Monday 31 October 2011

Deepawali

दीपावली पर दिल से ढेरों शुभकामनायें.

दीपावली यानि दीपों कि अवली यानि दीपों कि पंक्ति. दीपावली अमावास के दिन आती है. अमावास जो अन्धकार का प्रतीक है. अन्धकार जिसका नाम आते ही डर और निराशा ध्यान आते है लेकिन दीपों कि रोशनी इस अमावास को ऐसा बना देती है कि पूर्णिमा भी लजा जाए.

दीपावली का यह पावन त्यौहार रूपक है हमें वापस याद दिलाने के लिए कि हमें अपने मन के अन्धकार को मिटाने  के लिए भी जागृति (Awareness) का दीपक लगाना होगा. अन्धकार चाहे कितना ही घना क्यूँ न हो,कितना ही फैला क्यूँ न हो बस रोशनी कि एक किरण ही काफी होती है.

और फिर जीवन - पथ  के हर पायदान पर हम जागृति का दीपक लगाते जाएँ हमारा हर दिन खुशियों की रोशनी से भर जाएगा.
यही ईश्वर से मेरी प्रार्थना है.

उत्सव मनाने के लिए अवकाश चाहिए, मुझे भी अगले सप्ताहांत की अनुमति दे. चलिए, फिर हम अपने क्रम को इसी विषय से पुनः शुरू करेंगे की जीवन में  अवकाश क्यों और कितना जरुरी है.

आपका
राहुल.....

Monday 24 October 2011

We Are Enough


मैंने पिछले कुछ दोनों से अपनी ही एक ऐसी आदत को पकड़ा है जो मुझे ही बहुत परेशान किए रखती है. मैंने पाया कि में कुछ भी करता हूँ तो दिमाग के एक कोने से आवाज़ आती है कुछ कमी रह गयी, थोडा और कर लेते या ऐसे नहीं वैसे कर लेते तो ठीक रहता.

मैंने महसूस किया कि मेरी यह आदत मुझे कभी अपने किए का आनंद उठाने नहीं देती थी. मैंने जब यह बात अपने दोस्तों से साझा कि तो अधिकतर का यह मत था कि ऐसा ही होना चाहिए क्योंकि मन कि असंतुष्टि हमें  आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा देती है. ये हुई दुविधा. क्या आगे बढ़ने के लिए असंतुष्ट बने रहना ज़रूरी है?  क्या स्वयं को कमतर महसूस कर हम अपने व्यक्तित्व को सुंदर बना सकते है?

मेरे मन में सवालों कि यह रेलगाड़ी चली तो मैंने अपने काम - व्यवहार को समग्रता से देखने कि कोशिश की और तब पाया कि ऐसे बहुत से लोग है जो मुझे पसंद करते है मैंने इन लोगो कि सूची बनाई तो पाया कि मेरे दृष्टिकोण को नकारने वालों कि संख्या तो दो- चार ही है जबकि सराहने वालों कि कहीं अधिक. इस बात ने मेरे अंतस को शांति से भर दिया.

वास्तव में हम अपना मूल्यांकन दूसरों के तय किए मापदंडो पर करते है लेकिन यह भूल जाते है कि हमारे जीने का अंदाज़ अलग होना स्वाभाविक है. शायद ईश्वर ने हम सभी  को अलग - अलग चेहरे यही बात याद दिलाने के लिए दिए है.

कुछ हद तक हमारी पारंपरिक परवरिश भी इसके लिए जिम्मेदार है. सामान्यतया हम सब ही अपने बच्चों को यह तो बताते है कि क्या गलत है और क्या सही लेकिन कभी उनके मन में क्यों का जवाब नहीं देते. यह भी  तब जब बच्चे कुछ कर चुके होते है. यही से नींव पड़ती  है इस आदत की कि हमारे काम का मूल्यांकन काम करने के बाद कोई और करेगा. इससे अनजाने ही हम किसी काम को करने के बाद संदेह कि निगाह से देखने लगते है कि हमने ठीक किया या नहीं.

