Saturday 31 December 2011

Success is within



सफल होना तय है


एक नन्ही चिड़िया पैदा होने के बाद जब पहली बार उड़ने की कोशिश करती है और उड़ नहीं पाती तब भी उसका उड़ पाना तय होता है. एक चिड़िया में ' उड़ना ' होता है. चिड़िया उड़ने की कोशिश न तो किसी के कहने पर करती है, न किसी से जीतने के लिए. उड़ना उसका स्वाभाव है. अंतर्मन की प्रेरणा से वह उड़ने की कोशिश करती है और कुछ ही दिनों में अपने चिड़िया होने को साबित कर देती है.

यदि हम अंतर्मन की प्रेरणा से कुछ करें तो उसके नहीं हो सकने की कोई गुंजाइश ही नहीं होती. अंतर्मन हमें उसी ओर प्रेरित करता है जिसका हो पाना हममें पहले ही दिन से होता है.
इसमें संदेह तब पैदा होता है जब माता-पिता के रूप में हम अपने बच्चों के लिए सफलता के मायने तय करने लगते है. हम ' उनकी भलाई ' के नाम पर यह बताते है की उनके लिए क्या ठीक है क्या नहीं जबकि होना तो यह चाहिए की हम उनमें अच्छे (उचित) और बुरे (अनुचित) में भेद करने की समझ पैदा करने में मदद करें और उनके लिए क्या ठीक है यह उन्हें तय करने दें. इस तरह ये बच्चे धीरे-धीरे मानने लगते है की जीवन एक संघर्ष है और जिस दिन अपने पैरों पर खड़े होते है तो अपनी सफलता के मायने बाहरी दुनिया से उधार ले लेते है. ऐसे में इनकी हालत बिलकुल ताँगे के उस घोड़े-सी हो जाती है जिसे हमेशा ही कोई और हांक रहा होता है.

जब शुरू से जीवन - पर्यंत (आज तक) हम ' क्या करें ' और हम ' क्या हों ' यह कोई और व्यक्ति या परिस्थिति तय करते है तो हमारे मन में असहाय होने की धारणा ( Helplessness ) घर करने लगती है. इस धारणा के साथ जीते - जीते बेचारगी की, दूसरों की सहानुभूति पर जीने की और भाग्य व परिस्थितियों को दोष देकर पल्ला झाड़कर हर क्षण अपने आपको सही सिद्ध करने की कोशिश करते रहने की आदत सी पड जाती है.यह वैसे ही है जैसे एक चिड़िया हिरन के कहे अनुसार तेज दौड़ने को अपना जीवन - ध्येय बना ले.

जिस तरह एक चिड़िया में उड़ पाना होता है वसे ही हममें वो सब कुछ है जो हमारे हो पाने के लिए जरुरी है. जो हमारे काम - हमारी सफलता के लिए जरुरी है बस इतनी भर जरुरत है की हम हमारे स्वाभाव को पहचाने एवमं अंतर्मन की आवाज़ को सुनें. हम बिलकुल ठीक है, हमें अपने आपको बदलना नहीं विस्तार देना है. यदि हम जीवन को सच्ची अभिव्यक्ति देते है तो बदले में जीवन से सच्चा आनंद और संतुस्ठी निश्चित मिलेगी.

आइए इस वर्ष हम अपने से एक वादा करें की हम अपने जीवन की डोर अपने अंतर्मन के हाथों सौंप अपना और अपनों का जीवन खुशहाल बनाने की कोशिश करेंगे.
नए वर्ष पर दिल से इन्हीं शुभकामनाओं के साथ;

आपका,
राहुल......

Saturday 24 December 2011

Just Keep On

 लगे रहो......भाई




इस विषय पर बात करते हुए मुझे याद आते है मेल फिशर जिन्हें कंही से मालूम चला था कि कई सालों पहले खजाने से लदा स्पेनिश जहाज फ्लोरिडा के छोटे-छोटे द्वीपों के पास डूब गया था. उन्होंने अपने स्तर पर खोज-बीन की और जैसे-जैसे वे पता करते गए उनका विश्वास पक्का होता गया और तब उन्होंने उस जहाज को ढूँढना अपना लक्ष्य बना लिया और जुट गए. उन्होंने इस काम के लिए अपनी अरबो रुपये की जमा-पूंजी और हजारों कर्मचारी लगा दिए. मेल फिशर ने अपने गोताखोरों और कर्मचारियों की टी-शर्ट पर लिखवा रखा था 'Today's the day'. उन्होंने चौदह साल तक हर दिन 'आज ही वो दिन है' समझ कर उस जहाज को ढूंढा और आखिर एक दिन वो दिन आ ही गया और उन्हें जो मिला वो उन चौदह साल की मेहनत की तुलना में कंही ज्यादा था.

