Friday 30 August 2013

गुरु कृष्ण की दक्षिणा


कृष्ण अवतरण की कथा तो आपने खूब सुनी है, मैं जन्माष्टमी की ढेरों बधाईयों के साथ आपसे उस अनमोल भेंट की बात करना चाहता हूँ जो गुरु कृष्ण ने हम सब को दी। जिसने पूरे अध्यात्म का ही रुख मोड़ दिया। इससे पहले कर्म और अध्यात्म जीवन के दो अलग-अलग रास्ते हुआ करते थे और कर्म का मार्ग कहीं निम्न था। कर्मशील व्यक्ति यानि दुनियादारी के जंजाल में फंसा ऐसा व्यक्ति जो अपने कर्म-बंधन बाँधते ही चला जा रहा है और जिसकी मुक्ति संभव ही नहीं। उन्होंने 'अनासक्त कर्म' का सूत्रपात कर न केवल उसका योग अध्यात्म से कर दिया अपितु एक साधारण गृहस्थ के लिए परमात्मा के द्वार भी खोल दिए। निस्संदेह अनासक्त कर्म ही गुरु कृष्ण की सारे जगत को अमूल्य भेंट है। 

साधारणतः जो जुमला प्रचलित है वह यह कि गीता कहती है, कर्म करो लेकिन फल की इच्छा मत करो। शायद इसीलिए कि ये सुनने में बड़ा चुनौतीपूर्ण लगता है जो हमारी बुद्धि की कमजोरी है, उसकी पसंदीदा खुराक है। जहाँ तक गीता को मैं समझ पाया, गीता में कृष्ण कहते है, 'कर्म करो और उसके परिणाम निस्संदेह तुम्हारे कर्म की प्रेरक शक्ति बनें लेकिन उन परिणामों से तुम्हारी आसक्ति न हो। यहाँ इच्छा और आसक्ति में फर्क को समझने की जरुरत है। इच्छा प्रेरक शक्ति है और आसक्ति हवस। जब कुछ पाने की लालसा आपकी समझ से अच्छे-बुरे का भेद मिटा दे और आपको उसे पाने के लिए गलत रास्ते भी जायज जान पड़े, वही आसक्ति है। आपका प्राप्य आपके जीवन का पर्याय बन जाए। ऐसे कर्म निश्चित ही कर्म-बंधन का कारण होंगे। आसक्त कर्म, एक ऐसा दलदल है जिससे हम जितना निकलने की कोशिश करते है उतने ही फँसते चले जाते है।

हमारे कर्म क्रिया है तो कर्म-फल प्रकृति की प्रतिक्रिया। हम जो कुछ करते है उसका परिणाम प्रकृति के शाश्वत नियमों के अनुसार पाते है अतः कोई औचित्य नहीं बनता कि हम कर्म-फल को नियंत्रित करने की कोशिश करें। यही आशय है कृष्ण के उस कथन का कि तू अपने सारे कर्मों को मुझे समर्पित कर। ऐसा कह वे भरोसा दिलाना चाहते है कि यदि हम अच्छा करते है तो निश्चिन्त रहें, हमारे साथ अच्छा ही होगा। यही अनासक्त कर्म है। 

स्वामी विवेकानन्द ने अनासक्त कर्म को जीवन में अपनाने का एक बहुत ही सरल-सुगम मार्ग सुझाया है 'हम किसी से कोई उम्मीद न करें। उम्मीद ही आसक्ति का व्यावहारिक रूप है।' मैं समझता हूँ अनासक्त कर्म को अपना स्वभाव बना पाने की शुरुआत हम आपसी रिश्तों में उम्मीदों को कम और धीरे-धीरे उन्हें शून्य कर, कर सकते है। हम किसी के लिए कुछ करें तो सिर्फ इसलिए कि ऐसा करना हमें अच्छा लगता है, हमारे मन को सुकून देता है। हमारा व्यवहार हमारा स्वभाव हो, निवेश नहीं। हमारा अच्छा व्यवहार इस कारण हो कि प्रत्युत्तर में जैसा हम चाहते है वैसा व्यवहार मिलेगा तो तय मानिए वो रिश्ता लम्बे समय तक मधुर नहीं रह सकता। हम सब का अपना-अपना स्वभाव है और वैसा ही आचरण। एक दूसरे को जीने की जगह देकर हम जीवन में अनासक्त कर्म का व्यावहारिक पक्ष समझ सकते है। 