धीरे- धीरे हमारा जीवन 'चाहिए शब्द {may, might, could, would, must} चलाने लगता है और इस तरह हम असंतुष्ट रहने लगते है.
जब हम अपनी ज़िन्दगी के निर्णय स्वयं लेने लगते है तब भी अपना मूल्यांकन दूसरो के मापदंडो के आधार पर क्यों करते है? क्यों नहीं अपने मूल स्वभाव पर लौट आते? वो इसलिए क्योंकिं प्रेम हमारी प्रकृति है और इस आदत कि जड़ प्रेम पाने कि लालसा में है, जिनसे हम प्रेम करते है उनकी नज़रों में स्वीकार्य होने कि इच्छा में है. कोई हमें सम्पूर्णता से स्वीकारे इसके लिए सबसे पहले हमें अपनी सम्पूर्णता को स्वीकारना होगा.

हम अपने जैसे ही हो सकते है किसी और के जैसे नहीं इसलिए हम अपने काम को अपने स्वभाव के पैमाने पर मापें.

निस्संदेह हम अपने आलोचकों कि सुने, उन्हें  अपनी कसौटी पर समय, काल और परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य  में कसे  और फिर सही पाए तो ज़रूर अपनाए और अपने इस गुण को भी अपनी सम्पूर्णता का हिस्सा माने.

संतुष्ट जीवन कि मंगल कामनाओ के साथ,

आपका

राहुल ............

Monday 17 October 2011

Violence - Last resort

हमारे देश के स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास ने मुझे शुरू से ही उद्वेलित किया है. हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन कि मुख्य धारा अहिंसात्मक थी जिसका नेतृत्व किया था हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने. स्कूल के शुरूआती सालों में मुझे स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास किसी चमत्कार से कम नहीं लगता था लेकिन फिर जैसे जैसे बालगंगाधर तिलक, सुभाष चन्द्र बोस, लाला लाजपतराय  कि आन्दोलन में भूमिका को पढ़ा जहाँ में उलझन बढ़ती चली गई.

निश्चित रूप से गांधीजी का अहिंसात्मक आन्दोलन और उसके परिणाम किसी चमत्कार से कम नहीं है और किस तरह अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों के लिए अहिंसात्मक तरीके से लड़ कर इन्हें हासिल किया जा सकता है इसका जीवंत उदाहरण है गाँधी-दर्शन और हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास.

मेरी उलझन न तो यह हे कि अपनी स्वतंत्रता में किस कि भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण थी या कौन सा रास्ता ज्यादा सही था बल्कि मेरी उलझन तो यह है कि अपनी स्वतंत्रता और जीने के मूल अधिकारों कि रक्षा करने के लिए अहिंसात्मक रास्ते पर चलते-चलते क्या जीवन में कई बार हम उस बिंदु पर नहीं पहुँच जाते जहां हिंसा जिसे युद्ध कहना चाहिए एकमात्र रास्ता बच जाता है ? क्या हमें इस बिंदु पर पहुंचकर भी अहिंसात्मक बने रहना चाहिए चाहें कोई व्यक्ति या व्यवस्था अपने फायदे के लिए हमारी स्वतंत्रता और अधिकारों का हनन करे या हमारे विचारों और सिद्धांतों को हमारी कमजोरी समझे ?

मुझे सुलझन का सिरा मिला शरीर-विज्ञानं में. शरीर कि किसी व्याधि का उपचार मेडिसिन से हो या सर्जरी से इसका निर्णय डॉक्टर इस आधार पर करता है कि शरीर का वो हिस्सा पुनर्जाग्रत होने कि स्थिति में है या नहीं. बस बिलकुल इसी तरह यदि कोई व्यक्ति या व्यवस्था अहिंसा के सारे रास्ते अपनाने के बाद भी हमारी स्वतंत्रता और जीने के मूल अधिकारों पर अतिक्रमण करें या जान बूझकर अपने फायदे के लिए विलम्बित करें तो फिर उसका नष्ट हो जाना ही शुभकर है.

