Friday 2 August 2013

बराबरी करें, लेकिन किससे?


आपने कभी गौर किया है, हमारे खाली वक़्त बिताने का पसंदीदा शगल क्या है? हम निश्चित ही अपनी रुचियों का जिक्र करेंगे लेकिन मेरी समझ से तो ये कुछ और ही है। आपको नहीं लगता हमारा पसंदीदा शगल तो है जिन बातों का हमें बुरा लगा है उन्हें संभालना, ये सोचना कि उसने ऐसा क्यूँ किया या कहा जबकि कम से कम उसे तो ऐसा नहीं करना चाहिए था और अब मैं क्या करूं कि उसे साफ-साफ समझ आ जाए कि ये सब अब और नहीं चलेगा।

समझ ने कहा तो फिर क्या हम अपने आत्म-सम्मान की रक्षा भी न करें? बात तो ठीक लगी लेकिन जब चित्त शान्त हुआ तो उसने एक प्रश्न किया कि क्या ये बातें वास्तव में आत्म-सम्मान की है या हम अनजाने ही अपनी सोच-समझ की डोर अहं के हाथों में दे बैठते है? प्रश्न का जवाब न मिले तो ही ठीक है लेकिन मिल जाए तो वह दूसरा प्रश्न खड़ा कर देता है। अब प्रश्न ये था कि किसे आत्म-सम्मान की रक्षा कहें और किसे अहं की तुष्टि? अंततः जो सूत्र मिला वह यह था कि 'प्रत्येक व्यक्ति सजगता की अलग-अलग पायदानों पर खड़ा है। जो नीचे खड़े व्यक्ति से बराबरी करे वह अपने अहं से नियंत्रित होता है, जो अपने बरबरों से बराबरी करे वह अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए ऐसा करता है और जो अपने से ऊँचे पायदान पर खड़े व्यक्ति के साथ ऐसा करे वह तो वास्तव में जीवन के ऊँचे आदर्शों को छूना चाहता है।'

अपने से नीचे खड़े कम सजग व्यक्तियों को जवाब देने में तो हमें भी उनके जैसे ही सोचना और व्यवहार करना पड़ेगा और इस तरह हम अनजाने ही अपने आपको वैसा बनाने की कोशिश में लग जाते है जैसा किसी और का होना भी हमें पसंद नहीं। ऐसे समय तो अपने आप से सिर्फ एक ही प्रश्न करने की जरुरत है, आखिर हम किसे बदल रहे है? खुद को या उनको।

साधारणतया व्यक्ति सिर्फ अपने से कम सजग, कमजोर व्यक्ति को ही जवाब देता है क्योंकि वह निश्चिन्त होता है कि यहाँ प्रतिवाद की कोई गुंजाईश नहीं। अपने आपको सही और श्रेष्ठ सिद्ध कर पाने का ये उसका अपना जुगाड़ होता है। वो सफल भी हो जाता है क्योंकि बाकि की दुनिया भी तो अहं से ही संचालित होती है। समस्या सिर्फ यह है कि ये मामला ज्यादा लम्बा टिकता नहीं है। उससे ऊँची पायदान पर खड़ा व्यक्ति उसे धक्का दे देता है और वही ढाक के तीन पात। मजेदार बात यह है कि ऐसा सब कुछ व्यक्ति करता बड़े ही पावन उद्देश्य के लिए है। लोगो की नज़रों में इज्ज़त पाना, उनके दिलों में जगह बनाना क्योकि व्यक्ति की आधारभूत जरुरत है - प्रेम, बस रास्ता गलत अख्तियार कर लेता है। 

आत्म-सम्मान व्यक्ति का पहला धर्म है। कोई व्यक्ति अपने निजी उद्देश्यों या अहं की तुष्टि के लिए आपके आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाने की कोशिश करे तो उसे रोकना अपने धर्म की रक्षा करने के बराबर है। अपने प्रति ऐसा व्यवहार सहन कर हम उस परमात्मा का अपमान कर बैठते है जो हम सब में मौजूद है। जो हम सब के होने की वजह है।

पहली स्थिति में तो बराबरी करनी ही नहीं चाहिए, दूसरी में रक्षात्मक- अपनी निजता को बनाए रखने के लिए लेकिन सर्वश्रेष्ठ है वह स्थिति जब व्यक्ति अपने से ऊँची पायदान पर खड़े व्यक्ति से बराबरी करने की कोशिश करे। जो हम से कहीं ज्यादा सजग है। व्यक्ति जब ऐसा करता है तो वास्तव में वह ऊँचे आदर्शों को छूने की कोशिश कर रहा होता है।

आप पहाड़ों पर तो घूमने जरुर गए होंगे। कठिन चढ़ाई के समय आप किसका हाथ थामते है? जो आपके आगे चल रहा होता है उसका या जो आपके पीछे चल रहा होता है। जीवन भी कुछ ऐसा ही है, सजग हो पाने का एक तरीका यह भी है। जिन लोगों के बारे में आप सोचते है कि उन्होंने आपसे भी ऊँचे आदर्शों को अपनाया है उनसे बराबरी कीजिए, अपने जीवन को वैसे गुजारने की कोशिश कीजिए और फिर अपने आपको उनसे श्रेष्ठ सिद्ध करने की कोशिश कीजिए। इस खेल में मजा भी आएगा और पुरस्कार में मिलेगी सुन्दर-खुशहाल-संतुष्ट जिन्दगी।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 28 जुलाई को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ........

2 comments:

  1. Nice piece. I feel one should always compete with oneself for the betterment. And a human being is a human being and we should learn to respect his individuality irrespective of his materialistic achievements.

    (Mail from shakuntala ji)

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  2. बराबरी यानि हम किसी के जैसा होना चाहें और कम्पीट (प्रतिस्पर्द्धा) करना यानि किसी से बेहतर होना चाहें।
    आप बिल्कुल ठीक कहती है बेहतर तो हम है उससे ही आगे बढ़कर हो सकते है लेकिन बराबरी हमेशा ही अपने से श्रेष्ठ से हो तो ही हितकर है।

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