Tuesday 31 July 2018

प्रस्तुति से पहले





प्रेस क्लब में वरिष्ठ साहित्यकार श्री असगर वजाहत साहब के साथ साहित्य-संवाद था। एक ही दिन पहले उनकी चुनिन्दा रचनाओं के संकलन 'हिन्दू पानी-मुस्लिम पानी' का लोकार्पण हुआ था। ऐसे व्यक्ति को सुनना सचमुच एक अनुभव था, फिर समय आया श्रोताओं की जिज्ञासाओं का। बात होने लगी उनके नाटक 'जिन लाहौर नई देख्या ओ जनम्या ही नइ' की, और इसी सन्दर्भ में किसी ने पूछा कि आजकल कला की हर विधा की तरफ लोगों का रुझान कम हो रहा है, ऐसे में नाटक देखने कौन आता है भला? वे कहने लगे में भी थिएटर से जुड़ा हूँ ऐसे में आप ही बताइए, "हम क्या कर सकते हैं कि लोगों को वापस थियेटर की ओर खींचा जा सके।"

बात तो सही थी, आजकल हमारा सारा समय तो टी.वी. और मोबाइल खा जाते हैं, ऐसे में थियेटर! और जब नाटक खेले ही नहीं जायेंगे तो उन्हें लिखेगा कौन! इस बात को तो मैंने भी महसूस किया था। किसी भी किताबों की दुकान में चले जाओ, जो मिलती ही बड़ी मुश्किल से है और मिल भी जाए तो कहानियों, उपन्यासों और दूसरी किताबों के ढेर के बीच इक्का-दुक्का ही नाटक पड़े मिलेंगे, वे भी पुराने-प्रसिद्ध। 

असगर साहब कुछ क्षणों के लिए तो चुप्प हो गए फिर उन्हीं महाशय से पूछने लगे, "आप नाटक करते हैं तो क्या लोगों को पूछकर करते हैं कि वे आएँगे या नहीं।" 
अब सकपकाने की बारी उनकी थी। 
असगर साहब उन्हें आसान करते हुए कहने लगे, आप मेरे कहने का मतलब समझे नहीं। हम कला से जुड़े लोगों की यही मुश्किल है कि प्रस्तुति से पहले हम लोगों को जोड़ते नहीं। उनमें हमारे काम के प्रति कोई उत्सुकता पैदा नहीं करते, ऐसे में उन्हें हमारे बारे में पता ही क्या चलेगा और चल भी गया तो कौन सी बात उन्हें खींच कर लाएगी?यदि आपको अपनी किसी प्रस्तुति, किसी रचना को लोगों तक पहुँचाना हो तो पहले उससे, अपने आप से लोगों को जोड़ना होगा।

मुझे लगा जैसे उस समय मैं किसी 'आर्ट मार्केटिंग एक्सपर्ट' से बात कर रहा हूँ। कितनी सही बात कह रहे थे वे! हमें कुछ भी बेचना हो तो हम पब्लिसिटी का सहारा लेते हैं तो जब बात कला की किसी विधा की आती है तो इससे इतना कतराते क्यूँ हैं? 
"क्योंकि कला एक साधना है, एक तपस्या और इसलिए इतनी ही पवित्र जबकि बेचने के लिए निकलना तो झूठ का सहारा लेना है।" 
मुझे लगता है ये धारणा ही हमारी समस्या है। झूठ से हमारी चिढ़ वाजिब है तो इसे नकारें, प्रचार को क्यूँ? क्या सच्चाई के साथ प्रचार नहीं किया जा सकता? 
बिल्कुल किया जा सकता है जैसे आन्दोलनों का, सत्याग्रहों का किया जाता है। 
तो कला का क्यों नहीं?

तो जो मैं समझा वो ये कि प्रचार उतना ही अहम् है जितना पावन हमारा कला धर्म। कला की सार्थकता और सम्पूर्णता तब ही हैं जब तक वो उसके प्रेमियों तक पहुँचे इसलिए जरुरी है अपनी प्रस्तुति से पहले लोगों को जोड़ना और इससे परहेज करना अपने साथ ही नहीं अपने काम के साथ भी अन्याय करना होगा।  

(दैनिक नवज्योति; रविवार, 15 जुलाई 2018)