Friday 31 August 2012

कुछ करते रहने के लिए कुछ न करें




" एक जगह बिना कुछ किए, निशचल न बैठ पाना ही हमारी बदहाली की वजह है. "
                                                                                            --- पास्कल 

पास्कल, जिनका हाइड्रोलिक्स और ज्योमेट्री के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान है, जिन्हें पहला डिजिटल केलकुलेटर बनाने का श्रेय प्राप्त है और जिनका 'दबाव का सिद्धांत' आज भी विज्ञानं की कक्षाओं में पढाया जाता है. ऐसे महान दार्शनिक, वैज्ञानिक, और गणितज्ञ ऐसी  बात कहते है तो बैचेनी-सी होती है, जहाँ हमारा परम्परागत आचरण तो कुछ करते रहने का है. यही हमें सदियों से सिखाया जाता रहा है कि कुछ न करना कायरता और समय कि बर्बादी है. समय जो लौटकर नहीं आता. ठीक भी लगता है कि कुछ करेंगे तब ही तो कुछ होगा. जीवन में सफल होना है तो लगातार कोशिशें करनी होगी. फिर पास्कल जैसे अभूतपूर्व विचारक ने ऐसा क्यूँ कहा?

एक मिनट ठिठक कर अपने आस-पास और फिर अपने ही जीवन पर नज़र डालें तो साफ़ दिखेगा कि हमारी जिन्दगी एक दौड़ बन कर रह गई है. कुछ करते रहने की हमारी ऐसी आदत पड गई है कि ज्यादातर समय हमें ये ही मालूम नहीं होता कि जो कुछ हम कर रहे है वो आखिर क्यूँ कर रहे है. विश्वास मानिए, जाना कहीं नहीं फिर भी जल्दी हमें कहीं नहीं पहुंचाएगी. कोई भी बात हो छोटी या बड़ी हम उसके होने देने का इंतज़ार कर ही नहीं पाते. अवचेतन में यह बात इतनी गहरी पैठी है कि यदि हम कुछ नहीं कर रहे है तो परिणाम की ओर नहीं बढ़ रहे है.

ऐसा नहीं है, वास्तव में हम अपने आप से भाग रहे होते है. सदियों से कुछ प्रभावशाली लोग समाज को अपने तरीके और फायदे के लिए अपनाना चाहते है. इन लोगों ने समाज-व्यवस्था के नाम पर ऐसे संस्कार डाल दिए है कि हम अपने प्रत्येक कर्म एवम कर्म फल को पाप-पुण्य,अच्छा-बुरा,    और सही-गलत के तराजू में रख देखने लगे है. अपने पर अविश्वास कर आशंकित रहते है, कुछ अप्रिय न घट जाए इसलिए डरे रहते है और बीते दिनों कि सारी अनचाही स्थितियों व दुखों के लिए अपराध-बोध से ग्रसित रहते है. इस तरह हमने जीवन का हर क्षण डर, आशंका और अपराध-बोध से भर लिया है जिनसे बचने के लिए हम भाग रहे है और बहाना है कुछ करते रहने का.

इसका मतलब है पास्कल कर्म के जन्म का प्रश्न उठा रहे है न कि कर्महीन होने की शिक्षा दे रहे है. जिस तरह एक कुत्ते का बच्चा कुत्ता और एक बिल्ली का बच्चा बिल्ली ही होगा उसी तरह डर, आशंका, और अपराध-बोध से उपजे कर्म ऐसे ही कर्म-फल लौटाएँगे. यदि हमें अपने जीवन से सुख, शांति और समृद्धि की अभिलाषा है तो हमारे कर्म आनंद और उद्देश्य से प्रेरित हों. ये ही प्रभावी और फलदायी होंगे. आनंद और उद्देश्य हमारे कर्म की प्रेरणा बनें इसके लिए किसी काम को 'करना' आना से जरुरी है स्वयं का 'होना' आना. 'होना' यानि स्वयं की मूल प्रकृति में स्थिर होना. हमारी मूल प्रकृति है विशुद्ध प्रेम जहाँ व्यक्ति का मन शांत और मस्तिष्क स्पष्ट होता है. निशचल भाव से वही व्यक्ति बैठ सकता है जिसके मन में शांति और मस्तिष्क में स्पष्टता हो. महान विचारक पास्कल ने शायद हमें अपने शब्दों में यही समझाने की कोशिश की है.

