Friday 29 March 2013

कम सामान सफ़र आसान



हमारे बच्चों के भारी स्कूल बैगों की हमारी चिंता बिल्कुल जायज और प्रशंसनीय है। नन्ही जानें और इतना बोझ, ठीक से चल पाना मुश्किल। रोज-रोज की तरह-तरह की परीक्षाएँ और अनुशासन के नाम पर इतने कायदे-कानून। ख़ुशी की बात है कि इस दौर में अधिकांश स्कूलें और अभिभावक दोनों ही इस समस्या के प्रति जागरूक हो रहे हैं। मन किया इस विचार को थोडा और विस्तार दें, तो पाया हम सभी कितना अनावश्यक बोझ अपने पर लादे है और फ़ालतू ही हांफ रहे है। कोई अनावश्यक वस्तुओं का, कोई विचारों का तो कोई दायित्वों का।

जगह कितनी ही सुंदर क्यों न हो, यदि आप थके हुए है तो घूमने का मज़ा नहीं आ सकता, ठीक उसी तरह इस खुबसूरत जिन्दगी का आनन्द भी दिमाग़ में इन फ़ालतू बोझों के साथ नहीं आ सकता। आप ही बताइए, क्या एक यात्री नदी पार कर लेने के बाद चप्पू-पतवार साथ लिए चल पड़ता है? कभी नहीं, चाहे उसे अहसास हो कि इसके बिना यात्रा संभव ही नहीं थी। हमने भी कितनी ही ऐसी वस्तुएँ इकट्ठी कर रखी है जिसका अब कोई उपयोग नहीं। कुछ चीजें हमें बहुत पसंद है इसलिए, तो कुछ चीजें हमें नापसंद है लेकिन हमें सिखाया है कि बिना काम लिए किसी चीज को हटाना बरबादी है इसलिए। एक रास्ता है, इन चीजों को उन लोगों तक पहुँचाइए जिन्हें इनकी ज्यादा जरुरत है और शुरुआत कम पसंद की वस्तुओं से कीजिए।

मानता हूँ, ये कोई इतनी बड़ी बात नहीं है, लेकिन आपका यह दृष्टिकोण आपकी मनोदशा बदल अनावश्यक विचारों और दायित्वों से पीछा छुड़ाने में मदद करेगा। आपका घर स्वतः ही सुंदर और दैनिक जीवन अधिक व्यवस्थित होने लगेगा।

ऐसे विचारों का बोझ जिनका सम्बन्ध भूतकाल से है। किसी के आहत करने की पीड़ा घर कर गई है या आपको किसी बात का अफ़सोस है। दोनों ही स्थितियों में, आपको यह बात समझनी और स्वीकारनी पड़ेगी कि जो बीत गया उसे बदला नहीं जा सकता। हाँ, यदि हम इस क्षण को पूरे विवेक के साथ जिएँ तो, स्थितियाँ कैसी भी हों, हम उनका उपयोग अपने हित में जरुर कर सकते हैं। टेक्नॉलोजी के इस युग में उन जानकारियों का बोझ भी कम नहीं जो अनजाने ही हमने अपने दिमाग में ठूंस ली है। आवश्यक जानकारियों का विवेकपूर्ण इस्तेमाल तो निश्चित ही व्यक्ति की मदद करता है लेकिन इंटरनेट और मीडिया द्वारा जानकारियों की बमबारी ने तो व्यक्ति के मस्तिष्क की उर्वरा का ही नाश कर दिया है।

इसी तरह वे औपचारिकताएँ, तारीखें और दायित्व जो हमने बिना सोचे-समझे या सभी ऐसा करते है इसलिए या किसी और ने हमारे लिए तय कर ली है। इन सब के चलते हमने अपने दैनिक जीवन को अत्यधिक व्यस्त, तनाव भरा और उबाऊ बना लिया है। यहाँ तक कि हम अपनी प्राथमिकताओं को लेकर भी पूरी तरह भ्रमित हो चुके है।

एक मिनट ठिठक कर सोचिये, क्या आपके लिए है और क्या नहीं फिर चाहे वे वस्तुएँ हों, विचार हों या दायित्व। अपने जीवन से फ़ालतू चीजों की सफाई कीजिए, आपके पास अपनी प्राथमिकताओं को ढंग से निभा पाने के लिए पर्याप्त समय और पर्याप्त ऊर्जा होगी । जिन्दगी को देखने और आनंद लेने का धीरज होगा। मैं तो यही कहूँगा, 'कम सामान, सफ़र आसान'।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 24 मार्च को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ..........  