यदि मन को पक्का विश्वास हो, लक्ष्य स्पष्ट हो एवम हम कृतसंकल्प हो तो असफल होने की गुंजाईश ही नहीं बचती.

सामान्यतया जब हम कोई काम शुरू करते है तो बहुत उत्साहित होते है क्योंकि हमने उसे अपनी पसंदगी और परिणामों के आधार पर चुना होता है जो निश्चित रूप से बहुत ही लुभावने और सुनहरे होते है लेकिन जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते है उस काम के लिए आवश्यक मेहनत, अनुशासन और लगन के कारण अपने उत्साह को, अपने जज्बे को कायम नहीं रख पाते. खजाना पाना है तो मेल फिशर की तरह ऐसे जुटना होगा जैसे आज ही वो दिन है.

किसी काम में सच्चे दिल से जुट जाना ही हमारी निष्ठां है और हमारी निष्ठां स्वतः ही प्रकृति की उन शक्तियों को अपनी और आकर्षित कर लेती है जो लक्ष्य प्राप्ति के लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण करती है.

संस्कारवश हम हर काम को एक उम्र-विशेष से बाँध लेते है. यह सही है कि जीवन के अधिकतर काम एक उम्र-विशेष में ही करने में आते है लेकिन यह सिर्फ हमारी सुविधा के लिए एक व्यवस्था है. कोई भी काम उम्र के किसी दौर में किया जाए इसका न तो उसकी उचितता से लेना-देना है और न ही सफलता से. जिस प्रकार नाश्ते, सुबह के खाने और रात के खाने का एक लगभग समय होता है क्योंकि सामान्यतया उस समय हर व्यक्ति को भूख लगती है लेकिन खाने कि पहली शर्त भूख है न कि खाने का समय.

मन में पक्का विश्वास और दृढ निश्चय हो तो न समय से कोई फर्क पड़ता है न लक्ष्य कि उंचाई से; खजाना मिलता ही है. फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' का शीर्षक कितना सार्थक है; यदि लगे रहो तो गाँधी जी भी दिखने लग जाते है.

इसी विश्वास के साथ कि हमें अपना-अपना खजाना मिलें.

आपका,
राहुल....

Saturday 17 December 2011

Go Wholeheartedly




जीवन की कोई राह ऐसी नहीं होती जिसमें मुश्किलें नहीं होती फिर भी मंजिल को पाने के लिए किसी एक राह पर तो निकलना ही होता है. हम इस जीवन में क्या करना चाहते है यह बहुत जरुरी है जीवन की राह को चुनने के लिए लेकिन हम जो कुछ भी करना चाहते है उसकी सफलता के लिए इतना भर काफी नहीं है. हमें अपनी पसंद से, अपने आप से वचनबद्ध होना होगा. हमारी वचनबद्धता ही हमें रास्ते की मुश्किलों का सामना करने की शक्ति देगी.

जब भी हम किसी काम को पसंद तो करते है लेकिन उससे वचनबद्ध नहीं होते तो जैसे ही मुश्किलें आने लगती है हम अपने चुनाव पर ही संदेह करने लगते है. हम रास्ते की रूकावटो को अपनी सुविधा के लिए अपनी असफलता मानने लगते है और फिर या तो आधे-अधूरे मन से आगे बढ़ते है या रास्ता ही बदल लेते है और इन सब का दोष भाग्य या परिस्थितियों पर मढ़ देते है.

वास्तव में ये मुश्किलें हमें जीवन के वो पाठ पढ़ाने आती है जिन्हें सीखे बिना जीवन में वो नहीं पाया जा सकता जो हम चाहते है. यदि किसी काम के परिणाम वैसे नहीं आते जैसे हमने सोचे थे और ऐसा एक या दो से ज्यादा बार होता है तो हमें अपनी वचनबद्धता को टटोलना चाहिए, अपने इरादों की गंभीरता को जांचना चाहिए; हो सकता है कुछ कमी राह गयी हो. कमी याने हमारे काम की आर्कित्रकचरल ड्राइंग उतनी स्पष्ट नहीं हो जितनी सफलता की इमारत के लिए जरुरी हो.
परिणामों के आधार पर अपनी वचनबद्धता को जांचने में हमें यह ख़ास तौर पर ध्यान देना होगा की कंही अहम् बीच में न आ जाए. परिणामों को स्वीकार करना अहम् को कभी मंजूर नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा करने से तो उसका वजूद ही खतरे में पड जाएगा इसलिए हमारा अहम् मनचाहे परिणामों के नहीं मिलने का दोष भाग्य और परिस्थितियों पर मढ़ने के लिए भांति-भांति के तर्क देने लगता है और हम कभी सही कारणों को जान ही नहीं पाते.

