Friday 14 March 2014

स्टार्ट फ्रॉम दी एण्ड




बहुत दिनों पहले देखे एक पौराणिक टी.वी. सीरीयल का एक दृश्य - राजकुमार राम अपने गुरुकुल में तीरंदाजी का अभ्यास कर रहें हैं। हर बार निशाना थोडा-सा चूक जाता है। कैलाश पर्वत पर बैठे शिव इस लीला को निहार रहे हैं। वे सोचने लगते है कि चाहे ईश्वर ही क्यूँ न हो, मानव रूप में पूर्णता प्राप्त करने के लिए उसे भी तप से गुजरना ही पड़ता है। तब वे एक आदिवासी भील का रूप धर वहाँ उपस्थित होते है और विधार्थी राम से कहते है, 'सबसे पहले यह देखो कि बाण लक्ष्य पर लग चूका है, फिर उसे सम्भव होने दो। कर्ता मत बनो, कर्म करो।'

इस अकेले वाक्य के कारण यह दृश्य न जाने कितने दिनों से मेरे जेहन में घर बनाये बैठा था। वाक्य क्या था, सफलता का सूत्र था। कितनी सरलता और सहजता से निर्देशक ने मैंनेजमेंट का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त जिंदगी से जोड़ कर समझा दिया, जिसे वहाँ 'स्टार्ट फ्रॉम दी एण्ड' कहा जाता है। ऐसा सिद्धान्त जिस पर न जाने कितनी किताबें लिखी जा चूकी, न जाने कितने व्याख्यान दिए जा चूके। आइए, इस सूत्र को दो हिस्सों में समझते है। पहला हिस्सा, 'सबसे पहले यह देखो कि बाण लक्ष्य पर लग चूका है ...................।'यह बात ठीक वैसे ही है जैसे आप घर में बैठे है और आपको प्यास लगी है। मटकी में पानी भी है। बस आपको मटकी तक जाना है। मटकी जहाँ पड़ी है उस दिशा में कदम जरुर बढ़ाने है लेकिन इस बात में आपको कोई सन्देह नहीं कि पानी मिलेगा या नहीं। यही आशय हुआ बाण छोड़ने से पहले उसे लक्ष्य पर लगा हुआ देख लेने का, कि हम अपने जीवन में जो कुछ पाना या होना चाहते है उसके लिए जरुरी है सबसे पहले यह मान लें कि वो आपको मिल चूका है, बस हमें एक प्रक्रिया भर से गुजरना है।

सूत्र का दूसरा हिस्सा पहले हिस्से को सहयोग करता है पर है उससे कहीं नाजुक, ' ...........................  फिर उसे सम्भव होने दो। कर्ता मत बनो, कर्म करो।' हम अपनी जिंदगी से जो पाना चाहते है उसे हम ही नहीं होने देते। बुरा मानने की नहीं बल्कि सोचने की बात है कि अधिकतर समय हमारी राह का रोड़ा हम ही होते है। यदि हम चाहते है कि कोई हमारे घर आए तो सबसे पहले अपने घर के दरवाजे खुले रखने होंगे। आप अपनी जिंदगी से जो कुछ भी चाहते है उसे ग्रहण करने के लिए हर क्षण तैयार रहना होगा। तैयारी अपने आपको उस सबके लायक समझने की और अपने विश्वास को दृढ करने की वो सब कुछ मुझे मिलेगा ही। एक बार एक व्यक्ति किसी तरह एक निर्जन टापू पर फंस गया। जब भी उधर से कोई विमान गुजरता वो अपने हाथ हिला-हिलाकर मदद के लिए सन्देश देने की कोशिश करता। आखिर सेना के एक छोटे विमान ने उसे देख लिया। वह नीचे उतरने लगा लेकिन वह व्यक्ति इतना व्यग्र था कि और तेजी से हाथ हिला-हिलाकर तट पर दौड़ने लगा। वह इतनी तेजी से इधर-उधर दौड़ रहा था कि चालक समझ नहीं पा रहा था कि वो विमान को कहाँ उतारे। उपर विमान चक्कर लगा रहा था और नीचे वो व्यक्ति। कुछ समय बाद विमान का ईंधन ख़त्म होने लगा और नहीं चाहते हुए भी चालक को उसे वहीँ छोड़ वापस जाना पड़ा। कहीं हम भी अपने जीवन में ऐसा कुछ तो नहीं कर रहे हैं? मदद चाहिए तो विमान को उतरने देना पड़ेगा। 

यदि हम बाण छोड़ने से पहले उसे लक्ष्य भेदता देख पाएं और उसे सम्भव भी होने दिया तो हम स्वतः ही कर्ता भाव से मुक्त हो, कर्म मार्ग की ओर उद्दृत होंगे। जब हमें यह अहसास होगा कि हम जो चाहते है उसका हो पाना तय है तो यह भाव भला कैसे रह पाएगा कि 'ये सब कुछ मैंने किया है'। सब कुछ हासिल करते हुए हासिल करने के अहंकार से मुक्त हमारा जीवन ठीक उस पथिक कि यात्रा जैसा होगा जिसके सर कोई गठरी नहीं या जैसे एक सुंदर उधान में कोई भ्रमर गीत गा रहा हो।


राहुल हेमराज 
(सैकिंड सन्डे _ रविवार, 9 मार्च को नवज्योति में प्रकाशित)