्रेम के केनवास पर जिन्दगी के चित्र उकेरिए। जब ऐसा होगा तो दूसरों के चेहरे की उदासी आपके मन को विचलित करने लगेगी और जिस दिन से ऐसा होने लगे समझ लीजिएगा आपने अमरता का रास्ता ढूंढ़ लिया। आपसे बात करते हुए मेरा मन फिल्म 'अनाडी' का वो सुंदर गीत गुनगुनाने लगा है ......

किसी की मुस्कराहटों  पे  हो निसार 
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार 
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार 
जीना इसी का नाम है ................  


(रविवार, 18 नवम्बर को नवज्योति में प्रकाशित)
आपका 
राहुल....... 

Friday 16 November 2012

उत्सव, एक जरुरत




इन दिनों हम भारत-वर्ष के सबसे बड़े धार्मिक-उत्सव मनाने में डूबे है। दिवाली पर ढेरों शुभकामनाएँ देते हुए मन कर रहा है कि आज हम तलाशे कि आखिर हम उत्सव मनाते ही क्यूँ है? क्या महज श्रद्धा ही इन परम्पराओं का कारण है या कुछ और भी? और यदि है तो वे किस तरह हमारे जीवन को प्रभावित करती है?

उत्सव चाहे कोई हो उन दिनों एक खास माहौल बनने लगता है जैसे इन दिनों रामायण पर आधारित कई धारावाहिक आ रहे है तो ख़बरों में जगह-जगह होने वाली विशेष रामलीलाओं की चर्चा है, शहर में जगह-जगह रावण के पुतले बनते नज़र आ रहे थे तो घरों में सफ़ाईयाँ  चल रही थी। इस खास माहौल की बदौलत हमारे अवचेतन में कहीं न कहीं श्री राम और उनका जीवन रहने लगता है। पिता की आज्ञा-पालन कर राम का राज-पाट छोड़ना, सीता-लक्ष्मण का साथ वनवास जाना, भरत का खडाऊ रख शासन चलाना................. राम की रावण पर विजय। ये सारी घटनाएँ  उन मूल्यों की याद दिलाती है जिन्हें अपने जीवन का आधार बना एक राजा ईश्वर बन गया। ये हमें भरोसा दिलाती है कि आखिर विजय उसी की होती है जो सत्य की राह पर चलता है और इस तरह आम जन-जीवन में मूल्यों की पुर्नस्थापना करना किसी भी उत्सव को मनाने की सबसे अहम् वजह होती है।

एक और खास वजह, उत्सव हमें अवकाश देते है अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी से। लियानार्डो डी विन्ची लिखते है, 'अवकाश आपके निर्णयों को पक्का और पैना बनाते है।' सच ही तो है, रोजमर्रा की जिन्दगी ने हमें घड़ी से बाँध दिया है। अपने काम को सही समय पर करने के लिए हम समय-प्रबंधन करते है लेकिन धीरे-धीरे काम और उसकी गुणवत्ता कहीं पीछे छूट जाती है वैसे ही जैसे निश्चित समय पर भोजन करने की प्रतिबद्धता के चलते भूख का अहसास द्वितीय हो जाता है। उत्सव इस दुष्चक्र को तो तोड़ते है ही साथ ही हमें अवसर देते है जहाँ से खड़े होकर हम अपने काम को समग्रता से देख सकें। जिस प्रकार पहाड़ की चोटी पर खड़े होकर अपने ही शहर को देखने पर उसकी खूबसूरती और कमियाँ साफ़ नज़र आने लगती है उसी तरह अवकाश के दिनों से अपने काम को समग्रता से देखने पर हमें साफ़ नज़र आएगा कि हमारे काम में कहाँ अनुपात बिगड़ रहा है और कहाँ लय टूट रही है।

एक सबसे छोटा दिखने वाला लेकिन सबसे महत्वपूर्ण लाभ -- उत्सव हमें अपने रिश्तों की मरम्मत करने का अवसर देते है। शायद इसीलिए हर धार्मिक उत्सव के बाद चाहे वह दिवाली हो, होली हो, ईद हो या क्रिसमस ; अपने प्रियजनों से मिल उनका अभिवादन करने की प्रथा है। एक-दूसरे से मिलने और अभिवादन की यह रस्म अदायगी धीरे-धीरे रिश्तों के बीच आई दीवार ढहाने लगती है।

इस तरह उत्सव हमारे जीवन मूल्यों की पुर्नस्थापना करते है, काम की गुणवत्ता लौटते है, हमारे निर्णयों को पहले से ज्यादा पैना बनाते है और सबसे अव्वल हमारे रिश्तों की मिठास को बनाए रखते है। उत्सव श्रद्दा से कहीं अधिक हमारी जिन्दगी की जरुरत है। ईश्वर करें यह दिवाली हमारे जीवन को और बेहतर बनाएँ।


( रविवार 11, नवम्बर को नवज्योति में  प्रकाशित )
आपका 
राहुल................   

