Thursday 23 August 2012

वैचारिक स्वतंत्रता एवम स्वावलम्बन




कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूंढे बन माँहि !
ऐसे घट  में पीव है , दुनियाँ देखै नाँहि !!
                                             -- कबीर 

आज हम जीवन के हर सवाल के लिए निर्भर है. हमारा परिचय, हमारी संभावनाएँ और जीने का ढंग, हमें कोई और बताता है. हम जीवन में क्या कर सकते है, हमें कैसे जीना चाहिए यहाँ तक की हमारे जीवन उद्देश्य क्या हों, इसके लिए भी हम दूसरों पर निर्भर हैं. 

जो बात सलाह से शुरू हुई थी वह नियंत्रण पर जा पहुँची. सलाह लेने में कोई बुराई नहीं. सलाह हमारा ध्यान विषय के छूट रहे पक्ष की ओर आकर्षित कर हमारे निर्णयों को सम्पूर्णता देती है लेकिन सलाह लेते-लेते हम भूल गए कि यह बैसाखी है पैर नहीं. हमने यह बिसरा दिया कि हमारे सवालों के जवाब सिर्फ और सिर्फ हमारे पास है; कोई दूसरा तो केवल हमारी सोचने कि प्रक्रिया में मदद भर कर सकता है. हम पूरी तरह से जीवन की हर दुविधा के लिए बाहरी स्रोतों पर निर्भर होने लगे और आज हमारी हालत एक तरह से गुलामों-सी हो गई है.

जिस तरह एक बीज में वो सारी समझ होती है जो एक वृक्ष के लिए जरुरी है उसी तरह हमें उन सब सवालों के जवाब पता है जिनका सामना हमें अपने जीवन में करना है. बस जरुरत है तो उन्हें सही जगह ढूंढने की. बैसाखी से ज्यादा पैरों पर विश्वास करने की. बाहर की बजाय अन्दर झांकने की. जानकारियों से ज्यादा समझ पर ऐतबार करने की. ज्ञान और प्रज्ञा में भेद करने की. 

आज हमारा जीवन चाही-अनचाही जानकारियों से ठसाठस है. इनमें सबसे बड़ी भूमिका टी.वी. और इंटरनेट की है. ये जबरदस्ती की लादी हुई सूचनाएँ हमारे जीवन की जटिलताओं को बढ़ाने का ही कम कर रही है. हर कोई जैसे किसी और की तरह होने की दौड़ में शामिल हुआ लगता है. सूचनाओं और जानकारियों, जिन्हें हम ज्ञान कहते है के बीच हमने अपनी नैसर्गिक समझ यानि प्रज्ञा को भूला-सा दिया है. ज्ञान श्रेष्ठ लेकिन सर्वोच्चता प्रज्ञा की है और रहेगी.

हमारी जीवन-शैली के साथ-साथ हमारा लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा भी इसके बराबर की जिम्मेदार है. हमने जीवन के सारे छोटे-बड़े सवालों के जवाब तय कर रखे है और जब भी कोई इससे उलट सोचता है तो हम उसे बेवकूफ करार सुधारने में जुट जाते है. स्कूल के पहले दिन से शुरू हो जाने वाली यह प्रक्रिया जीवन भर चलती है. एक बच्चे से यह उम्मीद की जाती है कि सबसे मीठी बोली वाले पक्षी के जवाब में वह कोयल ही लिखें चाहे उसे मोर कि आवाज़ कितनी ही अच्छी क्यूँ न लगती हो.

आज हम सब भ्रमित है और दिशा के लिए बाहर देख रहे है जबकि रूककर हमें अन्दर झांकना होगा. ऐसी कोई बात नहीं जो हमें जाननी हो या जाननी चाहिए और हमें मालूम न हो. गौर करें कि हम आज तक सिर्फ उन मशीनों को ईजाद कर पाए जिनकी क्षमताएँ हमारे अन्दर पहले से मौजूद थी. चलिए कुछ उदाहरण, महाभारत में संजय राजदरबार में बैठे धृतराष्ट्र को युद्ध का आँखों देखा हाल सुना रहे थे इसलिए हम टेली-विजन बना पाए, द्रौपदी ने कृष्ण को याद किया और चीर बढ़ गया इसीलिए हम मोबाईल, ई-मेल बना पाए आदि-आदि. ऐसी सारी क्षमताएँ हम में थी लेकिन हमने अपने अंतस से नाता तोड़ उन्हें भूला दिया. वास्तव में ये मशीनें अप्रत्यक्ष रूप से याद दिलाती है कि हम में कितनी और क्या-क्या क्षमताएँ थी.

मैं आप सभी को स्वतंत्रता-दिवस की बधाई देते हुए इस पावन मौके पर वैचारिक आत्म-निर्भरता और स्वावलम्बन का आह्वान करता हूँ. अपना भाग्य-विधाता बनना है तो स्वयं पर विश्वास करना होगा और यही सच्चे अर्थों में सम्पूर्ण स्वतंत्रता होगी. 
                                                                                                                                                                           
                                                                                                                                                              जय-हिंद 
आपका
राहुल... 

(रविवार, १९ अगस्त को नवज्योति में प्रकाशित)
(इटेलिक्स मैं लिखे के अलावा) 

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