हिंसा के इस रचनात्मक उपयोग में डर सिर्फ इस बात का लगा रहता है कि यह कठोर अनुशासन और ऊँचे दर्जे का विवेक मांगती हैं. किसी भी व्यक्ति या व्यवस्था को नष्ट करना या होने देना तब ही शुभकर हो सकता है जब कि उसका नष्ट हो जाना शेष समाज को बचाने के लिए अंतिम विकल्प हो.

गीता ने इसे धर्मयुद्ध कहा है. धर्मयुद्ध न तो हार-जीत के लिए लड़ा जाता है और न ही किसी व्यक्ति-विशेष के खिलाफ; इसका  उद्देश्य तो उन धारणाओं और व्यवस्थाओं को बदलना होता है जो हमारी स्वतंत्रता और जीने के मूल अधिकारों का हनन कर रही होती है.

यानि किसी व्यक्ति, वस्तु,  स्थिति या विचार को नष्ट न होने देना चाहे  उससे सम्पूर्ण समाज संक्रमित हो जाये कभी उचित नहीं हो सकता. समाज को संक्रमित होने से बचाने के लिए अंतिम विकल्प के रूप में कि गई हिंसा भी अनुचित नहीं हो सकती.

जियो और जीने दो कि इसी भावना के साथ ;
आपका
राहुल.....

Monday 10 October 2011

Ego is essential

दुनिया में कुछ भी अपनी सम्पूर्णता में अच्छा या बुरा नहीं होता. अहम् के बारे में भी मेरा ऐसा ही मानना है. हमारा जीवन हमारे द्वारा किए गए चुनावों का नतीजा होता है. इस क्षण में हम क्या करने का चुनाव करते है यह ही निश्चित करता है कि अगले क्षण के लिए प्रकृति हमें चुनाव के लिए क्या-क्या विकल्प देगी. यही जीवन है.
इस क्षण को हम कैसे जियेंगे इसका निर्णय हमें अंतरात्मा कि आवाज़ पर करना होगा. अंतरात्मा कि आवाज़ जिसे हम मन कि इच्छा, inner calling, intution, दिल कि आवाज़ जैसे नामों से पुकारते है.

एक ही क्षण में, समान परिस्थितियों में एक बच्चा फुटबॉल खेलना चाहता है तो दूसरा कोई पहेली सुलझाना चाहता है. दोनों ही बच्चों के निर्णय न तो सही है न गलत बस अपने-अपने है. दोनों ने ही वो किया जो उनका मन किया और वह ही दोनों के लिए ठीक भी है.
हमारे लिए क्या ठीक है यही स्व को पहचानना है एवं स्व कि पहचान ही तो हमारा अहम् है, यानि अहम् उतना भर जरुरी है जिससे हम इस क्षण को कैसे जियें इसके लिए उपलब्ध विकल्पों को जानकार उनका विश्लेषण कर सकें तब ही तो हम यह तय कर पाएंगे कि इस क्षण को जीने का कौनसा अंदाज़ हमें सच्चे अर्थों में अभिव्यक्त करेगा.

अहम् स्व कि पहचान (self-knowing) है यह अहंकार  (false-self)  में नहीं बदलना चाहिए; जैसा कि सामान्यता हो जाता है और हम अपनी और अपनों कि जिन्दगी खराब कर लेते है. हम परमात्मा कि स्वतंत्र भौतिक अभिव्यक्ति है और यही हमारी पहचान है, न कि हमारी सांसारिक उपलब्धियाँ. अभिव्यक्ति कि इस स्वतंत्रता और निजता को बनाए रखना ही हमारा अहम् है और उतना ही जरुरी भी. अहम् कि भावना जैसे ही बढ़ती है यानि जैसे ही हम अपनी पहचान सांसारिक उपलब्धियों से बनाने लगते है हमारा यही गुण हमारे लिए विनाशकारी हो जाता है.