आनंदमय और उद्देश्यपूर्ण जीवन में भी मुश्किलें-परेशानियाँ आएँगी तो ऐसे क्षण भी जो हमसे निर्णय चाहते है. समस्या चाहे कोई हो, कारण होता है हमारी एक निश्चित सोच, एक तय नजरिया. जीवन की इन घड़ियों में मन बैचेन और सोच का भ्रमित होना स्वाभाविक है. ऐसे समय कुछ देर के लिए कुछ न करना ही उत्तम है. पहले अपने नजरिये को विस्तार दें. चीजों के दूसरे पहलुओं को देखने की कोशिश करें. जीवन के ऐसे विषय जो हमसे हल चाहते है के साथ जिएँ, उन्हें अपने जीवन का हिस्सा बनाएँ. इस तरह जब मन-मस्तिष्क समभाव में आ जाए तब कर्म की ओर उद्दृत हों. निश्चित ही हमारे निर्णय कहीं बेहतर और हल स्वाभाविक होंगे. मुझे याद आती है अल्बर्ट आइन्स्टाइन की सारगर्भित पंक्ति " समस्याएँ चेतना के उसी स्तर पर हल नहीं हो सकती जिसकी वजह उनका जन्म हुआ है ". मैं बस इतना जोड़ देना चाहता हूँ ' तब तक ठहरना अच्छा'.


( रविवार, २६ अगस्त को दैनिक नवज्योति में प्रकाशित )
आपका
राहुल......   

Thursday 23 August 2012

वैचारिक स्वतंत्रता एवम स्वावलम्बन




कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूंढे बन माँहि !
ऐसे घट  में पीव है , दुनियाँ देखै नाँहि !!
                                             -- कबीर 

आज हम जीवन के हर सवाल के लिए निर्भर है. हमारा परिचय, हमारी संभावनाएँ और जीने का ढंग, हमें कोई और बताता है. हम जीवन में क्या कर सकते है, हमें कैसे जीना चाहिए यहाँ तक की हमारे जीवन उद्देश्य क्या हों, इसके लिए भी हम दूसरों पर निर्भर हैं. 

जो बात सलाह से शुरू हुई थी वह नियंत्रण पर जा पहुँची. सलाह लेने में कोई बुराई नहीं. सलाह हमारा ध्यान विषय के छूट रहे पक्ष की ओर आकर्षित कर हमारे निर्णयों को सम्पूर्णता देती है लेकिन सलाह लेते-लेते हम भूल गए कि यह बैसाखी है पैर नहीं. हमने यह बिसरा दिया कि हमारे सवालों के जवाब सिर्फ और सिर्फ हमारे पास है; कोई दूसरा तो केवल हमारी सोचने कि प्रक्रिया में मदद भर कर सकता है. हम पूरी तरह से जीवन की हर दुविधा के लिए बाहरी स्रोतों पर निर्भर होने लगे और आज हमारी हालत एक तरह से गुलामों-सी हो गई है.

जिस तरह एक बीज में वो सारी समझ होती है जो एक वृक्ष के लिए जरुरी है उसी तरह हमें उन सब सवालों के जवाब पता है जिनका सामना हमें अपने जीवन में करना है. बस जरुरत है तो उन्हें सही जगह ढूंढने की. बैसाखी से ज्यादा पैरों पर विश्वास करने की. बाहर की बजाय अन्दर झांकने की. जानकारियों से ज्यादा समझ पर ऐतबार करने की. ज्ञान और प्रज्ञा में भेद करने की. 

आज हमारा जीवन चाही-अनचाही जानकारियों से ठसाठस है. इनमें सबसे बड़ी भूमिका टी.वी. और इंटरनेट की है. ये जबरदस्ती की लादी हुई सूचनाएँ हमारे जीवन की जटिलताओं को बढ़ाने का ही कम कर रही है. हर कोई जैसे किसी और की तरह होने की दौड़ में शामिल हुआ लगता है. सूचनाओं और जानकारियों, जिन्हें हम ज्ञान कहते है के बीच हमने अपनी नैसर्गिक समझ यानि प्रज्ञा को भूला-सा दिया है. ज्ञान श्रेष्ठ लेकिन सर्वोच्चता प्रज्ञा की है और रहेगी.