उलटबाँसी यह है कि कर्म फल की आसक्ति से मुक्त होकर हमारे कर्म सघन हो जाते है। जब हम परिणामों की चिंता किए बगैर कुछ करते है तब हम अपना शत-प्रतिशत दे पाते है और तब हमारे परिणाम स्वतः ही सर्वोत्तम होते है। अनासक्त कर्म स्वतन्त्र जीवन और बेहतर परिणामों का मार्ग है अतः उमीदों से निजात पाने से श्रेष्ठ श्री कृष्ण को हमारी गुरु दक्षिणा हो ही नहीं सकती। 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 25 अगस्त को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ........    

Friday 23 August 2013

क्या हम इतना भी नहीं कर सकते?




रक्षा-बन्धन का त्यौहार कब, कैसे और कहाँ शुरू हुआ इसका प्रमाणिक लेखा-जोखा तो कहीं नहीं मिलता। हाँ, कुछ कथाएँ जरुर प्रचलित हैं। उनमें से एक है, जब समुद्र-मंथन के समय असुरों का पलड़ा भरी पड रहा था तब इन्द्र की पत्नी इन्द्राणी ने अभिमंत्रित कर एक धागा उनके हाथ पर बाँधा था। इस रक्षा-कवच के बाद असुर उनका बाल भी बांका नहीं कर पाए, वह दिन श्रावण मास की पूर्णिमा का था। एक कथा राजा बलि और वामनावतार की भी है। तीन पग जमीन नापते हुए भगवान विष्णु ने राजा बलि को रसातल में भेज दिया। राजा बलि ने एक बार फिर भगवान विष्णु की तपस्या की और उन्हें प्रसन्न कर ये वचन ले लिया कि वे हमेशा ही उसकी आँखों के सामने बने रहेंगे। अब विष्णु जी का घर लौटना सम्भव नहीं था और लक्ष्मी जी का चिंतित होना स्वाभाविक। ब्रह्मर्षि नारद ने सुझाया और लक्ष्मी जी राजा बलि को राखी बाँध अपने पति को लौटा लाई। कहते है उस दिन भी श्रावण मास की पूर्णिमा ही थी। 

एक प्रसंग जिसका ऐतिहासिक प्रमाण है, वह है बादशाह हुमायूँ और रानी कर्मावती का। मेवाड़ की रानी कर्मावती को गुप्त सूचना मिली की बहादुरशाह उन पर हमला बोलने वाला है। उन्हें आभास था कि यदि ऐसा हुआ तो वे अपने राज्य की रक्षा नहीं कर पाएँगी। उन्होंने अपने दूत के हाथों हुमायूँ को राखी भिजवाई। हुमायूं राखी देखते ही समझ गए। बादशाह हुमायूँ मेवाड़ की रक्षा के लिए रानी कर्मावती की ओर से लड़े। निश्चित ही था, बहादुरशाह रानी कर्मावती को नहीं हरा पाया। 

आज जब हम अपने चारों और देखते है तो लगता है इस त्यौहार की प्रासंगिकता कहीं अधिक हो गयी है। प्रेम को हमने कितना संकीर्ण बना दिया है। प्रेम के मायने सिर्फ स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध होकर रह गए है। रक्षा-बन्धन का ये त्यौहार प्रतिवर्ष हमें प्रेम के सच्चे उदात्त स्वरुप की याद दिलाता है। प्रेम को हमारे संकीर्ण विचारों की बेड़ियों से मुक्त करवाने की कोशिश करता लगता है। 