Friday 9 November 2012

जिन्दगी के मौसम




प्रकृति से श्रेष्ठ कोई शिक्षक नहीं और इसके आश्चर्यों का आनन्द लेते हुए जीने से बड़ा कोई सुख नहीं। प्रकृति यानि बदलते मौसम। मौसम यानि जो कल था वो आज नहीं और जो आज है वो कल नहीं। निरंतरता की यही प्रवृति है प्रकृति की अद्वितीय सुन्दरता का राज। यही है हर सुबह की नई ताजगी और हर शाम की शीतलता की वजह। हमारे लिए ही गर्मियों के दिनों में सर्दी की कल्पना कर पाना कितना मुश्किल हो जाता है, इसी शिद्दत से जीती है प्रकृति अपने मौसमों को पर फिर धीरे-धीरे सर्दियाँ आने लगती है, कितनी सहजता से स्वीकार कर लेती है इस बदलाव को और उसी रंग-ढंग में ढल जाती है।

हम प्रकृति के इन रंगों के इतने अभ्यस्त हो चुके है कि इनसे सीखना तो दूर यह विविधता हमें आनंद-आश्चर्य भी नहीं देती। प्रकृति तो हर क्षण अपने आचरण से हमें याद दिलाती है कि जो कुछ जिओ उसे उस समय पूरी तरह डूबकर, कोई गिला बाकी न रहे लेकिन साथ ही यह भी याद रहे कि दुनिया में जिस किसी का भी अस्तित्व है तो उसके होने की वजह भी, तो जाने का समय भी। छोटी हो या बड़ी सबकी एक उम्र होती है लेकिन जिन क्षणों को भरपूर जिया हो उनकी विदाई आसान होती है। एक मौसम की सहज विदाई ही तो दुसरे मौसम के स्वागत का द्वार खोलती है और यही वो तरीका है जिससे हमारी जिन्दगी भी प्रकृति की तरह अद्वितीय सुंदर बन सकती है।

जिन्दगी के सबसे अहम् पहलू है हमारा काम और हमारे रिश्ते। दोनों के प्रति हमारा नज़रिया वही होना चाहिए जो प्रकृति का अपने मौसम के प्रति होता है। यह ठीक है कि हम वो करें जिसकी हमें दिल गवाही दे और तब काम, काम नहीं खेल बनकर रह जाएगा लेकिन कई बार हम व्यावहारिक कारणों के चलते अपने मनचाहे काम के अलावा किसी और काम में होते है या समय के साथ हमें अपना काम ही कम भाने लगता है। दोनों ही स्थितियों का जवाब प्रकृति में  छुपा है। पहले तो आप जिस भी काम में है उसे पूरे मन से कीजिए। पूरे मन से किया काम ही आपको सफलता देगा और यह सफलता ही आपको एक बार वापस अपने काम के चुनाव का अवसर देगी। मान लीजिए आप इंजिनियर है लेकिन चाहते है पेंटर बनना। सबसे पहले तो अपने मन में पेंटर बनने की इच्छा को जिन्दा रखते हुए इंजीनियरिंग के काम को अपना शत-प्रतिशत दीजिए। इंजीनियरिंग के क्षेत्र में आपकी सफलता आपको वो सब उपलब्ध करवाएगी जिससे आप अपने पेंटर बनने के सपनों को पूरा कर सकें, ठीक उसी तरह जिस तरह प्रकृति पूरी शिद्दत से हर मौसम को जीती है और यही अगले मौसम के आगमन का कारण बनाता है।

जिन्दगी का दूसरा अहम् पहलू है हमारे रिश्ते। किसी भी रिश्ते को तब भरपूर जियें जब आप उसमें हों, यही खुशियों भरे जीवन का राज है लेकिन हम या तो रिश्ते बनाने से पहले उत्साहित होते है या बाद में उन्हें याद करते है। रिश्तों को वर्तमान में जीते हुए भी जीवन में कई बार ऐसी स्थितियाँ बन जाती है कि उन्हें एक मोड़ दे देना ही एकमात्र विकल्प बचता है, तो इसमें कुछ गलत नहीं। आप ऐसा कर दोनों का भला ही कर रहे है लेकिन याद रहे न तो यह क्षणिक भावावेश हो और न ही बेहतर बेहतर रिश्ते की उम्मीद में उठाया कदम; यह स्थिर मन से अन्तरात्मा की आवाज़ पर किया निर्णय हो। किसी भी रिश्ते को महज इसलिए न निभाए कि यह आपका नैतिक दायित्व है वरना लोग क्या कहेंगे? रिश्ते जब कोरी जिम्मेदारी बन जाते है तो अपनी सुगंध खो देते है लेकिन अपनी जिम्मेदारी को नकारा भी नहीं जा सकता अतः रिश्तों को तब तक सहेजने की कोशिश करें जब तक उसमें आत्मिक ख़ुशी का एक भी रेशा बचा हो। एक बात ध्यान रखें रिश्ते परमात्मा का हमारा जीवन खुशियों से भर देने का साधन है लेकिन उसके पास साधनों की कोई कमी नहीं।

प्रकृति से मिली इसी सीख को श्री हरिवंश राय बच्चन ने बहुत ही सुन्दर और सार्थक शब्दों में पिरोया है, " पाप हो या पुण्य कुछ भी नहीं किया मैंने आधे-अधूरे मन से।"


(रविवार, 4 नवम्बर को दैनिक नवज्योति में  प्रकाशित)

आपका 
राहुल ........     