हमारी जीवन-शैली के साथ-साथ हमारा लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा भी इसके बराबर की जिम्मेदार है. हमने जीवन के सारे छोटे-बड़े सवालों के जवाब तय कर रखे है और जब भी कोई इससे उलट सोचता है तो हम उसे बेवकूफ करार सुधारने में जुट जाते है. स्कूल के पहले दिन से शुरू हो जाने वाली यह प्रक्रिया जीवन भर चलती है. एक बच्चे से यह उम्मीद की जाती है कि सबसे मीठी बोली वाले पक्षी के जवाब में वह कोयल ही लिखें चाहे उसे मोर कि आवाज़ कितनी ही अच्छी क्यूँ न लगती हो.

आज हम सब भ्रमित है और दिशा के लिए बाहर देख रहे है जबकि रूककर हमें अन्दर झांकना होगा. ऐसी कोई बात नहीं जो हमें जाननी हो या जाननी चाहिए और हमें मालूम न हो. गौर करें कि हम आज तक सिर्फ उन मशीनों को ईजाद कर पाए जिनकी क्षमताएँ हमारे अन्दर पहले से मौजूद थी. चलिए कुछ उदाहरण, महाभारत में संजय राजदरबार में बैठे धृतराष्ट्र को युद्ध का आँखों देखा हाल सुना रहे थे इसलिए हम टेली-विजन बना पाए, द्रौपदी ने कृष्ण को याद किया और चीर बढ़ गया इसीलिए हम मोबाईल, ई-मेल बना पाए आदि-आदि. ऐसी सारी क्षमताएँ हम में थी लेकिन हमने अपने अंतस से नाता तोड़ उन्हें भूला दिया. वास्तव में ये मशीनें अप्रत्यक्ष रूप से याद दिलाती है कि हम में कितनी और क्या-क्या क्षमताएँ थी.

मैं आप सभी को स्वतंत्रता-दिवस की बधाई देते हुए इस पावन मौके पर वैचारिक आत्म-निर्भरता और स्वावलम्बन का आह्वान करता हूँ. अपना भाग्य-विधाता बनना है तो स्वयं पर विश्वास करना होगा और यही सच्चे अर्थों में सम्पूर्ण स्वतंत्रता होगी. 
                                                                                                                                                                           
                                                                                                                                                              जय-हिंद 
आपका
राहुल... 

(रविवार, १९ अगस्त को नवज्योति में प्रकाशित)
(इटेलिक्स मैं लिखे के अलावा) 

Friday 17 August 2012

थोडा भरोसा रखिए






" तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोय !
  अनहोनी  होनी  नहीं, होनी  हो  सो  होय !! "

कुछ दिनों पहले मैं फिल्म ' अखियों के झरोखों से ' के गाने सुन रहा था. फिल्म में एक सुंदर अन्ताक्षरी है जिसमें कबीर, रहीम और तुलसी के दोहे है. मेरा ध्यान तुलसी के इस दोहे पर अटक गया और कई दिनों तक अटका ही रहा. मैं मन ही मन गुणने लगा कि तुलसीदास जी ने जीवन की सारी परेशानियों का निदान इन दो पंक्तियों में ही कर दिया है.

जीवन में कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती है जिन पर हमारा नियंत्रण होता है और कुछ पर बिल्कुल नहीं. जिन स्थितियों पर हमारा नियंत्रण होता है वहाँ तो हम बेहतर विकल्पों का चुनाव कर परिणामों को बदल सकते है लेकिन जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं वहाँ प्रकृति और परमात्मा के भरोसे रहना ही समझदारी है.

यहाँ मैं आपको भाग्यवादी बनने को बिल्कुल प्रेरित नहीं कर रहा बल्कि याद दिला रहा हूँ कि कुछ स्थितियाँ ऐसी होती है जिनमें खुद हमें मालूम नहीं होता कि हमारा भला किसमें है. आप अपने जीवन के ही बीते दिन याद आएगी जो उस समय तो नाकामी लगी थी पर बाद में वे ही सफलता की नींव का पत्थर साबित हुई.

जब हमें मालूम ही नहीं कि हमारा भला किसमें है तो फिर किसी निश्चित परिणाम के लिए प्रार्थना करना बिल्कुल बेमानी है. गुरु रामदास कहते है कि यदि आपको पक्का मालूम है कि आप जो कुछ माँग रहे है वे आपको और आपके अपनों को किस तरह प्रभावित करेंगे तो निश्चित परिणामों के लिए प्रार्थना सर्वथा उचित है लेकिन विसंगति यह है कि हम में से किसी को नहीं मालूम कि जो हम माँग रहे है उसके सम्पूर्ण प्रभाव क्या होंगे. 