ये त्यौहार याद दिलाता है कि प्रेम बिना शर्त होता है, प्रेम जिम्मेदार होता है, प्रेम प्रतिबद्धता है, प्रेम सर्व शक्तिशाली है और अंततः प्रेम ही भक्ति है। प्रेम से बांधे एक धागे की शक्ति इन्द्र को असुरों पर विजय दिला देती है, यही धागा हुमायूँ को एक जिम्मेदारी से बाँध देता है और इसी पावन धागे के कारण राजा बलि सब कुछ भूलकर विष्णु जी को लक्ष्मी जी के साथ विदा करते है। इन पौराणिक कथाओं के सच होने पर विवाद हो सकता है लेकिन प्रेम इस सृष्टि की आधार-ऊर्जा है इसमें शायद ही किसी के मन में कोई दो राय हो। आप प्रेम के बारे में थोड़ी देर गहनता से विचारेंगे तो आपको लगेगा कि किसी इन्सान में हो सकने वाली कोई भी अच्छाई वास्तव में प्रेम का ही एक रूप है। वास्तव में इंसान के सारे चारित्रिक गुण प्रेम की परिधि में ही तो समाए है।

यदि हम प्रेम के इस उदात्त स्वरुप को समझने की कोशिश करें तो निश्चित ही हमारे चारों ओर का दृश्य बदल सकता है। ये आए दिन के दुष्कर्म, घरेलू हिंसा और सामाजिक सुरक्षा का यही एकमात्र उपाय है। प्रेम ही व्यक्ति को सुसंस्कृत करेगा और तब ही हम अपने परिवार के साथ निर्भीक होकर जीवन-रस ले पाएँगे। 

हुमायूँ रानी कर्मावती के लिए युद्ध कर सकता है तो मैं चाहता हूँ, एक सवाल हम सब अपने आप से करें, क्या हम इतना भी नहीं कर सकते?


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 18 अगस्त को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ........   

Sunday 18 August 2013

जंगली बेर, नदी और परमात्मा


हमारी संस्कृति में ये महीने वर्ष के सबसे पावन होते है। हिन्दुओं में श्रावण तो मुसलमानों में रमजान। प्रत्येक धर्म के अनुयायी अपने-अपने तरीकों से उस परम पिता परमेश्वर की आराधना में जुटे होते है। जगह-जगह धार्मिक गोष्ठियाँ, कथा-वाचन और प्रवचन-व्याख्यान चलते है, ये चौमासा होता ही ऐसा है। 

ये धार्मिक अनुष्ठान तब ही सार्थक सिद्ध होंगे जब हम कर्मकाण्डों से ऊपर उठकर धर्म के मर्म को समझें। आज हमारा समाज जिस तरह धर्म के नाम पर बँटता ही चला जा रहा है उस सन्दर्भ में यह और भी प्रासंगिक हो जाता है। आपको याद है न वो चरवाहा जो अपने काम से थककर नदी के किनारे बैठ जाया करता था। ऐसा ही एक दिन था; वह नदी के किनारे जंगली बेर खाते, सूर्यास्त होते देख अपने तन-मन की थकन उतार रहा था। अचानक वह कहीं खो गया। उसे लगा ये आकाश नहीं कोई अदभूत चित्र है जिसमें प्रकृति ने सारे रंगों को आजमाया है। पक्षी अपने घोंसलों की और ऐसे लौट रहे है जैसे वे अपने जीवन के सबसे खुबसूरत दिन का उत्सव मना रहे हों। नदी शान्त लेकिन ऐसे बहे जा रही है जैसे कृष्ण-मिलन को आतुर मीरा भजन गा रही हो। एक ही क्षण में वो रूपांतरित हो चुका था। उसका चेहरा सूर्य की मानिंद दमक रहा था तो चित्त चन्द्रमा की तरह निर्मल था। 

थोड़ी ही देर बाद वो ऐवड के साथ गाँव लौटा और हमेशा की तरह घर-घर जाकर अपने पशु लौटा रहा था लेकिन आज जिससे मिलता वही विस्मित। पूछने पर वो सहज भाव से अपना अनुभव बताता। थोड़ी ही देर में ये बात गाँव में आग की तरह फ़ैल गई। 

