Sunday 18 August 2013

जंगली बेर, नदी और परमात्मा


हमारी संस्कृति में ये महीने वर्ष के सबसे पावन होते है। हिन्दुओं में श्रावण तो मुसलमानों में रमजान। प्रत्येक धर्म के अनुयायी अपने-अपने तरीकों से उस परम पिता परमेश्वर की आराधना में जुटे होते है। जगह-जगह धार्मिक गोष्ठियाँ, कथा-वाचन और प्रवचन-व्याख्यान चलते है, ये चौमासा होता ही ऐसा है। 

ये धार्मिक अनुष्ठान तब ही सार्थक सिद्ध होंगे जब हम कर्मकाण्डों से ऊपर उठकर धर्म के मर्म को समझें। आज हमारा समाज जिस तरह धर्म के नाम पर बँटता ही चला जा रहा है उस सन्दर्भ में यह और भी प्रासंगिक हो जाता है। आपको याद है न वो चरवाहा जो अपने काम से थककर नदी के किनारे बैठ जाया करता था। ऐसा ही एक दिन था; वह नदी के किनारे जंगली बेर खाते, सूर्यास्त होते देख अपने तन-मन की थकन उतार रहा था। अचानक वह कहीं खो गया। उसे लगा ये आकाश नहीं कोई अदभूत चित्र है जिसमें प्रकृति ने सारे रंगों को आजमाया है। पक्षी अपने घोंसलों की और ऐसे लौट रहे है जैसे वे अपने जीवन के सबसे खुबसूरत दिन का उत्सव मना रहे हों। नदी शान्त लेकिन ऐसे बहे जा रही है जैसे कृष्ण-मिलन को आतुर मीरा भजन गा रही हो। एक ही क्षण में वो रूपांतरित हो चुका था। उसका चेहरा सूर्य की मानिंद दमक रहा था तो चित्त चन्द्रमा की तरह निर्मल था। 

थोड़ी ही देर बाद वो ऐवड के साथ गाँव लौटा और हमेशा की तरह घर-घर जाकर अपने पशु लौटा रहा था लेकिन आज जिससे मिलता वही विस्मित। पूछने पर वो सहज भाव से अपना अनुभव बताता। थोड़ी ही देर में ये बात गाँव में आग की तरह फ़ैल गई। 

रोजाना की तरह वो सुबह उठकर अपने पशुओं को इकट्ठा करने निकला। एक घर बंद मिला, दूसरा ......,तीसरा .......और थोड़ी देर में उसे अहसास हुआ कि गाँव तो खाली हो चुका है।  उसे कुछ समझ नहीं आया, जोर-जोर से आवाजें दी, गली-गली घूमा, करते-करते दोपहर हो आयी। वो हैरान-परेशान अपने चहेते ठौर पहुँचा। वहाँ पहुँच कर क्या देखता है, नदी किनारे गोल पत्थरों पर एक-एक करके पूरा गाँव बैठा है और सब के सब जंगली बेर खा रहे है। 

यही बात हम सब को समझनी है। नदी किनारे बैठकर जंगली बेर खाने से सत्य की अनुभूति नहीं होती। यह उस चरवाहे की नियति थी, हमें अपनी ढूंढनी है। अहम् बात है यह आत्मसात करना कि उस अनुभूति में ही सच्चा आनन्द है। वह किसी को भी हो सकती है। वह कभी भी हो सकती है। बस जरुरत है उस क्षण की जब आपका ह्रदय विशुद्ध प्रेम से लबालब हो। जब आप प्रकृति के हर घटक के साथ अपने आपको एकाकार पाएँ। जब आप सृष्टि से एक होकर उस एक को महसूस कर लें और वो अहसास आपको आपका परिचय करवा दे। आपका ये क्षण खाना खाते हुए, अपने बच्चों के साथ खेलते हुए, अपना काम करते हुए या कोई और भी हो सकता है।

इसका मतलब यह नहीं कि ईश्वर आराधना की सारी विधियाँ फिजूल है। निश्चित ही उनका महत्व है लेकिन इतना कि वे हमारे चित्त को शान्त कर हमारे क्षण को ढूंढने में मदद करती है। हमें आध्यात्मिक अभ्यासों के लिए अनुशासित करती है। वे हमें दिखाती है कि एक व्यक्ति के लिए क्या संभाव्य है। यह बात ठीक वैसे ही है कि हम अपने माता-पिता-शिक्षक से लिखना सीख सकते है लेकिन लिखावट हमारी अपनी ही होगी। इस बार चौमासे को इस नज़र से मना कर देखिए, मुझे विश्वास है आपको अधिक आनन्द आएगा।


(जैसा की दैनिक नवज्योति में रविवार, 11अगस्त को प्रकाशित)
आपका,
राहुल........                

No comments:

Post a Comment