इस सारी बात का कतई यह मतलब नहीं है की यदि हमने कोई निर्णय क्षणिक भावावेश में ले लिया था या वह हमारा स्व-भाव नहीं है या समय, काल और परिस्थितियों के कारण अप्रासंगिक हो चुका है तो भी 'प्रतिज्ञा' के नाम पर उसे ढ़ोते रहें और जीवन भर इस अफ़सोस के साथ जियें की मैंने ऐसा किया ही क्यूँ?
ऐसी स्थिति में हमें पूरा-पूरा अधिकार है की हम अपनी राह बदल लें. ऐसा कर हम न केवल अपनी निजता का सम्मान कर रहे होंगे वरन उन लोगों के जीवन को भी सुन्दर और बेहतर राहों की तरफ प्रेरित कर रहे होंगे जो हमारे निर्णय से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित है और इसलिए एक क्षण के लिए भी अपने मन में ग्लानि या अपराध-बोध को जगह देने की जरुरत नहीं है.

हमारी पहली वचनबद्धता अपने आप से है फिर किसी और से, यदि हम अपने आप से वचनबद्ध नहीं हो सकते तो कभी किसी और से भी नहीं हो सकते. किसी ने ठीक ही कहा है.  'You cannot have a half hearted intentions and a whole hearted results.' 
 
हम जो भो करें पूरे दिल से करें, बढ़ते जाएँ, मंजिल हमारा इन्तजार कर रही होगी.
इन्हीं शुभकामनाओं के साथ, 
आपका,
राहुल......





Saturday 10 December 2011

Come Out




हम प्रतिदिन अपने जीवन को और अच्छा एवं बेहतर बनाने की कोशिश में लगे है और इसके लिए भविष्य में आ सकने वाली तकलीफों - मुश्किलों का पहले से ही इंतजाम कर लेना चाहते है. इन तकलीफों और मुश्किलों का आकलन हम अपने भूतकाल,परिवेश,प्रचलित धारणाओं और हमारे प्रियजनों के भूतकाल के आधार पर कर लेते है. यह भी सच है की हर व्यक्ति के जीवन में कुछ न कुछ जरुर अप्रिय घटता है ; इसी का नाम माया है लेकिन इस चक्कर में किसी के भी साथ में जो कुछ अप्रिय घटित हो चूका है उन सब से अपने आपको सुरक्षित करने की कोशिश में जुट हम अपने जीवन को बेहतर बनने की बजाय और तनावमय एवं डरा हुआ बना लेते है.

डा. वेन डब्लू डायर ने FEAR को बिलकुल ठीक विस्तारित किया है. False Evidences Appearing Real.

हम भूतकाल में हो चुके को भविष्य में हो सकने वाली धटनाओं का प्रमाण मान लेते है और अपना वर्तमान खराब कर लेते है. वास्तव में डर भूत या भविष्य में रहता है वर्तमान में इसका कोई स्थान नहीं होता.

इस पूरी आप - धापी में हम यह भूल जाते है की हम ईश्वर की स्वतंत्र अभिव्यक्ति है और हमारी असीमित संभावनाओं को अहम् सुरक्षा के नाम पर सीमित कर देता है.
सर्कस में हाथी को इसी तरह ट्रेन किया जाता है. बचपन से ही उसके पिछले पैर को रस्सी से बाँध देते है और इसीलिए वो एक घेरे में ही घूम पाता है. कुछ सालों बाद जब उसकी रस्सी खोल दी जाती है तब भी वह अपने घेरे से नहीं निकल पाता. डर वास्तव में हमारे दिमाग की उपज है इसका हकीकत से कोई लेना देना नहीं.

जाने - अनजाने हम सब अपने लिए कोई न कोई घेरा बना ही लेते है और अपनी ही बनाई धारणाओं में कैद होकर रह जाते है. जीवन का आनंद लेने के लिए हमें सुरक्षा घेरे को तोड़ इस क्षण को सम्पूर्णता के साथ जीने की कोशिश करनी चाहिए. हमारी सच्ची अभिव्यक्ति दिल की आवाज़ पर चलने में है और ये अनजानी राहें घेरे के बाहर है.

कुछ नया करने से पहले हमारे मन में घबराहट या उद्विग्नता (Nervousness) का उपजना लाजमी है. यदि किसी काम को करने से पहले हमारे मन में हल्की सी घबराहट, थोड़ी सी उद्विग्नता भी नहीं है इसका साफ़ मतलब है की ये वो काम नहीं है जो हमें करने चाहिए. ये भावनाएं संकेत है इस बात का की जीवन में इस बार हम यही सब कुछ सीखने आये है.

पहले डर कर और फिर सुरक्षा के नाम पर स्वयं को कैद करने की बजाय लाख गुना बेहतर है जीवन-धारा के साथ बहें और आहत हो जाने के लिए तैयार रहें. रास्ते की ठोकरों से बचने के लिए चलना बंद कर देना कितना बेवकूफी भरा होगा.

भूतों को भविष्य के लिए छोड़ दे और वर्तमान में रहें; दिल की सुने और दिल से जियें.

आपका,
राहुल.... 

 

Friday 2 December 2011

Try Even Better

 
 
 
जीवन में एक जगह खड़ा ही नहीं रहा जा सकता; या तो आप आगे कि और बढ़ रहे है वरना आप नीचे कि और फिसलने लगेंगे. यह ढलान कि चढ़ाई है.
सेना जब दुश्मन पर चढाई करती है तो जिन पुलों को पार करती जाती है उन्हें जलाती जाती है. वे पीछे जाने का कोई अवसर ही नहीं छोड़ना चाहते. उनके जेहन में सिर्फ एक बात होती है या तो दुश्मन के घर पर कब्ज़ा कर लेंगे या मर मिटेंगे.

जब हम पीछे जा ही नहीं सकते, एक जगह खड़े हो ही नहीं सकते तो बेहतर है कि आगे बढे.
इस जगह यह बात समझने कि जरुरत पैदा होती है कि हम अपनी जीवन-यात्रा में कई मोड़ों पर ठहर ही जाना क्यूँ चाहते है? क्यूँ हमारे मन में आगे बढ़ने का उत्साह कम होने लगता है?

मैंने कई लोगों को यह कहते सुना है कि जीवन एक संघर्ष है. में जिन्दगी से लड़ते-लड़ते थक गया हूँ. मुझसे अब और नहीं होता. खूब कर लिया. मैं और कर ही क्या सकता हूँ?

जीवन सकारात्मक ऊर्जा का मूर्त रूप है संघर्ष शब्द ही नकारात्मक है. आप संघर्ष कर रहे है मतलब किसी न किसी के विरुद्ध है. जीना शब्द अपने साथ ' आनंद ' को लिए है वंही ' लड़ाई ' शब्द अपने साथ ' हार-जीत ' और ' थकान ' को लिए है. हम से अब और इसलिए भी नहीं होता क्योंकि यह लड़ाई के बाद कि थकान होती है.
' मैंने खूब कर लिया ' या ' मैं क्या कर सकता हूँ? ' ये भावनाएं वास्तव में तब घर करने लगती है जब हमें कड़ी मेहनत और बार-बार के प्रयासों के बावजूद मनचाहे परिणाम नहीं मिलते. ऐसे समय हमें यह देखने कि जरुरत है कि क्या हमने प्रयासों में बदलाव किया. यदि हम किसी काम को एक ही तरीके से बार-बार करेंगे तो हम हर बार वो ही परिणाम पायेंगे. हमें परिणामों में बदलाव के लिए प्रयासों में बदलाव लाना होगा.

प्रयासों में बदलाव के लिए हमें ठिठकना भी होगा. यह छोटा सा अंतराल हमारी आगे कि यात्रा के लिए जरुरी भी है जब हम यह सोच सकें कि हमें प्रयासों में बदलाव क्या और कैसे लाने है. यह पड़ाव आगे कि यात्रा के लिए अपने आपको तैयार और तरोताजा करने के लिए है न कि हार मानकर बैठ जाने के लिए. हमें ठिठकना है ठहरना नहीं.

मुझे याद आता है बचपन में पापा शाबासी देने के साथ यह कहा करते थे बेटा! अगली बार और बेहतर करने कि कोशिश करना. उस समय यह बात खुद की सफलता को कमतर करने सी लगती थी लेकिन आज समझ आता है की सफलता की निरंतरता के लिए ' और बेहतर करने ' की भावना कितनी जरुरी है. सच तो यह है की हम यदि इस क्षण को ' और बेहतर ' जीने की कोशिश करेंगे तो हम जीवन के हर क्षण का पूरा-पूरा आनंद तो उठा ही रहे होंगे साथ ही जीवन में स्वतः ही आगे की ओर भी बढ़ रहे होंगे जहाँ थकान और ठहराव का कोई स्थान नहीं होगा.

हमारा जीवन और बेहतर बने दिल से इन्ही शुभकामनाओं के साथ;
आपका
राहुल....
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