रोजाना की तरह वो सुबह उठकर अपने पशुओं को इकट्ठा करने निकला। एक घर बंद मिला, दूसरा ......,तीसरा .......और थोड़ी देर में उसे अहसास हुआ कि गाँव तो खाली हो चुका है।  उसे कुछ समझ नहीं आया, जोर-जोर से आवाजें दी, गली-गली घूमा, करते-करते दोपहर हो आयी। वो हैरान-परेशान अपने चहेते ठौर पहुँचा। वहाँ पहुँच कर क्या देखता है, नदी किनारे गोल पत्थरों पर एक-एक करके पूरा गाँव बैठा है और सब के सब जंगली बेर खा रहे है। 

यही बात हम सब को समझनी है। नदी किनारे बैठकर जंगली बेर खाने से सत्य की अनुभूति नहीं होती। यह उस चरवाहे की नियति थी, हमें अपनी ढूंढनी है। अहम् बात है यह आत्मसात करना कि उस अनुभूति में ही सच्चा आनन्द है। वह किसी को भी हो सकती है। वह कभी भी हो सकती है। बस जरुरत है उस क्षण की जब आपका ह्रदय विशुद्ध प्रेम से लबालब हो। जब आप प्रकृति के हर घटक के साथ अपने आपको एकाकार पाएँ। जब आप सृष्टि से एक होकर उस एक को महसूस कर लें और वो अहसास आपको आपका परिचय करवा दे। आपका ये क्षण खाना खाते हुए, अपने बच्चों के साथ खेलते हुए, अपना काम करते हुए या कोई और भी हो सकता है।

इसका मतलब यह नहीं कि ईश्वर आराधना की सारी विधियाँ फिजूल है। निश्चित ही उनका महत्व है लेकिन इतना कि वे हमारे चित्त को शान्त कर हमारे क्षण को ढूंढने में मदद करती है। हमें आध्यात्मिक अभ्यासों के लिए अनुशासित करती है। वे हमें दिखाती है कि एक व्यक्ति के लिए क्या संभाव्य है। यह बात ठीक वैसे ही है कि हम अपने माता-पिता-शिक्षक से लिखना सीख सकते है लेकिन लिखावट हमारी अपनी ही होगी। इस बार चौमासे को इस नज़र से मना कर देखिए, मुझे विश्वास है आपको अधिक आनन्द आएगा।


(जैसा की दैनिक नवज्योति में रविवार, 11अगस्त को प्रकाशित)
आपका,
राहुल........                

Friday 9 August 2013

आप कहाँ रहते है?


पिछले सोमवार को जापान के मिनामी उरावा स्टेशन पर ट्रेन और प्लेटफ़ॉर्म के बीच के गैप में एक 30 वर्षीय महिला फंस गयी। जैसे ही यात्रियों को मालूम चला उन्होंने मिलकर एक साथ उस 32 हजार किलो की बोगी को धक्का दिया और बोगी को हल्का सा झुका दिया। बस फिर क्या था, महिला को सुरक्षित निकाल लिया गया। उन्हें हल्की सी  खरोंचे भर आयी और वह ट्रेन, आठ मिनट की देरी से अपने गंतव्य के लिए रवाना हो गयी।

इस घटना से मुझे एक छोटी सी कहानी याद हो आयी। एक व्यक्ति मृत्यु पश्चात् यमराज के सामने पहुँचा। चित्रगुप्त से उसकी जिन्दगी का लेखा-जोखा सुनने के बाद यमराज ने खुश होकर उसे स्वर्ग दिया। उस पुण्यात्मा ने इच्छा जाहिर की, कि वो स्वर्ग जाने से पहले एक बार नर्क भी देखना चाहता है। सबसे पहले उसे नर्क ले जाया गया। दूर से लोगों के रोने की आवाजें आ रही थी। उसे लगा, जरुर उन पर भयंकर अत्याचार हो रहे होंगे। पास जाने पर मालूम चला, वे सब तो भूख से बिलख रहे थे। अरे ! ये क्या उनके सामने स्वादिष्ट भोजन भी पड़ा था लेकिन उनके हाथ में अपने हाथों से भी लम्बे चम्मच पकड़ा रखे थे और वे चाहकर भी नहीं खा पा रहे थे। इसके बाद वो स्वर्ग पहुंचा; उन्हें देखकर उसकी आँखे खुली की खुली रह गयी। स्वर्ग और नर्क एक जैसे ही थे। यहाँ भी चम्मच उतने ही लम्बे थे लेकिन बस फर्क इतना था कि वे एक-दूसरे को खिला रहे थे और स्वादिष्ट भोजन का आनन्द ले रहे थे। 