हमारी प्रार्थना जीवन के उन्नत और सम्रद्ध अनुभवों के लिए हों. हम ईश्वर से अपने भले कि कामना करें लेकिन हमारा भला किसमें है यह निर्णय उसी पर छोड़ दें. मुझे याद आती है वह बात जब बचपन में मैं पिताजी के साथ मंदिर जाया करता था. मुझे लगता था कि हम मंदिर जाते ही कुछ माँगने को है. एक दिन मैंने उनसे पूछा कि मैं भगवान से क्या माँगू? पिताजी का जबाव था बेटा! कुछ माँगना ही है तो अपने लिए सदबुद्धि माँगो. आज इसकी गहराई समझ आती है. आप ही बताइए सदबुद्धि माँग ली तो बाकी क्या रह गया? 

रही बात परेशानियों की तो ये किसके जीवन में नहीं आती. ये आती है कुछ सिखाने, कुछ याद दिलाने. इन्हें टालने या दबाने की बजाय यदि हम इनमें से गुजर इनके छिपे संकेतों को समझ अपने जीवन की गाड़ी को दुरुस्त कर लें तो ये स्वतः ही गायब हो जाएंगी. जीवन मैं दुःख अवश्यम्भावी हो सकते है लेकिन उसे पीड़ा बनाना ऐच्छिक होता है. परेशानियों और दुखों का प्रतिरोध उन्हें पीड़ा मैं बदल देता है. पीड़ा या व्यथा यानि दुखों कि स्वीकार्यता में ही उनका निदान छिपा है.

जीवन कि ज्यादातर परेशानियों कि वजह यह होती है कि हमने अपने अवचेतन में जीवन का एक प्रारूप (मॉडल) बना रखा है. हम पहले ही से तय कर बैठे है कि हमारे लिए क्या ठीक है और क्या नहीं. जब भी जीवन में ऐसा कुछ होता है जो इससे मेल नहीं खाता, हम परेशान हो उठते है. हमारे ये पूर्वाग्रह ही हमारी ज्यादातर उलझनों और उद्विग्नताओं के कारण होते है. जीवन के रंगमंच पर हमें सिर्फ अपने किरदार कि जानकारी है पूरा परिदृश्य तो सिर्फ निर्देशक को पता है जिसे आप चाहें तो प्रकृति कह लें चाहें परमात्मा. किसी ने ठीक ही कहा है, " यदि आप ईश्वर को हँसाना चाहते है तो और कुछ करने कि जरुरत नहीं बस उसे अपनी योजनाएँ सुना दीजिए. 

( रविवार, १२ अगस्त को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका 
राहुल.....

Friday 10 August 2012

संतुष्टि एक भाव है





एक यात्री घूमते-घूमते किसी नगर के द्वार पर पहुँचा. उसने द्वारपाल से पूछा, ' ये नगर कैसा है ?' द्वारपाल ने उलटा सवाल किया, ' जहाँ से तुम आए हो वो नगर कैसा था ?' यात्री ने कहा, ' उसकी तो तुम बात ही मत करो. झगडालू लोग, चारों तरफ गंदगी और ढंग का कोई काम-धंधा नहीं. ये सुनकर द्वारपाल बोला,' अरे ! भाई ये नगर भी बहुत कुछ ऐसा ही है. अब और क्या कहूँ मैं तुमको.' ऐसा सुनते ही वह यात्री तो आगे चलता बना. कुछ दिनों बाद एक दूसरा यात्री नगर के द्वार पर पहुँचा. उसने भी वही सवाल किया. द्वारपाल ने भी वापस उससे उसके पुराने नगर के बारे मैं पूछा. संयोग से यह व्यक्ति भी उसी नगर से था जहाँ से पहला यात्री आया था लेकिन इसका जवाब था, ' क्या बताऊँ दोस्त मैं तो अपने नगर को छोड़ना ही नहीं चाहता था. कुछ निजी मजबूरियाँ हो गई वरना वहाँ के लोगों में तो इतना भाई-चारा, नगर में सफाई-व्यवस्था, और सब के लिए कुछ न कुछ काम था. द्वारपाल बोला, ये नगर भी वैसा ही है भाई. आओ! तुम्हारा स्वागत है.