Friday 22 March 2013

संतुष्ट हूँ कि और चाहिए



कुछ दिनों पहले एक टी.वी. प्रोग्राम में पण्डित शिवकुमार शर्मा का इंटरव्यू देखने का अवसर मिला। जब बोमन ईरानी, जो उनका इंटरव्यू ले रहे थे, ने उनकी उपलब्धियाँ बतानी शुरू की तो अंत में पण्डित जी ने यही कहा, 'मैं आज भी संगीत का विद्यार्थी हूँ।' मैं रियाज करता हूँ तब तो सीखता ही हूँ, जब कॉन्सर्ट दे रहा होता हूँ तब भी सीख रहा होता हूँ और जब अपने शिष्यों को सीखा रहा होता हूँ तब भी।

ये बातें वो व्यक्ति कर रहा था जिसे भारत सरकार ने पदम् श्री और पदम् विभूषण से नवाजा, जिसे सयुंक्त राज्य की मानद नागरिकता प्राप्त है, जिसने लोक-संगीत में काम आने वाले वाद्य को शास्त्रीय संगीत बजा सकने के लिए परिष्कृत कर दिया, जो स्वयं आज संतूर का पर्याय है। इसके बाद भी वे अपनी कला में और निपुण होना चाहते है, तो क्या पण्डित जी संतुष्ट नहीं है? कितना बेतुका सवाल है, लेकिन हाँ, यहाँ यह प्रश्न हमें संतुष्टि को समझने में मदद जरुर कर सकता है।

'और की चाह' हमें प्रकृति से मिली है। एक बीज, वृक्ष होने तक हर क्षण उन्नत होना चाहता है और यही हम सब के साथ भी है, आखिर हम भी तो उस विराट प्रकृति का ही तो हिस्सा है। यदि अपने आपको रोक लेना संतुष्टि है तब तो यह हमारे नैसर्गिक गुणों के विपरीत है। अर्जुन से ज्यादा कृष्ण का सामीप्य किसे मिला होगा पर उसे भी कृष्ण के विराट स्वरुप और फिर चतुर्भुज स्वरुप की चाह है।

संतुष्टि का मतलब 'और की चाह' न होना कतई नहीं है वरन जो कुछ है उसके लिए प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का एवम स्वयं के प्रति सराहना का भाव होना। अपनी कमियों को, जिसे मैं विशिष्टताएँ कहूँगा, स्वीकारना। इन भावों के साथ हर क्षण अपने आपको और बेहतर अभिव्यक्त करने की चाह, यही संतुष्टि है। संतुष्टि अकर्मण्यता नहीं, जीवन को बेहतर बनाने का मंत्र है।

वास्तव में, 'और की चाह' हमारी बेचैनी और तनाव का कारण नहीं होती वरन हमारी यह सोच कि उन सब के बिना हमारा काम नहीं चल सकता, एक अच्छी जिन्दगी वो सब हासिल किए बिना सम्भव नहीं। हम अपनी उपलब्धियों को अपने जीवन की सार्थकता और अपना परिचय समझने लगते है। हमारी इसी सोच के चलते हम अपनी जिन्दगी को बेचैनी और तनाव से भर लेते है जो हमें अधीर तो बनाती ही है हमारी दृष्टी को भी धुंधला कर देती है। कई बार लगता है कि सीधे तरीकों से यह सब कर पाना सम्भव नहीं तो कई बार सामने पड़े अवसर भी दिखाई नहीं देते।