स्पष्ट है, ये हम पर निर्भर करता है कि हम अपने जीवन को स्वर्ग जैसा बनाते है या नर्क जैसा। यदि हम सोचें कि एक ट्रेन को धक्के से झुकाया जा सकता है, यदि हमारे मन में विश्वास हो कि और लोग भी इसमें मेरा साथ देंगे, एक-दुसरे पर इतना भरोसा हो कि बिना तर्क-वितर्क सभी इस काम में जुट जाएँ, तो भला स्वर्ग और क्या होगा? अपने जीवन को स्वर्ग सा बनाने का एकमात्र तरीका है एक-दूसरे की मदद के लिए तत्पर रहना। ये दुनिया यदि एकाकी जीवन जीने के लिए बनी होती तो व्यक्ति के ह्रदय में दया, करुणा और प्रेम की भावनाएँ ही क्यूँ होती?

इस सब के बीच जरुरी है इस बात का ध्यान रखना कि ये दुनिया आपकी या मेरी भलाई पर नहीं टिकी है। किसी भ्रम में रहकर अहंकार पालने की कोई जरुरत नहीं। स्वामी विवेकाननद कहते है, हम किसी की भलाई करके वास्तव में अपना ही भला कर रहे होते है। हम कुछ करें या न करें, ये दुनिया बड़े आराम से वैसे ही चलती रहेगी। हाँ,  इतना अवश्य है कि ये हमारी भलाई ही है जो हमें सच्चे आनन्द की अनुभूति करवा सकती है।  आप ही देखिए, जापान वाली घटना में बात उन लोगों की हो रही है जिन्होंने उस महिला को बचाया न कि उस महिला की। 

कितना सुन्दर गीत है फिल्म 'अनाड़ी' का, जो इस जज्बे को कितने खुबसूरत अंदाज में बयाँ करता है,-
किसी की  मुस्कराहटों पे हो  निसार,
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार,
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार,
जीना इसी का नाम है....... 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 4 अगस्त को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ........             

Friday 2 August 2013

बराबरी करें, लेकिन किससे?


आपने कभी गौर किया है, हमारे खाली वक़्त बिताने का पसंदीदा शगल क्या है? हम निश्चित ही अपनी रुचियों का जिक्र करेंगे लेकिन मेरी समझ से तो ये कुछ और ही है। आपको नहीं लगता हमारा पसंदीदा शगल तो है जिन बातों का हमें बुरा लगा है उन्हें संभालना, ये सोचना कि उसने ऐसा क्यूँ किया या कहा जबकि कम से कम उसे तो ऐसा नहीं करना चाहिए था और अब मैं क्या करूं कि उसे साफ-साफ समझ आ जाए कि ये सब अब और नहीं चलेगा।

समझ ने कहा तो फिर क्या हम अपने आत्म-सम्मान की रक्षा भी न करें? बात तो ठीक लगी लेकिन जब चित्त शान्त हुआ तो उसने एक प्रश्न किया कि क्या ये बातें वास्तव में आत्म-सम्मान की है या हम अनजाने ही अपनी सोच-समझ की डोर अहं के हाथों में दे बैठते है? प्रश्न का जवाब न मिले तो ही ठीक है लेकिन मिल जाए तो वह दूसरा प्रश्न खड़ा कर देता है। अब प्रश्न ये था कि किसे आत्म-सम्मान की रक्षा कहें और किसे अहं की तुष्टि? अंततः जो सूत्र मिला वह यह था कि 'प्रत्येक व्यक्ति सजगता की अलग-अलग पायदानों पर खड़ा है। जो नीचे खड़े व्यक्ति से बराबरी करे वह अपने अहं से नियंत्रित होता है, जो अपने बरबरों से बराबरी करे वह अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए ऐसा करता है और जो अपने से ऊँचे पायदान पर खड़े व्यक्ति के साथ ऐसा करे वह तो वास्तव में जीवन के ऊँचे आदर्शों को छूना चाहता है।'

