Monday 11 May 2015

पिक्चर अभी बाकि है मेरे दोस्त!



ऐसी कहानी मेरे सामने पहली बार आयी थी, बिल्कुल अद्भुत। एक परफेक्ट उदाहरण मुश्किलों से अपने आपको उबारने का। बात है सिंगापुर की क्रिस्टल की जिसकी दुनिया सुर और ताल है और एक अच्छी गायिका बनना उसकी मंजिल। पर दो साल पहले एक सुबह वो उठी तो न जाने क्या हुआ उसके गले से आवाज ही नहीं निकल रही थी। सोयी तब तक तो सब ठीक था, उसे कुछ समझ नहीं आया। वो डॉक्टर के पास भागी और जो कुछ सुना वो उसकी दुनिया को तहस-नहस करने के लिए काफी था। लाखों में किसी एक के साथ ऐसा होता होगा जब आवाज की नली यूँ अचानक बेवजह सिकुड़ जाती है। इसका कोई इलाज नहीं, आवाज आनी हो तो किसी दिन ये नली बेवजह वैसे ही फैल भी जाती है। जब उम्मीद ही न हो तो व्यक्ति का टूटना लाजमी है। दिन-ब-दिन वो अकेली होने लगी, अवसाद से घिरने लगी थी कि दो साल बाद वैसे ही आवाज ने फिर गले पर दस्तक दी। उसे आवाज तो क्या कहेंगे बस हल्की-सी फुसफुसाहट भर थी पर हाँ, उसने क्रिस्टल के मन में उम्मीद का दीया जरूर रौशन कर दिया था। 

डॉक्टर्स और दूसरे लोगों का मानना था कि इसका यह कतई मतलब नहीं था कि वो कभी पहले की तरह गा पाएगी लेकिन क्रिस्टल को कुदरत पर शक करने की बजाय साथ निभाना ज्यादा ठीक लगा। उसे कोई कारण नजर नहीं आता था कि जब इतनी आ सकती है तो पूरी क्यों नहीं आ सकती। उम्मीद के दीये को जलता रखने उसने अपने लिए एक गीत लिखा। गीत के बोल भी हौसला रखने की ही बात करते थे, और वो रोज ये गीत अपने लिए गाती, अपने को सुनाती। धीरे-धीरे अपना ही गीत सुन-सुन उसका विश्वास पक्का हो गया कि उसकी आवाज तो लौटेगी ही, बस इस दौर से गुजरना भर है, और सच ऐसा ही हुआ। वो फिर गाने लगी, बिलकुल पहले की ही तरह। उनकी ये कहानी सुन मुझे गीता के छठें अध्याय का पाँचवा, अपना पसंदीदा श्लोक याद हो आया जिसका भावार्थ है,- आप ही अपना सहारा बनिए, आप ही अपने को उठाइए। अपने आप को दोष मत दीजिए क्योंकि आप ही अपने मित्र हैं और आप ही अपने दुश्मन। 

ये संयोग तो नहीं होगा, निश्चित ही प्रकृति मुझे इसके अर्थों में गहरे उतारना चाहती थी कि उसी शाम को टी.वी. ऑन करते ही देखा जावेद अख्तर साहब 'दोहे मोहे सोहे' में फैज अहमद फैज का एक बहुत खूबसूरत शेर समझा रहे थे। शेर कुछ यूँ था,-
दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है 
लम्बी है गम की शाम मगर, शाम ही तो है 
अब आप शेर की बारीकी देखिए, नाकाम होना सफर का हिस्सा है, एक पड़ाव है। असफलता हार नहीं होती। ये बस शाम की तरह होती है जिसके बाद सुबह का आना तय होता है। किसी लम्बी उदास शाम की तरह नाकामी का, असफलता का दौर चाहे जितनी देर रहे आखिर उसे ढलना ही होता है, खत्म होना ही पड़ता है। हारता व्यक्ति तब है जब वो अपनी उम्मीद खो देता है, जब वो रुक जाता है। जब तक आप खेलते है जीतने की सम्भावना बनी रहती है लेकिन यदि आप खेलना बन्द कर दें तो फिर आपको हार से कोई नहीं बचा सकता। और फिर जिन्दगी तो ऐसा खेल है जिसमें रेफरी प्रकृति आपकी तरफ है, वो खेल के खत्म होने की सीटी तब तक नहीं बजाती जब तक आप जीत न जाएँ बशर्ते आप खेलते रहें। 

क्रिस्टल नाकाम हुई थी पर नाउम्मीद नहीं थी। उम्मीद का दीया रौशन कुदरत ने किया तो जिलाये उसने रखा। अपना सहारा खुद बनी, अपने लिए लिखा, अपने लिए गाया, अपने से अपने को उठाया। इस कहानी का सामने आना, फिर गीता का श्लोक जेहन में घूमना और उस पर फैज साहब का शेर यही समझा रहे थे कि चाहे जो हो जाए, हमें उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना है। उम्मीद जिन्दा है तो पिक्चर अभी बाकि है मेरे दोस्त।