ठीक ही तो है, हमें वही तो मिलेगा जो हम ढूंढ़ रहे है और रही बात प्रकृति की तो वह हर हालत में हमारा ही साथ देगी. यदि हम असंतुष्ट है यानि हमारा सारा ध्यान जीवन में जो कुछ नहीं मिला पर लगा है तो प्रकृति भी हमारे साथ मिलकर कोशिश करेगी की हमारा जीवन अभावों में गुजरे क्योंकि यही तो हम ढूंढ़ रहे थे. इसी पर तो हमारी दृष्टी थी. यदि हम संतुष्ट है तो प्रकृति भी ध्यान रखेगी कि जीवन में कुछ भी ऐसा न हो जो हमें असंतुष्ट कर दे. संतुष्टि तो एक भाव है अब यह हमारी इच्छा है कि हम इसे स्वाभाव बनते है या नहीं.

संतुष्टि कुछ हासिल कर लेने में नहीं वरन ' जो कुछ है वह पर्याप्त है ' की सोच से मिलती है लेकिन इसका आशय यह नहीं लगाना चाहिए की संतुष्टि का भाव हमें जीवन में आगे बढ़ने से रोकता है. संतुष्टि का भाव तो उलटा हमारी रचनात्मकता के पंख लगा देता है. अब हम कुछ भी करने या न करने का चुनाव संतुष्टि के दबाव में नहीं करते. यह अहसास कि कोई भी बहरी वस्तु हमें संतुष्ट नहीं कर सकती, हमारे निर्णयों को मुक्त कर देती है. इस तरह हम जीवन में अपने आपको कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण व सार्थक प्रयोजनों से जोड़ भी पाते है और उन्हें बेहतर तरीके से अंजाम भी दे पाते है. निश्चित रूप से इस तरह हमें पहले से कहीं बेहतर परिणाम मिलते है. अब परिणाम हमारी अभिव्यक्ति और परिचय होते है जो हमारे लिए वृहत्तर प्रयोजनों से जुड़ने कि प्रेरणा बनते है.

क्वांटम फिजिक्स भी कहती है कि कोई भी प्रयोग कभी शत-प्रतिशत निरपेक्ष हो ही नहीं सकता क्योंकि प्रयोगकर्ता की उपस्थिति मात्र प्रयोग को प्रभावित करती है. ठीक इसी तरह हमारा जीवन भी निरपेक्ष नहीं होता क्योंकि प्राणी-मात्र की चेतना जीवन के रसायन को प्रभावित कर अनुभवों को बदल देती है. जीवन की एक सी परिस्थितियों में भी अलग-अलग व्यक्ति को अलग-अलग अनुभव होते है. यदि जीवन के अनुभवों को अधिक सुखद और मीठा बनाना है तो वह सिर्फ और सिर्फ अपनी चेतना के स्तर को उठाकर ही संभव है.

एक दिन के लिए एक छोटा-सा अभ्यास आजमाएँ. तय करें की आज का दिन मैं, " मैं ठीक हूँ, मेरे पास पर्याप्त है " की सोच के साथ गुजारूँगा. सुबह पहले जब अपना चेहरा शीशे में देखें तो शीशे में दिख रहे व्यक्ति को पसंद करें. देखकर मुस्कुराएँ. जिस किसी से मिलें तो तय करें कि आपका ध्यान उनकी खूबियों पर रहेगा. आपका काम वही है जो आप जीवन में करना चाहते थे और आपके ग्राहक और संगी-साथी आपकी सफलता के हेतु है.

विश्वास मानिए एक दिन के अनुभव ही आपके जीवन को बदल कर रख देंगे. आप अच्छा महसूस करने लगेंगे और चीजें स्वतः ही आपके पक्ष में घटने लगेंगी. आपको अहसास होने लगेगा कि आपकेपास पर्याप्त नहीं, उससे भी कहीं ज्यादा है. 


( रविवार, ५ अगस्त को नवज्योति में ' स्वाभाव बना लें संतुष्टि को ' शीर्षक के साथ प्रकाशित )
आपका, 
राहुल....   