अपने से नीचे खड़े कम सजग व्यक्तियों को जवाब देने में तो हमें भी उनके जैसे ही सोचना और व्यवहार करना पड़ेगा और इस तरह हम अनजाने ही अपने आपको वैसा बनाने की कोशिश में लग जाते है जैसा किसी और का होना भी हमें पसंद नहीं। ऐसे समय तो अपने आप से सिर्फ एक ही प्रश्न करने की जरुरत है, आखिर हम किसे बदल रहे है? खुद को या उनको।

साधारणतया व्यक्ति सिर्फ अपने से कम सजग, कमजोर व्यक्ति को ही जवाब देता है क्योंकि वह निश्चिन्त होता है कि यहाँ प्रतिवाद की कोई गुंजाईश नहीं। अपने आपको सही और श्रेष्ठ सिद्ध कर पाने का ये उसका अपना जुगाड़ होता है। वो सफल भी हो जाता है क्योंकि बाकि की दुनिया भी तो अहं से ही संचालित होती है। समस्या सिर्फ यह है कि ये मामला ज्यादा लम्बा टिकता नहीं है। उससे ऊँची पायदान पर खड़ा व्यक्ति उसे धक्का दे देता है और वही ढाक के तीन पात। मजेदार बात यह है कि ऐसा सब कुछ व्यक्ति करता बड़े ही पावन उद्देश्य के लिए है। लोगो की नज़रों में इज्ज़त पाना, उनके दिलों में जगह बनाना क्योकि व्यक्ति की आधारभूत जरुरत है - प्रेम, बस रास्ता गलत अख्तियार कर लेता है। 

आत्म-सम्मान व्यक्ति का पहला धर्म है। कोई व्यक्ति अपने निजी उद्देश्यों या अहं की तुष्टि के लिए आपके आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाने की कोशिश करे तो उसे रोकना अपने धर्म की रक्षा करने के बराबर है। अपने प्रति ऐसा व्यवहार सहन कर हम उस परमात्मा का अपमान कर बैठते है जो हम सब में मौजूद है। जो हम सब के होने की वजह है।

पहली स्थिति में तो बराबरी करनी ही नहीं चाहिए, दूसरी में रक्षात्मक- अपनी निजता को बनाए रखने के लिए लेकिन सर्वश्रेष्ठ है वह स्थिति जब व्यक्ति अपने से ऊँची पायदान पर खड़े व्यक्ति से बराबरी करने की कोशिश करे। जो हम से कहीं ज्यादा सजग है। व्यक्ति जब ऐसा करता है तो वास्तव में वह ऊँचे आदर्शों को छूने की कोशिश कर रहा होता है।

आप पहाड़ों पर तो घूमने जरुर गए होंगे। कठिन चढ़ाई के समय आप किसका हाथ थामते है? जो आपके आगे चल रहा होता है उसका या जो आपके पीछे चल रहा होता है। जीवन भी कुछ ऐसा ही है, सजग हो पाने का एक तरीका यह भी है। जिन लोगों के बारे में आप सोचते है कि उन्होंने आपसे भी ऊँचे आदर्शों को अपनाया है उनसे बराबरी कीजिए, अपने जीवन को वैसे गुजारने की कोशिश कीजिए और फिर अपने आपको उनसे श्रेष्ठ सिद्ध करने की कोशिश कीजिए। इस खेल में मजा भी आएगा और पुरस्कार में मिलेगी सुन्दर-खुशहाल-संतुष्ट जिन्दगी।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 28 जुलाई को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ........