Saturday 7 October 2017

कैसे थमे ये सिलसिला?


फिर एक बाबा के कारनामे सामने आए हैं। पहले वो, फिर उनके और अब ये, सिलसिला थमता ही नहीं। कितने लोग ठगे जाते हैं, कितनी जिन्दगियाँ बरबाद होती हैं? लाखों लोग अपने जीवन का आधार उनके प्रति अपनी श्रद्धा को बना लेते हैं। ये श्रद्धाएँ जब टूटती हैं तो इन लोगों के साथ वही होता है जो उस वृक्ष के साथ होता है जिसके नीचे की जमीन अचानक आयी तेज बारिश में बह गई हो। और ऐसे में जिस तरह वृक्ष के गिरने का खामियाजा आस-पास के पेड़-पौधों को भुगतना पड़ता है वैसे ही बिखरी आस्थाओं के इन लोगों के क्रोध का शिकार रास्ते में पड़ते आम आदमी को होना पड़ता है।  

आज उनका आधार खोया है, कल हो सकता है मेरा भी खोए और परसों आपका। हम सब ये जानते हैं, फिर भी हर बार ठगे जाते हैं। क्यों करते हैं हम ऐसा जानते-बुझते? कहाँ चूक हो जाती है हमसे? 
अपने ही मन को खँगालने लगा तो पाया, हम सब को अपने-अपने जीवन में किसी न किसी आदर्श पुरुष की तलाश होती है। एक ऐसा व्यक्ति जिसकी तरफ हम हर छोटी-बड़ी बात के लिए देख सकें, उसका जीवन-उसकी बातों को आँख मूँद कर मान सकें, जो हमारी सुने, हमें दिलासा दें और फिर हौसला बढ़ाए। हमें प्रेरित करे। एक समय था जब अमूमन हमारी ये सारी जरूरतें देश-समाज के नायकों को देख, अपने घर के बड़ों से और मित्रों से ही पूरी हो जाया करती थी। सामाजिक-राजनैतिक जीवन के अग्रज वे होते थे जिनका जीवन अनुसरणीय होता था, घर के बड़े हमें हौसला और प्रेरणा देने के लिए काफी होते थे और दोस्त ऐसे के जिनके सामने हम अपने दिल के गुबार आसानी से खोल पाते थे। 
फिर, ......फिर समय के साथ ये ताना-बाना पहले ढीला और फिर टूटता चला गया। 
और हम अकेले हो गए। 

इस अकेलेपन का फायदा उठाया इन बाबाओं, पंचों और नेताओं ने। 
कारण ही समाधान होता है। पहले तो हमें अपने आप को मजबूत करना होगा। अपने अकेलेपन को स्वीकार करना होगा क्योंकि जो ताना-बाना समय के इतने बड़े अन्तराल में बिखरा है वो एक दिन में तो ठीक होने से रहा! हमारी ये स्वीकार्यता स्वतः हमें इस भाव से भर देगी कि जिस तरह मैं अकेला हूँ वैसे ही मेरे अपने भी अकेले हैं। और तब अपने आप हमारे हाथ बढ़ने लगेंगे, दूरियाँ कम होने लगेंगी। ताना-बाना फिर से कसने लगेगा। जब ऐसा होने लगेगा तब हम किसी को भी अपनी श्रद्धा यूँ ही नहीं अर्पित कर रहे होंगे। हमारे विश्वास घर देख कर ही किसी को अपनाएँगे। 
जब ऐसा होगा तब देश और समाज की रखवाली भी उनके हाथ होगी जो इस लायक होंगे। जिनके जीवन ही प्रेरणास्पद होंगे। और तब ये सिलसिला थमेगा वरना हर बार हम अलग-अलग नामों से यूँ ही ठगे जाते रहेंगे। 


तो जो मैं समझा वो ये कि 
भावनाओं से बढ़कर कुछ नहीं, हमें भावनाओं की तरफ लौटना होगा, एक दूसरे के सुख-दुख भागीदार होना होगा। श्रद्धा समर्पण से जन्म लेती है यानि सबसे पवित्र और कोमल भावना। इसे हम किसी को यूँ ही नहीं सौंप सकते। ये किसी के प्रति स्वतः जन्म लेती है तो ठीक, इसे अपने किसी काम साधने के लिए किसी को नहीं सौंप सकते। और ऐसा तब होगा जब मूल्य हमारे जीवन को निर्देशित कर रहे होंगे। ऐसे में हमारी अगुवाई अपने आप ही वैसे लोग कर रहे होंगे जो इस लायक होंगे क्योंकि आखिर वे भी तो हम में से ही निकलते हैं।  

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 10  सितम्बर को प्रकाशित)