Friday 3 August 2012

सहज जीवन से ही सच्चा आनंद






आज मैं अपनी बात कि शुरुआत उन उक्तियों से कर रहा हूँ जिन्हें बचपन से आज तक मैं और आप  सुनते आ रहे है जैसे, ' कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है ',  ' जिन्दगी एक दौड़ है ', ' तपकर ही सोना निखरता है ', ' जिन्दगी इम्तिहान लेती है ', आदि-आदि.

उफ़! जिन्दगी नहीं हो गई सश्रम कारावास हो गया. एक मिनट रुकिए और सोचिए क्या हमें जीवन इसलिए मिला होगा? क्या आपको प्रकृति का कोई घटक, मनुष्य के अलावा, संघर्ष करते हुए दिखता है? पेड़-पौधे, नदियाँ-पहाड़, पक्षी-जानवर सभी अपनी सहजता से जीवन जी रहे है. उनके जीवन कि सहजता इतनी आनंददायी है कि जब भी हम इनके पास होते है सुकून महसूस करते है. रोजमर्रा के संघर्षों से थक जाते है तब अपने आपको इकट्ठा करने के लिए इन्ही कि शरण मैं जा पहुँचते है.

यही सच है. संघर्ष हमारी नियति नहीं हमारा दृष्टिकोण है. हमारी सोच है. जीवन मैं आनंद और सफलता संघर्ष से नहीं सहजता से ही संभव है. संघर्ष तो शब्द ही नकारात्मक है. संघर्ष यानि किसी काम के हो पाने पर संदेह होना और इसलिए अतिरिक्त कठिन प्रयासों कि जरुरत महसूस करना जबकि सहजता की सकारात्मकता तो अपनी क्षमताओं की स्वीकार्यता मैं ही निहित है.

यदि हमें अपने जीवन से संघर्ष से निजात पानी है तो नजरिया बदलना होगा. सबसे पहले तो हम कोई काम करें या न करें इसका पैमाना हमारे अंतर्मन की आवाज़ होनी चाहिए. यदि ऐसा है तो हम में वो सब है जो उस काम की सफलता के लिए आवश्यक है. यदि ऐसा कोई काम पूरे प्रयासों के बाद भी नहीं हो पा रहा है तो हम उसी तरह से ज्यादा मेहनत करने की बजाय यह देखें कि यह और कैसे हो सकता है. तरीकों में बदलाव को आजमायें. उसी स्थिति को दूसरे कोण से देखने कि कोशिश करें. आपकी सोच-समझ से उस स्थिति का कोई पहलू छूट तो नहीं रहा है. नजरिये में यह बदलाव संघर्ष को सहज बना देगा.

सहजता को सही आशय में समझना भी उतना ही जरुरी है. सहजता का मतलब अनचाही और मुश्किल स्थितियों से मुहँ चुराना नहीं है. ऐसी किसी भी स्थिति को हम टाल सकते है, भाग नहीं सकते. जब इनसे दुबारा सामना होता है तो ये पहले से कहीं ज्यादा विषम रूप ले चूकी होती है. इन स्थितियों को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते हुए पूरी दृढ़ता से इनका सामना करना ही सहजता है.

सहजता आलस्य भी नहीं है. संघर्ष से हमारा प्रेम इतना गहरा है कि हमें लगता है जीने की सहजता हमें आलसी बना देगी. संघर्ष भविष्य में सुख की दिलासा दिलाता है और वर्तमान की तकलीफों को अनिवार्य मानते हुए स्वीकार करता है जबकि सहजता सिर्फ इस क्षण की बात करती है. इस क्षण में बेहतर क्या किया जा सकता है और इसे भरपूर जिया जा सकता है यही जीवन की सहजता है.

बच्चे जब चलना सीख रहे होते है तब वे उठने और चलने की कोशिश में बार-बार गिरते है. गिरना, फिर उठना, फिर थोडा चलना, फिर गिरना उनके लिए खेल है न की संघर्ष. वे गिरकर असफल नहीं चलकर सफल नहीं. उनके लिए तो पूरा प्रयोजन ही आनंद है, एक मजेदार खेल. इसी तरह जीवन के सारे काम हमारे लिए मजेदार खेल हों. खेल मुश्किल हो सकता है, थका भी सकता है लेकिन तकलीफ कभी नहीं देगा. जीवन की यही सहजता हमें आनंद देगी.


( दैनिक नवज्योति में रविवार, २९ जुलाई को प्रकाशित )

आपका,
राहुल.......