हम अपनी और अपनों कि निजता का सम्मान करें और जिन्दगी के हर क्षण को अपनी सुगंध से भर पायें ; दिल से इन्ही शुभकामनाओं के साथ,

आपका
राहुल.....

Sunday 2 October 2011

Let us be touched by life

जिन्दगी का अर्थ ही अनुभूति और अभिव्यक्ति है या यों कह लें जिन्दगी के हर लम्हे को महसूस करना और उसे अपने अंदाज़ में जीना; तब भी जब समय हमारी इच्छाओं के अनुरूप हो और तब भी जब समय विपरीत हो. दुनिया में शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जिसके जीवन में ऐसा समय न आया हो जब उसने सोचा न हो कि 'अब क्या होगा?' ' अब कैसे होगा?' जब उसे लगा हो कि जीवन ठहर सा गया है. जब उसे जीवन के उस पार दिखाई ही न दे.

जिन्दगी में कुछ  दुःख ऐसे होते हैं जिन पर हमारा कोई बस नहीं चलता और कुछ मुश्किलें ऐसी होती है जो हमें उन पहलुओं कि तरफ इशारा कर रही होती हैं जिन्हें हम  जाने-अनजाने अनदेखा कर रहे होते है. चाहे जो भी हो मुश्किलों से गुजरकर ही और दुःख में भीगकर ही जीवन के उस पार जाया जा सकता है. हर दुःख और हर मुश्किल हमें वो पाठ  पढ़ाने को आती है जिन्हें सिखाने के लिए हमने जिंदगी कि इस पाठशाला में प्रवेश लिया है.



मेरे जीवन  कि दूसरी बड़ी दुखद घटना जब अचानक से मम्मी चल बसी. रात के ११ बजे  का समय था. सब रिश्तेदार इकठ्ठा हो रहे थे लेकिन में सकपकाया था;कुछ भी समझ नहीं पा रहा था कि क्या हुआ. दो-तीन घंटे  लगे मुझे  स्थिति को स्वीकार करने में और तब मेरी रुलाई फूटने लगी. मैं उन क्षणों को उनकी गहराई से महसूस करने लगा और मेरा मन रोकर उनको व्यक्त कर देना चाहता था लेकिन जैसे ही मैं रोने को होता मेरे एक रिश्तेदार 'हिम्मत रखो' , 'आपको ही संभालना है.' कहकर चुप करा देते. आज भी व क्षण कुछ ठहरे से लगते है. आज भी लगता है कि दिल के किसी कोने में  कुछ  अव्यक्त सा पड़ा है.

दुःख और मुश्किलों से हम जितना भागते है उतना ही वे हमारा पीछा करती है और जैसे ही हम उनका सामना करते है वे हमें जीना  सिखाने लगती है. जितनी नाजुक ये संवेदनाएं है उतनी ही सावधानी इन्हें सँभालने में बरतनी पड़ेगी. हमें हर हाल में सचेत रहना है कि हम न तो अपने दुःख और मुश्किलों का कारण किसी व्यक्ति-परिस्थिति में ढूंढें  और न ही इससे अपनी कोई छवि ही  गढ़ लें. हमारा अहम् हमें इस दौरान बार-बार इस रास्ते पर ले जाने कि कोशिश करेगा लेकिन हमें अपने आपको रोकना होगा. अनुभूति की गहराई  और अभिव्यक्ति कि सच्चाई ही जीवन को सार्थक बनाएगी.

जीने कि कला संवेदनाओं से पीछा छुड़ाने में नहीं है अपितु अपने हर पहलु का जिन्दगी के साथ तारतम्य बिठा कर अपनी विशिष्टता पर आनंदित होने में है.
हम इस जीवन को इसकी सम्पूर्णता के साथ जी पायें; इन्ही शुभकामनाओं के साथ.

आपका
राहुल.....