ऐसा नहीं है, एक खुशहाल जिन्दगी न तो आपकी उपलब्धियों की मोहताज है न ये आपका परिचय न ही आपके होने का प्रमाण। ये महज आपकी अभिव्यक्ति है, वृक्ष पर आये फल और फूलों की तरह । उपलब्धियाँ जिन्दगी का श्रृंगार हो सकती है प्राण नहीं। जिन्दगी की यही उलटबाँसी है कि यदि हमारा रवैया यह रहे कि 'मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक' तो ज्यादा मिलता है क्योंकि तब दृष्टी साफ़ और मन शांत होता है।

मेरी मानिए, संतुष्टि को सफलता की सीढी बनाइए और जिन्दगी का लुत्फ़ उठाइए।


(दैनिक नवज्योति में रविवार,17 मार्च को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .............                      

Friday 15 March 2013

खट्ठी-मिट्ठी जिन्दगी




दिल की सुनें-दिल की सुनें, सुन-सुनकर कई बार झुंझलाहट होने लगती है, वाजिब भी है। कितनी सारी बातें होती है जो तय करती है की हम अपनी जिन्दगी को कैसे जिएँगे। जिन्दगी के हर क्षण की कुछ जरूरतें होती है। अपने परिवार और प्रियजनों के प्रति हमारे कुछ जरुरी फर्ज होते है। इन्हें निभाने के ज़ज्बे के साथ जरुरी होता है पर्याप्त धन। दिल की आवाज के साथ इस बात का भी उतना ही ध्यान रखना होता है। यहाँ आकर जिन्दगी खट्ठी-मिट्ठी हो जाती है। आप खुश तो होते है कि आप वो सब कर पाए जो आपको करना चाहिए था लेकिन अपने मन की न कर पाने के कारण संतुष्टि का भाव नदारद होता है।

आप खुश है पर संतुष्ट नहीं। आप जैसे दिखते है वैसे है नहीं। समय के साथ-साथ जैसे-जैसे इनमें दूरियाँ बढती है, मन का खालीपन गहराता चला जाता है। इस खाई को पाटने के लिए जरुरी है यह समझना कि आपने अपने दायित्वों के चलते अपने दिल की आवाज को मुल्तवी किया था, नकारा नहीं था। होता यह है कि हम अपनी जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते दूसरों की अपेक्षाओं पर जीने लगते है। हमारे परिवार और प्रियजन जो निस्संदेह हमसे प्रेम करते है, हमारा भला चाहते है, हमें अपने तरह से जीने के लिए मजबूर करने लगते है। वे समझते है, जीने का उनका तरीका ही ठीक है और ऐसा करना उनका नैतिक कर्त्तव्य है। और हम, उनकी अपेक्षाओं पर खरे उतरने को अपना दायित्व समझ लेते है।

आपका फर्ज क्या है, यह आप तय करेंगे। कई बार ऐसा भी होता है कि जो व्यक्ति अपने दायित्वों के प्रति सचेत होता है उससे सबकी अपेक्षाएँ तो अधिक होती ही है, लोग अपने काम भी उसकी झोली में डाल देते है। आप उसे भी अपना दायित्व लेते है और लगे रहते है। उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतर पाने की आपको ख़ुशी तो होती है पर मन के किसी कोने में लगता है आपका उपयोग किया गया और एक असंतुष्टि का भाव तैर जाता है। अपने दायित्व निभाना धर्म है लेकिन अपने आपको उपयोग में लिए जाने की अनुमति देना, अपने प्रति दुर्व्यवहार। इन दोनों के बीच आपको स्पष्ट सीमा-रेखा खींचनी होगी।

हो सकता है आपने अपने काम के साथ समझौते किए हों, करने भी पड़ते है। व्यावहारिक जीवन में धन के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता लेकिन आप इन समझौतों से अपनी जिम्मेदारियों के पूरा होते ही बाहर आ सकते है। आपको आना ही चाहिए, पर यह तब ही सम्भव होगा जब आप जिस काम में आज है उसे बेहतर से बेहतर करने की कोशिश करें। आपकी यही कोशिश आपके पसंद के काम की सीढ़ी बनेगी। आपकी पात्रता, आपकी लायकियत बढ़ाएगी। अवसरों और आशीर्वादों की तो बारिश हो रही है, हमें तो बस समेटने की क्षमता बढ़ानी है।

यदि आप अपने काम में बदलाव को उम्र से जोड़कर देखते है तो मैं कहूँगा, यह बिल्कुल बेमानी है। कितने ही उदाहरण हमारे आस-पास बिखरे पड़े है जो इसे झुठलाते है। बोमन ईरानी को हो लीजिए, चालीस की उम्र में अभिनय शुरू किया और आज वे फिल्म जगत के मंजे हुए चरित्र अभिनेता है।

दिल और दिमाग का सही संतुलन ही ख़ुशी और संतुष्टि को एकरूप करेगा । जिन्हें आपने अपनी जिम्मेदारी समझा और निभाया वह भी आपके ही दिल की आवाज थी और आज आप अपने जीवन को किसी और तरह जीना चाहते है तो यह भी आपकी अपने प्रति जिम्मेदारी और आपके दिल की आवाज ही है। यदि खुश होने का कारण संतुष्टि नहीं है तो निश्चित है कि आपने अपनी जिन्दगी को दुसरे खुश लोगों के पैमाने पर कसा है। संतुष्टि अनुभूति है तो ख़ुशी अभिव्यक्ति, पर है दोनों निजी। आप तो जिन्दगी की गाड़ी को संतुष्टि की राह पर मोड़ दीजिए, खुशियाँ अपने आप पीछे खींची चली आएँगी।


(जैसा कि नवज्योति में रविवार, 10 मार्च को प्रकाशित)
आपका 
राहुल .......... 

Friday 8 March 2013

यात्रा के अनुभव



आज एक वर्ष हो जाएगा मेरे लेखन की शुरुआत को, समय कैसे गुजर जाता है, मालुम ही नहीं चलता। 2004 से जब इस विषय को पढना-गुणना शुरू किया था तब कहाँ मालुम था कि यात्रा में एक पड़ाव यह भी आएगा। इस यात्रा ने मुझे सिखाया कि अपने सपनों को पूरा करने के लिए तीन बातें जरुरी होती है,-

1.काम की शुरुआत 
2.लगे रहें 
3.सपनों को हमेशा जेहन में बनाए रखें 

- प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक 'शुरूआती हिचक' होती है। इस हिचक का कारण चाहे जो हो लेकिन इससे पार पा लेने भर में काम की आधी सफलता छुपी होती है। हेनरी फोर्ड जब अपनी कार की वी-8 श्रन्खला निकालने की सोच रहे थे, जिसमें एक ही ब्लॉक में आठ सिलेंडर होने थे और ऐसा उस समय एक भी कार में नहीं था, तब उनका एक भी इंजीनियर उनके इस विचार से सहमत नहीं था। यहाँ तक कि इस मॉडल के नक़्शे तक बन गए पर इंजीनियर्स का मत था कि ऐसा मॉडल सड़क पर सफल नहीं हो पायेगा। उनके तर्क सुन-सुनकर वे परेशान हो चले थे, आख़िरकार एक दिन वे फैक्ट्री पहुंचे और एक कार मंगवायी। खड़े रह कर वहाँ से उसे काटने को कहा जहां से उसमें बदलाव लाने थे और फिर इंजीनियर्स से बोले, बातें करना बंद कीजिए और नए मॉडल पर काम शुरू कीजिए। आचरण की यही बेबाकी व्यक्ति से आश्चर्यचकित कर देने वाले काम करवा देती है। 

