Saturday 27 January 2018

आस्था का विज्ञान





कई वर्षों बाद अपने एक पुराने मित्र से मिलना हुआ। वे अपनी माता जी से अगाध प्रेम करते हैं, ये बात मैं शुरू से जानता था। उनकी माता जी को अपने अन्तिम वर्षों में लकवा मार गया था। उन वर्षों में मेरे मित्र ने उनकी उतने ही लगन से सेवा की जितने जतन से उन्होंने कभी उन्हें पाला-पोषा होगा। पर इस बार जो मालूम चला वो प्रेम नहीं भक्ति है। जब लगने लगा था कि अब उनकी माता जी कभी भी जा सकती है उन्होंने मलमल के सफेद कपड़े पर केसर के पानी से उनके पगलिए ले लिए थे, और वो भी कई-कई सारे। यानि केसर के पानी से उनके पगों के निशान। वे हर खास जगह उन्हें रखते हैं, अपने घर में-अपने ऑफिस में और कोई नई शुरुआत हो तब भी सबसे पहले स्थापना उन्हीं की होती है। उनका मानना है कि कहीं भी उन पगलियों का होना साक्षात् उनकी माताजी का होना है, और जब तक वे हैं, उनका कुछ नहीं हो सकता। उनका काम बन के ही रहेगा। मुश्किलें आएँगी तो मदद वे भेजेंगी। कैसे? ये उनकी चिन्ता का विषय नहीं है। उन्हें तो बस, आगे बढ़ते जाना है। 

पहली बार जब वे मुझसे ऐसा सब कह रहे थे तब मुझे भी ये निरा अन्धविश्वास ही लगा था। पर जितने जोर से वे कह रहे थे, और उनके जीवन में जब-तब हुए उन पगलियों से हुए चमत्कारों की कहानियाँ सुना रहे थे मेरे दिमाग से ये बात उनके जाने के बाद भी न जाने कब तक बनी ही रही। बात दिमाग के पास थी तो भला कैसे बचती! और धीरे-धीरे मुझे इसके पीछे का विज्ञान दीखने लगा। 

वो आस्था उनके सोच को स्पष्टता और इरादों को दृढ़ता दे रही थी। उन्हें अपने मन में कोई सन्देह था ही नहीं। उनका पूरा ध्यान किसी भी काम में बस इस बात पर ही रहता था कि उसके लिए उन्हें करना क्या-क्या है। कौन से तरीके सबसे सुगम होंगे। वे हमेशा स्पष्ट रहे कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं। क्योंकि काम तो हो जाएगा, उसे करने या न करने का निर्णय सिर्फ इस बात पर टिका होता था कि क्या सचमुच ये काम मैं करना भी चाहता हूँ! ऐसे काम वे ही होते हैं जिनकी आवाज अन्दर से आती है और अन्दर से आवाज उन्हीं के लिए आती है जो आपके लिए बने हों। और ये बात हम जो भी करते हैं उस पर भी जस की तस लागू होती है। 

जब किसी का भी मानसिक वातावरण ऐसा हो तो उसकी सफलता असन्दिग्ध हो जाती है, जिसे वे श्रद्धा से अपनी माँ का स्नेह और आशीर्वाद कहते हैं। तब लगने लगा ये सारी बातें बेमतलब नहीं होती, इन सब के पीछे अपना विज्ञान होता है। ये हमारे विश्वासों को अखण्ड बनाए रखने के सुन्दर बहाने होते हैं। पर हाँ, जब हम कर्म से विमुख हो इनके भरोसे हाथ पर हाथ धरे बैठ जाते हैं, इन्हीं की पूजा को सफलता का पर्याय समझने लगते हैं तब इन आस्थाओं को अन्धविश्वासों में बदलते देर नहीं लगती। 

तो जो मैं समझा वो ये कि आस्था सफलता का मन्त्र है, अंधविश्वासों का दूसरा नाम नहीं यदि हम उससे स्पष्ट हुई सोच और दृढ़ हुए इरादों को अपनी ऊर्जा बना लें। जब हम बिना सन्देह के कुछ भी करने या न करने का निर्णय इस बात पर लेने लगें कि क्या मेरा वैसा करना मेरे लिए उचित होगा? क्या वो मुझे ख़ुशी देगा? 
बस यहाँ तक ही नहीं, ये भी कि किसी न किसी बात में तो हमारी आस्था होनी ही चाहिए। जरुरी नहीं वो किसी श्रद्धा में ही हो, वो किसी के साथ में, किसी की सलाह में या ऐसी ही किसी और बात में हो सकती है पर होनी जरूर चाहिए। बिना आस्था के आप कितनी ही सफलता पा लें, वो लेशमात्र ही सही कम तो होगी जितनी हो सकती थी। 

(दैनिक नवज्योति; रविवार, 10 दिसम्बर 2017 के लिए)