Friday 15 March 2013

खट्ठी-मिट्ठी जिन्दगी




दिल की सुनें-दिल की सुनें, सुन-सुनकर कई बार झुंझलाहट होने लगती है, वाजिब भी है। कितनी सारी बातें होती है जो तय करती है की हम अपनी जिन्दगी को कैसे जिएँगे। जिन्दगी के हर क्षण की कुछ जरूरतें होती है। अपने परिवार और प्रियजनों के प्रति हमारे कुछ जरुरी फर्ज होते है। इन्हें निभाने के ज़ज्बे के साथ जरुरी होता है पर्याप्त धन। दिल की आवाज के साथ इस बात का भी उतना ही ध्यान रखना होता है। यहाँ आकर जिन्दगी खट्ठी-मिट्ठी हो जाती है। आप खुश तो होते है कि आप वो सब कर पाए जो आपको करना चाहिए था लेकिन अपने मन की न कर पाने के कारण संतुष्टि का भाव नदारद होता है।

आप खुश है पर संतुष्ट नहीं। आप जैसे दिखते है वैसे है नहीं। समय के साथ-साथ जैसे-जैसे इनमें दूरियाँ बढती है, मन का खालीपन गहराता चला जाता है। इस खाई को पाटने के लिए जरुरी है यह समझना कि आपने अपने दायित्वों के चलते अपने दिल की आवाज को मुल्तवी किया था, नकारा नहीं था। होता यह है कि हम अपनी जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते दूसरों की अपेक्षाओं पर जीने लगते है। हमारे परिवार और प्रियजन जो निस्संदेह हमसे प्रेम करते है, हमारा भला चाहते है, हमें अपने तरह से जीने के लिए मजबूर करने लगते है। वे समझते है, जीने का उनका तरीका ही ठीक है और ऐसा करना उनका नैतिक कर्त्तव्य है। और हम, उनकी अपेक्षाओं पर खरे उतरने को अपना दायित्व समझ लेते है।

आपका फर्ज क्या है, यह आप तय करेंगे। कई बार ऐसा भी होता है कि जो व्यक्ति अपने दायित्वों के प्रति सचेत होता है उससे सबकी अपेक्षाएँ तो अधिक होती ही है, लोग अपने काम भी उसकी झोली में डाल देते है। आप उसे भी अपना दायित्व लेते है और लगे रहते है। उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतर पाने की आपको ख़ुशी तो होती है पर मन के किसी कोने में लगता है आपका उपयोग किया गया और एक असंतुष्टि का भाव तैर जाता है। अपने दायित्व निभाना धर्म है लेकिन अपने आपको उपयोग में लिए जाने की अनुमति देना, अपने प्रति दुर्व्यवहार। इन दोनों के बीच आपको स्पष्ट सीमा-रेखा खींचनी होगी।

हो सकता है आपने अपने काम के साथ समझौते किए हों, करने भी पड़ते है। व्यावहारिक जीवन में धन के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता लेकिन आप इन समझौतों से अपनी जिम्मेदारियों के पूरा होते ही बाहर आ सकते है। आपको आना ही चाहिए, पर यह तब ही सम्भव होगा जब आप जिस काम में आज है उसे बेहतर से बेहतर करने की कोशिश करें। आपकी यही कोशिश आपके पसंद के काम की सीढ़ी बनेगी। आपकी पात्रता, आपकी लायकियत बढ़ाएगी। अवसरों और आशीर्वादों की तो बारिश हो रही है, हमें तो बस समेटने की क्षमता बढ़ानी है।

यदि आप अपने काम में बदलाव को उम्र से जोड़कर देखते है तो मैं कहूँगा, यह बिल्कुल बेमानी है। कितने ही उदाहरण हमारे आस-पास बिखरे पड़े है जो इसे झुठलाते है। बोमन ईरानी को हो लीजिए, चालीस की उम्र में अभिनय शुरू किया और आज वे फिल्म जगत के मंजे हुए चरित्र अभिनेता है।

दिल और दिमाग का सही संतुलन ही ख़ुशी और संतुष्टि को एकरूप करेगा । जिन्हें आपने अपनी जिम्मेदारी समझा और निभाया वह भी आपके ही दिल की आवाज थी और आज आप अपने जीवन को किसी और तरह जीना चाहते है तो यह भी आपकी अपने प्रति जिम्मेदारी और आपके दिल की आवाज ही है। यदि खुश होने का कारण संतुष्टि नहीं है तो निश्चित है कि आपने अपनी जिन्दगी को दुसरे खुश लोगों के पैमाने पर कसा है। संतुष्टि अनुभूति है तो ख़ुशी अभिव्यक्ति, पर है दोनों निजी। आप तो जिन्दगी की गाड़ी को संतुष्टि की राह पर मोड़ दीजिए, खुशियाँ अपने आप पीछे खींची चली आएँगी।


(जैसा कि नवज्योति में रविवार, 10 मार्च को प्रकाशित)
आपका 
राहुल .......... 

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