- काम की शुरुआत में तो सभी का मन उत्साह और उमंग से भरा होता है लेकिन फिर धीरे-धीरे बोरियत होने लगती है। हम परिणामों को लेकर अधीर होने लगते है और मन की यही अधीरता व्यक्ति को यह सोचने पर मजबूर करने लगती है कि शायद उससे यह काम संभव ही नहीं। मन की इसी चंचलता की वजह से व्यक्ति का टिक कर एक ही काम में 'लगे रहना' मुश्किल होता है। 'लगे रहने' का यह ज़ज्बा अव्वल दर्जे का संयम मांगता है इसीलिए यह सबसे अहम् हो जाता है। आपने देखा होगा, जब हम किसी वृक्ष को काट रहे होते है तब कुल्हाड़ियों की कितनी चोटों तक वो तस से मस नहीं होता और फिर एक आखिरी चोट और वो धराशायी। वृक्ष पर की गई हर चोट उतनी ही अहमियत रखती है जितनी आखिरी। इसका श्रेष्ठ उदाहरण है थॉमस एल्वा एडिसन। सफल बल्ब बनाने के लिए उन्होंने 900 से अधिक बार कोशिशें की। वे लगे रहे और आखिर बल्ब को जलना पड़ा।

- शुरूआती हिचकक से पार पाना और फिर उसमें लगे रहने की ऊर्जा के लिए जरुरी है कि हमारा ध्येय हमेशा हमारी आखों के सामने बना रहे। काम की शुरुआत से अंत तक चाहे जैसी परिस्थितियाँ आएँ, चाहे जैसी मनःस्थिति बने, हम हर हाल में अपने सपनों को जिन्दा रखें। आचार्य चाणक्य ने जो अखण्ड आर्यावृत का सपना देखा था वो उन्होंने लक्ष्य प्राप्ति तक अक्षु०ण रखा। कैसी-कैसी परिस्थितियाँ और कितना लम्बा अंतराल, लेकिन उनके जेहन में अपने सपने की तस्वीर बिल्कुल साफ़ और स्पष्ट थी और वे उसे रूप देते चले गए। व्यक्ति के मन में अपने लक्ष्य की छवि स्पष्ट हो तो कोई प्रलोभन या परिस्थिति उसे विचलित नहीं कर सकती।

ये तीनों गुण हर इन्सान को मिले हैं; आपको, मुझको, हम सभी को इसलिए बेहिचक सपने देखिए। देखेंगे तब ही तो पूरे  ।सपने क्या है?, प्रकृति का आपको दिया जॉब-कार्ड ही तो है। प्रकृति को आप पर भरोसा है, वो आपके साथ है फिर आप  अपने सपनों पर प्रश्न-चिन्ह लगाए बैठे है? अपनी बात को विराम देने के लिए सपनों की अहमियत को उकेरती कॉलरिज की इन सुंदर पंक्तियों से बेहतर क्या होगा ......

क्या हुआ जो तुम सो गए 
और तुमने एक सपना देखा,
तुम स्वर्ग में थे 
जहाँ तुमने,
एक अनदेखा खुबसूरत फुल तोड़ लिया,
तुम्हे कहाँ मालुम था 
जब उठोगे 
वो फुल तुम्हारे हाथ में होगा।


( नवज्योति में रविवार, 3 मार्च को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ...........        

Friday 1 March 2013

अपना संसार आप रचिए



आज हर कोई व्यक्ति भीड़ में अकेला नज़र आता है; डरा हुआ, सहमा हुआ। ख़ुशी है तो बाँटे किसके साथ और दुखी है तो सम्बल कौन दे? बस, हर बार बिखरे हुए स्वयं को इकट्ठा करके आगे चलता हुआ, हर क्षण अपने अकेलेपन से जुझता हुआ। मुझे लगता है अकेलेपन से बड़ा कोई श्राप नहीं। व्यक्ति में आ सकने वाली सारी शारीरिक बीमारियों और मानसिक कमजोरियों की जड़ है उसका अकेलापन। यदि हम सब एकाकी महसूस करते है तो फिर एक-दूसरे का हाथ क्यों नहीं थाम लेते? स्वाभाविक है यहाँ इस प्रश्न का उठना, पर ये भी सत्य है कि हम ऐसा नहीं कर पा रहे है? क्या वजह हो सकती है? व्यक्ति इतना संकीर्ण कैसे हो गया?