Friday 2 November 2012

संतुष्टि की संजीवनी




' काम को जल्दी में नहीं उसकी सम्पूर्णता के साथ कीजिए, छोटे-छोटे प्रलोभन आपको बड़ी उपलब्धियों से वंचित रख देंगे। '

                                                                                                                         -  कन्फ्यूसियस   


आचार्य चाणक्य को कहाँ जरुरत थी कि वे धनानंद से बदला लेने के लिए इतना प्रपंच करते। वे किसी तरह धनानंद को मरवा देते और उनका बदला पूरा हो जाता लेकिन क्या तब हम उन्हें इसी श्रद्धा और सम्मान से याद करते? निश्चित रूप से, नहीं। उन्होंने अपने अपमान को उस समय के समाज में गिरते हुए मूल्यों और देश की बदहाल कानून-व्यवस्था के प्रतीक के रूप में देखा और जुट गए नव-भारत निर्माण में। यही है काम को उसकी सम्पूर्णता के साथ करना।

आपकी बात बिलकुल सही है कि सभी महापुरुष तो नहीं हो सकते लेकिन विश्वास मानिए ये बात हमारे जीवन के नव-निर्माण पर भी उतनी ही शिद्दत से लागू होती है। आज हमें किसी भी काम को करने के बाद ठीक वैसा ही लगता है जैसा अपने विद्यार्थी जीवन में परीक्षा परिणाम के दिन लगता था कि काश मैं थोडा वो भी कर लेता कितना छोटा सा हिस्सा था और मेरे लिए मुश्किल भी नहीं। वास्तव में ' शॉर्ट-कट ' हमारी जीवन शैली बन गई है और अफ़सोस मानना हमारी आदत। 

हमें लगता है कि ये सब इसलिए हुआ क्योंकि आज की तेज-रफ़्तार जिन्दगी में हमें कितना कुछ करना होता है और समय है कम। 'एक जान, हज़ार अरमान' वाली उक्ति शायद हम जैसों के लिए ही बनी है पर मैं आपको बता दूँ कि शॉर्ट-कट अपनाने का हमारा यह तर्क बिलकुल सतही है। यदि हम सब अपना-अपना काम ढंग से करें तो आत्म-संतुष्टि के प्रतिफल के साथ हमारी वाजिब इच्छाएँ स्वतः पूरी होंगी। सारी समस्या यह है कि हम कर्म की बजाय परिणामों को अपना ध्येय बना लेते है। आपस की बातचीत में आपने कई बार सुना होगा; अभी तो एक ढंग की कार खरीदनी है, बच्चों को पढ़ाना है, घर बनाना है और फिर बच्चों की शादियाँ भी तो करनी है और फिर लग जाते है इन सब के ' जुगाड़ ' में। हम अपने काम को पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ करने और उस पर एतबार करने की बजाय इधर-उधर हाथ मरने लगते है और अपनी सुंदर जिन्दगी को 'तनाव', 'भाग-दौड़', 'तेज-रफ़्तार', जैसे विशेषणों से सजा देते है। अपने काम पर विश्वास और उसके प्रति हमारी ईमानदारी और निष्ठा आत्म-संतुष्टि के साथ हमारी अभिलाषाएँ तो पूरी करेंगी ही, समाज में प्रतिष्ठा का अतिरिक्त लाभ भी देगी।

टेक्नोलोजी के इस युग की इन्सान को सबसे कीमती भेंट है तो वह है ' समय की  बचत '। आज हर चीज को बनाते समय सबसे अहम् यही बात ध्यान रखी जाती है कि ये उपयोग करने वाले का कितना समय बचाएगी। लेकिन क्या आपने कभी गौर किया कि इस बचे हुए समय का हम करते क्या है? यह समय बचाया था इसलिए कि हम अपना काम ढंग से कर लें लेकिन इन चीजों के बीच रहते-रहते हम अपने काम को भी इन उपकरणों की शैली में करने लग गए। 

जिन्दगी में धीरे होना और अपने काम को सम्पूर्णता से करना एक कला है। धीरे-धीरे स्वाद लेकर थोडा भी खाया हुआ संतुष्टि देता है। मैं शर्तिया कह सकता हूँ कि आपकी जिन्दगी के दस यादगार अनुभव वे ही होंगे जिनमें आपने अपना शत-प्रतिशत दिया होगा। धीरे होने में स्मृति है तो तेज होने में विस्मृति। काम की सम्पूर्णता ही जीवन में संतुष्टि की संजीवनी है।


( रविवार, 28 अक्टुबर को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका 
राहुल......