Friday 23 November 2012

जीना इसी का नाम है





' जब मृत्यु आये तो आप चिरनिंद्रा के लिए जमीन की बजाय लोगों के दिलों में जगह की चाह रखें।'
                                                                                                                       -- रूमी 

दिवाली अभी तक ज़ेहन से गयी नहीं और जो बात रह-रहकर मन में उठ रही है वह है रावण की अमर होने की इच्छा। बात उठी तो उसने सोचने पर मजबूर किया कि क्या अमर होने की इच्छा गलत थी? गलत तो नहीं हो सकती क्योंकि हम सब भी तो कहीं न कहीं चाहते है कि अपने जाने के बाद याद रखे जाएँ और फिर हम सबके जीवन में ऐसे लोग रहे है जिनकी याद आज भी मुश्किल घड़ियों में हमें सम्बल देती है और उनका जीवन प्रेरणा। हमारी ऐसी चाह बिल्कुल निर्दोष है लेकिन रावण ने अमरता को जिन मायनों में समझा और फिर उसके लिए जो रास्ता अपनाया शायद वही गलत था जो अन्ततः उसके सर्वनाश का कारण बना।

रावण अपने शारीर के जरिए अमर होना चाहता था जो संभव ही नहीं। आप अमर हो सकते है किसी की यादों में और किसी को याद आएँगे उसके दिल में जगह बनाकर। आप ऐसा कुछ करें कि आपके जाने के बाद कोई आपके बारे में सोचे और एक विचार बनकर आप उसके जेहन में उपस्थित रहें। किसी के दिल में उतरना है तो सबसे पहले रावण की तरह बनाई अपनी झूठी छवि से मुक्ति पा अपनी मूल प्रकृति को जीना होगा। हम सब अलग-अलग तरह से अपनी एक छवि गढ़ लेते है। कोई अपनी सफलताओं को, कोई अपनी शारीरिक सुन्दरता को तो कोई अपने अर्जित ज्ञान को अपना परिचय बना लेता है। इस परिचय के अनुरूप ही हम व्यवहार करने लगते है; यह भूलकर कि हमारी प्रकृति है विशुद्ध प्रेम और हमारे व्यवहार सिर्फ प्रेम की उपज होने चाहिए। हम जब भी किसी से मिलें परिचय के इस बोझ को उतारकर पूरी आत्मीयता से मिलें। कोई आप से कुछ कह रहा है तो उसे अपना सम्पूर्ण अखंडित ध्यान दें। आप कुछ कहें तो वह खानापूर्ति के लिए नहीं हो बल्कि आप उसमें पूरा विश्वास रखते हों। दुनिया में किसी को भी दी जा सकने वाली इससे कीमती भेंट और कोई हो नहीं सकती। 

इस तरह आप लोगों के दिलों में उतर तो गए लेकिन वहाँ अपना पक्का ठौर बनाना है तो कुछ ऐसा कर गुजरना होगा कि उनके जीवन की कुछ खुशियों के कारण आप हों। निस्संदेह व्यावहारिक जीवन की अपनी मजबूरियाँ होती है अतः आपके काम सबसे पहले आपकी जरूरतें और जिम्मेदारियाँ पूरी करें लेकिन उसके एक छोटे से हिस्से का मेहनताना  सिर्फ दूसरों की खुशियाँ हो। गीता में इसे लोक-संग्रह के कार्य कहा गया है। ऐसे काम जो दुनिया के पहिए को घुमाने के लिए जरुरी हों। आप भी अपना अंशदान दीजिए। आप जिस भी क्षेत्र में है उसी में रहकर ऐसा कर सकते है, अलग से कुछ भी करने की जरुरत नहीं।

दूसरों की खुशियों के लिए किया छोटा-सा काम भी आपको इतनी आत्म-संतुष्टि देगा कि तब आप महसूस करेंगे कि इसे तो और किसी विधि से हासिल किया ही नहीं जा सकता। अपनी अभिव्यक्ति का आधार अपनी प्रकृति को बनाइए, प्रेम के केनवास पर जिन्दगी के चित्र उकेरिए। जब ऐसा होगा तो दूसरों के चेहरे की उदासी आपके मन को विचलित करने लगेगी और जिस दिन से ऐसा होने लगे समझ लीजिएगा आपने अमरता का रास्ता ढूंढ़ लिया। आपसे बात करते हुए मेरा मन फिल्म 'अनाडी' का वो सुंदर गीत गुनगुनाने लगा है ......

किसी की मुस्कराहटों  पे  हो निसार 
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार 
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार 
जीना इसी का नाम है ................  


(रविवार, 18 नवम्बर को नवज्योति में प्रकाशित)
आपका 
राहुल....... 

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