'डर'- एकमात्र वजह है और यह डर देन है हमारे सामाजिक वातावरण की, उन मूल्यों की जिस पर हमारी सामाजिक व्यवस्था टिकी है। आज व्यक्ति डरा हुआ है अपने और अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर, पग-पग पर व्याप्त गला-काट प्रतिस्पर्धा को लेकर, बच्चों के भविष्य और उसके लिए आवश्यक धन को लेकर, जीवन के संध्याकाल के सुकून से गुजर पाने को लेकर और ऐसी ना मालूम कितनी चिंताएँ। साधारण सी बात है जब व्यक्ति डरा हुआ होता है तब उसे अपने अलावा किसी का ख्याल नहीं आता। फ़र्ज़ कीजिए, आप किसी जंगल से गुजर रहे है और आपके सामने शेर आकर खड़ा हो गया, ऐसे समय आपको क्या किसी को भी अपनी जान बचाने के अलावा कुछ और याद नहीं आएगा। बस, ये डर ही है जिसने हमको इतना संकीर्ण बना दिया है।

डर ने व्यक्ति को संकीर्ण बना दिया और व्यक्ति ने अपनी चिंताओं का उपाय पैसे में ढूंढ़ लिया। उसने अपने आपको बचाने के लिए अपने चारों ओर पैसे की चारदीवारी खींच ली और व्यक्ति, व्यक्ति से कटता गया। पैसे की दौड़ में हम एक-दूसरे के डर को ही तो भुना रहे है और एक-दूसरे के जीवन में चिंताएँ पैदा कर रहे है। हमारे यही सामाजिक मूल्य हमारे अकेलेपन की वजह है।

जिन मूल्यों में आप विश्वास नहीं करते उन्हें क्यूँ समाज से उधार लें? इसका मतलब यह भी नहीं कि आप बिला वजह विरोध करें जैसे किसी दिन आप बिना कपड़ों के ही घर से निकलने की सोचने लगें। सामाजिक मर्यादाओं का पालन करना ओर बात है और जीवन मूल्यों का चुनाव और बात। आप किस तरह जिएँगे, ये आप और सिर्फ आप तय करेंगे। आप किन बातों को अपने जीवन में तरजीह देंगे इसका फैसला सिर्फ आप करेंगे, न कि समाज और रीती-रिवाज।

आप जब ऐसा करने लगेंगे तो स्वतः ही आप जिन्दगी में ऐसे लोगों को उपस्थित पाएँगे जिनके जीवन-मूल्य आपसे मेल खाते हों। हाँ, इतना अवश्य है कि हाथ आपको बढ़ाना होगा। धीरे-धीरे आपके चारों ओर अपना एक संसार बनने लगेगा। ऐसा संसार जिसमें लोग आपके दुःख-सुख बाँटने को आतुर होंगे। जिन्दगी की मुश्किल घड़ियों में, जब आप थक हुआ महसूस कर रहे होंगे, वे घने वृक्ष की तरह छाया तो देंगे ही, जरुरत पड़ी तो  देर के लिए आपका सामान  भी उठा लेंगे। ऐसे मित्रों के जीवन को आसन बनाने के लिए आप भी हमेशा तत्पर होंगे क्योंकि आप एक-दूसरे को बखूबी समझते है। आप के रिश्ते समान  जीवन-मूल्यों की डोर से बंधे है। एक-दूसरे पर ये भरोसा ही आपको सच्ची ख़ुशी देगा। आप संकीर्णताओं के केंचुल से मुक्त हो जिंदादिल जिन्दगी जी पाएँगे। जीवन एक उत्सव होगा। 
तो आइए, कहीं ओर निवेश करने की बजाए इंसानों में निवेश करें, अपने संसार की रचना स्वयं करें।


(नवज्योति में रविवार, 24 फरवरी को प्रकाशित)
आपका 
राहुल..........