Friday 13 June 2014

पार्टी विद द भूतनाथ






एक फिल्म देखी थी, 'भूतनाथ' ; पुरानी वाली। इसका एक दृश्य रह-रहकर मेरे जेहन में कौंधता रहा है। फिल्म में केंद्रीय पात्र कैलाशनाथ एक भूत हैं जिनके घर में एक नौ-दस वर्षीय नटखट बंकू और उसका परिवार किराए पर रहने आते हैं। बंकू के पिता नेवी में काम करते हैं इसलिए विदेश यात्रा पर हैं। घर में बचे; बंकू, उसकी मम्मी और कैलाशनाथ। कैलाशनाथ नहीं चाहते कि उनके घर में कोई और रहे इसलिए पहले ही दिन से वे उन्हें डराने की कोशिश करते है लेकिन हो इसका उलटा जाता है। बंकू उनके दिल में बस जाता है, वे उसे अपने पोते की तरह प्यार करने लगते है; इतना कि वे तय कर लेते हैं कि अब बंकू यहीं रहेगा, कहीं नहीं जाएगा और कहानी आगे बढने लगती है ........... ।

जिस दृश्य की मैं बात कर रहा हूँ, वो कुछ इस तरह है कि बंकू का पैर सीढ़ियों पर से फिसल जाता है। उस समय कैलाशनाथ उसके साथ होते है। वे उसे थामने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाते है, उनका हाथ वहाँ तक पहुँच भी जाता है लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाते। वे भूत जो ठहरे, उनका होना-उनकी आकृति महज आभासी होती है। सामने होते हुए कुछ न कर पाने की विवशता। यह विवशता-यह असहायपन इतना बखूबी कैलाशनाथ के चेहरे पर आता है कि दृश्य से जुड़ जाओ तो आपको अंदर तक झकझोर देता है। मुझे लगा, हर किसी के जीवन में ऐसे क्षण जरूर आते है जिनका अफ़सोस ता-जिंदगी बना रहता है कि काश! मैं कुछ कर पाता।

यह अहसास जब गहरे उतरा तो लगा कि साधारण सी दिखने वाली बात कितनी असाधारण थी। हम अपने मूल स्वरुप में भूतनाथ की तरह ही होंगे। हमारी कोई इच्छा ही रही होगी जो इतनी घनीभूत हो गई कि उसने भौतिक आकार ले लिया वैसे ही जैसे मीठा पानी धागे से लिपट मिसरी बन जाता है। यही वजह रही होगी हमारे होने की, मानव के जन्म की जिसे हर धर्म और अध्यात्म ने अलग-अलग तरीकों से यह कह कर पुष्ट किया है कि प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है और वह कुछ विशेष करने आता जिसे उसके सिवाय कोई नहीं कर सकता।

प्रश्न उठता है, क्या हम उस इच्छा-उस भावना के प्रति सजग है? क्या हमने कभी जानने की कोशिश की है कि वो कौन-सी बात है जिसे करने मैं आया हूँ? कौन-सी ऐसी बात है जिसे  अपनी आँखों के सामने होते या नहीं होते नहीं देख सकता? क्या है जो मैं कहना चाहता हूँ? ऐसे ही प्रश्नों से मुठभेड़ ने फिल्म के उस दृश्य को इतने वर्षों तक मेरे जेहन में जिन्दा रखा। मुझे लगता है हम में से अधिकांश लोगों की हालत उस भुलक्कड़ व्यक्ति जैसी है जो अपने घर से कुछ सामान लेने निकलता है और कहीं भूल न जाए इसलिए रास्ते भर दोहराता है। रास्ते में दो-तीन परिचित उसे टोक देते है और जब वो दुकान पहुँचता है वो सामान क्या से क्या हो चुका होता है। दूसरों को देख, उनकी राय सुन या सुख-सुविधाओं के लालच की टोका-टोकी के चलते यह बिसरा बैठे है कि हम यहां आए किसलिए थे? 

मुझे मालूम है, आप क्या कह रहे है? यही ना, कि कहने-सुनने में ये बात ठीक लगती है लेकिन मालूम कैसे चले कि व्यक्ति यहाँ आया क्यों है? ये मुश्किल वास्तव में जितनी बड़ी दिखती है उतनी है नहीं। आप बस इस टोका-टोकी से अपने आपको अलग कर लीजिए। सुनिए सबकी करिये अपने मन की; अपने अंतर्मन की। आप जैसे-जैसे अपनी सुनने की कोशिश करने लगेंगे, आपके सामने साफ़ होता चला जाएगा, उस भूतनाथ की ही तरह कि कौन-सा ऐसा काम है जिसे आप अपने सामने होते या नहीं होते नहीं देख सकते और तब आपको जीवन का मक़सद मिल जाएगा, जीने का सच्चा आनन्द आने लगेगा। 
सो, लेट्स पार्टी विद द भूतनाथ एण्ड एन्जॉय योरसेल्फ।

 

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 8 जून को कॉलम 'सेकंड सन्डे' में प्रकाशित) 
राहुल हेमराज